टोपी आम आदमी की... / सुशील यादव
टोपी के बारे में मेरी बचपन से कई अच्छी धारणायें थी| गांधी जी के अनुमार्गी होने की वजह से मेरे पिता के पहनावे में ये,जवाहर कोट के साथ शामिल जो था|वे जब भी घर लौटते, हम भाई –बहनों में टोपी लेने की जंग छिड़ जाती|भले ही मिनटों –सेकण्डो कि लिए सही, टोपी जो हाथ लगती, मन खिल उठता|माँ टोपी के गंदे हो जाने केbhy भय से ,जतन से उसे खूंटी पर टांग देती|हम बापू की टोपी के, गांधी फेम के बगल में , टंग जाने के बाद अपने –अपने खेल में खो जाते|
टोपी में जाने क्या-क्या संस्कार थे,बरसों हम उन संस्कारों से बंधे रहे|हमारी शालीनता शादी होने के बाद पत्नी के तानों से ज़रा छिन्न-भिन्न हुई ,कि लोग टी व्ही ,फ्रिज,कार ,बंगले जाने क्या क्या कमा के धर दिए,आपसे एक ढंग का स्कूटर नहीं लिया जाता|बिरादरी में नाक कटती है|
आदमी इसी बिरादरी ,नाक और पत्नी के चुंगुल में फंस कर,अगल-बगल देख के चुपके से , टोपी को जेब में धर लेता है|
पिछले पन्द्रह –बीस सालों से ‘टोपी’ शहर से, मानो गायब सी हो गई थी|केवल २६ जनवरी ,१५ अगस्त के दिन इक्के-दुक्के नेता टोपी पहने शौकिया दिख जाते थे|कांग्रेस के जमाने में ,चुनाव नजदीक आते-आते टोपी का चलन थोड़ा जोर मारता|टिकट लेने ,पार्टी कार्यालय का चक्कर, टोपी पहन के जाओ तो असर पड़ता है ,जैसे विचार टोपी पहनने की बाध्यता पैदा कर देती थी|लोग दुखी मन से पहन लेते थे|
वैसे हमारे शहर में एक मारवाड़ी गजब की टोपी पहने रहता था|भोजनालय चलाता था|
साफ –सुथरी टोपी की बदौलत, उनकी काया में निखार ,बोली में माधुर्य ,व्यवहार में कुशलता, आप ही आप समा गई थी |
एक ‘टपोरी भोजनालय’ से, आलीशान चार मंजिला होटल तक का सफर करते, उस आम-साधारण आदमी के चश्मदीद , शहर के अनेक लोग हैं|
अफसोस कि अब , उनकी टोपी-युक्त फोटो पर, माला चढ गई है ,पर उस आदमी ने जब भी पहना, झकास पहना, कलफदार शान से पहना|
उनके व्यवसाय की वजह से उन्हें ‘पुरोहित जी’ कह के बुलाते थे|
उनके मरने पर , कोई शहर-व्यापी मातम-पुर्सी नहीं हुई,कारण कि ,उन दिनों मीडिया जैसा कुछ होता नहीं था|
आज के मीडिया युग में जो , dundrof’डेन्डरफ वाले तोते के घर’ को बहुत खास बना के परस देता है ,लोगो के हुजूम पे हुजूम टूट पड़ते हैं ,वे दिवंगत होते तो अलग बात होती|
तमाशा देखना,सनसनी में जीना इस जैसे नए युग का एक ख़ास शगल हो गया हो ...लोग कान के कच्चे होने लगे हैं|
वे पुरोहित जी को भी कुछ यूँ “ब्रेकिंग न्यज” के नाम पर घंटों चला लेते .....“आज आपके शहर से एक शख्श जिसने उम्दा भोजन की थालियाँ परोसी ,जिसने लोगों को विशुध्ध भोजन कराया ,जिसने हजारो –करोड़ो लोगों की क्षुधा-शान्ति का व्रत लिया था, जिसने मिलावट के किसी सामान का इस्तमाल नहीं किया ,इमानदारी से कम कीमत में सबके पेट तक भोजन पहुचाना जिनाक्क धर्म बन चुका था , वो शख्श का कल परमात्मा से बुलावा आ गया ,एक आत्मा का परमात्मा में विलीन होना आज की सबसे बड़ी सदमे वाली खबर है|उनकी खासियत थी कि वे गांधी –टोपी को यथा नाम तथा गुण अपने सर में आमरण धारण किये रहे|उनने कभी कोई टिकट नहीं मागी ,किसी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया ,ऐसे लोग भी होते हैं जो बिना राजनैतिक सरोकार के टोपी को अपनी वेशभूषा में बनाए रखते हैं ,ऐसे आदर्श पुरुष को हमारे चेनल का नमन| हमारे चेनल की तरफ से उनके उठावना का लाइव टेलीकास्ट किया जाएगा|
सदर बाजार के एक और मारवाड़ी जिनका सोने-चांदी का बिजनेस था,पुरोहित के नक्शे –कदम में टोपी पहना करते थे|उनकी खासियत थी कि जब भी बड़ा ग्राहक आये, वे टोपी उतार के रख देते थे|टोपी पहन के ग्राहक को झांसा देने में जैसे उनकी अंतरात्मा धिक्कारती हो ,वे पेमेंट लेने,ग्राहक को बिदा कर लेने के बाद ही टोपी सर पर रखते थे| सात्विक विचार वाले उन जैसे लोग अब खान बचे? उनके दान-पुन्य से अनेको आश्रम ,स्कुल चलते हैं|इन्कमटेक्स वाले उस ‘दानी-दयालु’ आदमी की तरफ कभी झांकते नहीं|
टोपी के बारे में बचपन की सुनी एक कहानी अभी तक दिमाग में काबिज है|एक व्यापारी टोपियों का व्यापार करता था|अपने टोकरे में ढेर सारी टोपियाँ लिए गाव-गाव फिरता था|चलते –फिरते जहाँ नदी-तालाब आ जाए ,नहाना ,खाना –पीना,झपकी लेना, कर लेता था|एक बार एक पेड़ के नीचे आराम करते - करते सो गया|पेड़ पे खूब सारे बन्दर बैठे थे, बंदरों ने नीचे उतर के, उसके टोकरे से टोपियाँ उठा के पहन ली और पेड़ पर चढ़ गये|व्यापारी की नीद जब खुली तो तो टोपियों गायब पाकर उसके होश उड़ गए|इधर-उधर देखने के बाद पता चला कि बंदरों ने सब टोपियाँ पहन रखी हैं|उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि टोपियों को वापस कैसे बरामद करे|उसके पास गनीमत से एक टोपी , जो उसके सर मे थी बच गई थी| उसने बंदरो की तरफ अपने सर से वो टोपी निकाल के उछाल दी|उसकी नकल में सब बन्दर, अपनी-अपनी टोपियाँ उछालने लगे|टोपियाँ नीचे गिरने लगी|व्यापारी ने टोपियाँ सम्हाली और फिर कभी पीड के निचे गहरी नीद में न सोने का निश्चय करके , आगे बढ़ गया|
इस कहानी का मुझमे कई दिनों तक असर रहा| तालाब और पेड़ के कम्बीनेशन में, मुझे टोपियों की याद आती रही|टोपीवाले का एक्शन,बंदरों का रि-एक्शन,वाला फ़िल्म मन में स्वत: चल जाता |उसकी तात्कालिक बुद्धि पर दाद देने का मन आज भी करता है|अपने छोटे-छोटे नाती-पोतो को कभी अपनी जिद पर ये किस्सा सुना के, उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ|मुझे मालुम है उनके जेहन में सचिन-धोनी वाली टोपियाँ होती हैं|
‘टोपी-ज्ञान’ पाने के बाद ,वे घर के आस-पास बंदर के दीखते ही, टोपियाँ ढूढ़ते हैं|वे बंदरों को ‘टोपी पहने’ देखना चाहते हैं|वे हाथ बढाते हैं|ले...ले... टोपी पहन .....|दादा ये तो दान्त दिखा रहा है ..........!ये हंस रहा है.......,,वो इधर को आ रहा है ...........|
मै बच्चो को सहज करने के लिए कहता हूँ ,चलो काउंट करो ,कितने हैं|गिनती शुरू हो जाती है वन..टू...थ्री ....ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट...|बच्चे आपस में ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट...की लड़ाई में लग जाते हैं ,एक बंदर तब तक उछल के दूसरे पेड़ पर चल देता है|
मै सोचता हूँ, बच्चो को कल्पना की दुनिया के इतने नजदीक नही ले जाना चाहिए था|कहीं बंदरों की छीन-झपट में कुछ नुकसान न हो जाए?