ट्रक चलाने वाला दोस्त / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
मेरा एक दांतकटा दोस्त ट्रक चलाता था !
आप कह सकते हैं कि ट्रक चलाने वाले से तुम कुलमघसीट की दोस्ती कैसे? तिस पर मैं पलटकर जवाब दूं कि मैं भी आदमी, वो भी आदमी, उससे मेरी दोस्ती क्यों नहीं हो सकती ? अलबत्ता सच ये है कि वो ट्रक चलाने वाला मेरा दोस्त जरूर था, लेकिन वो तब से मेरा दोस्त था, जब वो ट्रक ड्राइवर नहीं था। वो मेरे स्कूल के दिनों का दोस्त था । बचपन में भला कौन ट्रक चलाने वाला और कौन कलमघसीट ?
स्कूल में हम सात दोस्त थे। साथ खेलते, साथ बैठते, साथ टिफिन खाते। एक-दूसरे की कॉपी से पाठ याद करते। वो हममें से सबसे छोटे कद का था। डेढ़ पसली का- किड़ीकांप | जिसको कि हमारे मालवे में कहते हैं- टांटलिया। उसके बाल जंगलियों जैसे लम्बे थे और वो बीच की मांग निकालता था। हम सब साइड की मांग निकालने वाले राजा बाबू थे, हमारे बीच एक वो ही आवारा था। उसके पिता रसोइया थे, इसलिए वो टिफिन में नित नई चीजें लेकर आता। हम सब रोटी लाते, वो असल घी का परांठा लाता । एक दिन रबड़ी लेकर आया और सबको खिलाई। गप्प मारने में एक लम्बर । देर से क्यों आए, पूछो तो बोलता, निर्मल सागर टॉकिज़ की छत पर कलर कर रहा था, इसलिए देर हो गई । साला, कहां वो टिंगू मास्टर और कहां बुलंद निर्मल सागर - मध्य प्रदेश की शान ! एक दिन शीशी में कहीं से टिंचर भरके ले आया तो उसकी गंध से पूरी क्लास भर गई। एक दिन भागा-भागा आया और हांफता हुआ बोला, आज ऐसी चीज़ लाया हूं कि मस्त हो जाओगे । क्या चीज़ ? बस्ते की चेन खोली और किसी जादूगर की तरह उसमें से निकाली - मोगली सुपारी के पाउचों की लड़ी !
उस ज़माने में बच्चे लोग स्वीटी सुपारी खाते थे, बड़े लोग बादशाह गुटखा खाते थे और पैसे वाले लोग पान पराग खाते थे । मोगली मार्केट में नई आई थी और छा गई थी। उसका स्वाद स्वीटी से बहुत अलग था । हमको सबसे पहले उसी ने मोगली का चस्का लगाया था । तब मैंने आंख दबाकर कहा, तुम भी तो साले मोगली जैसे हो - जंगली !
पांचवीं के बाद ये सत्ते पे सत्ता वाले सात दोस्त बिछड़ गए। सबकी अपनी अलग डगर। हममें से एक चिकित्सक बन गया, दूसरा बम्बई जाकर पिक्चर इंडस्ट्री से जुड़ गया, तीसरा आटा चक्की चलाने लगा, चौथा रामघाट पर पंडा बनकर बैठ गया और यजमानों का दशाकर्म करवाने लगा, पांचवें ने सबसे लम्बी दौड़ लगाई, वो आज साउथ अफ्रीका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, छठा यानी मैं कुलमघसीट बन गया, और सातवां यानी वो ट्रक चलाने लगा। स्कूल में जब हम साथ मिलकर टिफिन खाते थे, तब किसी को नहीं मालूम था कि नियति ने हम सबके लिए इतनी अलग-अलग पटकथाएं रची हैं । स्कूल ने जिनको मिलाया था, जीवन ने अलग कर दिया ।
दिन, महीने, फिर साल बीते - पांच, दस, बीस, पच्चीस । एक दिन मैं दफ़्तर में बैठा था। मुझे किसी ने बताया कि आपसे मिलने कोई आया है । मैंने बाहर जाकर देखा, तो गेट पर एक बड़ा-सा ट्रक खड़ा था। लेकिन उसमें कोई नहीं। किसी ने पीठ पर धौल जमाई । मैंने पलटकर देखा - नाटे कद लेकिन गठीले बदन का एक आदमी । धूप और पसीने से तपा चेहरा, जिस पर गहरी चोट का निशान। मैले कपड़े। मैं पहचानने की कोशिश करता रहा । उसने कहा, साले हमको भी भूल जाओगे, तो जिंदा क्यों हो फिर ? मर जाओ! मैंने कहा- तुम? इतने दिनों के बाद ! और उससे लिपट गया ।
साथ बैठकर चाय पी। मैंने कहा, दफ़्तर में बहुत काम है, कल तुम्हारे घर आता हूं । रहते कहां हो? उसने कहा, आगर रोड पर बापूनगर कॉलोनी में आ जाओ। किसी से पूछ लेना, ट्रक वाले भिया का घर किधर है ? देहरी तक छोड़कर आएगा। खाना खाएंगे। मैं दाल बहुत शानदार बनाता हूं । मेरा बाप रसोईया था। मैंने मुस्कराकर कहा, हां, सब याद है !
मैं गया ! हमने साथ बैठकर दाल-बाटी खाई । उसने दाल वाकई बहुत उम्दा बनाई थी। फिर कड़क मीठी चाय पी गई- दूध कम पत्ती ज़्यादा । इधर-उधर की बातें होती रहीं । मालूम हुआ ये ट्रक बिलोटीपुरा वाले बटुक गुरु का है। वो उनके लिए काम करता है । जितने फेरे, उतना कमीशन । मार्केट का ऐसा कोई माल नहीं, जिसकी लदाई उसने नहीं की । मुलुक का ऐसा कोई कोना नहीं, जहां वो गया नहीं । घाट-घाट का पानी पिया, किसिम-किसिम के लोगों से वास्ता पड़ा, भांति-भांति के खटराग । ब्याह? किया था लेकिन औरत छोड़ गई। महीना - महीना भर बाहर रहने वाले के साथ कौन निबाहे ? बच्चा ?
एक लड़का हुआ था, दो महीना जीकर बुख़ार से ख़त्म हो गया । उस टाइम भी मैं बाहर ही था !
बातें ख़त्म हो गईं। मैं जाने को उठा। वो बाहर तक छोड़ने आया। मैंने और ये चेहरे पर गहरी चोट का निशान ? उसने कहा, ये भी ट्रक ड्राइवरी की कमाई है। एक बार वारंगल से लाल मिर्चें लादकर चला, सियागंज इंदौर में कहा, रतन सेठ के यहां माल पहुंचाना था । धुळे के आगे देखता क्या हूं, एक छोटी बस रॉन्ग साइड चली आ रही है। यू-टर्न बचाने के फेर में । जल्दी का काम शैतान का। जिनको जल्दी थी, वो स्साले चले गए। ट्रक मर्दाना होता है, बस जनानी होती है, हमेशा उल्टी चाल ! आज आर-पार की है- जा मर !
फिर? मैंने पूछा। उसने कहा, टक्कर से एक पल पहले बस ड्राइवर की सीट के पास कुछ दिखा । दिमाग घूम गया ! सोचने का टाइम नहीं था । जल्दी से ट्रक का स्टेयरिंग घुमाया । बस साइड से भेली हो गई, लेकिन पलटी नहीं । ट्रक जरूर रोड से नीचे उतर गया। दो पलटी खा गया । मैं टाइम रहते खिड़की से कूद गया था। सिर पर चोट लगी ! बेहोश होने से पहले एक ही चीज़ याद रही- नथुनों में लाल मिर्चों की धांस !
उसके बाद ? मैंने पूछा । फिर क्या, उसने कहा । जान बची तो बटुक गुरु ने जीव ले लिया। आज तक साले का कर्जा चुका रहा हूं । हाथ पर दो महीने पलस्तर चढ़ा रहा, ग़रीबी में आटा गीला । ट्रक से कूदकर मुंह के बल गिरा था । गाल फट गया। कनपटी पर लगी थी ! ये चोट का निशान उसी का है ।
मैं चुप हो गया। देरी हो रही थी । सुबह दफ़्तर जाना था । फिर भी जाते-जाते जिज्ञासा छुपा नहीं पाया। पूछ ही बैठा - बस से सीधी टक्कर हो रही थी, फिर ट्रक क्यों घुमा लिया? बस ड्राइवर की सीट के पास ऐसा क्या देख लिया?
वो सोचता रहा। मन ही मन जैसे कुछ घुट रहा हो । फिर दशरथ बीड़ी जलाई, सुलगाई, और बोला-
बस ड्राइवर के पास बोनट पर एक औरत बैठी थी, औरत की गोद में बच्चा था। लम्बे बाल, बीच की मांग, साला जंगली कहीं का । एकदम मोगली ! आज मेरा बच्चा होता तो उतना ही बड़ा होता !