ट्रेड़िशनल पेरेन्टिंग / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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"विकास का बेटा कैसा हो गया हो इन दिनों!" शकुनजी ने भारी मन से कहा।


"क्यों ! कोई बुरी आदत है क्या!" बाबूजी ने चिंतित स्वर में कहा।


"बुरी आदत जरूर है लेकिन उसके माँ बाप में ।" शकुनजी धीरे धीरे गुस्सा होती जा रही थी।


"क्या मतलब?"


"किसी से बात नहीं करना¸ सभी को खुद से कम क्वालिटेटिव समझना¸ मौज मस्ती करने¸ खाने पीने के नाम पर पसीने छूटते है उसके। सब कुछ पढ़ाई¸ सारी जिंदगी नॉलेज के पीछे लगानी है उसने। खेलने खाने के दिन है उसके। मैं कहती हूँ आखिर ऐसा करके विकास और वीणा क्या कर लेंगे?" शकुनजी अब फूट ही पड़ी थी।


छुट्टियों में दो महीने बेटे के पास रह आई थी वे। बहू की दूसरी डिलेवरी थी। बेटा बहू दोनों नौकरी करते है। लेकिन उनका बड़ा पोता¸ जिसकी वे बातें कर रही थी¸ उसका व्यवहार उन्हें चिंता में डाल गया था।


"शकुनजी!" बाबूजी उन्हें समझाने लगे।


"देखिये मुझे तो ऐसा लगता है कि घर में एक नया मेहमान आ जाने से ही उसके व्यवहार में फर्क आ गया होगा। थोड़े दिनों में हो सकता है कि वह संभल जाए!" उन्होने आशा बँधाई।


"नहीं जी! वो ऐसा पिछले दो सालों से कर रहा है।"


"विकास ने बताया ना मुझे। बस दिन भर पढ़ाई¸ कॉम्पिटिशन¸ नॉलेज बैंक¸ रेडी रेकनर ऐसी बातें ही करता रहता है। उसे डॉक्टर को भी दिखाया था। उन्होने कहा कि वह इसी तरह से दबाव में रहा तो दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है।" शकुनजी सचमुच चिंतित थी।


फिर कुछ दिनों के बाद विकास का फोन आया था। जिस प्रकार की तकलीफ उसके बेटे को थी¸ उससे बाहर निकालने के लिये एक स्वयं सेवी संस्था आगे आई थी। शकुनजी के घर के पास ही एक गाँव में उनका एक माह का शिविर लगना था। वहाँ करीब तीस बच्चे पेड़ पौधों¸ खेतों के साथ रहते हुए लकड़ी काटना¸ चूल्हे पर खाना बनाना¸ खेती करना¸ मिट्टी के बर्तन बनाना आदी सीखेंगे। उसका बेटा भी वहाँ आ रहा था। इस सारे प्रकल्प का मुख्य उद्‌देश बच्चों को महानगर के अति सुविधायुक्त व दमघोटू वातावरण से दूर रखकर उनके व्यक्तित्व में जरूरी जमीनी जानकारी भरना था। विकास का इतना ही कहना था कि वे बीच बीच में जाकर उससे मिल आएँ।


सब कुछ सुनकर जब शकुनजी ने ये सब बाबूजी को सुनाया तब वे ठठाकर हँसने लगे।


"शकुनजी! एक बात बताईये!"


"कहिये।"


"मुझे लगता है इस नये जमाने में¸ छुट्टियों में दादा - नाना के गाँव में जाकर रहने का मजा लेने के लिये इन बच्चों को पैसे देकर शिविर में रहना होता है क्यों?"


उनके अर्थपूर्ण वाक्य का मर्म शकुनजी एक हूक दाबे समझ पाई और बाट जोहने लगी¸ अपने प्रॉब्लम पोते की।