ठंड: आजादी: समाजवाद / गोपालप्रसाद व्यास
ठंड कुछ जल्दी आ गई।
जी, हमारी शादी भी जल्दी हो गई थी और मुल्क में आज़ादी भी जल्दी आ गई।
मतलब?
मतलब कि हम युवावस्था आते-न-आते पराधीन हो गए और देश के अर्थ को समझते-समझते आज़ाद हो गए।
जी!
जी क्या जी, अब हमें और हमारे देश, दोनों को कीमत चुकानी पड़ रही है।
कैसे?
जी, हम दोनों ही ज़िम्मेदारियां से भाग रहे हैं। मन-ही-मन बड़बड़ा रहे हैं। कहीं का गुस्सा कहीं उतार रहे हैं। हम दोनों का ही परिवार बढ़ गयी है। समस्याएं बढ़ गई है। सुलझने में नहीं आ रहीं, इसलिए खीझ रहे हैं।
जी?
हम अपना गुस्सा अपनी पत्नी पर उतारते हैं। पत्नी बच्चों पर उतारती है। और बच्चे, जो सामने पड़ जाए उसी पर उतारने लगते हैं।
यानी, समस्याओं का बोझ नहीं उतर रहा, गुस्सा उतर रहा है?
जी हां!
यही हालत हमारे देश की है। जैसे चाव-चाव में हमने अपना ब्याह रचवा लिया था, वैसे ही हमारे नेता भी अपने सिर पर सेहरा बांधकर आज़ादी को घर ले आए। भाई जी, पराई बेटी को घर ले आना सहज है, मगर उसकी फरमाइशों को पूरा करना, उसके सपनों को संजोना, घर को बनाना और उसकी हिफाज़त करना आसान काम नहीं।
ठीक है।
क्या ठीक है? अनुभवहीन, कामचोर, अस्वस्थ लोग जैसे किसी कल-कारखाने को नहीं चला सकते, वैसा ही हाल देश के मंत्रियों का है। यूं समझ लो जैसे आजकल के नौसिखिये डॉक्टर रोगियों के स्वास्थ्य और जीवन से खेल-खेलकर उपचार करना सीखते हैं, वही ट्रेनिंग आज हमारे सरकार चलाने वाले प्राप्त कर रहे हैं। यह दवा काम नहीं करती तो वह दो। दवा ने असर नहीं किया तो इंजेक्शन ठोंको। इंजेक्शन बेकार हो गया तो हटाओ, आपरेशन ही कर डालो। मरीज बचे या मरे, इसकी चिंता नहीं। चिंता एक्सपेरीमेंट (प्रयोग) करने की है।
हूं!
हूं क्या भई, जैसे ठंड जल्दी आई या जैसे आज़ादी जल्दी आई, वैसे ही देश की राजनीति में समाजवाद भी कुछ जल्दी आ गया है।
आखिर कहना क्या चाहते हो?
यही कि ठंड का आना बुरा नहीं है। गर्मी शांत हो गई। मौसम सुहावना हो गया, लेकिन लोगों को जूड़ी ताप, मलेरिया आदि से बचने के लिए तैयार तो हो जाना चाहिए? अगर इस ठंड ने आकर बीमारी फैला दी तो मौसम दुखदायी नहीं हो जाएगा?
जी हां!
इसी प्रकार आज़ादी किसी राष्ट्र का जीवन है। पराधीनता शव है और स्वाधीनता शिव। लेकिन यदि शिव को हम भंगेड़ी-गंजेड़ी और अशिव-वेश मानकर ही पूजने लगें और अपने आस-पास सींग मारने वाले सांडों तथा विष-दंश करने वाले सांपों को ही इकट्ठा कर लें, तो क्या ठीक रहेगा? प्रोपेगंडा का डमरू बजाने और भीख से अपना खप्पर भरने से आज़ादी की पार्वती प्रसन्न नहीं हो सकतीं। स्वर्ग से उतरी हुई आज़ादी की गंगा को अगर हमारे रुद्र नेता अपनी ही जटाओं में रोके रहेंगे, तो अमृत फलदायिनी, पतित-पावनी गंगा देश की धरती को कैसे पवित्र करेगी? अगर शिव के गण, मतलब राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता और नेताओं के समर्थक अपने विकट वेश और अधीर कर्मों से प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस ही करते रहे तो सुख-शांति कैसे स्थापित होगी?
धन्य है।
जी हां, हम निःसंदेह आज़ादी पाकर धन्य हुए, लेकिन आज तक ऐसी स्थिति नहीं आ पाई कि इसके लिए जनता नेताओं का धन्यवाद करती और नेता कठिन परिश्रम, सहनशीलता और अटल राष्ट्रभक्ति के लिए जनता को धन्यवाद देते!
जी हां।
और यही बात समाजवाद के कथित आगमन के संबंध में भी है। हमारे यहां पूंजीवाद से पहले ही समाजवाद आ रहा है। श्रमिकों में कर्त्तव्य-बोध की जागृति तो हुई नहीं, उन्हें समाजवाद का बोध कराया जा रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि यह हड़ताल ही समाजवाद है और कुछ लोगों का कहना है कि यह इंपाला समाजवाद है। एयरकंडीशंड बंगलों में बादशाहों की तरह रहने वाले आज समाजवाद के संवाहक हैं। बताइए, जिन्होंने गरीबी देखी नहीं, वे उसके दर्द को समझेंगे? जिनकी भैंसों और कुत्तों के इलाज राजकीय स्तर पर होते हों, वे अमीरी मिटाएंगे? भारत की कोटि-कोटि संवेदनशील जनता को जो अनपढ़, अशिक्षित और अस्वस्थ मानकर उससे दूर रहते हों, वे वर्ग-भेद को, असमानता को मिटाने में सहायक हो सकते हैं?
छोड़ो जी, कहां की बातें ले बैठे?
हां जी, हमें भी इससे क्या? हमने भी ठंड से बचने के लिए स्वेटर निकालने को कह दिया है। आज़ादी का ताम्रपत्र पाने के लिए दिन-रात दौड़-धूप कर रहे हैं और पिछले ढाई साल में समाजवाद पर कम-से-कम ढाई सौ लेक्चर झाड़ चुके हैं।