ठहरा हुआ कुछ / से.रा. यात्री
गाड़ी डेढ़ घंटा विलंब से पहुंची। पैसेंजर गाड़ी में बैठे-बैठे वह उतावली से बार-बार अपनी सीट से उठकर खड़ा हो रहा था। उसका मष्तिस्क जिस गति से उड़ रहा था, गाड़ी उतनी ही धीमी चाल से सरक रही थी। आदमी कहीं जल्दी पहुंचना चाहता है तो पल भी पहाड़-जैसा भारी हो उठता है। ज्यों-त्यों करके वह आखिर पहुंच ही गया - यही सबसे बड़ी राहत थी।
वह भीतरी व्यस्तता से खलबलाता हुआ प्लेटफार्म पर उतरा। स्टेशन अपनी पुरानी जगह पर ही स्थित था, लेकिन उसका बाहरी स्वरूप इतना ज्यादा बदल चुका था कि स्टेशन पर चौड़ा नामपट्ट न होता तो वह उसे बिल्कुल न पहचानता। पुराने वक्त की चौकोर हरीकेन सिरे से गायब थी।
गेट से बाहर निकलते हुए उसने एकाएक मुड़कर पीछे देखा। अभी गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी थी, पर कुल मिलाकर दृश्य वही था, जैसे वह स्वयं बाहर से न आकर किसी को अलविदा कहकर वापस लौट रहा हो।
वह बाहर सड़क पर आया तो कई रिक्शे-तांगे वाले उसके पीछे लग गए। उनसे आंखें मिलाए वगैर वह उनका घेरा तोड़कर निकल गया और खरामा-खरामा सड़क पर चलने लगा। उसके पास महज एक सफरी झोला था जिसे कंधे पर डाले वह मीलों पैदल चल सकता था। उसने सदरी की जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर सिगरेट जला ली और धुआं उड़ाते हुए आगे बढ़ने लगा।
चलते-चलते वह काफी दूर निकल गया, पर उसे एक भी जाना-पहचाना चेहरा नजर नहीं आया। उसे यह कुछ बुरा भी नहीं लगा। एक विचित्र-सी अनुभूति ने उसे घेर लिया। क्या वह ऐसा ही नहीं है कि आप अपने घर-परिवार में अदृश्य बनकर घूम-फिर रहे हों?
राजबाहे का पुल पार करते-करते वह पुल के बीचोंबीच धमककर खड़ा हो गया। उसने चूने की मोटी दीवार पर नीचे झुककर देखा - साफ नीला पानी भल-भल करता तेज गति से बहता चला जा रहा था। जहां भंवर उठती थी, लहरों की आपसी टक्कर में पानी की सफेदी भी झाग में तब्दील हो जाती थी। थोड़ी देर इसी दृश्य में उलझा रहकर वह पीछे की दिशा में मुड़ गया। राजवाहे के किनारे पर एक छोटा-सा बगीचा था। आम के घने पेड़ों के बीच एक घिर्रीदार कुआं था। कुएं की जगत बहुत मोटे पत्थरों की थी। सहसा कोई नक्शा उसके मष्तिष्क में बिजली की भांति कौंध उठा। उसे यह देखकर बड़ी राहत मिली कि पत्थरों पर कुदरती पच्चीकारी अब भी पुराने दिनों की तरह ही बरकरार थी। जाड़े की इस भरी दोपहर में वहां गहरा सन्नाटा फैला हुआ था। वह संलग्नता से पत्थरों पर अंकित अजीबोगरीब शक्लें देखता रहा और उसके भीतर किसी वायवी सांत्वना ने करवट ली। पत्थरों पर पुराने आभास अभी ज्यों के त्यों हैं - मतलब इतने वर्षों के पार पहुंचकर भी अभी कुछ खास नहीं बदला है।
यह ठहरा हुआ सन्नाटा उसने जी भरकर पिया। उसकी इच्छा हुई कि वह एक सिगरेट जला ले और समय से अलग-थलग बैठकर जीवंत ठहराव से थोड़ी देर बातचीत कर ले, मगर अनजाने में उसकी नजर घड़ी पर चली गई तो उसने अपना इरादा बदल लिया।
उसने बगीचे से निकलकर राहबाहे का पुल पार किया और कालिज की बाउण्ड्री-वॉल के करीब जा निकला। यह दीवार मुख्य इमारत से बहुत इधर थी। दीवार में पुरानेपन की खरोंच साफ नजर आने लगी थी। पुरानी जालियां टूट-फूटकर मलबे के ढेर बनाने लगी थीं। दीवार पर झूलती कई लतरें शायद पाले के प्रकोप से सूखकर कंकाल सरीखी लटक रही थीं। इन निढाल पड़ी बेलों से अनासक्त होकर पुराने लहीम-सहीम पेड़ वार्द्धक्य के बावजूद सिर उठाए खड़े थे - यह बात अलग थी कि उन पर कितने ही गिद्ध और चीलें मौज में आसन जमाए थे।
वह ताज की शक्ल में बने बड़े गेट से कालिज भवन मे घुसने लगा। संस्थापक की समाधि बहुत नायाब संगमरमर की, जिसकी सफेदी और चमक सत्तर-अस्सी वर्षों के बाद भी मैली नहीं पड़ी थी, मगर समाधि के सिर पर चंवर डुलाते गुलमोहरों का कहीं निशान भी बाकी नहीं रह गया था। वह कालेज के विशाल आडीटोरियम के पास जा निकला। हाल के बाहर बहुत दूर तक फैली हरी घास की मखमल से भरपूर लानों पर लड़के-लड़कियों के अनेक झुंड नजर आ रहे थे। लायब्रेरी के दरवाजे पर ठहरकर उसने ताक-झांक की। शायद लायब्रेरियन मिस्टर सिंह सामने मेज-कुर्सी डाले मसरूफियत में बैठे नजर आ जाएं, मगर वहां एक नौजवान डटा हुआ था और अपने इर्द-गिर्द की भीड़ में जूझ रहा था।
अपने अस्तित्व के प्रति उसने किसी को सावधान नहीं होने दिया। दूर-दूर तक फैली हुई इमारत में वह चोरी-चोरी घूमता रहा। सामने से भीड़ का कोई रेला आता दिखाई पड़ जाता तो वह पेड़ों की आड़ ले लेता। कई नवयुवतियां साड़ी और जीन्स में मलबूस उसके पास से बेखबर गुजर जातीं। उसने रातरानी की उस झाड़ी को तलाश करने की कोशिश की जिसके नीचे खड़ा होकर वह उसकी प्रतीक्षा किया करता था, पर अब वहां मौलश्री के कई दरख्त खड़े थे और नीचे जमीन पर सूखी पत्तियों का ढेर जमा हो गया था। बेसाख्ता उसके होंठों से एक लंबी सांस निकल गई। उसकी प्रतीक्षा संभवतः किन्हीं औरों की नियति में बदल गई थी। उसने हाथ ऊंचा करके पेड़ की एक साख सहला दी और चुपचाप आगे बढ़कर दूसरे गेट से बाहर निकल गया।
एक-एक करके बहुत कुछ अटका हुआ बाहर आने लगा। कन्या विद्यालय की ऊंची-ऊंची दीवारों पर ऊपर जाकर कांटेदार तारों की बाड़ खींच दी गई थी। उस दीवार के सहारे चलते हुए उसके चेहरे पर सहसा मुस्कराहट उभर उठी - कम्बख्तों को डर है कि लड़कियां दीवारें फांदकर बाहर निकल जाएंगी। उसने दीवार किंचित ध्यान से देखी। सिलाई मशीनों, साबुनों और रामबाण औषधियों के विज्ञापनों से सारी दीवार रंगी पड़ी थी। बहुत ध्यान से देखने पर भी उसे 'अमुक बटा अमुक' कहीं अंकित नजर नहीं आया। शायद कोई भी रंग इतना गहरा नहीं होता जो कभी के धड़कते हुए क्षणों को धुंधला होने से बचा ले जाए।
इन सड़कों पर पड़ते कदमों की गूंज कभी नहीं मरेगी, किसने कहा था? किसी ने भी कहा हो, क्या फर्क पड़ता है अब! जबकि दूर-दूर तक उसे एक भी शख्स पहचानने वाला न हो।
रेंगती चाल से बढ़ते-बढ़ते वह जी.टी. रोड पर पहुंच गया। अब वह अपनी मंजिल के बहुत करीब था। एक लैंपपोस्ट के नीचे खड़े होकर उसने सिगरेट जलाई और उम्मीद करने लगा कि अभी किधर से भी कोई अंतरंग आकर उसके गले में बांहें डाल देगा।
जिंदगी में कुछ चीजें सिर्फ पहली बार होती हैं, यानी यह भी पहली बार होती है, यानी यह भी पहली दफा ही हो रहा था कि जिस सड़क के चप्पे-चप्पे से वह पूरे बीस बरस बावस्ता रहा था, उसी पर घोर अपरिचित परदेसी बना खड़ा था? उसकी आंखें दूर निरभ्र आकाश पर गईं - सूरज उधर पश्चिम की तरफ तेजी से ढलक रहा था और ऊंचाइयों में चीलें चक्कर काट रही थीं। उसने दांए-बाएं देखा। फुटपाथ से लगे पूरे खाली क्षेत्र में नगरपालिका की पक्की दुकानें खड़ी हो गई थीं। शुरू में पंजाब से आने वाली भीड़ ने यहां लकड़ी के खोखे डाले थे, पर अब वहां बेपनाह भीड़ का बाजार दीख रहा था।
सहसा उसे याद आया कि एकदम खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, पर पल भर में वह भी तय करना मुश्किल था कि क्या सौगात लेकर जाना ठीक रहेगा? अब तो वह क्या, बच्चे भी सयाने होने लगे होंगे। टाफी, बिस्कुट वगैरह पीछे छूट गई नियामतें थीं। मूढ़ भाव से ग्रस्त होकर वह सिर के पिछले हिस्से को सहलाने में लग गया। इस तरह की उलझन में शायद सिगरेट से कुछ मदद मिले।
सिगरेट का पैकेट जेब में नहीं था, हाथ में एक मुड़ा-तुड़ा कागज आ गया। उसने उसे निकालकर देखा। बगैर पढ़े भी उस पर लिखी सतरें उसके मष्तिस्क में बज उठीं - आई हैं। महज एक सप्ताह रहेगी। आपकी खूब-खूब याद होती है...।
जैसे किसी ने टहोका दिया हो। वह भीड़-भड़क्के में रिल गया। सड़क के उस किनारे लगते ही नीलम बैंगिल स्टोर का बोर्ड नजर आया। यहां कभी एक चाय की दुकान हुआ करती थी, जिस पर वह और दर्जनों उस जैसे ही फक्कड़ सिरफिरे घंटों अड्डा दिया करते थे। बिना कुछ सोचे वह बैंगिल स्टोर में दाखिल हो गया। लड़कियां और नवविवाहिताएं - अधेड़ बूढ़ियां - सभी अंदर तक धंसी पड़ी थीं। कई जवान लड़के, महिलाओं के सामने तरह-तरही की चूड़ियों के डिब्बे लाकर रखते हुए उनकी विशिष्टता बखान रहे थे। वह झिझककर एक ओर हट गया। एकाएक बाहर चले जाने का मौका भी नहीं मिला, क्योंकि एक लड़के ने उसकी ओर मुखातिब होकर सवाल उछाल दिया, 'जी, आपको क्या चाहिए।'
वह हड़बड़ाहट में कह उठा, 'क्या चूड़ियाँ होंगी?'
दुकानदार लड़का मुस्करा उठा और कई छोटी-बड़ियों ने हैरत से उसका चेहरा ताका। लड़के ने मुस्कराहट पर काबू पाकर कहा, 'जी हां, चूड़ियाँ बहुत। आपको कैसी चाहिए?'
'कैसी भी! अच्छी और...' कहते-कहते वह गड़बड़ा गया।
भीड़ में से पता नहीं किसने उसके 'अच्छी और' के आगे 'टिकाऊ' जड़ दिया। वह उस आवाज के स्रोत को खोजने की ताव भी नहीं ला पाया।
लड़का गंभीर होकर पूछने लगा, 'किस नाप की चाहिए?'
इस सवाल से तो वह जड़ सहित उखड़ गया। समझ में नहीं आया कौन-सा नाप बताना ठीक होगा। लेकिन ब्रेन वेव ने उसकी सहायता की - कालेज के जमाने में भी तो एक बार उसके लिए नुमाइश से चूड़ियाँ लेकर आया था - तब भी नाप उसके पास कहां था।
हालांकि दुकानदार उसकी उलझन पर मुस्करा नहीं रहा था, लेकिन इतनी औरतों के बीच ज्यादा देर अनिश्चय में भी तो खड़ा रहना संभव नहीं था। उसने अपने पीछे मुड़कर देखा - शायद उसके जैसी कोई नजर आ जाए।
अब तक दुकानदार ने उसके सामने चूड़ियों की कई किस्में लाकर सजा दी थीं। उसने यों ही, मामला खत्म करने के अंदाज में एक डिब्बे की ओर संकेत कर दिया। दुकानदार ने उसी डिब्बे को एक बढ़िया रैपर में पैक करके उसे थमा दिया। उसने अफरातफरी में पैसे चुकाए और चोर की तरह लपककर दुकान से बाहर निकल गया।
उस एक विशेष गली में मुड़ते हुए उसके सारे बदन में लरजिश पैदा हो गई और सांस लेने में हल्की-सी अटक महसूस हुई। बस, पचासेक कदम चलने की ही बात तो रह गई थी और उतना करते ही एक बहुत पीछे छूटा हुआ पड़ाव सामने आ जाने वाला था। उसने दाईं ओर की गिरती-ढहती दीवार पर उचटती आंखें डालीं। दीवार की बाजू में एक कुआं था, जिसे चहारदीवारी से घेर दिया गया था, शायद अब वह पुराना अवरोध स्वीकार कर लिया गया था - जरूरत के हिसाब से उस बस्ती में उस तिरस्कृत कुएं की कोई उपयोगिता बाकी नहीं रह गई थी।
अनजाने में चलते-चलते वह ऐन मकान के सामने जाकर ठिठक गया। दरवाजे पर एक भारी-भरकम लोहे का ताला देखकर उसकी समझ में एकाएक कोई बात नहीं बैठी। हैरानी से उसने इधर-उधर टोह ली - शायद कहीं आस-पास कोई हो और स्थिति का संकेत दे दे। उसने अपनी जेब से कागज निकालकर पढ़ा - तारीख बता रही थी कि अभी पूरा सप्ताह खत्म नहीं हुआ था।
सामने के घर में एक औरत बारजे पर जल्दी-जल्दी गीले कपड़े झटक कर फैला रही थी। उसने आगे बढ़कर उससे पूछा, 'कुछ पता है, ये लोग कहां गए हैं?'
मसरूफियत में डूबी औरत ने उसे गैरदिलचस्पी से देखा और बोली, 'अभी थोड़ी देर पहले तो यहीं थे... कई रिक्शों में बैठकर गए हैं - अहमदाबाद वाली बेटी आई थी, शायद उसे ही स्टेशन छोड़ने गए होंगे।'
वह एकदम बुझकर पस्त पड़ गया। शायद उसे पत्र लिखने वाला एकाएक सब कुछ भुला बैठा था। अब किसी से कुछ पूछने को बाकी नहीं रह गया था। उसने सहज तर्क लगाया - जल्दी लौटने की खास वजह भी तो हो सकती है।
उसके पांवों का खून एक स्थान पर खड़े-खड़े सुन्न पड़ने लगा तो उसे ख्याल आया कि वहां खड़े-खड़े वक्त बर्बाद करने से क्या लाभ? स्टेशन कोई खास दूर नहीं था। अगर वह पैदल ही और इधर-उधर भटकते हुए न आया होता तो उसकी जरूर ही भेंट हो जाती।
वह तेज-तेज चलकर एक मिनट में ही पूरी गली पार कर गया। मुख्य सड़क की उमड़ती-घुमड़ती भीड़ में किसी खाली रिक्शे की तलाश ने उसे बेचैन बना दिया। कई मिनट तक खाली रिक्शा नजर नहीं आया तो उसका उतावलापन सहसा ढीलेपन से ग्रस्त होने लगा। जब वह कुछ निश्चय करने में गड़बड़ा जाता था तब ऐसा शैथिल्य उनके मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगता था। उसे लगने लगा जैसे नींद दबोचने की कोशिश में है। काश! कहीं घंटे भर सोने की जगह मिल जाती।
चलते-चलते वह एक पनवाड़ी की दुकान पर सिगरेट जलाने के ख्याल से ठहर गया। शायद वह दुकान बहुत पहले भी थी और उस पर कोई परिचित पान वाला बैठता था, मगर अब आदमी बदल चुका था या हो सकता है वही हो, सिर्फ सूरत पहचान की पकड़ से बाहर चली गई। उसने बेसाख्ता पीछे मुड़कर देखा, पर कोई दिखाई नहीं पड़ा। तो क्या वह उसका ही अक्श आईने में उभरा था? वह सोचकर धक्क रह गया। इतना बरदाश्त-बाहर स्वरूप लेकर वह किससे मिलने चला आया? वह आईने से तत्काल हट गया। प्रतिदिन हजामत बनाते वक्त जिस चेहरे से मुलाकात होती थी; उसे पनवाड़ी के आईने ने क्या बनाकर रख दिया। उसने खुद से बात की, कई बार इतने बुरे दर्पण सामने आ जाते हैं कि अपनी सूरत बरदाश्त नहीं होती।
अब तक स्टेशन जाने का इरादा पूरी तरफ मौकूफ हो चुका था। घिसटने के अंदाज में चलते हुए वह पुराने अस्पताल के नजदीक आ पहुंचा। प्राइवेट बसों का अड्डा अब भी वहीं था। हां, अफरा-तफरी पहले की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बढ़ गई थी। एक ढाबेनुमा चायघर के बाहर छप्पर के नीचे लावारिस-सी पड़ी बैंच पर बैठकर उसने सुविधा की सांस ली। उसे लगा वह घूमते-फिरते थक गया है। एक प्याला चाय तो अपने शहर में पी ही जा सकती है। चाय के प्याले की जरूरत ने भूख का ऐलान भी उसके सामने सरका दिया।
एक फटेहाल लड़का उसके पास आकर पूछने लगा, 'बाबू शाब, क्या लाऊं?'
'एक प्याला चाय - तेज पत्ती!' कहकर वह लड़के के लिबास में उसकी सूरत तलाश करने लगा।
'खाने को क्या लाऊं साब?' लड़के ने उतावली से पूछा।
उसके अधैर्य पर वह मुस्करा पड़ा। उसने नजदीक ही ठेले पर तेल की पकौड़ियां तलते आदमी की तरफ हाथ उठाकर कहा, 'गरम पकौड़ी भी ले आओ?'
लड़के को इस पकौड़ी वाले आर्डर से कोई खुशी नहीं हुई। वह दूसरे दुकानदार से खाने का सामान लाने में अपनी दुकान की बिक्री का नुकसान साफ-साफ देख रहा था। लेकिन ग्राहक से यह बात कहने की ताव न लाकर उसने बुझे स्वर में पूछा, 'कितनी शाब?'
'अरे भाई! कितनी क्या, जितनी चाहो ले आओ।'
लड़का उसकी बात से दुविधाग्रस्त होकर बिना हिले-डुले वहीं खड़ा रहा।
उसने अपनी गलती महसूस करते हुए कहा, 'मेरे और अपने लिए ले आओ। पकौड़ियां तो तुम्हें भी अच्छी लगती होंगी?'
लड़के के चेहरे पर खुशी उभर आई, पर तत्काल ही उसका चेहरा अनिश्चय की रेखाओं से भर उठा और वह पूछ बैठा, 'मैं पकौड़ियां न खाऊं तो!'
वह बच्चे की बात समझ गया और बोला, 'तो तुम और भी कुछ खा सकते हो।' उसने अपनी बात समाप्त करते-करते जेब में हाथ डाला और एक रुपये का सिक्का लड़के की तरफ बढ़ाकर बोला, 'जब चाहो, कुछ ले लेना।'
जब लड़का उसके सामने चाय का प्याला रखकर जाने लगा तब उसने पूछा, 'तुम कहां के रहने वाले हो बच्चे?'
'पौड़ी, सुना है शाब?'
लड़के की जिज्ञासा पर वह हंस पड़ा और बोला, 'हां भाई, सुना तो है। सुना है कि काफी दूर जगह है!'
'हां शाब, भौत दूर है। रस्ता मुस्कल है। पोंहचने में बड़ा टेम लगता है।' फिर एकाएक वह पूछ बैठा, 'आप गए हैं शाब उधर कबी?'
लड़का उसे बहुत बातूनी मालूम पड़ा। वह उससे दिलचस्पी के साथ बातें करने लगा। इस समय ढाबे में भीड़ की मारा-मारी नहीं थी, इसलिए लड़के को कहीं भागने की जल्दी नहीं थी। उसने लड़के से पूछा, 'सिगरेट पीते हो?'
'नहीं शाब जी... मैं बीड़ी पीता।' कहकर लड़का थोड़ी देर के लिए वहां से हट गया। शायद वह मालिक की नजर में निठल्ला दिखाई नहीं पड़ना चाहता था।
लड़का जब लौटकर आया तब वह चाय खत्म कर चुका था उसने लड़के से उसका नाम पूछा। लड़के ने अपना नाम धनसिंह बतलाया। सहसा वह लड़के से पूछ बैठा, 'धनसिंह, तुम्हारी बहन है कोई?'
वह तुरंत कह उठा, 'हां शाबजी! तीन भैंने हैं - दो बड़ी, एक छोटी।'
उसने खोजी स्वर में पूछा, 'जब गांव जाओगे तब उनके लिए क्या लेकर जाओगे?'
उसके इस सवाल से लड़के की आंखें कहीं दूर चली गईं और उसके चेहरे पर खोयापन झलकने लगा। शायद उसने अपनी बहनों के लिए उपहार ले जाने के बारे में कभी कुछ सोचा ही नहीं था। लड़का बेखुदी में उसके सामने से खाली प्याला उठाकर जाने लगा, तो उसने अपने सफरी थैले में से रंगीन कागज में लिपटा हुआ चूड़ियों का डिब्बा निकाला और धनसिंह की तरफ बढ़ाकर बोला, 'जब अपने घर जाओ तब इसे अपनी बहनों के लिए ले जाना।'
लड़का विमूढ़ होकर पूछने लगा, 'इसमें क्या रखा है शाबजी?' शायद डिब्बे में बंद चीज के बारे में अनुमान लगा सकना उसके लिए एकदम असंभव था।
उसने लड़के की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। सदरी की जेब से एक रुपये का नोट निकालकर लड़के को देते हुए बोला, 'पचास पैसे अपने मालिक को चाय के दे देना और बाकी की तुम पकौड़ियां खा लेना।'
लड़के ने उसे याद दिलाया, 'शाबजी, आपने मेरे लिए पैलेई रुपया दे दिया था।'
'कोई बात नहीं। इसे भी रखो।' और यह कहकर वह बैंच छोड़कर खड़ा हो गया।
लड़का एक हाथ में रंगीन पैकेट और रुपया दूसरे हाथ में चाय का खाली प्याली पकड़े बौखलाया-सा उसे देखता रह गया। उसके चेहरे की सहज, निश्चल मुस्कराहट एकाएक न जाने कहां तिरोहित हो गई। उपहार पाने की खुशी तो दूर, वह तो जैसे विमूढ़ होकर खड़ा रह गया।
लड़के को पैकेट देकर वह वहां से खिसक लिया। वह लड़के का विश्वास नहीं जीत पाया तो फिर उपहार की पुलक ही क्या दे पाता?
प्रतिदान की चूक से त्रस्त और खाली होकर उसने सूरज के ओझल पार देखा - वहां कोई लाली शेष नहीं रह गई थी और सारा शहर धुएं की गिरफ्त में जैसे समा गया हो। दिशाबोध से शून्य होकर वह यों ही भ्रमित-सा आगे बढ़ने लगा। किधर - उसे सूझ नहीं पा रहा था।