ठहरा हुआ समय / सांवर दइया
पाँच बज गए। मदन घड़ी देखता है। आलस्य मरोड़ता है। उबासी लेता है। उठने की सोचता है, लेकिन उठता नहीं है। कुछ देर वैसे ही पड़ा रहता है। मन मसोसता है। लेकिन रहा नहीं जाता। उठता है। उठकर दातुन करता है। शुरू से यही आदत है। पाँच बजते ही आँख खुल जाती है। गरमी हो या सर्दी, कोई अंतर नहीं पड़ता। वह एक लोटा पानी पीता है। कुछ देर तक खाट पर बैठा रहता है, फिर शौचादि से निवृत होने जाता है। लौटकर स्नान करता है। मदन घड़ी देखता है-छह बज गए। लड़का अभी तक दूध लेकर आया कैसे नहीं ? वह सोचता है-कल तो इस समय तक आ गया था। लेकिन आज क्या हुआ ? आता ही होगा। यह सोचकर खाट पर बैठ जाता है। पूजा-पाठ की तो आदत नहीं है। यदि होती तो कुछ वक़्त इस धंधे में ही कट जाता। वह सोचता है-लेकिन अब तो मन ही नहीं करता। क्या रखा है पूजा-पाठ में ! लेकिन ये तो संस्कार होते हैं। होते हैं तो बचपन से ही हो जाते हैं हुँह ! लड़का दूध दे जाता है। वह उठता है। स्टोव जलाता है। चाय बनाता है। छानता है। पीता है। टोपिया-गिलास धोता है। चाय-चीनी के डिब्बे आले में व्यवस्थित करता है। मदन घड़ी देखता है-सात बज गए।
वह स्कूल जाता है। घण्टी बजती है। लड़के कक्षाओं में जाते हैं। उपस्थिति होती है। लड़के लाइन से मैदान में आते हैं। प्रार्थना होती है। समाचार पढ़े जाते हैं। प्रवचन होता है। जन गण मन होता है। लड़के कक्षाओं में जाते हैं। एक कक्षा से दूसरी कक्षा। दूसरी से तीसरी। चौथा कालांश रिक्त है। वह लाइब्रेरी में बैठता है। अख़बार पढ़ता है। कल का अख़बार है। आज का तो शाम को आएगा। मोटर गाँव से सुबह जाती है। शाम को वापस आती है। उस समय अख़बार आता है। अर्द्धावकाश होता है। सभी स्टाफ़ रूम में एकत्र होते हैं।
गप्पें चलती हैं। चाय चलती है। निंदा चलती है-वहाँ अनुपस्थिति व्यक्ति की। सामने बैठे हुओं की तो प्रशंसा करनी ही पड़ती है। घंटी फिर बजती है। लड़के आते हैं। फिर उपस्थिति होती है। पाँचवाँ कालांश रिक्त है। वह स्टाफ रूप में बैठा दीवारें ताकता है। छत में लगी पत्थर की शिलाएँ गिनता है। कमरे में रखी कुर्सियाँ गिनता है। कमरे की खिड़कियाँ गिनता है। खिड़कियों में लगी लोहे की सलाखें गिनता है। मदन छठा कालांश लेता है। सातवाँ कालांश लेता है। आठवाँ कालांश लेता है। टनन्-टनन्...टन्...! पूरी छुट्टी होती है। लड़के घरों की तरफ़ दौड़ते हैं-रेवड़ की भाँति। मदन घड़ी देखता है। कपड़े बदलता है। लुंगी बाँधकर स्टोव से माथा-पच्ची करता है। चकले पर लोई रखकर बेलन चलाता है। तवे पर सिंकती रोटी देखता है। रोटी बनाता है। बेमन से खाता है। खाते हुए याद आता है-लड़का दही दे गया था न। दही के कारण एक फुलका फिर खा लेता है। फिर बर्तन माँजता है। चार फुलके प्लेट में ढककर रख देता है। शाम को काम आएँगे। भुजिया तो रखी है। एक वक़्त का खाना तो हो जाएगा।
मदन घड़ी देखता है-एक बज गया। वह खाट पर लेटता है। घड़ीभर को आँख लगती है। उबासी आती है। ओफ़्फ़ ! आऽऽ! कहकर करवट बदलता है। खाट चरमराती है। ललाट पर उभर आई पसीने की बूँदें पोंछता है। तकिया छाती के नीचे दबाता है। औंधा लेटकर ज़मीन देखने लगता है। अच्छे फँसे। उठाकर कहाँ पटका है।
मदन घड़ी देखता है-दो बज गए। वह उठता है। पानी पीता है। पानी पीते ही डकार आती है। वह पेट पर हाथ फेरता है। तोंद बढ़ गई क्या ? नहीं। रोटी ज़्यादा खाई थी न ! दही होने पर यही होता है। गर्मियों में दही स्वादिष्ट लगता ही बहुत है। वह खाट पर बैठ जाता है। मैला आँचल पढ़ने लगता है। चारेक पृष्ठ पढ़ता है। मन लगता है। लेकिन झपकी-सी आती है। वह पढ़ने की कोशिश करता है, लेकिन झपकी फिर आती है। पुस्तक एक तरफ़ रख देता है। आँखें झपकाता है। खाट पर पसर जाता है। नींद-सी आती है। उबासी लेता है।
मदन घड़ी देखता है-तीन बज गए। वह उठता है। पेशाब करके आता है। पानी पीता है। डकार फिर आती है। उबासी अलग से आती है। आँखें मसलता है। चाय पीनी चाहिए। वह सोचता है-चाय पीने से कुछ आलस्य उड़ेगा। वह स्टोव जलाता है। चाय बनाता है। छानता है। पीता है। टोपिया-गिलास, धोकर रखता है। उसे महसूस होता है कि शरीर में अब कुछ ताज़गी वापरी है। मैला आँचल उपन्यास उठाता है। जहाँ अधूरा छोड़ा था, वहाँ से आगे पढ़ने लगता है। मदन घड़ी देखता है-चार बज गए। क्या कर रहे हो...? कोई पुकारता है। वह मैला आँचल एक तरफ़ रखता है। खड़ा होता है। पूछता है-‘‘कौन है ?’’ बाहर से आवाज़ आती है-‘‘यह तो मैं हूँ, मंगलचंद !’’ ‘‘आइए...आइए...।’’ मदन कहता है। मंगलचंद भीतर आता है। खाट पर बैठता है। ‘‘चाय बनाऊँ ?’’ मदन पूछता है। ‘‘नहीं। अभी पीकर निकला हूँ। क्यों तकलीफ़ करते हो।’’ ‘‘मैंने भी आपके आगे-आगे पी है अभी।’’ मदन कहता है। मौन तैरने लगता है। मदन मंगलचंद की ओर देखता है। मंगलचंद मदन की ओर देखता है। ‘‘राजकुमार की तरफ़ चलें ?’’ मंगलचंद पूछता है। ‘‘चलो।’’ मदन कहता है वे दोनों रवाना होते हैं।
मदन घड़ी देखता है-पाँच बज गए। राजकुमार का कमरा। कमरे में मौन तैरता है। मंगलचंद राजकुमार की तरफ़ देखता है। मदन उन दोनों की तरफ़ देखता है। ‘‘आओ, ‘तीन-दो-पाँच’ खेलते हैं।’’ राजकुमार कहता है। ‘‘आए तो इसीलिए थे, लेकिन...।’’ मंगलचंद कहता है। वे ‘तीन-दो-पाँच’ खेलने लगते हैं। हार-जीत चलती रहती है। लेकिन तीनों का ही मन नहीं लगता। मदन को उबासी आती है। मंगलचंद भी उबासी लेता है। राजकुमार पूछता है-‘‘चाय बनाऊँ ?’’ ‘‘हाँ, बना लो...। दो घंटे हो गए।’’ मंगलचंद कहता है। राजकुमार चाय बनाता है। चाय पीते-पीते ही मदन को पूछता है-‘‘क्यों, कैसा लगा गाँव...?’’ ‘‘ठीक है..।’’ मदन कहता है। आवाज़ ऐसी, जैसे किसी गहरे कुएँ से आयी हो। ‘‘मन लगते-लगते ही लगेगा।’’ मंगलचंद कहता है। ‘‘हाँ ऽ, यह बात तो है ही।’’ राजकुमार उसकी बात का समर्थन करता है। मदन मरे हुए मन से मुस्कराता है-‘‘आपकी बात ठीक है...!’’
मदन घड़ी देखता है-‘‘छह बज गए।’’ राजकुमार कहता है-‘‘चलें गट्टे। चबूतरे पर चलते हैं।’’ वह पाजामा उतारता है। पैंट पहनता है। बुश्शर्ट पहनता है। कंघे से बाल सँवारता है। मंगलचंद कहता है-‘‘कंघा मुझे भी देना ज़रा..।’’ ‘‘चार ही तो बाल हैं। क्या करेगा बच्चे !’’ राजकुमार पूछता है। कंघा देता है। उसके चार बाल देखकर मदन मुस्कराता है। छैल भँवर रो कांगसियों ! कुछ ऐसा ही गुनगुनाता हुआ राजकुमार कंघा काँच के पास रख देता है। वह कहता है-‘‘आओ, चलें।’’ तीनों बाहर निकलते हैं। हवा अभी तक गरम है। रेत में चप्पल फट्-फट् करती है। पीछे धूल उछलती है। मदन सामने दीवार की तरफ़ देखता है। इंदिरा गाँधी का पोस्टर चिपका है। हाथ का निशान। इंदिरा लाओ : देश बचाओ। लो भाई, तुम्हें ले आए। यह रखा देश, बचाओ, यदि बचा सकते हो। भाव तो आकाश छू रहे हैं। लेकिन इसको क्या ख़बर। यह कौन-सी रोज़ाना दाल खाती है। बाज़ार जाकर चीनी थोड़े ही लाती है। चप्पल के भीतर से शूल गड़ता है। चीख़-सी निकलती है। वहाँ रुकता है। शूल निकालता है। ‘‘क्या सोचने लगे ?’’ मंगलचंद उसे खोया-सा देखकर पूछता है। मदन चुप रहता है। राजकुमार मुस्कराता है। कहता है-‘‘देखो भाई, नज़ीर तो हमसे पहले ही चबूतरे पर पहुँच गया है।’’ मंगलचंद उधर देखता है। नज़ीर एक व्यक्ति के साथ बैठा-‘चर-भर’ खेलता दिखाई देता है। इस व्यक्ति के ख़ूब बन आयी है। मंगलचंद कहता है। वे तीनों वहाँ जाकर बैठ जाते हैं। पीपल की ठण्डी छाया और लोग भी इकट्ठा होते हैं। बातें...बातें....बातें....। गालियाँ...। लगता है हर बात के साथ गाली ज़रूरी है, सब्जी में तेल-नमक की तरह।
मदन घड़ी देखता है-सात बज गए। ‘‘आओ, चलते हैं।’’ मदन कहता है। ‘‘घर पर कौन प्रतीक्षा कर रहा है ?’’ राजकुमार कहता है। ‘‘कुछ देर तो यहीं बैठें।’’ मंगलचंद कहता है। मदन सोचता है-अब ठहरना ही पड़ेगा। अन्यथा फिर कोई नया मुहावरा सुनने को मिलेगा। ‘‘अभी तो मोटर भी नहीं आयी।’’ नज़ीर ‘भर’ बनाकर गोटी ‘चरता’ है। ‘‘जल्दीबाज़ी मत करो। यदि दो बाज़ियाँ और जीत गया तो आपकी चाय पक्की। आप मेरी जीत के लिए माला फेरिए...।’’ ‘‘मोटर आने तक तो ठहरना ही पड़ेगा।’’ राजकुमार कहता है-‘‘आज तो मेरा यार प्रीतम सिंह आएगा। शहर से साग-भाजी लाएगा। घर चलकर पकाएगा। ख़ुद खाएगा। मुझे खिलाएगा।’’ मदन को महसूस होता है-यह तुकबंदी अच्छी कर लेता है। यदि बीस-पच्चीस लोगों के बीच इसी तरह बोले तो लोग इसे कवि-रूप में स्वीकार कर सकते हैं। ‘‘देखो भैया, यह बाज़ी तो जीत ली। एक बाज़ी और रही है।’’ नज़ीर कहता है। ‘‘आप इसी तरह माला फेरते रहिए। चाय पक्की होनेवाली है।’’ उसकी बात सुनकर मंगलचंद हँसता है। मंगलचंद को हँसता देखकर राजकुमार भी हँसता है। उन दोनों को हँसता देखकर मदन सिर्फ़ मुस्कराता है मरे हुए मन से। घर्रर्र...घर्रर्र...! आवाज़ सुनाई देती है। मंगलचंद कहता है-‘‘लगता है मोटर आ गई।’’ राजकुमार कहता है-‘‘हाँ भाई, तैयार हो जाओ ‘आई टॉनिक’ लेने के लिए।’’ ‘‘तुम्हारी यह आदत नहीं जाने की।’’ मंगलचंद कहता है-‘‘भाई यह गाँव है। इन आदतों के पीछे कभी जूते खिलवाओगे।’’ ‘‘मैं तो ज़िंदा ही इसी टॉनिक के पीछे हूँ।’’ राजकुमार कहता है।
मदन घड़ी देखता है-आठ बज गए। मोटर आती है। प्रीतम सिंह मोटर से उतरता है। कंधे पर बैग और हाथ में सब्ज़ी का थैला। बीस-पच्चीस आदमी उतरते हैं। दसेक स्त्रियाँ उतरती हैं। राजकुमार घड़ी-भर उधर तकता है। मदन पूछता है-‘‘क्या सब्जियाँ ले आए ?’’ प्रीतम सिंह बही बाँचने लगता है-‘‘कद्दू है..भिंडी है..प्याज़ हैं...आलू हैं..डंकोली छाप भुजिया है।’’ राजकुमार कहता है-‘‘चलो भैया, जल्दी चलो। रोटी बनानी है। खानी है। फिर बाँडी मारनी है।’’ मदन ‘बाँडी’ (साँप की एक जाति विशेष) का नाम सुनकर मन-ही-मन डरता है। प्रीतम सिंह कहता है-‘‘इन सालों की कमाई यही है। मैं बाँडी मारनी सीख गया।’’ राजकुमार कहता है-‘‘होऽ, ज़रूरत से ज़्यादा ही सीख गया। तभी उस दिन डोरी के टुकड़े को लाठी से पीट रहा था।’’ राजकुमार हँसने लगता है। दो दिन पहले की बात बताता है-प्रीतम सिंह को लघुशंका होती है। खुले चौक में दो क़दम चलकर वापस आता है। लकड़ी सँभालता है। दनादन पीटता है। राजतुमार जाग उछता है। टार्च लेकर जाता है। देखता है, डोरी का टुकड़ा है। राजकुमार फिर हँसता है। प्रीतम सिंह कहता है-‘‘भाई, सतर्कता रखनी ज़रूरी है। क्या पता कब बाँडी हमें खा जाए।’’ मदन को फिर डर लगता है। राजकुमार और प्रीतम सिंह अपने घर चले जाते हैं। मंगलचंद कहता है-‘‘अच्छा, मैं भी चलता हूँ।’’ मदन कहता है-‘‘ठीक है, कल मिलेंगे।’’
मदन घड़ी देखता है-नौ बज गए। वह खाट पर लेटा है। करवटें बदलता है। पेट में भारीपन महसूस होता है। वह सोचता है- ठण्डी रोटी खायी थी, इसी कारण गैस बन गई। भुजिया नहीं खानी थी। ठण्डी रोटी भी नहीं खानी चाहिए थी। लेकिन दोनों वक़्त माथापच्ची किससे हो ? मदन को खट्टी डकार आती है। बेचैनी महसूस होती है। अलमारी खोलता हैं। लौंग चबाता है। कुछ राहत महसूस होती है।
मदन घड़ी देखता है-दस बज गए। ‘‘ओ माँ ऽऽ ! ओ रे ऽ...।’’ चीख़ उभरती है। यह क्या हुआ ? मदन डरता है। सामनेवाले घर की बत्ती जलती है। लोग इकट्ठा होते हैं। वह भी जाता है। देखता है-आँगन में दसेक वर्ष की लड़की बैठी है। चीख़ रही है। पानी का लोटा भरने आयी थी...बिच्छू ने डंक मारा। कोई बतलाता है। लड़की की माँ अपने देवर से कहती है-‘‘जाओ, ओझा को बुला लाओ !’’ उसकी माँ हरिराम बाबा के प्रसाद और परिक्रमा बोलती है। ‘‘परसों गली में कुम्भारा नाग निकला था। बाबा को प्रसाद बोला, तब शाँति हुई।’’ एक बूढ़ा आदमी कहता है। इनकी बातें सुनकर मदन को डर लगता है। वह वहाँ से चला आता है।
मदन घड़ी देखता है-ग्यारह बज गए। आज की नींद तो गई समझो। वह सोचता है-बिच्छू..बाँडी का नाम सुनने के बाद नींद नहीं आती। वह करवटें बदलता है, सोचता है-आज मंगलवार है। ले-देकर व्यतीत तो सिर्फ़ सोमवार हुआ है। इस तरह कैसे काम चलेगा। घर की याद आती है। पिता, माँ और पत्नी का चेहरा आँखों के आगे तैरने लगता है। अनमना हो जाता है। फिर सोचता है-लेकिन कल ड्यूटी ज्वाइन नहीं करता तो ये आदेश निरस्त हो जाते। फिर निठल्ले घूमना पड़ता है। सरकारी नौकरी में एक बार घुसना अच्छा ही रहता है। पिताजी कहा करते हैं। यह घुस गये। देखते हैं, यहाँ से कब निकला जाएगा।
मदन घड़ी देखता है-बारह बज गए। उसे झपकी आती है। फिर आँख खुलती है। वह करवट बदलता है। सारी देह अकड़-सी गई है। ज़मीन पर सोने की आदत है। लेकिन यहाँ खाट पर सोना ज़रूरी है, वरना साँप-बिच्छू-बाँड़ी का डर रहता है। परसों ही गली में साँप निकला था। बूढ़े के शब्द उसके कानों में गूँजते हैं। क्या पता, घूमता-फिरता इधर ही आ जाए। उसे महसूस होता है कि रोम-रोम खड़ा हो गया है। ‘कँपकँपी’ छूटती है। महसूस होता है-गला खुश्क हो गया है। प्यास लगी है। उठना पड़ेगा। वह टालना चाहता है। प्यास बढ़ती है। उठना पड़ता है। लोटा भरता है। गट्-गट् पीता है। पानी पीते हुए को झींगुरों की आवाज़ सुनाई देती है। लघुशंका होती है। नाली के पास जाता है। दीवार के पास कुछ हिलता हुआ-सा प्रतीत होता है। वहम जागता है-बाँडी तो नहीं है ? दृष्टि टिकाकर देखता है। नहीं, कुछ नहीं। सिर्फ़ वहम है। डरता-डरता वापस आता है।
मदन घड़ी देखता है-एक बज गया। झपकी आती है। आँख लगती है। फिर आँख खुलती है। करवट बदलता है। सोचता है-एक बार घुसे वह तो अच्छा, लेकिन निकलेंगे कैसे ? पिताजी ने कहा था-राज्यादेश के लिए भाग-दौड़ करेंगे। अभी तो गंगा बह रही है। राज्यादेश ही राज्यादेश। हाथ धोने चाहिए। क्या पता, यह गंगा कब रुक जाए ?
मदन घड़ी देखता है-दो बज गए। आँख लगती है। फिर खुलती है। फिर आँख लगती है। सपना आता है। पत्नी...मित्र..शहर की सड़कें-गलियाँ..घूमना-फिरना... सिनेमा... होटलें...फिर मित्र...फिर पत्नी...। वह झटके से उठता है। घड़ी देखता है-पाँच बज गए। उसे विश्वास ही नहीं होता कि रात बीत गई है। वह आँख मलता है। आँखों से ‘गीद’ निकालता है। उबासी लेता है। एक बार फिर घड़ी देखता है। घड़ी बतलाती है-पाँच बज गए।
हिन्दी अनुवाद : मूल लेखक और कन्हैयालाल भाटी