ठहरी जिंदगी / शम्भु पी सिंह
फ्लैट में रहने वाले नौकरी-पेशा लोगों के लिए छुट्टी का दिन एक सौगात की तरह ही होता है। बच्चे साथ होते हैं तो घर में टाइम का पता ही नहीं चलता। मियां-वीबी दोनों लगे रहते थे। एक सुबह का नाश्ता बना रही होती, तो दूसरा बच्चे को तैयार कर रहे होते। एक को तैयार करो, तो दूसरा छिप जाता। सुबह-सुबह रोज की धमाचौकड़ी से पूरा घर गुलजार रहता। समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। अब दोनों बच्चे बड़े हो उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चले गए, तो हम मियाँ बीवी के लिए समय ही भारी लगने लगा। छुट्टी के दिन भी दो होते हुए भी अकेलापन ही लगता। अब आपस में घर-गृहस्थी की बहुत बातें करने को नहीं होती, तो अक्सर छुट्टी के दिन कहीं न कहीं घूमने निकल जाते। कहीं नहीं तो पटना का पार्क ही सही। कोई न कोई जान-पहचान के मिल भी जाता। नहीं भी मिला तो घूमते-घामते रात के दस बजे तक थके-मांदे होटल से खाना खाते घर आना होता या फिर कुछ खाने की पैकिंग ही करा ली। साथ-साथ खा लिया और चादर तान दी।
आज भी हमदोनों पार्क के मैदान का चक्कर लगाते हुए बच्चों के बारे में बात करते चहलकदमी कर रहे थे। दस साल पहले तक स्थिति भिन्न थी। बच्चे थोड़े बड़े हो गए थे। माँ पर डिपेंडेंसी नहीं थी। नौकरी-पेशा पत्नी की समस्याएँ थोड़ी अलग होती है। जब बच्चे छोटे थे तो नौकरी ही मुश्किल से हो रही थी। कभी-कभी तो मैं भी झल्ला जाता।
"छोड़ दो तुम नौकरी। नहीं तुम छोड़ सकती तो मैं ही छोड़ देता हूँ। ये दोनों का नौकरी करना कहीं बच्चे पर भारी न पड़ जाए। क्या करना है पैसे का। बच्चों के लिए ही न हम दोनों भागमभाग कर रहे हैं, अगर यही पैसा इनके भविष्य का रोड़ा बन रहा है तो क्यों कर रहे हैं हमलोग इतनी मशक्कत।" मेरी झल्लाहट पर श्रीमती जी मुस्कुराती रहतीं।
"तुम्हारे नौकरी छोड़ने से क्या फायदा। दो दिन भी नहीं संभाल पाओगे। दोनों इतने शैतान हैं कि तेरे से नहीं संभलने वाला। देखते हैं, कुछ दिन और वैसा लगेगा तो मैं छोड़ दूंगी, तुम टेंशन मत लो।" बच्चे बड़े हो गए तो सबकुछ पटरी पर आ गया। अब बच्चों पर सिर्फ निगाह रखने की जरूरत थी। पढ़ाई और अन्य दैनिक जरुरतों की समझ आ चुकी थी बच्चों को। श्रीमती जी के स्कूल की नौकरी का फायदा भी अलग था। सुबह आठ बजे तक जाना और तीन तक घर वापस। बच्चे भी साथ-साथ आते। बच्चे उच्च शिक्षा के लिए बाहर चले गए तो स्कूल के बाद श्रीमती जी कुछ सामाजिक कार्य भी करने लग गई। टाइम पास करने को उसने कुछ नया करने की ठानी। स्लम एरिया के बच्चों की प्राइमरी शिक्षा के लिए कार्य करने वाली संस्था को ज्वाइन कर लिया। ऑफिस से लौटते हुए मैं उसे साथ ले लेता। सप्ताह का पांच दिन तो ठीक-ठाक निकल जाता। वीकेंड में थोड़ी समस्या आती। कहाँ जाएँ, किससे मिलें। बच्चों के बिना एक अजीब-सा सूनापन। मैं तो मोबाइल पर भी साथियों, सहकर्मियों के साथ व्यस्त हो दफ्तर की टाइप्ड राजनीति में शामिल हो समय जाया कर लेता, लेकिन श्रीमती जी एक माँ भी है और एक माँ के लिए बच्चों के बिना कहीं और मन लगाना आसान नहीं होता है। तो अक्सर हम पार्क का रुख कर लेते।
आज भी पार्क का हम दोनों दो चक्कर लगा चुके थे। पार्क में बच्चों की धमाचौकड़ी चरम पर थी। अँधेरा हो चुका था। धीरे-धीरे लोग बाहर निकलने लगे थे। ठंढी बयार भी दस्तक देनी लगी थी। मैंने तो वैसे जैकेट पहन रखी थी। बहुत अधिक ठंढ का एहसास नहीं हो रहा था, लेकिन श्रीमती जी साड़ी पर एक शॉल डाले हुए थी। बात करते समय उसकी आवाज में मुझे हल्का कम्पन-सा लगा, जो ठंढ के कारण ही थी।
"अब हमें घर चलना चाहिए। ठंढ भी बढ़ गई है। पार्क भी खाली होने लगा है। तेरे बदन पर बस एक शॉल ही है। जनवरी के महीने में इससे ठंढ कहाँ जानेवाली। तुम महिलाओं को ठंढ के बचाव की चिंता कम, फैशन की अधिक होती है।"
"आप भी न। कुछ-से-कुछ बोलते रहते हैं। ऐसी कोई बात नहीं है। बहुत अधिक ठंड तो अभी नहीं हुई है, हाँ बच्चों का ध्यान रखा जाना चाहिए, इसलिए बच्चों के साथ वाले अभिभावक जाने लगे हैं। वैसे ज्यादातर महिलाओं को ठंड कम, गर्मी अधिक लगती है।" पता नहीं इस बात का उसके पास कौन-सा वैज्ञानिक कारण था, वह तो वही जाने। मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। हम बाहर निकलने वाले ही थे कि सामने से एक बुजुर्ग मेरी ओर आते दिखे।
"बाबू! एक बात बताओ। पटना में बूढ़े का कोई आश्रम है?" बुजुर्ग घबराए हुए से लग रहे थे। शायद तेज चाल या सांस से सम्बंधित किसी समस्या के कारण हांफ भी रहे थे।
"हाँ है ही। आप क्यों पूछ रहे हैं।" मुझे लगा दिखने में तो पढ़े लिखे और संभ्रांत दिख रहे थे। इनका तो अपना परिवार होगा। शायद किसी अपने मित्र या रिश्तेदारों के लिए जानकारी चाह रहे हैं।
"अपने रहने के लिए ढूँढ रहा हूँ। अब बर्दाश्त नहीं होता। घर से तो बच्चों ने पहले ही बेदखल कर दिया है। अपने ही मकान के गार्ड रूम में रिक्शेवालों के साथ रहता हूँ। कोई सरकारी होम हो, तो बता दो बेटा, इस बूढ़े पर बड़ी कृपा होगी।" मैं अवाक रह गया, उनकी बात सुनकर। जरूर कुछ विशेष बात है।
"आइए सर! हमलोग आराम से बात करते हैं। सबसे पहले आप थोड़ा स्थिर हो जाएँ। लीजिये पानी पीजीए। सारी जानकारी मैं आपको देता हूँ।" मैंने अपने झोले से पानी की बोतल निकाली, ठंढ के मौसम में भी पानी का बोतल मैं हमेशा साथ रखता हूँ। कुछ मिले न मिले, पानी थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीते रहने से आदमी हमेशा तरोताजा महसूस करता है।
"सर! पटना में कई ओल्ड एज होम्स हैं। प्राइवेट भी हैं और सरकारी भी। लेकिन आपको क्यों जरूरत आन पड़ी? देखने से तो नहीं लगता कि आपको कोई समस्या है।" मुझे उनकी वेशभूषा से जो लगा, वह बात जुबान पर आ गई।
"ठीक कहा आपने। अंचल में क्लर्क था। दो साल पहले अवकाश ग्रहण किया है। पद पर रहते हुए कभी लगा नहीं कि मेरे साथ भी कोई समस्या आ सकती है। लोगों की समस्या को सुलझाता था। बजाप्ता एसडीओ साहब की कोर्ट होती थी। पद पर रहते हुए शायद ही कोई केस पेंडिंग रहने दी हो मैंने।" बोलते-बोलते उनकी आंखें भर आयी। गला रुंध गया।
"आज मुझे ही बेटों ने घर निकाला दे दिया। सबकुछ मेरा है, लेकिन आज कुछ भी मेरे काम का नहीं रहा। सबकुछ छीन लिया बेटों ने। अब बताइये इस बुढ़ापे में मैं कहाँ जाऊँ। कौन सहारा देगा मुझे।" आंखे भर आयीं। फफक पड़े। मैंने उन्हें ढ़ाढस बंधाया।
"आप पहले अपने मन को स्थिर करें। रिश्तेदार ही सब कुछ नहीं होते। रिश्ते के अलावा भी बहुत कुछ है इस जहाँ में। जो भी आपके साथ हुआ, बहुत बुरा हुआ। लेकिन कुछ न कुछ रास्ते निकल जाएंगे। बच्चे आपके क्या करते हैं। ?"
"एक बेटा डीएसपी है। पटना में ही पोस्टेड है। दूसरा बेटा इंजीनियर है, मुंबई में एक फैक्टरी में काम करता है। एक बेटी है, जो दिल्ली में प्रोफेसर है। सबको पढ़ाया-लिखाया। बच्चों को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पढ़ाई बाधित न हो इसलिए आधी जिंदगी मैंने अकेले रहकर नौकरी की। पत्नी, बच्चों को पटना में ही रखा। सबों को अच्छा जॉब मिला। सभी खुशहाल हैं। लेकिन सबकुछ होते हुए आज मैं सड़क पर आ गया।"
"आखिर क्यों? ऐसा कैसे हो गया। जब सबकुछ आपका किया-धरा है, तो फिर कैसे आपको बेदखल किया जा सकता है। ?" "बच्चों की तो छोड़ो बेटा। मेरी बीवी भी बदल गई। वह भी उन्हीं बच्चों के फेवर में है। उन लोगों की ही बात सुनती है। मैंने दो मकान बनवाया। एक बीवी के नाम पर और एक बड़े बेटे के नाम पर है। बड़े बेटे ने अपने नाम के मकान को भाड़े पर दे दिया है। उसका किराया वही लेता है। छोटे का यही विरोध है। मैंने भी कहा कि जब तक मैं जिंदा हूँ, भाड़े पर मेरा हक़ होगा। लेकिन वह दबंगई कर रहा है। नहीं लेने देता। छोटे बेटे ने मकान में ताला लगा दिया है और माँ को अपने साथ मुंबई लेकर चला गया है। मेरे लिए बाहर का गार्ड रूम छोड़ दिया है। अब आप बताएँ मैं कैसे अकेले रहूँ, उस छोटे से कमरे में। मेरे से खाना बनाने का काम नहीं होता, तो साथ में गाँव के एक रिक्शेवाले को रख लिया है। उससे भाड़ा नहीं लेता हूँ। वह भी बेचारा दिनभर रिक्शा चलाकर आता है। कितनी देखभाल करेगा मेरा। पर्व-त्योहार में गाँव चला जाता है। कोई देखने वाला नहीं। उससे तो अच्छा है कि मैं किसी वृद्धाश्रम में रहूँ। कम से कम मेरे जैसे लोग तो वहाँ मिलेंगे। दो बात तो किसी से कर पाऊंगा।"
"ठीक है मैं आपको ओल्ड एज होम का पता दे देता हूँ। आपके लिए यही सही भी होगा। लेकिन पत्नी कैसे चली गई आपको छोड़कर। यह आश्चर्य की बात है।"
"इसमें आश्चर्य क्या है बेटा। ये इक्कीसवीं शताब्दी है। हर रिश्ता प्रोफेशनल हो गया है। बीवी कहती है अब बेटा सब जो कहेगा वही करेंगे न। लेकिन बात वह नहीं है। बेटे को मुफ्त की एक नौकरानी चाहिए, वह माँ के रूप में मिल गई है।"
"और बेटी?" मेरी जिज्ञासा बढ़ गई कि कम से कम बेटी तो पिता का पक्ष लेती है। तो बेटी ने क्यों नहीं कुछ किया।
"बेटा! मैंने अभी कहा न, सभी प्रोफेशनल हो गए हैं। बेटी कहती है मेरे लिए क्या रखा आपने। सब तो बेटों को दे दिया। इसलिए जिनके लिए किया है, उन्हीं की जिम्मेदारी बनती है, आपको रखना।"
"ठीक है, समझ गया मैं। ये है ओल्ड एज होम का पता। आप चले जाएँ वहाँ। उम्मीद है आपकी पूरी मदद की जाएगी। नीचे मैंने अपना नाम पता दे दिया है। कुछ भी समस्या आए तो कॉल करेंगे। यथासंभव मैं आपकी सेवा में मौजूद रहूंगा।"
"जुग! जुग! जियो बेटा। भगवान आपको सलामत रखे।" कागज हाथ से ले वे आगे बढ़ गए। पीछे से हम भी पार्क से बाहर निकल गए। फुटपाथ पर खड़े हो ऑटो का इंतजार करने लगे। उसी बुजुर्ग को मैंने फुटपाथ पर कुछ किताबों के साथ बैठे देखा। एक झोले में किताबों को समेट रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया। आगे बढ़ा-
"अभी तो आप मेरे से मिले थे न?" मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि अभी तो ये मेरे साथ पार्क में थे। कहीं दूसरे व्यक्ति तो नहीं हैं। "कौन हैं आप?" बुजुर्ग ने नजरें ऊपर उठायी।
"बाबा आपने अभी तो हमसे वृद्धाश्रम का पता मांगा था। पहचाना नहीं।" मुझे आश्चर्य होने लगा। इतनी जल्दी कैसे भूल सकते हैं।
"ओहो! हाँ! हाँ! अभी तो मैं अंदर नल पर पानी पीने गया था। तभी आप पर नजर पड़ी। तो मैंने आपसे पता मांगा। अब क्यों पूछ रहे हो बेटा। ?" उन्हें मेरे व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था।
"यहाँ इतनी सारी किताब। बेचने के लिए है। ?" श्रीमती जी भनभनायी-
"ये कौन-सा सवाल है तुम्हारा? तुम देख नहीं रही हो, बच्चों की किताबें हैं। बिक्री के लिए ही तो है।"
"आपको चाहिए कोई किताब क्या?" बूढ़े की नजरें मुझ पर टिक गई। मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना झोले की सारी किताबों को जमीन पर पलट दिया।
"आप अकेले हैं, किताबों को यहीं फुटपाथ पर छोड़ अंदर चले गए थे। कोई नहीं लेता है।" पता नहीं श्रीमती जी को ऐसा सवाल क्यों सूझा।
"यहाँ मेरा कोई अपना नहीं है बेटी। कौन लूट ले जाएगा। लूटते तो अपने हैं। पूरी जिंदगी की कमाई लूट ली। ये सौ पचास की किताबें लूटकर कोई क्या करेगा। ये किताब किसी बच्चे के काम ही आएगी। खरीद कर ले जाए या लूटकर। क्या फर्क पड़ता है बेटी। लूटा तो मुझे मेरे बच्चों ने। सभी लुटेरे घर के अंदर हैं। बाहर सब सही है।" किताबों को देखते हुए भी मेरी नजर उनसे नहीं हट रही थी। जवाब सुन श्रीमती जी को काटो तो खून नहीं जैसी स्थिति हो गई थी। बूढ़ी आंखों का सामना करने की हिम्मत हम दोनों में से किसी की नहीं थी। किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति से बुजुर्ग ने ही बाहर निकाला।
"देख लीजिए। कौन-सा चाहिए। ये सभी छोटे बच्चों की किताबें हैं। किस क्लास में है आपका बच्चा। ?" मैंने उनके प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। दरअसल मेरे पास कोई जवाब था ही नहीं। न बच्चों के क्लास की कोई जानकारी थी मुझे, न ही किताब की उपयोगिता की। मैने बिना देखे चार-पांच किताबें उठा ली। "इसके कितने पैसे हुए?"
"तेरह रुपये।" किताबों को उलट-पुलट कर उन्होंने देखा।
" खुल्ले पैसे नहीं थे। बीस रुपये का नोट मैंने बुजुर्ग के हाथ रख दी।
"मेरे पास रेजगारी नहीं है। आप तेरह रुपए दें।" मायूस निगाहें लगातार मुझे देखे जा रही थी। इतनी सर्द शाम में भी दो रुपये की आस उनमें भरोसा पैदा कर रहा था। "आप रख लें। मैं रोज यहाँ आता हूँ घूमने। कल मैं ले लूंगा।" कहते हुए शेष बिखरी किताबों को मैंने उनके झोले के हवाले किया।
"बहुत अच्छा बेटा। अब ठंड बढ़ गई है। कल जाऊंगा, वृद्धाश्रम पता करने। अभी घर जा रहा हूँ, रिक्शावाला इंतजार कर रहा होगा। आग का घूरा जलाया होगा। थोड़ा तापेंगे तो शरीर में गरमी आएगी।" कंधे पर झोला लटकाए बुजुर्ग एक लाठी के सहारे पैदल आगे बढ़ गए। मैं और मेरी पत्नी एकटक उस बुजुर्ग को तबतक देखते रहे, जबतक वह आंखों से ओझल नहीं हो गए। पता नहीं उनकी मंजिल कहाँ थी। वृद्धाश्रम का पता पॉकेट में लिए चल पड़े एक अनजान डगर पर, उनलोगों के आसरे जिन्हें वे नहीं जानते, जिनके लिए इन्होंने कुछ भी नहीं किया, उन्हीं के भरोसे बाकी जिंदगी काटने की चाह लिए। अब तो मेरे लिए भी कुछ सोचने, समझने को नहीं था। हाँ आज की रात थोड़ी बोझिल-सी लगने लगी। पता नहीं नींद आये न आये। सामाजिक ढांचा तो पहले ही टूट चुका था। पारिवारिक तानाबाना भी उलझता-सा लगा। रिश्ते बे-मायने लगने लगे। अब ऐसे भरोसेमंद रिश्ते न रहे, तो शेष क्या रहा। जिंदगी ठहरी-सी लगी। दिल्ली में उच्च शिक्षा की पढ़ाई कर रहे मेरे बच्चे उनके बच्चों की जगह लुटेरा दिखाई देने लगे। मेरा कंधा फुटपाथ पर बिखरी किताबों के बोझ से भारी हो चला। सबकुछ गड्डमड्ड होता जा रहा था। सर्द हवाओं में भी पसीना छूट रहा था। ठंडक तो थी, लेकिन एहसास नहीं था।