ठहाकों और क्रोध का अवमूल्यन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठहाकों और क्रोध का अवमूल्यन

प्रकाशन तिथि : 11 फरवरी 2011

भारतीय सिनेमा के हर दौर में हास्य फिल्में बनती रही हैं परंतु वर्तमान में फिल्म उद्योग और मीडिया में कुछ ऐसा माना जा रहा है कि केवल हास्य फिल्में ही सफल होती हैं। जबकि सफलता का प्रतिशत सभी प्रकार की फिल्मों में लगभग एकसा ही है। वर्तमान की हास्य फिल्मों से बेहतर हास्य फिल्में विगत दौर में गढ़ी गई हैं, परंतु उन्हें तत्कालीन समाज और मीडिया ने केवल मनोरंजक फिल्में ही माना तथा उनकी प्रशंसा में कसीदे नहीं पढ़े गए और न ही मकानों की छत पर खड़े होकर ढोल पीटे गए। किसी ने उन्हें क्लासिक भी घोषित नहीं किया।

उदाहरण के लिए जीनियस किशोर कुमार की 'चलती का नाम गाड़ी' ने उस दौर की अमिया चक्रवर्ती कृत 'सीमा' या बिमलराय की 'देवदास' से अधिक व्यवसाय नहीं किया, परंतु आज अगर उस श्रेणी की फिल्म बने तो वह शाहरुख और सलमान की किसी भी फिल्म से ज्यादा व्यवसाय कर सकती है। महमूद की 'पड़ोसन' अपने दौर में मुनाफा नहीं कमा पाई परंतु आज उस गुणवत्ता की फिल्म अक्षय कुमार अभिनीत सारी फिल्मों के बराबर व्यवसाय करती। इसी तरह गुलजार की संजीव कुमार अभिनीत 'अंगूर' जिसकी प्रेरणा उन्होंने शेक्सपीयर की 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' से ली थी, आज के दौर में शेक्सपीयर के स्वयंभू अनन्य भक्त विशाल भारद्वाज की सारी फिल्मों से ज्यादा व्यवसाय करती।

आज के कालखंड में सांस्कृतिक शून्य इस कदर गहरा गया है कि हल्की हास्य फिल्मों को खूब सराहा जा रहा है। जबकि 'चलती का नाम गाड़ी' के दौर में समाज सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों को सराहता था और गंभीरता से लेता था। उस दौर में 'प्यासा' और 'साहब बीवी और गुलाम' को सराहा गया और फिल्मों ने मुनाफा भी कमाया। आज 'तेरे बिन लादेन', 'फंस गए रे ओबामा' और हबीब फैजल की 'दो दूनी चार' जैसी सार्थक हास्य फिल्मों का व्यवसाय फूहड़ 'गोलमाल' या असफल 'तीस मार खां' से बहुत कम है और ये फिल्में अपने सीमित बजट में बनाए जाने के कारण मुनाफा कमा पाईं। मराठी भाषा में कुछ हास्य फिल्में सफल रही हैं परंतु उन्होंने दादा कोंडके की फूहड़ फिल्मों के बराबर व्यवसाय नहीं किया। ये सारे आंकड़े और नतीजे स्पष्ट कर रहे हैं कि इस दौर में फूहड़ता को सराहा जा रहा है और उनकी व्यावसायिक सफलता के कारण क्लासिक की परिभाषा बदली जा रही है।

इसी तरह आज कवि सम्मेलन और मुशायरों में भी सतही कविता को खूब सराहा जाता है, जबकि एक जमाने में गंभीर काव्य को श्रोता सारी रात सुनते थे। आज कवि सम्मेलन और मुशायरे भी दो प्रकार के हो गए हैं, देखने में अच्छे लगने वाले और सुनने में श्रेष्ठ लगने वाले। इतना ही नहीं कितने ही हंसोड़ से सतही लोग संसद में जा विराजे हैं। आज के तमाम खोखलेपन के लिए आम आदमी भी कुछ हद तक जवाबदार है। क्योंकि वह गलत चीजों पर तालियां पीटता है और उसके हाथ के पत्थर भी गलत निशाने पर फेंके जा रहे हैं।