ठीक से रो भी नहीं पाती नई पीढ़ी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :22 जनवरी 2016
डिम्पल कपाड़िया को लेकर 'रुदाली' फिल्म बनाई गई थी। यह रुदाली परम्परा कुछ प्रांतों में सदियों से जारी है। परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु पर व्यावसायिक रूप से रोने वालों, छाती कूट करने वालों को मेहनताना देकर बुलाया जाता है। यह काम औरतें ही करती हैं। यह प्रथा धनाढ्यों की अपनी दौलत का अभद्र प्रदर्शन है। उन्हें मेहनताना तो मिलता है परंतु उनका रुदन दिल दहला देता है। क्या यह संभव है कि यह वर्षों बाद खोजी गई 'मैथड एक्टिंग' का प्रारंभिक चरण रहा हो। रूदाली करने वाली महिला उस मृतक को जानती भी नहीं है, जिसकी मृत्यु पर उसे पारिश्रमिक देकर रोने के लिए बुलाया गया है, अत: वह संभवत: अपने किसी निकट की मृत्यु की याद दिल में जगाती है, तभी उसका रुदन दिल दहला देता है। गौरतलब है कि मरा कोई है और किसी अन्य की मृत्यु की यादों की जुगाली करके हृदय विदारक रुदन होता है। मुस्कराहट और ठहाका नकली हो सकता है परंतु आंसू केवल मगरमच्छ के नकली हो सकते हैं। नेता अपनी झेंप छिपाने के लिए ठहाका लगाते हैं। चतुर नार जानती है कि किस प्रशंसक को एक इंच मुस्कान देनी है और किसी को महज आधा इंच और मजे की बात है कि मुस्करा रहे हैं, बिना मुस्काए इसका भ्रम भी बनाया जा सकता है।
आंसू मनुष्य इतिहास का आवश्यक अंग रहा है। नीरो जैसा तानाशाह रोम को जलाकर बांसुरी बजा रहा था और जो आंसू उसने बहाए उसे उसके गुलाम कांच के बर्तन में एकत्रित करते थे। साहित्य में भी आंसुओं पर बहुत कुछ लिखा गया है। आंसू की एक मौलिक अभिव्यक्ति हमें रवींद्रनाथ टैगोर के ताजमहल वर्णन में मिलती है, 'ताज वक्त के गाल पर थमा हुआ आंसू है।' फिल्म गीतकार क्यों पीछे रहते? हसरत जयपुरी ने लिखा, 'ये आंसू मेरे दिल की जुबान है।' महान जयशंकर प्रसाद ने लिखा, 'जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तिष्क में स्मृति-सी छाई, दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसने आई।' कासिफ इंदौरी ने लिखा, 'सरासर गलत है इल्जाम-ए-बलानोशी का, जिस कदर आंसू पीये हैं, उससे कम पी है शराब।' फिल्म नायिकाएं आंसू बहाने के शॉट के पहले आंख में ग्लिसरीन डालती हैं परंतु मीनाकुमारी ने कभी ग्लिसरीन का सहारा नहीं लिया, वे शॉट रेडी होते ही सचमुच के अांसू बहाती थीं। जाने कौन-सी घनीभूत पीड़ा थी उनके दिल में? जीवन के आंसू व मुस्कराहट को शैलेंद्र ने क्या खूब बयान किया है। 'मरकर भी किसी को याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे, जीना इसी का नाम है।' इसी विचार को दृश्य रूप में प्रस्तुत किया है राज कपूर ने 'जोकर' के एक शॉट में जो, 'आंसू के मध्य से देखी मुस्कान को प्रस्तुत करता है।' 'परवरिश' का दत्ताराम द्वारा बनाया गया गीत है, 'आंसू भरी है जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं।' जानकारों का कहना है कि यह धुन भी राज कपूर की बनाई हुई है। यह घटना नरगिस से उनके अलगाव के बाद की है।
हाल ही में किसी विज्ञापन फिल्म में रूदाली करती स्त्रियों का मेहनताना नहीं दिया जाता, तब एक बुजुर्ग स्त्री कहती है,'आज की पीढ़ी ठीक से रो भी नहीं पाती।' कई बार विज्ञापन फिल्में कथा फिल्मों से ज्यादा गहरी बात कह जाती है। आज की युवा पीढ़ी आर्थिक उदारवाद के बाजार युग की संताने हैं। उन्हें कड़ी प्रतिद्वंद्विता के बीच केवल सफलता को साधना है और आंसू बहाने को वे कमजोरी समझने की भूल कर रहे हैं। साहसी व्यक्ति खून का दरिया बहा सकता है परंतु आंसू नहीं देख पाता। इस प्रकरण का सबसे त्रासद पक्ष यह है कि वे रोना चाहते हैं परंतु दिल में समाया बाजार का इस्पात उन्हें रोने नहीं देता। एक बस यात्रा में युवा अपने पिता की शवयात्रा के लिए जा रहा था। वह सचमुच अपने पिता को बहुत प्रेम करता था। वह अपने गांव पहुंचने के पहले आखिरी स्टाप पर दुकान से प्याज खरीदता है और घर पहुंचने से पहले आंखों में प्याज का रस डाल देता है ताकि समाज उस पर लांछन न लगा सके कि यह कैसा पुत्र है, जिसकी अांखें पिता की मृत्यु पर नम नहीं होतीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या है कि चाहने पर भी रोना कठिन हो गया है। इस भयावह खोखलेपन को कैसे भरे? इसके कारण अनेक हो सकते हैं और उपचार केवल जीवन मूल्य और सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापा है। एक शंका है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार झुठे वादे करती है और फिर ऐसा समा बांधती है मानो वादे पूरे हो गए, यहां तक कि भूखे अधिक खाने के भ्रम से मरने लगें। इस यथार्थ की छाया है, हमारा चाहकर भी नहीं रो पाना।