ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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बसंती आगे-आगे और नाथ पीछे-पीछे। उसकी गंध से खिंचा-सा नाथ।

पर्वत की ढलवीं पगडंडियों पर कोल्हू के बैल की भाँति चलते हुए बसंती और नाथ। बोझ ढुलक-ढुलक पड़ता। घुँघरूओं एवं घंटियों की खनन-खनन से घाटी में मधुर स्वर लहरियाँ तैरने लगीं। भूतनी के टीले पर पहुँचते ही बसंती ने हिनहिनाना शुरू कर दिया। नाथ ने भी पूँछ उठाकर जयघोष किया गया बसंती की हाँ में हाँ मिलाई। अचानक दोनों ठहर गए। नाथ ने बसंती को चाटना को चाटना शुरू किया, बसंती के रोएँ खड़े हो गए।

उर्वि ने घूरकर राधू की ओर देखा। राधू ने शरारत भरी अदा में कहा, ये तुम्हारी तरह साधनी नहीं हुए हैं।

उर्वि के शरीर में जगमग-जगमग होने लगी। राधू की आंखें चमक उठीं। उर्वि की इच्छा हुई कि वह भी जोर से हिनहिनाए ताकि उसकी आवाज भी जंगल के नन्हें-नन्हें पेड़-पौधों से लिपट जाए। उसने राधू को निहारा। राधू की आँखों में भी आमंत्रण था।

भार मुक्त होते ही बसंती तथा नाथ बेतहाशा उछल-कूद करने लगे। वे मिट्टी में लोट-पोट हो कल्लोज कर रहे थे तथा एक-दूसरे को चाट रहे थे।

राधू।

हाँ, उर्वि।

बसंती भी साधनी क्यों नहीं हो जाती?

तुम्हें नाथ से ईर्ष्या हो रही है?

हाँ, शायद नहीं। लेकिन राधू यह बताओ, क्या नाथ साधू नहीं बन सकता?

वैसे तो साधू बनने बनाने की परंपरा है ही नहीं, यदि होती भी तो मैं हरगिज भी साधू न बनता। राधू ने विश्वस्त स्वर में कहा।

हूँ।

तुम्हें अच्छा लगता हैं?

क्या?

साधनी बनकर जीना।

नहीं तो, मुझे तो याद भी नहीं, मैं कब साधनी बन गई। शायद मेरा जन्म ही साधनी के रूप में हुआ है। उर्वि ने आह भरकर कहा।

वह चार या पाँच वर्ष की रही होगी। घर में उत्सव छाया हुआ था। उसे रेशमी कुर्ता-पायजामा पहनाते हुए माँ ने कहा था, उर्वि! तुम्हें साधनी बना रहे हैं बोलो-अडिग रहोगी?

उर्वि को क्या पता क्या साधनी होती। बस.....अच्छे कपड़े मिल गए, रेशमी कुर्ता-पायजामा पहन लिया। गाँव भर को बकरे का भोग लगा दिया। बस हो गई साधनी। माँ के प्रश्न ने उसे चौंकाया नहीं था। वह मुस्करा भर दी थी। नन्हीं कोंपल को क्या पता कि ठूँठ क्या होती है।

फिर वह उछलती-कूदती गाँव भर में हो आई थी। सबसे कह रही थी-मैं। साधनी बन गई। मैं साधनी हो गई।

घर में उसका खास दर्जा हो गया था, समाज में भी वह आदमियों की भाँति घूमती रहती। खेत में काम करती, घर में भी। वह सफेदे के वृक्ष की भाँति बढ़ने लगी थी।

गाँव में खुमारी छाई थी।

उर्वि की हम उम्र सहेली हिमजा का विवाह था। कुल आठ वर्ष की गुड़िया और दूल्हा दस-बारह साल का। पग्गड़ धारण किए हुए, नया चोला, डोरा पहने हुए।

बारात लड़खड़ाती हुई झूम रही थी, नाच रही थी। सारे वायुमंडल में एक लय उभर आई थी।

उर्वि ने अपनी माँ से पूछा था, हिमजा के यहाँ आज क्या हो रहा है?

उसका विवाह हो रहा है।

क्यों?

क्यों क्या? सब लड़कियों का विवाह होता है?

तुम्हारा भी हुआ था, माँ?

हाँ।

लाड़ा-लाड़ी को ले जाता है?

तुम्हें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। माँ ने समझाया था।

क्यों?

क्योंकि तुम साधनी बन चुकी हो।

साधनी क्या लड़की नहीं रहती? तुमने अभी तो कहा कि सभी लड़कियों का विवाह होता है। कल मेरा विवाह नहीं होगा? उर्वि ने आश्चर्य से पूछा।

नहीं होगा, नहीं होगा। तुम साधनी हो और साधनियों का विवाह नहीं होता। माँ ने खीझकर कहा।

माँ, साधनी और भूतनी में कोई अंतर नहीं होता?

होता क्यों नहीं! भूतनी तो भटकती हुई आत्मा है और साधनी जीवित लड़की।

साधनी लड़की होते हुए भी माँ-बाप के घर में लड़का बनकर रहती है। तू तो हमारा लड़का है।

तो मेरे लिए दुल्हन लाओ न, माँ ने अनुरोध किया था। माँ ने झिटक दिया था। आस्तव में माँ के पास उसके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था। उसके अंदर कुछ-कुछ कुलबुला रहा था। कह रहा था। प्रश्न उभर रहे थे। अच्छी भली लड़की को लड़का मानने के लिए साधनी बना देना कहाँ का न्याय है। लड़की होकर लड़कों की तरह रहे बस माँ-बाप की खुशी के लिए। उसकी इच्छा हुई कि वह भूतनी बन जाए। कम से कम लोग उससे डरेंगे तो सही।

वह अचानक भूतनी के टीले की तरफ बढ़ गई थी। गाँव में अब भी शहनाई बज रही थी। टीले पर जाकर वह मिट्टी में लोटने लगी थी। उसका सारा मुँह-सिर मिट्टी से लथपथ हो गया था। आधी रात के बाद घर लोटी थी। उसने अपने घर का दरवाजा खटखटाया।

कौन?

मैं, भूतनी।

हे राम ! जाओ-जाओ अपने टीले पर लौट जाओ। बदहवास-सी माँ बोली।

अगले दिन चेला बुलाया गया था।

उर्वि की झाड़े-फूँक की जा रही थी। चेला मंत्र बोले जा रहा था। उर्वि मुस्करा रही थी, मैं भूतनी, मैं भूतनी, तू भूत, मिटा न अब छुआछूत। मैं भूतनी तू भूत, मिटा न अब छुआछूत। चेला अब फिर जोर से चिल्लाने लगता-हुड़दंग...पकडदंग....चल मेरे संग.....भूतनी के टीले.....चल मेरे संग.....लकड़दंग, पकड़दंग.....मैं न जाऊँ तेरे संग....उर्वि गुर्राई चेला बेहोश हो गया था।

खड्ड में पत्थर लुढ़कने लगे। पत्थरों में रहते हुए उर्वि पत्थर हो गई थी। बस, बँधा-बँधाया काम। सुबह होते ही घोड़ों पर सामान लाद कर कनारथू से शिबगढ़ी जाना सांय होते ही लौट आना। उसका साथी था राधू। बहुत वर्षों से वह इकट्ठे ही घोड़े लेकर निकलते थे।

शिव गढ़ी के लोग कनारथू क्यों नहीं आते? उर्वि पूछती है।

कनारथू में भूत-प्रेतों का बास है।

क्या हम भी भूत-प्रेम है?

हाँ, उनकी नजर में तो हम भूत-प्रेम ही हैं।

कहते है शिव गढ़ी से एक व्यापारी कनारथू आ रहा था। यह विश्राम के लिए भूतनी के टीले के पास रूक गया। उसने चरने के लिए घोड़े खुले छोड़ दिए।

फिर?

फिर क्या? एक चिड़िया आकर उस व्यापारी की पगड़ी पर बैठ गई। उसने चिड़िया को उड़ाना चाहा-परंतु वह उड़ी नहीं। चिड़िया के बोझ से वह व्यापारी बेहोश होने लगा। उसे अपने घोड़े दो-दो टुकड़ो में बंटे दिखाई देने लगे। बीच में से कटा हुआ घोड़ा अगली दो टांगों के बल पर घास चरता हुआ......वह चिल्ला रहा था....नहीं.....नहीं।

कोरी बकवास मैं नहीं मानती।

तुम्हारे मानने न मानने से क्या होता है।

क्यों?

अंबा ने यह घटना स्वयं देखी थी।

वहीं अंबा जो कनारथू के बाहर जंगल में रहती है?

हाँ, अंबा ने ही गांव वालों को बताया था कि चिड़िया भूतनी ही थी....और व्यापारी के अंदर का भूत भयभीत हो गया था। इसलिए उसकी आंखों में फर्क आ गया था।

क्या वह व्यापारी बच गया था?

व्यापारी। क्या बचना था.....कुछ मास तक वह चारपाई पर लेटा रहा। सड़ता रहा.....फिर उसे खून की उल्टियाँ आने लगीं और एक दिन.....।

मैं बताऊँ राधू, वह क्यों मरा?

हाँ, बताओ।

वह बीमार था!

तुमने कैसे जाना?

कनारथू में सब लोग बीमार है?

तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने है।

हाँ, कोई ऐसा पर बता सकते हो, जिसमें किसी को खून की उल्टियाँ न आती हों।

शायद वह तो खाने-पीने की जगह है।

तुम सच्ची साधनी हो। यह सब मेरी समझ से बाहर की बातें हैं।

क्या तुम साधु नहीं बनना चाहोगे? एक बार फिर सोच लो। उर्वि ने कहा था।

तुम तो मेरे पीछे ही पड़ गई हो। साधु बनने से मुझे फायदा नहीं होगा।

क्यों?

क्योंकि में लड़का हूँ। लड़कों को वैसे ही संपति का उत्तराधिकार मिल जाता है।

तो लड़कियों की क्यों नहीं मिलना?

लड़कियों को भी मिलता है, परंतु इस गांव में नहीं। जिस पर में लड़का नहीं होता, वहाँ लड़कियों में से एक को साधनी बना दिया जाता है, ताकि माँ-बाप की सारी संपति उसे मिल सके और फिर समाज में उस घर ही इज्जत भी बढ़ जाती है।

और जब साधनी मर जाएगी तो.....

मुझे नहीं पता.........साधनी भी कमी मरती है? संपति तो उसकी ही रहेगी।

बेवकूफ। सिर्फ संपत्ति के लिए अच्छी-भली लड़की को साधनी बनाकर रख देते है।

तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए।

क्यों, क्या सारे प्रतिबंध साधनियों के लिए ही हैं?

तुम साधनी नहीं रहना चाहती?

हरगिज नहीं।

किसी से कहना मत, उन्होंने सुन लिया तो तुम्हें काटकर रख देंगे।

मैं एक-एक को देख लूंगी। मैं क्यों बनूं साधनी.....क्यों तिल-तिल मरती रहूँ,......क्यों में मलंग-सी घूमती रहूँ सिर्फ संपति के लिए। ये मिट्टी भी किसी की हुई है। कल मैं मर जाऊँगी, मिट्टी में मिल जाऊँगी....फिर? बस....क्या वह सब प्रतिबंध मिट्टी के शमन के लिए है....राधू, तुम भी बेवकूफ हो।

उर्वि, तुम भटक रही हो।

तुम डरपोक ही रहे न। उर्वि की व्यंग्य मुस्कान राधू को चीर जाती। परंतु वह चुप हो जाता। साधनी से संबंध स्थापित करना भूतनी के क्रोध को आमत्रित करना था।

वह तूफान-सी शांत थी। एक सांय वह अंबा के पास पहुँच गई थी। अंबा को हैरानी हुई थीं। कनारथू गांव के ऊपर पहाड़ की चोटी पर अंबा की कुटिया थी।

कैसे आई उर्वि?

अंबा! आप मुझसे बहुत बड़ी हैं।

बड़ी-छोटी से कोई अंतर नहीं पड़ता। हैं तो दोनों साथिन।

अंबा, अब अकेली रहती हो। कभी कनारथू नहीं आतीं? क्या कोई मोह नहीं जागता?

पगली मोह कैसा? साधनी का जीवन तो ठूँठ होता है, जेा कभी फलता-फूलता नहीं।

नहीं अंबा, मैं नहीं मानती।

तुम साधनी हो और साधनी का अर्थ मोह-माया त्यागना है।

क्या तुम्हें कभी यौवन में भी कोई इच्छा जागृत नहीं हुई।

क्यों कुरेदती हो?

तुम्हें विद्रोह करना चाहिए था। बैलों की तरह बघिया करके रख देना.....।

उर्वि कुछ मत कहो। मेरे फफोले फूटने लगेंगे। अंबा का तन पिघलने लगा था।

अच्छा अंबा, एक बात सचमुच बताना.....क्या कभी तुम्हारे मन में किसी पुरूष के लिए प्रेम अंकुरित नहीं हुआ?

तू तो मेरे जख्मों को कुरेदने लगी। शरीर में खून का प्रवाह हो, तो प्रेम क्यों नहीं होगा। हुआ था परंतु में भीरू बनी रही....और समय निकल गया। आह भरते हुए अंबा ने कहा।

वह कहां गया।

जहां से सब आते हैं।

क्या मतलब?

उर्वि। एक शाम वह बहुत भावुक हो गया था। कहा था-अंबा, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। तुम व्यर्थ में अपना जीवन नष्ट कर रही थी। मैं। तुम्हें अपनाने के लिए साधु बन जाता हूँ। यदि तुम मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं करोगी, तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। पता नहीं मेरे मन में क्या आया? मैंने कठोर होते हुए कहा, मैं तो साधनी हूँ। ठूँठ बिलकुल ठूँठ। तुम मेरी तपस्या में बाधा क्यों डालते हो? सुनो......फिर कभी मुझे शक्त नहीं दिखाना। मैं साधनी की परंपरा पर कलंक नहीं बनना चाहती। और वह फिर कभी नहीं लौटा।

अच्छा, क्यों?

उसने बिनवा खड्ड में छलांग लगा दी थी।

ओह।

उर्वि की आँखों में आँसू थे। वह बोली, तुम्हें दुख तो हुआ होगा।

दुखः उस दिन से मैं यहां बाहर रहने लगी। उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना करते मेरा समय गुजरता है।

वह लौट कर नहीं आया?

वह हर रोज आता है........मुझसे बतियाता है......फिर चला जाता है।

उर्वि ने देखा अब अंबा की आँखों में विश्वास था। शायद अंबा अपने आपसे बतियाती होगी। इसलिए उसे पागल कहते हैं।

उर्वि लौट आई थी। एक भारी मन लिए। रात भर उसे नींद नहीं आई थी। उसने सोचा वह अंबा के पास जाकर उसका मन बहलाया करेंगी, परंतु अभी गांव सोया ही पड़ा था कि कोहराम मच गया। अंबा ने बिनवा खड्ड में छलांग लगा दी, अंबा ने आत्महत्या कर ली।

वह बीमार थी। कोई कह रहा था।

सब साधनियाँ बीमार होती है। दूसरा स्वर।

उसने भी तो आत्महत्या ही की थी।

साधनी हो तो ऐसी हो।

गाँव वाले अपने-अपने अनुमान लगा रहे थे, परंतु उर्वि जानती थी कि अंबा को आत्महत्या के लिए उकसाने में उसका भी सहयोग था।

बीड़ी के लंबे-लंबे कश खींचने के बाद वह बहुत देर तक दूर-दूर तक लहलहाते जंगलों को देखती रहीं। फिर बोली राधू।

राधू......तुम भी ठूँठ हो?

क्या मतलब?

उर्वि ने बसंती तथा नाथ के मुँह कनारथू की ओर मोड़ते हुए कहा, अलविदा।

क्या कहती हो? राधू बोला।

डरो मत, ठूँठ से भी घबराते हो। उर्वि ने भयभीत राधू को पकड़ा तथा प्रेमी युगल की मुद्रा में जंगल में खो गई।

बसंती तथा नाथ बहुत दूर निकल गए थे।