ठूंठ / रूपसिह चंदेल
"अरे, चाच्चा ---- आप----?" किर्र की आवाज के साथ लाल रंग की होंडा सिटी उनके बगल में रुकी तो वह चौंक उठे.
"चाच्चा, आपने अपना कुछ अता-पता ही नहीं दिया----- कितना खोजा! कब से-----!"
उन्होंने बीच में ही टोका, "कोई खास बात?"
"खास बात हो तभी आदमी अपनों को खोजता है?" लहजे में शिकायत थी, "आपने शक्तिनगर क्या छोड़ा, लगा जैसे दिल्ली ही छोड़ दी. मेरा अनुमान था कि आप होंगे इसी महानगर में, लेकिन----- शक्तिनगर के आपके मकान मालिक ने एक फोन नम्बर दिया था-----." उसने उनकी ओर देखा. वह निर्विकार-निरपेक्ष उसकी ओर देख रहे थे.
"नम्बर मिलाकर थक गया----- एम.टी.एन.एल. से पता किया, उनके रिकार्ड में वह दर्ज ही न था." वह क्षणभर के लिए रुका, "चाच्चा, गांव-घर के लोगों को तो बता ही देना चाहिए----- लेकिन-----."
उसकी ओर देर तक देखते रहने के बाद सधे स्वर में वह बोले, "मंगतराम, कुछ दिनों के लिए एकांत चाहता था----- बस्स."
"यह भी क्या बात हुई----- दिल्ली जैसे महानगर में एकांत? क्या आपको एकांत मिला? मेरा अनुमान है, शक्तिनगर छोड़े आपको चार वर्षों से अधिक हो गया होगा----- आपने कितने दिन एकांत में बिताए?"
उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. उसके प्रश्न का उत्तर उनके पास था भी नहीं. सच यही था कि एक दिन भी वह एकांत का सुख नहीं उठा सके थे. उठाते, तब जीते कैसे! मुकम्मल काम नहीं था. प्रकाशकों के लिए काम करके थक चुके थे, लेकिन वह वही काम कर सकते थे. पिछले चार वर्षों से वह 'गुजराती एण्ड सन्स' के लिए धार्मिक ग्रंथों के आधार पर अंग्रेजी में छोटी पुस्तकें लिख रहे थे. 'गुजराती एण्ड सन्स' की शाखा ही थी पटेलनगर--- दिल्ली में. उसका हेडक्वार्टर अमेरिका के 'ज्यू जर्सी' में था, जहां से वह पूरे अमेरिका में उन पुस्तकों की सप्लाई करता था. न केवल धार्मिक पुस्तकें वहां बेचता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों से संबन्धित सामग्री, यहां तक कि कफन तक का अमेरिका में एक मात्र बिक्रेता था 'गुजराती एण्ड सन्स' का मालिक शंभूभाई पटेल.
शंभूभाई पटेल की एक बार दिल्ली यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात उससे हुई थी और उन्होंने हिन्दी प्रकाशकों के काम छोड़कर उसका काम स्वीकार कर लिया था, क्योंकि वहां दूसरों की अपेक्षा उचित पारिश्रमिक मिलता और समय से मिलता था. शंभूभाई पटेल ने पहली मुलाकात में ही शर्त रखी थी, "जनार्दन भाई" वह सभी को गुजराती समझकर बात करता, "आप किसी भी प्रकाशक को यह नहीं बताएगें कि आप मेरे लिए काम कर रहे हैं. आपको पटेलनगर आने की आवश्यकता न होगी. मेरा बंदा आपसे काम ले आया करेगा और भुगतान का चेक भी दे आया करेगा."
"कोई परेशानी नहीं."
इस प्रकार जनार्दन शाह न केवल दूसरे प्रकाशकों से कटते गये थे, बल्कि - मित्रों-परिचितों से भी दूर होते गये थे. शक्तिनगर जैसे पॉश इलाके को छोड़ वह वाणी विहार चले गये और परिचितों से बिल्कुल ही अलग-थलग हो गये.
'लेकिन यह मंगतराम झूठ बोल रहा है. इस जैसे इंसान ने मुझे खोजने की कोशिश की होगी?---असंभव----." उन्होंने सोचा.
मंगतराम जनार्दन शाह के गांव का था. नौकरी की तलाश में वह दिल्ली आया तो सीधे उनके यहां पहुंचा. गांव में उनके विषय में चर्चा थी कि दिल्ली में उनका बड़ा कारोबार है------ किताबें छापने का. हालांकि उनके पिता ने गांव वालों से कई बार कहा भी कि वह किताबें नहीं छापते बल्कि किताबें छापने वालों के लिए काम करते हैं. लेकिन गांववाले उनकी बातों को हवा में उड़ा देते, "चाचा, यही तो आपका बड़प्पन है. जनार्दन भइया बड़े आदमी बन गये हैं. सुना है बड़े-बड़े लोगन ते उनकी पहचान है----- मंत्री -संत्री तक जानते हैं."
जनार्दन के पिता जानते थे कि वह गांव वालों को कितना भी क्यों न समझायें लेकिन वे जनार्दन के विषय में अपनी धारणा बदलने वाले नहीं. और तभी एक दिन दरियागंज के एक प्रकाशक के पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम को टेलीविजन में दिखाया गया. प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने पुस्तक का लोकार्पण किया था और जनार्दन प्रधानमंत्री के पास खड़े गांववालों को दिख गये थे.
"अरे, यो निरंजनशाह का बेटा जनार्दनवा है रे." ग्राम प्रधान की चौपाल पर टी.वी. देख रहे ग्रामीणों में से एक चीखा था, "हां रे भइया ----- कैसे हंसि-हंसि कै बातैं करि रहा है-----!" "वाह भइया, मानि गये. किस्मत चमकि गै निरंजन शाह की."
गांव में ग्राम प्रधान के यहां ही टी.वी. था----- ग्राम पंचायत का. रात सोने से पहले घर-घर जनार्दन की ही चर्चा रही थी और सुबह निरंजन शाह के दरवाजे लोग उन्हें बधाई देने पहुंचने लगे थे. भौंचक थे निरंजन शाह. उन्हें भी लगने लगा था कि जनार्दन उनसे अवश्य कुछ छुपाता है. निश्चित ही उसके संबन्ध बड़े लोगों से हैं----- लेकिन जब भी उन्होंने उससे अपने गठिया के इलाज के लिए दिल्ली ले जाने का प्रस्ताव किया उसने यह कहकर उनकी बात टाल दी थी, "पिता जी, एक कमरा है किराये का----- छत पर. बाथरूम और टॉयलेट कमरे से दूर छत के दूसरे छोर पर हैं. बरसात में छत पारकर वहां तक जाना होता है और सीमेंट के चादरों की उनकी छतें टपकती हैं."
गांववालों की बधाई ने बेटे के विषय में निरंजन शाह के मन में आशंका उत्पन्न कर दी थी. और उन्हीं दिनों टी.वी. समाचार से प्रेरित मंगतराम उनके पास एक दिन गया और बोला, "चाचा, वैष्णों देवी जाना चाहता हूं. लौटते हुए दिल्ली घूमने की इच्छा है. जनार्दन भइया के हाल भी लेता आऊंगा----- पता-----."
निरजंन शाह को बेटे की वास्तविक स्थिति जानने का इससे अच्छा अवसर अन्य क्या हो सकता था. जनार्दन का पता मंगतराम को देते हुए कहा था, "लौटते समय जनार्दन को भी सथ लेते आना बेटा. दो साल हो गये उसे गांव आए."
जनार्दन को साथ ले आने का वायदा करके दिल्ली घूमने गया मंगतराम स्वयं लौटकर गांव नहीं गया. दरअसल वह वैष्णों देवी नही, दिल्ली ही गया था नौकरी की खोज में और सीधे जनार्दन के यहां पहुंचा था. उसने जनार्दन से अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था और यह भी कि उन्हीं के भरोसे वह दिल्ली आया था और उनके अतिरिक्त उसका कोई अन्य ठिकाना भी नहीं. अंदर से परेशान जनार्दन ऊपर से सामान्य बने रहे थे. गर्मी के दिन थे. दिन में पत्नी, बेटी, और मंगतराम के साथ जनार्दन कमरे में सिमटे रहते और प्रकाशकों से लाये प्रूफ पढ़ते रहते, जबकि मंगतराम बीच-बीच में गांव में उनके विषय में होने वाली चर्चा छेड़ उनके काम में बाधा पहुंचाता रहता. स्वभाववश वह उसे कुछ कह नहीं पाते. रात में सोने के लिए खुली छत थी. कोई परेशानी न होती. यह सिलसिला एक महीना से अधिक चला, लेकिन इसी मध्य उन्होंने एक परिचित के माध्यम से मंगतराम को कमलानगर के एक बैंक के कर्मचारियों के लिए चाय सप्लाई करने का काम दिलवा दिया. चाय बनाने के लिए बैंक में छोटी-सी जगह भी उसे मिल गयी थी. स्टोव खरीदने से लेकर चाय-चीनी - बिस्कुट आदि के लिए जनार्दन ने उसकी सहायता की. मंगतराम का काम चल निकला तो दो महीने के बाद उन्होंने उसे शास्त्रीनगर में रहने के लिए एक सस्ता कमरा किराये पर दिलवा दिया. लगभग दो वर्षों तक मंगतराम प्रतिदिन शाम बैंक से लौटते हुए रात में उनके यहां आता और प्रायः उन्हीं के साथ भोजन करके जाता. लेकिन उसके बाद यह सिलसिला कम होकर एक दिन बंद हो गया था. कुछ दिनों बाद उसके विषय में उन्हें जो सूचना मिली वह चौंकाने वाली थी.
मंगतराम बैंक में चाय बनाने का काम बंद कर कहीं चला गया था.बैंक के कई कर्मचारी परेशान थे उसके अचानक गायब हो जाने से. उन्होंने जिस परिचित के माध्यम से उसे वहां रखवाया था उसने उन्हें उन बैंक-कर्मियों की परेशानी का कारण जब बताया तब वह और अधिक परेशान हो उठे थे.
मंगतराम कई कर्मियों से दस-दस हजार रुपये लेकर गायब हुआ था. उसने बहुत ही कौशल का प्रदर्शन किया था. एक से इस शर्त पर रुपये उधार लिए कि एक माह में पांच प्रतिशत ब्याज सहित रुपये उन्हें लौटा देगा. लेने वाले से उसने अनुरोध किया कि वह इस बात की चर्चा किसी अन्य से नहीं करेगा-----"साहब, इज्जत का सवाल है." उसने हाथ जोड़कर कहा था. एक महीना बाद दूसरे से उसी शर्त पर उधार लेकर उसने पहले वाले को लौटा दिया था ब्याज सहित. इस प्रकार वह एक से लेता, फिर दूसरे से लेकर पहले का चुकता कर देता. ऎसा उसने कई महीनों तक किया और सभी कर्मियों का विश्वास जीत लिया. और एक दिन उसने एक साथ दस या ग्यारह कर्मियों से उधार लिए और एक सप्ताह बाद शास्त्रीनगर का कमरा छोड़ कहीं चला गया. जब पन्द्रह दिनों तक वह बैंक नहीं पहुंचा तब उनके परिचित उसके विषय में जानकारी लेने उनके घर पहुंचे थे. उसे उधार देने वाले उसके विरुद्ध पुलिस में इसलिए रपट नहीं लिखा सकते थे, क्योंकि उनके पास उधार देने का कोई प्रमाण न था और एक अनजान व्यक्ति को बैंक की जगह पर चाय बानाने के लिए जगह देना भी गैर कानूनी था. उधार देने वाले अपने स्तर पर उसकी तलाश करते रहे. उन्होंने भी गांव में पिता को लिख जानना चाहा, लेकिन मंगतराम गांव नहीं गया था.
मंगतराम दिल्ली में ही था. उसने दक्षिण दिल्ली के एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान की कैण्टीन का ठेका ले लिया था. स्वयं गांव नहीं गया, लेकिन घरवालों को अपनी सूचना दे दी थी. घर से तार जुड़ गये थे, लेकिन उसने घर वालों को मना कर दिया था कि वे गांववालों को उसके विषय में कुछ नहीं बतायेगें ----- और न ही किसी रिश्तेदार को. एक दिन वह स्वयं गांव आकर सबको चैंका देगा. मायके जाने के बहाने उसने पत्नी को दिल्ली बुला लिया था. पत्नी भी कैण्टीन में उसका हाथ बटाने लगी थी.
गांव से जाने के लगभग आठ वर्ष बाद मंगतराम गांव में प्रकट हुआ. तब तक उसने एक सरकारी दफ्तर की कैण्टीन का ठेका भी ले लिया था. एक को पत्नी देखती और दूसरे को वह स्वयं संभालता.
जब वह गांव पहुंचा तब तक गांव में जनार्दन की 'बड़ा व्यक्ति' होने की छवि धूमिल पड़ चुकी थी. गांव वालों को उनसे गांव में जिस करिश्मे की आशा थी वह कुछ भी न दिखा था. अब मंगतराम उनका हीरो था. उसने गांववालों को अपने व्यवसाय की जानकारी नहीं दी, जबकि उसके रहन-सहन और खेत खरीदने की उसकी चर्चा से सभी ने अनुमान लगाया कि उसने इतने दिनों में खासा पैसा कमा लिया था. गांव के उसके साथी दिनभर उसके आगे-पीछे और उसके लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते. शाम उसकी चौपाल में जमघट होता और पास के कस्बे से मंगवाई गयी कच्ची की बोतलें खाली होती रहतीं.
वह एक सप्ताह गांव में ठहरा और उसने तीन गरीब किसानों के दस बीघा खेतों का सौदा तय कर लिया. बयाना दे दिया. चार महीने में रजिस्ट्री का निश्चय कर वह दिल्ली लौट गया. खेतों की रजिस्ट्री के दौरान उसकी दृष्टि पड़ोसी अनंत मिश्र के एक बीघा के उस घेर पर टिक गयी जो उसके घर के बायीं ओर था. घेर में अनंत के जानवर बांधे जाते थे और मंगतराम का छोटा-सा घर अनंत के घर और घेर के बीच में था.
मंगतराम के घर की भी एक कहानी है.
अनंत के पिता और मंगतराम के पिता अच्छे मित्र थे. मंगतराम के पिता संतराम शुक्ल पुरोहिती का काम करते थे. कठिनाई से गुजर होती. परिवार में बेटा मंगतराम, एक बेटी और पत्नी थे. रहने के लिए छोटी-सी झोपड़ी थी. झोपड़ी के नाम पर एक कोठरी. कोठरी के बाहर फूस का छप्पर, जो प्रतिवर्ष बरसात से पहले बदला जाता था. कोठरी के साथ एक और दीवार खड़ी करके छप्पर के नीचे रसोई बनाई गयी थी. दिनभर परिवार छप्पर के नीचे पड़ा रहता. बरसात और जाड़े में ही वे कोठरी में सोते. अनंत के पिता से मित्र का कष्ट देखा नहीं गया. गांव के घेर का लगभग साठ वर्ग गज का टुकड़ा उन्होंने संतराम को दे दिया. गांव के कुछ जजमानों और अनंत के पिता की सहायता से संतराम ने उसमें कच्ची ईटों की दो कोठरियां और रसोई बना ली. संतराम को घेर का हिस्सा देने के लगभग दो वर्ष बाद अनंत के पिता का देहांत हो गया था.
अपनी दूसरी यात्रा के दौरान मंगतराम ने एक दिन अनंत से घेर खरीदने की अपनी इच्छा व्यक्त की. उसमें वह बड़ा मकान बनाना चाहता था. अनंत के लिए यह अचम्भित करने वाला प्रस्ताव था. उसने इंकार कर दिया. मंगतराम ने इसे चुनौती के रूप में लिया. उसने निश्चय किया कि वह उस घेर पर कब्जा करके ही रहेगा. और इसका अवसर उसे तब मिला जब उसके पिता की मृत्यु हुई.
हुआ यह कि उसके पिता अकस्मात बीमार पड़े. उसकी मां की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी और बहन ससुराल जा चुकी थी. पिता अकेले थे. सामान्य-सी सर्दी-जुकाम ने जब एक दिन गंभीर रूप धारण कर लिया तब संतराम ने बेटे को सूचना दी. मंतगराम पत्नी के साथ दौड़ा आया. उसने घर में ही कस्बे के डाक्टर से पिता का इलाज करवाया, लेकिन वह स्वस्थ नहीं हुए. मंगतराम के गांव पहुंचने के तीसरे दिन रात में उसके पिता ने अंतिम सांसे लीं. जैसे ही पिता ने आंखें बंद कीं और उनकी सांस थमी, मंगतराम ने पत्नी के सहयोग से उन्हें ठीक घर में प्रवेश करनेवाले दरवाजे के सामने आंगन में जमीन पर बिना कुछ बिछाये लेटा दिया. पत्नी कुछ समझती उससे पहले ही दरवाजे की ओट में रखी लाठी उठा ली और पत्नी को धमकाते हुए कहा, "खबरदार जो रोयी----." हिचकियां लेती पत्नी को उसका दूसरा आदेश था, "जब मैं कहूंगा तब बुक्का फाड़कर रोना."
पत्नी भौंचक आंखे फाड़ उसे देख रही थी और मंगतराम के हाथों की लाठी पर पकड़ मजबूत होती जा रही थी. उसने मृत पिता के हाथ-पैरों पर कई प्रहार किये. हाथ-पैरों की हड्डियां तोड़ उसने लाठी अनंत के घेर में फेंक दी और लाठी पकड़ने के लिए प्रयुक्त दस्तानों को गैस चूल्हे में जला दिया. फिर घुटी आवाज में रोती पत्नी को चीखकर रोने का आदेश दे स्वयं चीखकर रोने लगा, "मार डाला रे----अरे मेरे बापू को मार डाला ---- दौड़ो----- बचाओ-----गांव वालों----संज्जू, रत्ते-----."
पांच मिनट में गांव एकत्र हो गया था. आंगन में संतराम की लाश देख अड़ोस-पड़ोस की औरतें भी दहाड़ मारकर रोने लगीं. "किसने मारा------ किसने?"
"अरे कौन मारता----- पड़ोसी ही दुश्मन बन बैठा. मैंने इस अनंत से घेर की बात आज शाम फिर चलाई थी----- कुछ देर पहले वह लाठी लेकर धमकाने आ गया. बापू उस समय पेशाब करने जाने के लिए उठा था. मैंने अनंता को कहा भी कि आगे चर्चा नहीं करूंगा, लेकिन वह मेरी आवाज सुनते ही भड़क उठा. उसने मुझे निशाना साध लाठी चलाई. मैं हट गया और बाहर सड़क पर आ गया. पत्नी कोठरी में जा घुसी. अरे मुझे क्या पता था कि वह मेरे बीमार बापू पर टूट पड़ेगा. उसने ताबड़-तोड़ लाठियां उन पर भांज डालीं----- हाथ पैर तोड़ दिये उनके." मंगतराम पिता की लाश से चिपक गया. देर तक रोता रहा, फिर लड़खड़ाता-सा खड़ा हो बोला, "आप सबको यकीन न हो तो उसके घेर में देख लें ----- जाते हुए उसने लाठी घेर में फेक दी थी." वह फिर रोने लगा, "हाय मेरे बापू---- मैं तुम्हें बचा न पाया. एक राक्षस ने तुम्हारी जान ले ली------ बापू जब तक उसे फांसी के फंदे तक न पहुंचाया मुझे चैन नहीं मिलेगी." वह चीख रहा था.
पुलिस आयी. अनंत मिश्र गिरफ्तार हुआ. मंगतराम ने थानेदर को चालीस हजार रुपये दिये थे. पोस्ट मार्टम रेपोर्ट में लिखा गया कि लाठी के प्रहार से ही हाथ-पैर टूटे थे, लेकिन संतराम की मृत्यु प्रहार से पहले हुई थी या बाद में इस विषय में कुछ नहीं कहा गया था. इसके बाद की कहानी छोटी है. छोटी इसलिए कि मंगतराम ने अनंत के सामने फिर एक प्रस्ताव भेजा था-------समझौते का. मुकदमा वापस ले लेने का और भयभीत अनंत ने समझौता करना उचित समझा था. समझौता गुप्त था, जिसमें केवल थानेदार शामिल हुआ था. थानेदार ने अनंत से चालीस हजार लेकर मामले को कमजोर बनाया था, पोस्ट मार्टम रेपोर्ट का कोई उल्लेख नहीं था उसमें और मंगतराम ---- उसने जैसा जाहा था वही करना पड़ा था अनंत को. चार बीघा खेत और घेर की मुफ्त रजिस्ट्री शामिल थी उसमें.
"चाच्चा------- कभी आप मेरे गरीबखाने में आयें." मंगतराम बोला तो वह चौंकें थे.
"हुंह-----." जनार्दन शाह इतना ही बोल पाये.
"यह रहा मेरा पता------ सेक्टर बासठ में है कोठी, "उसने विजिटिगं कार्ड निकालकर देते हुए कहा, "नोएडा, दूर नहीं है चाच्चा------ आप आदेश देगें तो गाड़ी भेजवा दूंगा."
जनार्दन ने उसके 'कोठी' शब्द पर गौर किया था.
"बताउंगा." बुदबुदाए थे जनार्दन.
"फिर मिलते हैं ------चाच्चा." गाड़ी में धंसता हुआ मंगतराम बोला और सर्र की आवाज के साथ गाड़ी दौड़ गयी थी. वह कुछ देर तक ट्रैफिक के बीच गुम होती उसकी गाड़ी को देखते रहे, फिर 'पिच्च' से सड़क पर थूक फुटपाथ पर चढ़ गये थे.