ठेका / संजय पुरोहित
एक साहित्यकारजी वर्षों बाद मित्र से मिले, हालचाल पूछा तो ज्ञात हुआ कि ठेकेदारी में खूब कमाया। अब तो बस ’जुगाली’ कर रहे हैं। साहित्यकारजी ने सुझाव दिया कि अब कुछ नहीं कर रहे हो, तो साहित्यिक कार्यक्रम में आया-जाया करो। ठेकेदार जी को विचार पसंद आया। अगले ही दिन से ठेकेदारजी साहित्यकारजी के साथ गोष्ठियों में बतौर श्रोता शिरकत करने लगे। जहाँ-जहाँ साहित्यकारजी वहाँ वहाँ ठेकेदारजी।
साहित्यकारजी सम्मानित व्यक्ति थे। उनके सम्मान को देख ठेकेदारजी के मन में भी साहित्यकार बनने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। एक दिन बोले, “मित्र, हमें भी साहित्यकार बना दो”। साहित्यकारजी हँसे, बोले, “बंधु यह तो ईश्वर की देन है, किसी को साहित्यकार बनाया नहीं जा सकता। फिर भी निराश न हों, तुम्हारे मन में जो आए उसे कागज पर उतार कर मुझे दिखाओ, फिर सोचेंगे” ठेकेदारजी ने हामी भरी।
भवन, सड़कों के निर्माण के लिए वर्षों जोड़-बाकी करने वाले हाथ साहित्य के लिए एक अदद वाक्य का निर्माण भी न सके। निराश ठेकेदारजी साहित्यकारजी के पास फिर न गए। लगभग तीन महिने बाद साहित्यकारजी ने पाया कि ठेकेदारजी की लिखी कहानियाँ, कविताएँ, लेख धड़ाधड़ छप रहे हैं। शंकित साहित्यकारजी को दाल में काला लगा, सो पहुँचे ठेकेदारजी के यहाँ और पूछ डाला अचानक छपने वाले साहित्य का राज।
“कुछ खास नहीं मित्र, बहुत प्रयास किया, एक लाईन तक न लिखी गई। हार कर मैनें मेरे नाम से साहित्य लिखने का एक ठेका दो युवा बेरोज़गार साहित्यकारों को दे दिया, और रचनाओं को छपवाने का ठेका अपने पुराने मार्केटिंग वाले बन्दे को दे दिया, बस।”