ठेठ राग / विपिन चौधरी
आलस में जकडी हुई रविवार की एक उनींदी सुबह अपने चेहरे पर से चादर हटाते हुये अजीता ने एक गहरी साँस ली, आज कई दिनों बाद उसकी छोटी और प्यारी बहन राखी अपने नन्हें बेटे चिंटू के साथ उसके घर आयी है, नाश्ते में कुछ स्पेशल, पकौडे, गुलगुले, चीले वगैरह बनाने का इरादा कर उसने नीचे झुकते हुए अपने पांवो में चप्पल पहनी। बच्चों को तो खाने में चाईनीज़ के अलावा कुछ पसंद आता नहीं और अकेले अपने लिये कुछ बनाने का मन नहीं करता। आज छोटी बहना आई है तो मौका भी है और दस्तूर भी। अपने लम्बें, घने बालों को इकठ्ठा कर जूडा बनाते-बनाते अजीता बच्चों के कमरे में नज़र डालती हुई वह बालकनी से अपना तौलियाँ उठा कर नहाने चली गयी, लगता है बच्चे आज काफ़ी पहले ही जग गये हैं। नहा कर जब वह बाहर निकली तो देखा सामने ड्राइंगरूम में राखी और दोनों बच्चे कल शापिंग की हुई चीज़ें बिखरा कर बैठे हुये हैं और चिंटू मियाँ खेलने में मगन है सुबह–सुबह ही।
मम्मी तुम भी यहाँ आ जाओ ना, रीतिमा मनुहार करते हुये बोली और उसने उठ कर बगल की मेज़ पर रखा म्युज़िक प्लेयर ऑन कर दिया, बंद कली की तरह धीरे-धीरे मध्यम संगीत की स्वर लहरियाँ घर के चारों कोनों में बिखरने लगी। उसके बाद हर रविवार की तरह सुबह की तरह दस, साढे-दस बजते ही अजीता की बिटिया रीतिमा ने अपनी आदतनुसार घर की सफाई का साप्ताहिक अभियान शुरू कर दिया, रविवार के दिन घर पर मानों रीतिमा का ही एकाधिकार होता है, आज घर भर के परदे, चादरें, मेजपोश बदले जायेंगें और साथ-साथ म्युजिक प्लेयर पर तेज़ आवाज़ में गाने भी गूंजते रहेगें। आज भी गायक भूपेंद्र की पुरकशिश आवाज़ हवा में तैर रही है "करोगे याद तो हर बात याद आयेगी"।।।
रितिमा की संगीत प्ले-लिस्ट में यही रोदू गाने रहते हैं हमेशा। सुबह-सुबह के खुशगवार आलम को गमगीन बना कर रख देती है यह लड़की हमेशा। कितना बार कहा है बेटा, सुबह-सुबह खुशगवार गानें सुनने चाहियें। ऐसे गाने नहीं जिनसे मन में उदासी उतर आये पर यह मानेगी थोडा ही, अजीता ने गरदन झटकते हुऐ धीरे से बुदबुदाने लगी।
उधर रोहन ने अपने कमरे से ही आवाज़ लगाई, शुरू हो गई मिस ट्रेजडी क्वीन। रोहन के दसवीं के पेपर अभी-अभी खत्म हुये हैं। वह अपनी पुरानी किताबों को बुक रैक से निकाल कर अलग करने में जुटा हुआ था। ठहर, मैं अपने आई-पॉड पर माईकल जैकसन के मस्त सोंग्स लगाता हूँ अभी, रोहन अपनी बड़ी बहन रीतिमा को तंग करने के उद्देश्य से छेडने लगा।
तभी बरामदे में रखे हुए झूले में सोए हुए राखी के नन्हें बेटे चिंटू के रोने की आवाज़ सुनाई दी।
अजीता ने रसोईघर की खिडकी से झांकते हुए राखी को ज़ोर से आवाज़ दी, राखी ओ राखी
यह राखी न जाने क्या कर रही है, चिंटू के रोने की आवाज़ क्या सुनाई नहीं दे रही उसे।
कुछ देर तक चिंटू उसी गति से रोता रहा तो अजीता समझ गई की बच्चे तक माँ नहीं पहुँची माजरा देखने के लिए अजीता रसोईघर से निकल आयी,
"उफ्फ इस छोटी सी जान ने पूरा आसमान सर पर उठा रखा है, अभी-अभी तो मैनें धूप में बैठ कर एक छोटी-सी जान की अच्छी तरह से मालिश करने के बाद गुनगुने पानी में नहला-धुला कर झुले में सुलाया है, मज़े-मज़े में तो सोया ही था, दस मिनट पहले। अब देखो कैसे ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा है"
पकौडे तलना बीच में ही छोड कर चिंपू के झूले के पास पहुँची अजीता, उसे कंधे पर लगा कर थपथपाती हुई घर के सभी कमरों में राखी को तलाशते हुए रीतिमा, मौसी कहाँ है बेटा दिखाई नहीं दे रही।
नहा रही है शायद, देखो तो पीछे बाथरुम में होगी।
अजीता बडे बरामदे से होती हुई बाथरूम की ओर गई तो देखा, राखी स्नानघर का दरवाजा खुला ही छोड कर नहा रही है, गाँव की जिस छोटी हवेली में वह रहती है वहाँ भी अलग से नहाने की कोई व्यवस्था नहीं है, सो उसे कमरे में ही नहाने की आदत है, इस छोटे से बाथरूम का दरवाजा बंद कर स्नान करने में उसे घोर कठनाई होती है। जब बचपन में हम कुछ साल गाँव में रहे तब भी औरतों का नहाने की यही व्यवस्था हुआ करती थी और उसे यही सुकून देती थी। अपने घर की महिलाओं को चारपाई की ओट में नहाते देख कर हम लोग बडे हुऐ थे, अजीता की खुद भी पीछे के इस बाथरूम में नहाते हुए साँस रूकती थी।
नन्हा चिंटू अपनी माँ को सामने देखकर और भी जोर से रोते हुए तेज़ी से हाथ पाँव चलाने लगा।
अरे देखो तो इस लडके को, यह तो गोदी से छूट कर अभी भागने लगेगा। दोनों बहनें चिंटू की हरकतों पर मुस्कुरा ऊठी। तभी अजीता की नज़र राखी के उभरे हुये पेट पर पडी। पेट के इस अस्वाभाविक उभार को देखकर उसके दिमाग में सबसे पहला विचार के आते ही एक जबरदस्त झटके के साथ-साथ उसके पूरे शरीर में ऊपर से लेकर नीचे तकसरसरी फैल गई।
अभी कुछ महीने पहले ही तो वह राखी का फैमली प्लानिंग का आपरेश्न करवा के आई थी तो क्या अपनी जान पर जोखिम डाल कर आपरेशन डाला।
राखी कहीं तू माँ तो नहीं बनने वाली? अजीता की निगाहें इस वक्त के बोलते ही राखी के पेट पर थी, उसकी आवाज़ जैसे खुद ही संदेह के घेरे में उलझ कर रह गयी।
डिब्बे से सिर पर पानी डालती हुयी राखी के हाथ जहाँ थे वही थम गये फिर धीरे से राखी ने अपनी गरदन टेढी कर अपनी बड़ी बहन अजीता की तरफ देख, उस वक्त राखी की शक्ल उस बच्चे की तरह निरीह हो गई थी जिसकी चोरी अचानक से पकड ली गई हो।
जब कुछ देर तक राखी की तरफ से कुछ प्रतिक्रिया नहीं हुई तो अजीता का गुस्सा और भी भडक उठा।
कब तक बच्चे पैदा करती रहेगी तू उस हरामी आदमी के, अजीता लगभग चीखते हुये बोली।
सुधीर और सासू माँ एक लडका और चाहते है, राखी ने नीचे गरदन झुका कर धीमे से कहा।
राखी का सफाई में दिया हुआ बचकाना जवाब सुनकर अजीता का गुस्सा उस ऊँचाई से उफान पर चढा जिसकी की कोई सीमा नहीं थी।
घर की दीवारें तक अजीता के गुस्से में रंग गयी लगी।
क्यों, क्या एक लडके से पेट नहीं भरता उन हरामियों का।
और तू उनके कहने पर मौत से खेलने को तैयार हो गई और तूने मुझसे अब तक यह बात छुपाई तो छुपाई कैसे, मुझे तो यह समझ में नहीं आता।
क्या तुझे पता नहीं कुछ ही दिनों में सुपरवाईज़र की नौकरी के लिये तेरी इंटरव्यु काल आने वाली है और इस अवस्था में कैसे नौकरी लगेगी ज़रा अपने भविष्य की तो सोच। मेरी तो चपल्ले घिस गई हैं तेरी नौकरी के लिये चक्कर काटते-काटते। पर तुझे इससे क्या। अब तक तो तुझे कभी पूछा तक नहीं तेरे ससुराल वालों ने आगे क्या पूछेगें।
कितने महीने का गर्भ है, आबशन नहीं हो सकता क्या अब।
अजीता हिटलरी बर्ताव पर उतर आई थी।
दीदी सुधीर मुझे छोड देगा तो? राखी ने मरी-सी आवाज़ में कहने की कोशिश की।
हे भगवान, अजीता ने अपना सिर पकड लिया, कैसी लडकी है यह। सुधीर ने या उसके घरवालों ने कभी तेरा साथ दिया है तेरा आज तक।
आज का दिन खुशनुमा-सा लग रहा था पर एकदम से बदले घर में माहौल से बच्चे भी सहम से गए थे और इस अचानक घटे घटनाकम से अजीता का दिमाग भी बुरी तरह से भन्ना गया था, वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि जीवन के हर कदम उससे सलाह कर चलने वाली उसकी यह छोटी बहन इस तरह की बेवकूफ़ी कर डालेगी, यह तो वह सोच भी नहीं सकती थी। अब यह अकेली चार-चार बच्चों को कैसे संभालेगी, इसका पति सुधीर तो शुरु से घर-परिवार के प्रति लापरवाह था।
एक-एक कर उदासी घर के सभी चीजों पर डेरा डालने लगी, माँ और मौसी के बीच हुई बातचीत दोनों बच्चों ने भी सुनी तब रीतिमा ने धीरे से उठ कर संगीत को बंद किया और रसोईघर का हाल देखने चली गयी वहाँ अपनी माँ का छोड़ा काम निपटने के जुट गयी। इधर अजीता को तो सारे होश गुस्से की भेंट चढ़ गए थे।
घर के बाकि सदस्य नाश्ता कर डायनिंग टेबल से उठ गये थे पर अजीता के गले से एक कौर भी नीचें नहीं उतरी।
दिन बीत जाते हैं पर गुज़रते नहीं आने वाले दिन कई तरह की परेशानियों को अपने बगल में ले कर चलते चले आ रहे थे। नाराज़गी के बावज़ूद अजीता हमेशा की तरह राखी के साथ थी। राखी की नौकरी के लिये भी किसी तरह से अपनी डाक्टर सहेली की जान पहचान काम आयी और राखी इस अवस्था में भी ट्रेनिंग के लिये गई और उसकी पक्की नौकरी भी लग गयी। वह दिन भी आ पहुँचा जब राखी को डिलिवरी के लिये अस्पताल ले जाया गया।
लगता है सभी जान पहचान वालों ने आज ही फोन करने की ठान ली है और यह सुमेधा बार-बार फोन करके क्यों परेशान कर रही है, पिछले हफ्ते ही तो उसे बताया था इस बार एन.जी.ओ. की मासिक मीटिंग में मैं भाग नहीं ले सकूंगी फिर भी लागातार फोन किए जा रही है। अस्पताल के इस अवसादग्रस्त माहौल में चिंता में डूबी हूई अजीता ने फोन कॉल्स से परेशान होकर झुंझलाते हुए फोन स्विच ऑफ कर दिया।
सामने लगी दिवार घडी ठीक बारह बज़ा रही थी। दो घंटे हो गये है राखी को आपरेश्न थियेटर में गये हुये, कहीं कुछ---अजीता के मन में तरह तरह के विचार बवंडर की तरह उठने लगे। राखी तो कहीं कुछ हो गया तो, परेशानी की घडी में दिमाग का संतुलन डाँवाडोल हो जाता है उसका, एक साथ बीस-बीस तरह के विचार साँप की तरह काटने लगते हैं। बिन्नी, कनिका, चिंटू तीनों के चेहरे रह-रह कर उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। खुदा से मन ही मन मूक प्रार्थना करने लगी वह।
जब से राखी को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया है, तभी से बाहर इंतजार करते तीनों जन के कान नन्हीं किलकारियाँ सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं, पर समय बितता जा रहा है और इंतजार और भारी होता जा रहा है। अजीता उठ कर बेचैनी में चक्कर काटने लगी। समय है की आगे की ओर सरकता जा रहा है और वह पीछे की ओर किसी अँधेरे कुऐं की गहराई में उतरने लगी है। वह अपने आप को बेहद थका थका सा महसूस करने लगी।
फिर से साईड टेबल पर बैठ कर कॉरिडोर में आते जाते लोगों के चेहरे को देखने लगी वह, अचानक अजीब सी आवाज सुनायी दी तो उसने देखा, सुधीर जाहिलों की तरह कुर्सी पर दोनों पाँव रख कर है बिलकुल बेफिक्री से नाक बजाते हुये मज़े से सो रहा है।
अजीता की चेतना का हर सुप्त हिस्सा सुधीर को धिक्कारने के लिए जाग्रत हो ऊठा है। उसे जितनी भी गालियाँ आती है मन ही मन वे सभी इस आदमी को अर्पित कर डाली। फालतू में इसे अस्पताल बुलाया, इस आदमी से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद करना बेकार है। सारे के सारे काम उसने ही भाग-भाग कर किए हैं। इसे सहने की मजबुरी इतनी गहरी ना होती अगर यह आदमी प्रसूति विभाग हस्पताल के रूम न ७८ में दर्द से पीडित महिला यानि उसकी छोटी बहन राखी का पति ना होता तो।
अजीता के बगल के बैठी राखी की सास मज़े से अपने झोले से संतरा निकाल कर खा रही है।
‘भीतर घणी देर लागगी’, अजिता की तरफ देखकर मौसी ने कहा।
हाँ मौसी। आप और सुधीर अस्पताल की कैन्टीन से खाना खा लो। यहीं पीछे ही हैं दाई ओर, अजीता के कहते ही दोनों उठ कर कैन्टीन की तरफ इस तरह सरपट चल दिये मानों इस वाक्य का ही इंतज़ार था उन्हें। न जाने कैसे लोग है, किसी तरह की कोई परेशानी नहीं और इस
सुधीर को तो मानों यहाँ बैठना बडी मुसीबत का काम लग रहा है।
तभी ऑपरेशन थियेटर से वार्ड बॉय निकला, अजीता उसके चेहरे से ऑपरेशन थीयेटर के तापमान का पता लगाने की असफल कोशिश करती है।
सब ठीक तो है, वह पूछती है, पर लडका बिना कुछ बोले तेजी से आगे बढ जाता है।
अजीता फिर से अनिश्चिंता के भंवर में घूमने लगती है। कभी उसे अपनी सहेली शीला का चेहरा याद आ रहा है जिसे अपनी डिलीवरी में बेहद मुशिकल हुई थी। तभी सामने से एक बेहद नाजुक-सी सोलह-सत्रह साल की युवती सामने वाले रूम में शिफ़्ट हुई। इतनी छोटी लडकी बिलकुल रूई-सी लगता है जैसे ज़रा-सी तेज़ हवा चलने से ही मानों कहीं दूर ही उड जायेगी। इतनी छोटी-सी उमर में अपनी लडकियों को गृहस्थी की भट्टी के हवाले कैसे कर देते हैं लोग।
अजीता सोचे चले जा रही है, खुद अजीता की उमर भी तो सोलह साल की ही थी जब अग्नि को साक्षी मानते हुए एक अनचाहा रिश्ता उसके जीवन में प्रवेश कर गया था।
पर सच तो यह था कि उस रिश्ते को कभी भी उसने अपने जीवन की तह में जगह नहीं बनाने दी, काफ़ी समय तक देहरी पर पडा रहा फिर बिना खाद-पानी के पोषण के वह रिश्ता अपने आप ही दम तोड गया। समय का जल बिना आवाज़ किये चुपचाप अजीता के बगल से बहता रहा फिर एक दिन जब वह समय का लेखा जोखा जोडने बैठी तो उसे खुद पर जरूरत से ज्यादा हैरानी हुई किस तरह उसने इस रिश्ते में लगातार बनी दूरी को पूरे दस साल तक झेला।
यह शायद एक ही जन्म में दूसरे जीवन का आगमन की सुगबुगाहटे थी जब अजीता अपने दोनों बच्चों को लेकर उस अनचाहे, अनमेल रिश्ते से अलग हो गई थी।
और उसकी यह बहन राखी ,जैसे दोनों बहनों में दो ध्रुवों का फासला है। बावजूद इसके वे बहने कम, दोस्त ज्यादा रही है, महज डेढ साल का अंतर है दोनों बहनों के बीच। जीवन के हर ताने बाने में वे दोनों साथ ही उलझी और साथ ही निकली हैं, प्रखर दिमाग की अजीता ने स्वभाव से सुस्त अपनी छोटी बहन राखी को सिलाई, बुनाई, पढाई से लेकर जीवन के हर राग-रंग से परिचय करवाया। पर कहते है न कि पाँचों ऊँगलियाँ बराबर नहीं होती सो राखी भी अजीता की परछाई कभी नहीं बन सकी। अजीता और उसके पिता चाहती थे, बहन राखी भी उसकी तरह ही मज़बूत और होशियार बने, अजीता की तरह पढाई में आगे रहे पर लाख कोशिशों के बाद भी राखी को पढाई में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं जगा पाई घर के लोग।
जब भी उसके उनकें पिता का तबादला दूर दराज के इलाको में होता तो वे अजीता की माँ कों बच्चों समेत अपने माता-पिता के पास गाँव के अपने पुश्तैनी घर में छोड जाते। जहाँ दोनो बहनों ने पिताजी के निर्देशानुसार 'जैसा देश वैसा भेष' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए फ़्रॉक और स्किर्ट छोड कर सूट-सलवार पहनने लगी और बालों में ढेर सारा तेल लगा कर दो चोटियाँ बनानी शुरू कर दी। पूना, दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों के को-एड में पढने वाली अजीता और उसकी कुंती को गाँव में हर वक्त किसी अनजानी आशंका का माहौल दिखाई देता और उनकी माँ इस तरह का असमंजस का वातावरण बनाने में सबसे आगे थी।
जन्म से ही विद्रोही स्वभाव की थी अजिता, पिता की नज़र उस पर ही लगी रहती क्या पता यह लडकी कब क्या उत्पात मचा दे। बेटी से उलट पिता एक नेक इन्सान थे और पिता की इस नेकनियता का पूरा फ़ायदा चाचा लोगों ने उठाया, पिता की दूर-दराज की नौकरी के चलते चाचा लोगों ने उम्र भर पिता के हिस्से की जमीन जोती और पिता के अवकाशप्राप्त हो गाँव लौट आने पर भी उन्हें ज़मीन का पूरा हिस्सा नहीं दिया। पिता के साथ हुई इस बेईमानी का पता लगते ही अजीता जा पहुँची अपने दादाजी की बैठक में, उस बैठक में जहाँ दूर-दूर तक महिला नाम की जीव का कोई नामों निशान नहीं था। ये पुरुषों की बैठक थी जिसमें पुरूष ही पुरूष दिखते थे और ढेर सारी चारपाईयों पर बैठे पुरुष और हुक्के गुडगुडाते गाँव के चार-पांच लोगों के अलावा मँझले चाचा और दादा। जैसे ही अजीता बैठक के भीतर पहुँची तो सबकी नज़रे एक साथ अजीता पर जा टिकी।
दादा, अपनी बोली को हरियाणवी पुट में लाते हुए वह बोली, तुझसे कुछ बात करनी है। अजीता ने अपनी आवाज़ में कुछ कडाई लाते हुये कहा ताकि चाचा के कानों में कुछ बल पड़े।
दादा अजीता से अतिरिक्त स्नेह रखते थे और यह बात भी उसके चाचा लोगो को नागवार लगती। दादा के सामने जब इस नाईंसाफी की बात रखी अजीता ने तो दादा ने कहा बाद में बात करुँगा तेरे पिताजी से। बस उस दिन से चाचा लोगों की आँख में खटकने लगी थी अजीता।
पिता गाँव में नहीं होते तो घर की सबसे बड़ी बेटी अजीता को अपने पाँचों छोटे भाई-बहनों की देखभाल करनी होती और माँ पर नज़र रखनी होती क्योकि तब आज़ादपरस्ती में डूबी माँ, पिता के जाते ही अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होने की कोशिश करती, सारे दिन अपनी खूबसूरती की तारीफ़ करना और सुनना और औरतो की महफिल में बैठे रहना यही उसका मुख्य शगल था।
अजीता ही थी जिसे घर की जिम्मेदारियों का प्रबल अहसास था। पूरा का पूरा गाँव अजीता और उसकी दोनों छोटी बहनों के हुनर और खूबसूरती का कायल था। घर–घर में इन बहनों के नाम की मिसाले दी जाती थी कि देखो अभीराम की तीनों बेटियाँ कितनी साफ सुथरी और सलीके वाली छोरिया हैं। जब वे गर्मियों की छुट्टियों में शहर से गाँव आती तो से सूट सलवार में आ जाती सिर पर दुप्पटा कभी ना उतरने देती। खेतों में जाती और देर शाम को ऊँटगाड़ी से मस्ती में हँसते गाती लौट आती।
अजीता जितनी शांत, धीर-गंभीर, अध्यात्मिक स्वभाव की थी। राखी उतनी ही चंचल, उन्हीं दिनों युवा होती राखी की चंचलता के खरामा-खरामा अपने पंख खोलने शुरू कर दिऐ फिर क्या था गाँव के चौपाल से लेकर, नंबरदारों के कुऐं पर एक ही चर्चा, अभिराम फौजी की छोटी छोरी का कुम्हारों के छोरे के साथ चक्कर चाल रहा है। बात जब खुल गई तो चारों ओर कोहराम हो गया। गाँव का हर लडका तो भाई होता है, यह तुम्हारा शहर नहीं है जहाँ सभी तरह के रिश्तों को ताक पर रख दिया जाता है, यह पाप है महापाप, गावँ के मोजिज़ लोगो ने घर आ कर माँ को समझाया। अजीता के पिता की पोस्टिंग उन दिनों आसाम में थी, सो अपनी बेटी के कारनामों से अनजान भी थे। अजीता ने हर संभव कोशिशों से बहन को बचाया, नौवीं क्लास की राखी को दसवीं क्लास में पढने वाली अजीता ने जितनी भी हिदायते समझ में आती थी वे सभी दे दाली थी।
छुट्टियों में पिता के घर में आते ही सबकी यही कोशिश थी कि किसी भी सूरत में पिता के कानों में इन प्रसंगों की सरसराहट ना पहुँच पाए। ऊपर से कडक दिखने वाले उसके पिता भीतर से कितने दब्बू थे ये अजीता जानती थी। समाज के नियमों कायदे उनके लिये पत्थर की लकीर थे। तभी तो पिता ने समाज के रीति रिवाज़, नियम कानून से कदम-कदम पर ताकिदगी से अमल करते रहने की ठान ली थी। पिता कहते, हम गाँव में रहते है, यह शहर नहीं हैं। यहाँ सभी चीज़ों पर ध्यान रखा जाता है, जरा सी बात हुई तो पूरा गाँव लठ्ठ ले कर पीछे पड जायेगा।
ओर वे तो लडकियाँ थी और उनकी शादी भी एक ना एक दिन होनी ही थी, उन्होनें जो निपुणता अपने घर में सीखी थी उसका क्रियान्वयन ससुराल में होना था। वहाँ जाकर ही पता चल सकेगा की वाकई लडकी अपने घर से कोई गुण बटोर कर लाई भी या नहीं। सो दोनों बहनों के लिऐ भी ढेरों रिश्ते आये। जब दूर के चाचा एक बडे अफसर का रिश्ता लेकर आया तो पिता ने मुँह सिकोडा और चाचा से साफ़ कहाँ देखो मेरी लडकी वहाँ दबा कर रखी जायेगी नौकरानी बनकर रहेगी। खुद एक फौजी अफसर होते हुए भी उनके मुँह से न जाने क्या याद करते हुए आसानी से निकला "अफसर अच्छे आदमी नहीं होते"। तीनों बहनों ने भी अपने घर के किवाडो, खिडकियों और छज्जे की चौखटों से तांकते-झांकते हुए सुना और मान लिया अफसर अच्छे आदमी नहीं होता।
गाँव के उस समय के माहौलनुसार, अजीता के लाख रोने पीटने के बाद भी आगे पढने की इजाजत नहीं दी गई, उसके चारो तरफ समाज ने नियमों की किले ढोक दी गई। पिता और नाते रिश्तेदारों का रूख और भी सख्त हो गया जब अजीता अपने से एक साल सीनियर रमेश को लेकर रुपहले सपने देखने लगी थी नए रंग उसके जीवन में सिमट आये पर जलने वालो ने उसके सपनों पर अपनी लपटें छोड दी, उसके चाचा लोग न जाने कहाँ से उन दोनों घरों के बीच रिश्तेदारी को ढूंढ लाये थे जिसके मुताबिक रमेश के दादा जिस गोत्र के थे उस गोत्र के लोगो के साथ अजीता के गोत्र में विवाह सम्बंध नहीं हो सकता था। गाँव के रूढिवादी मानयताओं की तबियत इस रिश्ते को सुनते ही खराब हो गई थी। पर इससे पहले रमेश से अजीता की सगाई भी हो चुकी थी और अजीता ने उसे मन ही मन वर भी लिया था। जब गाँव वालों ने ज़ोर जबरदस्ती इस रिश्ते हो तुडवाया तो अजीता भी बुरी तरह से टूट गयी और छलनी-छलनी हो गए उसके सपने, शादी के बाद अजीता ने आगे की पढाई की और सारा खर्च उसके भले पिता ने ही उठाया। और अपने पाँव पर खडे होते ही अपने आप को उस अनचाहे रिश्ते से अलग किया।
दूसरी तरफ राखी थी, जो अपनी शादी के पहले दिन से ही लगातार समझौते पर समझौते करती रही। बी.ए. पास उसका पीटीआई सुधीर कहने को तो गोल्ड मेडलिस्ट था पर दो महीने नौकरी करके घर बैठ गया। वह एकलौता और माँ का लाडला था उसके नाम ज़मीन बहुत थी सो काम करने की जरुरत क्यों होती जब बिना हाथ पाँव हिलाये ही सब मिल रहा था ऊपर से दमे की बिमारी का बहाना बेहद माकूल रहा था। सुधीर के अपनी रिश्ते की भाभी के साथ संबंध है इस बात पूरा गाँव जानता था। शादी के तुरंत बाद राखी को भी इस संबंध की भनक मिल गई। उस भाभी के बच्चे भी राखी के ससुराल मे यहाँ वहाँ मंडराते और वह महिला भी राखी की सास के घंटों गप लड़ाती तब राखी को मालूम हुआ की उसकी अपनी सास को इस संबंध का पूरा–पूरा समर्थन मिला हुआ है। इसी मानसिक तनाव के साथ राखी की शादी के सात साल हो गये और राखी गर्भवती नहीं हो पाई तो ससुराल वालो ने गहने चोरी का झुठा नाटक रचा कर राखी कों अपने ससुर के साथ उसके मायके भेज दिया। तब राखी के माँ-बाप ने भी इस मसले को लेकर अपने हाथ खडे कर दिये थे तब अकेली अजीता ही थी जो अपनी डाँवाडोल गृहस्थी को धामें-धामें राखी को भी सहारा देती रही। राखी की एक गांव में सिलाई टीचर की नौकरी दिलवा दी। गाँव में राखी देखभाल के लिये हर छुटटी के दिन अजीता अपने दोनों बच्चों को लेकर जाती रही। फिर जब राखी ने बिन्नी को जन्म दिया तब जाकर उसके ससुराल वाले कुछ नरम पडे।
अजीता अतीत की तलहटी में गोते ही लगा रही तहे की ऑपरेशन थियेटर से बच्चे की रोने की आवाजे सुनाई दी और अजीता अपने फलैश बैक से वापिस यथार्थ के शुष्क लेकिन संभावनाशील धरातल पर लौट आई।
अजीता के भीतर गहरी खुशी और तरंग का संचार हो उठा वह थकान कहीं पीछे छूट गयी वह तेज़ कदमो से राखी के कमरे की और लपकी।
नर्स के हाथ मे एक मासूम बच्ची अपने दोनों पाँव को ज़ोर ज़ोर से झटकती हुई खुनक रही थी।
एक बेहद मधुर संगीत, जिस पर नज़र पड़ते ही अजीता के संग साथ हो लिया वो ही संगीत, जो जीवन के सब खुशगवार पलों मे अजीता का हमकदम रहा है। कौन कहता है कि संगीत और जीवन का आपस में कोई नाता नहीं है। जब संगीत सुनाई देता है तो आगे पीछे के सभी दृश्य सामने आ जाते हैं। अजीता अगले दिन राखी और नन्ही गुडिया को लेकर अपने घर आ गयी।
आज भी रविवार ही है खुशनुमा और मधुर। जैसी ही सबने घर मे कदम रखा, राग बिलावल में किशोरी अमोनकर की आवाज़ मे अजीता की पसंदीदा पंक्तियाँ सुनाई दी, तो एकबारगी लगा जीवन के सभी मधुर तार आपस में मिल गये हो अजीता ने तुरंत बच्ची का नाम रख दिया "असावरी" जिस पर सभी ने अपनी स्वीकृति दे दी। पर राखी की सास बाकि घर वालों की हँसी-खुशी मे शामिल नहीं थी, उसकी चेहरे से ऐसा लग रहा था मानों उसके सभी घडों पर पानी पड गया हो । वह अपने ठेठ राग की धुन पर सवार (जिस पर समाज की लगभग सभी पुरातनपंथी दादी- नानियाँ सवार रहती हैं ) हो कह रही थी 'भगवान ने मेरी नहीं सुनी इस बार'।
उसके इस वाक्य पर सब मन ही मन हँसने लगे क्योंकि मौसी की एक बात का प्रत्युतर नन्हीं बच्ची असवारी पहले ही दे चुकी थी।