डकराते प्रेम बिंदु / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
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वह कार की पिछली सीट थी। शाम धीरे-धीरे रात के आगोश में अपना अस्तित्व लगभग खो चुकी थी। चकाचौंध से भरा एक महानगर और हर तरफ़ दौड़ते गाड़ियों के हुजूम। किसे परवाह थी कहीं झाँकने-टोकने की। सब अपनी आपाधापी में गुम थे। वह रात कोई चाँदनी रात न थी; पर उसमें किसी शैतान का साया यक़ीनन था। जो दो जोड़ी आँखों और हाथों में एक साथ समा गया। दो जिस्म एक दूसरे से बेहद करीब थे इतने कि अलग करते तो एक दूसरे के रेशे आपस में उलझ, जुदा होने से मना कर देते। एक...दूसरे की बाहों में था, खोया—सा और लगभग अवचेतन। दूसरे के हाथ और होंठ सक्रिय थे। एक नीम बेहोशी दोनों पर धीरे-धीरे छा रही थी। किसी पर प्रेमगंध की, किसी पर देहगंध की। फिर अचानक कुछ बदलने लगा। जैसे-जैसे प्रेम के हाथ सख़्त हो नर्म देह पर फिसलने लगे, वैसे-वैसे देह से माँस गायब होने लगा।

हाथ, गाल, गरदन, कंधे, पेट और सीने ... सब जगह से चटक सफेद हड्डियों ने उभरना शुरू कर दिया। वे सख़्त हाथ विस्मय से भर गए। बौखलाए और रुक गए। उन सख़्त हाथों का माँस भी विलुप्त होने लगा। नीले सीने से सफेद कंकाल झाँकने लगा। दो लाल माँस के लोथड़े अचानक से उन शरीरों से जुदा हो भस्म हो गए। दो जोड़ी आँखों का स्थान चार गहरे कुओं ने ले लिया।

एक तेज़ रोशनी का धमाका हुआ। महानगर की चकाचौंध काले सागर में बदल गई, जो विकराल उफान पर था। अब दो कुओं से तेज़ चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं।

जाने कितने पल ये तांडव चला फिर सुबह का सूरज सबको खदेड़ने लगा।

अब सब शांत हैं। समंदर किनारे रेत पर हड्डियाँ बिखरी हैं।

सबकी सब, एक स्त्री देह की।