डटकर सामना करती कहानियाँ / सुभाष नीरव
जिंदर पंजाबी की चौथी कथापीढ़ी का एक बहुचर्चित कथाकार है। समर्थ और स्थापित भी। वह अपने आप को और अपने कथा लेखन को सँवारने में जितनी जी-जान लगाता है, बहुत कम लेखक ऐसा करते हैं। वह अपनी कथायात्रा में अपनी कमज़ोरियों से कभी नहीं घबराया, उनसे लड़ा और उन पर पार पाने की कोशिश में संलग्न रहा। आज भी यह प्रक्रिया उसकी जारी है। वह श्रम से नहीं घबराता। खूब पढ़ता है और खूब लिखने की कोशिश करता है। 'खूब' यानी मात्रात्मक भी और गुणात्मक भी। मुझे वे दिन याद आते हैं जब मैं आज से बीस-बाइस वर्ष पहले पंजाब के काले दौर पर पंजाबी कथाकारों द्वारा लिखी बेहतरीन कहानियों की खोज कर रहा था। "काला दौर" नाम से प्रकाशित इस पुस्तक में 24 कथाकार थे जिनमें जिंदर की भी एक कहानी शामिल की थी। पंजाबी के एक बहुत ही जाने-माने लेखक ने मुझसे पूछा, "यह जिंदर कहाँ से लेखक हो गया?" मैं उसके इस प्रश्न के पीछे छिपे व्यंग्य को भलीभाँति समझ रहा था। उन दिनों जिंदर नया लेखक था। कहानियाँ और लघुकथाएँ लिखता था। बाद में उसने लघुकथाएँ लिखनी छोड़ दीं जबकि उसने बहुत खूबसूरत और जानदार लघुकथाएँ पंजाबी साहित्य की झोली में डाली हैं। मैंने तब उससे प्रश्न किया था, "तुमने यकायक लघुकथाएँ लिखनी क्यों छोड़ दीं?" उसका उत्तर था, मुझे कहानियों में कुछ नया करना है। मैं बड़ा कहानीकार बनना चाहता हूँ। अधिकांश लेखकों के संग यही होता है कि वह अपने भीतर के लेखक को पहचान नहीं पाते। जान नहीं पाते कि किस विधा में वह बेहतर दे सकते हैं। यही कारण है कि वे ताउम्र लिखते तो खूब रहते हैं पर अपनी पहचान किसी एक ख़ास विधा में नहीं बना पाते। मुझे अच्छा लगा था कि जिंदर ने अपने आप को पहचान लिया है कि वह कहाँ और किस विधा में बेहतर दे सकता है। आज वह पंजाबी कथा साहित्य में जिस मुकाम पर है, वहाँ वह अपनी लगन, मेहनत और अध्ययन के बलबूते ही है। वह मेरा यार है, बहुत पुराना यार। मुझे उसकी कई आरंभिक कहानियों ने भीतर तक स्पर्श किया था। जो कहानियाँ मुझे अच्छी लगती थीं, मैं उनका हिंदी में अनुवाद भी करता था। उन्हीं में एक कहानी थी, "तुम नहीं समझ सकते।" यह कहानी आज भी मेरे ज़ेहन से नहीं उतरती है। मैंने इसका अनुवाद किया था। इन दिनों तक उसका एक कहानी संग्रह "मैं, कहानी ते उह" छप चुका था। दूसरे कहानी संग्रह की तैयारी थी। उसमें उक्त कहानी भी शामिल थी। उसने पूछा, "यार, संग्रह का क्या नाम दूँ?" मैंने कहा, "तुम नहीं समझ सकते।" उसने संग्रह का यही नाम रखा। इस कहानी संग्रह के पंजाबी में तीन संस्करण छपे। पाकिस्तान में यह वर्ष 1998 में शाह लिपि में भी छपा। जब मैं इसका हिंदी में अनुवाद करने लगा, मैंने जिंदर से कहा कि संग्रह की सभी कहानियाँ मैं नहीं रखूँगा। कुछ कमज़ोर कहानियों को हटाकर तेरी नई कहानियाँ शामिल करना चाहता हूँ। उसने मुस्करा कर कहा, "जैसी तेरी इच्छा नीरव।" हिंदी में यह संग्रह 1997 में आत्माराम एंड संस, दिल्ली से प्रकाशित हुआ।
हर व्यक्ति के अपने संघर्ष होते हैं। जिंदर ने अपने जीवन की भटकन को रोकने के लिए जो संघर्ष किए, वे उसके अपने भिन्न किस्म के संघर्ष थे। ग़रीबी, बेकारी और नौकरी से जुडे उसके संघर्षों की झलक उसकी कहानियों में स्पष्टतः देखी जा सकती है। अपने आप को एक बेहतर कहानीकार बनाने के लिए भी उसने खूब संघर्ष किया। उसके भीतर का आदमी और लेखक शांत बैठने वाला कभी नहीं रहा। उसके भीतर हर समय एक उठापटक होती रहती है। वह अपने चिंतन, मनन और विशाल अध्ययन तथा कर्म के द्वारा इस उठापटक को शांत करता रहता है।
जब जिंदर ने "शबद" पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया तो मैंने सोचा था कि अब जिंदर गया, इसके भीतर का लेखक भी। क्योंकि मैंने हिंदी में बहुत से लेखकों को देखा था जो अच्छा-खासा लिख रहे थे, लेकिन जब वे कोई पत्रिका निकालने लगे, अपने लेखन से कटते चले गए। पर, जिंदर इस मामले में हठी निकला। उसे पंजाबी में ही नहीं, भारतीय और विश्व की भाषाओं में नया से नया पढ़ने का भूत सवार रहता है। किसी पत्रिका से जुड़े लेखक की इस भूख की पूर्ति आसानी से हो जाती है क्योंकि उसे नए से नया पढ़ने को खूब मिल जाता है। मैंने ही नहीं, बहुतों ने देखा कि जो वे जिंदर को लेकर कयास लगाए बैठे थे, वह नहीं हुआ। उसने "शबद" को भी स्थापित किया और अपने लेखक को भी नहीं मरने दिया। अपितु, मैंने महसूस किया कि पत्रिका से जुड़ जाने के बाद उसकी कहानियों में और अधिक परिपक्वता आने लगी। उसकी चीज़ों को एनालाइज़ करने की दृष्टि और सूक्ष्म होती चली गई। वह लिखने के नए नए तरीकों को खोजता चला गया। उसने अपने आप को थकने नहीं दिया। निरंतर लिखना और निरंतर पढ़ना उसकी आदत में, उसके खून में रच-बस गया। "क़त्ल", "ज़ख़्म" "डर" कहानियाँ; उसकी आरंभिक दौर की कहानी "तुम नहीं समझ सकते" से आगे की कहानियाँ हैं और जिंदर की कहानी कला को पुख्तगी प्रदान करती है। "क़त्ल" पर पंजाबी में बहुत चर्चा हुई, पर्चे लिखे गए, कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। विभाजन की त्रासदी को लेकर लिखी गई हिंदी-पंजाबी की शाहकार कहानियों में जिंदर की "ज़ख़्म" कहानी भी शुमार हो गई है। यह कहानी जिंदर की एक यादगार कहानी बन गई है। कारगिल युद्ध पर एक ऐसी ही जानदार कहानी "डर" जिंदर की कलम से निकली है जिसे भूलना मुमकिन नहीं है। जिंदर की बहुत सी कहानियों में स्त्री पात्र पूरी जीवंतता के साथ प्रकट हुए हैं। स्त्री के भीतर की स्त्री और उसकी अब तक छिपी-अनछिपी तहों के नीचे के छिपे सच को उजागर करने वाली कई कहानियों को देखा जा सकता है। "आत्म-पुराण", "पाप", "शीतयुद्ध", "रफ़्तार" इसका उदाहरण है। इसी प्रकार दलित पात्रों को लेकर लिखी गई कहानियों में भी दलितों के दर्द, उनकी पीड़ा, उनकी विवशता और असहायता ऊपरी और सतही तौर पर नहीं, बल्कि पूरी गहनता और ईमानदारी से कहानियों में अभिव्यक्त हुई है। "दो मिनट और रुक जा", "सॉरी", "नहीं, मैं दलित नहीं" ग़रीब और दलित के भीतर के द्वंद्वात्मक सच को पकड़ने में सफल रही हैं।
भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के चलते जो एक नया यथार्थ हम सब भोगने को अभिशप्त हुए हैं, और जिसके शिकंजे से हम अब चाहकर भी अपनी गर्दन नहीं हटा सकते, वह अब हमारे साहित्य में भी स्पष्टतयः परिलक्षित होने लगा है। जिंदर ने भी अपनी कई कहानियों में समाज पर हुए इस नए आक्रमण को चीन्हने की ईमानदार कोशिश की है। उदाहरण के लिए "रफ़्तार", "शीतयुद्ध" कहानियाँ देखी जा सकती है।
कह सकता हूँ कि जिंदर की कहानियाँ अपने समय से मुँह नहीं चुरातीं, उसका डटकर सामना करती हैं। एक अच्छा लेखक वैसे भी अपनी समयगत सच्चाइयों से मुँह नहीं फेर सकता। कहानी में जिस मनुष्य के सुख-दुख की बात की जाती है, वह इन्हीं समयगत सच्चाइयों से मुठभेड़ करता हुआ लहूलुहान होता है, कभी पराजित होता है तो कभी विजयी। न्याय-अन्याय, शोषण-उत्पीड़न, आशा-निराशा के बीच झूलते इसी संघर्षरत मनुष्य का पक्षधर होता है लेखक। जिंदर की तमाम कहानियों में यह मनुष्य आसानी से देखा जा सकता है।