डरे हुए लोग / सुकेश साहनी
जीप खेतों के बीच रास्ते से गुजर रही थी। र्बाइं तरफ के खेतों के बीच ट्यूबबैल के पास दो किसान बैठे थे। विजय ने ड्राइवर से जीप रोकने के लिए कहा। वह अपने क्षेत्रीय सहायक के साथ उनकी ओर चल दिया। वे दोनों, जो षायद पिता-पुत्र थे, विचित्र संदेहभरी नजरों से उन्हें ही देख रहे थे।
"यह ट्यूबबैल तुम्हारा ही है? इसे ज़रा चलाओ तो..." विजय ने उनके समीप पहुँचकर कहा।
प्रत्युत्तर में चुप्पी छाई रही। वे टुकुर-टुकुर घूरते रहे। विजय ने उनकी ओर देखते हुए अपनी बात दोहराई.
"तुमारो टूबैल ते मतलब?" अबकी बूढ़ा किसान बोला।
"देखो भाई, सरकार इस खारे पानी वाले इलाके का सर्वेक्षण करवा रही है। हम लोग इस इलाके के कुओं से पानी के नमूने एकत्र कर रहे हैं। इन्हें प्रयोगषाला में टेस्ट करके यह देखा जाएगा कि यहाँ के पानी में ऐसे कौन-कौन से तत्व हैं, जो फसल के लिए हानिकारक हैं। सरकार की यह स्कीम तुम्हें इसी ट्यूबबैल के पानी से अधिक-से-अधिक फसल उपजाने में मदद करेगी। अब मुझे तुमसे कुछ जानकारी चाहिए, जिसे नोट करा दो।" विजय बहुत धीरे-धीरे प्रत्येक षब्द पर जोर देता हुआ उन्हें समझा रहा था।
विजय के बात खत्म करते ही युवक बूढ़े किसान की ओर झुककर धीरे से बोला, "चाचा, इन्ने कछु मति बतय्यौ, टेकस लगाइ दिंगे।"
"देखो, अगर तुम हमारी मदद नहीं करोगे तो..." विजय ने उन्हें समझाना चाहा।
"मेई समझ में कुछ नाय आवतु। सरकार हमार मतलब ते नाय अपनेई मतलबे डोलत्ये।" बूढ़ा किसान बिना विजय से आँख मिलाये बोला।
"इसमें तुम्हारा फायदा है..." उसने पुनः कहना चाहा।
"हमें फायदा नाय चइये, हम एसेई ठीक है। हम तो वैसेई भौत परेषान है।" बूढ़े किसान का झुँझालहट भरा स्वर सुनकर विजय भारी कदमों से जीप की तरफ लौट पड़ा।