डर गया डर / रंजना वर्मा
रोहन पिता का इकलौता बेटा था। उसकी माँ का स्वर्गवास तभी हो गया था जब वह मात्र छः माह का शिशु था। उसके पिता एक कपड़े की मिल में काम करते थे। नन्हे रोहन को उन्होंने बड़े कष्ट से पाला था। वह उसकी प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखते थे।
अब रोहन दस वर्ष का हो चुका था और कक्षा पांच का विद्यार्थी था। पढ़ाई में वह बहुत तेज था। मित्रो के साथ वह खेल-खेल कूद में भी भाग लेता था इसलिए सभी उसे प्यार करते थे। स्वभाव से वह बहुत विनम्र तथा दयालु था। सारे गुणों के होते हुए भी उसमें एक अवगुण था जिसके कारण उसे अक्सर मित्रो के सामने लज्जित होना पड़ता था। उसे अंधेरे और अकेलेपन से बहुत डर लगता था।
एक बार रोहन अपने दो मित्रो राजू और सुरेश के साथ पतंग उड़ा रहा था। पतंग बहुत ऊपर उड़ रही थी। वह पतंग और डोर आदि सामान सुरेश का था। मोहन पतंग उड़ाने में मस्त था। इसी बीच राजू के भाई ने आकर राजू को घर जाने के लिए कहा। सुरेश और राजू थोड़ी देर के लिए चले गए. पतंग उड़ाते रोहन को उनके जाने का कुछ भी पता नहीं चल पाया।
कुछ देर बाद स्वयं को पूरे मैदान में अकेला पा कर वह बुरी तरह डर गया। उसके हाथ पैर कांपने लगे। अनेक प्रकार की बुरी आशंकाएँ उसके मन में उठने लगी। उसमें इतना साहस शेष नहीं रहा कि उड़ती हुई पतंग को नीचे उतार लेता। वैसे ही पतंग और डोर सब छोड़ कर वह भाग खड़ा हुआ और सीधे अपने घर में जा कर ही दम लिया।
दोपहर लंच में जब पिता घर लौट आए तो उसे डरा हुआ देख कर बहुत चकित हुए. पूछने पर रोहन ने उन्हें सारी बात बता दी।
पिता ने उसे बहुत समझाया लेकिन फिर भी उसे अँधेरे और अकेलेपन के भय से छुटकारा नहीं मिला। राजू और सुरेश ने कुछ देर बाद लौटने पर रोहन को मैदान में नहीं पाया। उसकी पतंग भी किसी ने लूट ली थी। वे दोनों बहुत नाराज हुआ और रोहन के पिता से उसकी शिकायत करने लगे। पिताजी ने पतंग और डोर के पैसे सुरेश को देकर उसे वापस भेज दिया।
कुछ दिन बाद की बात है रोहन मोहल्ले के पार्क में दोस्तों के साथ लुका छिपी खेल रहा था। शाम हो रही थी। सभी बच्चे खेलने में मस्त थे। जब रोहन के छोर बनने की बारी आई तब अँधेरा घिरने लगा था। रोहन किसी प्रकार चोर बनने के लिए तैयार नहीं हुआ और अपना दांव दिए बिना घर भाग आया।
उसके पिता उसी समय मिल से वापस आए थे। रोहन के पीछे उसके सारे साथी उसे बुरा भला कहते चले आ रहे थे। वह सब रोहन के पिता से शिकायत करने लगे-
"रोहन बेईमानी करता है। खेल में जब तक दूसरे लोग चोर बनते रहे यह खेलता रहा और जब उसके चोर बनने की बारी आई तो खेल छोड़ कर चला आया।"
रोहन के पिता ने रोहन को समझाया-
"यह तो बुरी बात है रोहन। तुम्हें इस प्रकार खेल छोड़कर नहीं जाना चाहिए था।" वह चुपचाप सिर झुकाकर सुनता रहा। उन के सामने वह पिता से अपने भय की बात नहीं कह सका।
रोहन के साथियों को पिता ने किसी प्रकार समझा-बुझाकर विदा किया।
उन्होंने फिर रोहन से पूछा-
"क्या बात है रोहन! इस प्रकार भाग क्यों आये? अपने दोस्तों को इस तरह नाराज करने से वे तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। तब क्या करोगे?"
"पिताजी! मैं उन्हें नाराज नहीं करना चाहता था।" रोहन कहा।
"फिर क्या बात हुई?" पिता ने पूछा।
"पता नहीं। मुझे अंधेरे से बहुत डर लगता है पिताजी!"
"डर? कैसा डर?" पिता ने पूछा।
"पता नहीं। लेकिन मैं अंधेरे में अकेला नहीं रह पाता। ऐसा लगता है जैसे अभी अंधेरे से निकलकर कोई मुझे पकड़ लेगा। अँधेरा राक्षस बन कर दबोच लेगा। अँधेरा और अकेलापन दोनों ही मुझे डरा देते हैं।" रोहन ने धीरे-धीरे अपने मन की बात स्पष्ट कर दी।
रोहन की बात सुनकर उसके पिता बहुत चिंतित हो गए. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि रोहन के अकेलेपन और अंधेरे के डर को कैसे दूर किया जाए. उन्होंने तरह-तरह से उसे समझाया किंतु रोहन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
धीरे-धीरे गर्मी की छुट्टियाँ बीत गयीं। बरसात आ गई. स्कूल खुल गये। सभी बच्चों के साथ रोहन भी स्कूल जाने लगा और पढ़ाई में मन लगाने लगा।
एक दिन की बात है रोहन की छुट्टी हो चुकी थी और वह घर आ गया था। दरवाजे पर बैठकर वह पिता के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। अकस्मात आकाश काले-काले बादलों से भर गया। बिजली चमकने लगी और थोड़ी ही देर में मूसलाधार वर्षा होने लगी। रोहन के मन में भय सिर उठाने लगा। अकेलेपन के भय के कारण वह दरवाजा बंद करके घर के अंदर भी तो नहीं जा पा रहा था। घर के बाहर भी अँधेरा बढ़ रहा था।
उसी समय उसके पिता पानी में भीगते हुए आ गए थे। वह उनसे लिपट गया। उसे सांत्वना देकर पिता कपड़े बदलने लगे।
"आज भीग कैसे गए पिताजी?" रोहन ने पूछा।
"क्या करता बेटा! मिल से निकल ही रहा था कि वर्षा आरंभ हो गई. पहले तो सोचा कि रुक जाऊँ। वर्षा रुकने पर ही घर जाऊँ लेकिन तुम्हारा ध्यान आते ही रुक नहीं सका। मैं जानता था कि तुम यहाँ अकेले अंधेरे में डर रहे होगे इसीलिए भीगता हुआ घर आ गया।"
पिता की बात सुनकर रोहन अपराध बोध से भर गया। यह जानकर उसे बहुत कष्ट हुआ कि पिता को उसी के कारण भीगना पड़ा परंतु वह अपने भय का क्या करे। पिताजी ने कपड़े बदल कर चाय बनाई और फिर जल्दी-जल्दी खाना बनाया। रोहन उनके पास बैठा सहयोग करता रहा।
ववखा पी कर दोनों पिता-पुत्र चारपाई पर लेट गए. बाहर वर्षा तीव्र गति से हो रही थी। उस रात मोहन के पिता को तेज बुखार हो आया। रात भर रोहन उनसे लिपट कर सोता रहा। पिता के कहने पर उसने कुछ सामान्य दवाएँ उन्हें दे दी जो उसके पिता हमेशा घर में रखते थे। सुबह होते ही वर्षा कुछ कम हो गई. उजाला फूटने लगा तो रोहन पड़ोस में रहने वाले डॉक्टर अंकल को बुला लाया। उन्होंने उसके पिता को दवा दी और पथ्य बताकर चले गए.
रोहन उस दिन स्कूल नहीं गया। कुछ ही देर में उसके पिता बेसुध हो गए. उन्हें देखकर रोहन घबरा गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। बाहर पानी बरस रहा था। दिन डूब चुका था। अँधेरा घना हो रहा था। उसी समय लाइट भी चली गई.
उस घने अंधेरे में डर कर रोहन पिता के पास बैठ कर उन्हें पुकारने लगा-
"पिताजी! ...पिताजी! ... उठिए पिताजी! मुझे बहुत डर लग रहा है। आप बोलते क्यों नहीं?" परंतु उसके पिता को इतना होश कहाँ था जो उसकी बातों का उत्तर देते।
रोहन को लगा कि डॉक्टर को बुला लेना चाहिए पिता का शरीर कांप रहा था और उन्हें बिल्कुल होश नहीं था। बाहर पानी बरस रहा था। चारों ओर घोर अँधेरा छाया हुआ था। भांति-भांति की आशंकाएँ उसे भयभीत करने लगी। उस अंधेरे को दूर करने के लिए दिया सलाई ढूंढना या टार्च ढूंढना पड़ता किंतु रोहन की हिम्मत अकेले अंधेरे में कहीं जाने की नहीं हो रही थी। पिता की चिंताजनक स्थिति उसे सबसे अधिक भयभीत कर रही थी। उन्हें डॉक्टर को दिखाना और दवा देना बहुत आवश्यक था। यदि उसके पिता को कुछ हो गया तो? नहीं, वह अपने पिता को कुछ नहीं होने देगा। उनका इलाज कराएगा वह। रोहन ने निश्चय किया और अपने निश्चय को पूर्ण करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गया।
दीवार पर हाथ रखकर चलते हुए वह किसी प्रकार रसोई घर में पहुंचा और टटोल कर दिया सलाई की डिब्बी उठा ली। अंधेरे में ही उसने दियासलाई जलाई तो चारों और प्रकाश फैल गया। वहीं स्टोव के पास ढिबरी रखी हुई थी। उसे जला कर उसने पिता की चारपाई के पास मेज पर रख दिया। फिर उसने आलमारी से टार्च उठाई. खूंटी पर टँगा छत उतारा और साहस करके घर से निकल पड़ा।
टॉर्च की रोशनी में एक हाथ से छाता संभाले वह किसी प्रकार डॉक्टर अंकल के पास पहुंच गया। डॉक्टर साहब तुरंत ही उसके साथ घर आने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने रोहन के घर जाकर उसके पिता की भली भांति जांच की और कागज पर एक इंजेक्शन का नाम लिखकर रोहन को देते हुए बोले-
"बेटा, यह इंजेक्शन तुरंत ले आओ. तुम्हारे पिताजी की दशा बहुत गंभीर है। उन्हें एक घण्टे के अंदर यह इंजेक्शन लगना बहुत ज़रूरी है। तुम जाकर इंजेक्शन ले आओ तब तक मैं यहीं तुम्हारे पिताजी के पास बैठा हूँ।"
"अच्छा अंकल!" रोहन ने उत्तर दिया। उनके हाथ से इंजेक्शन का पर्चा ले लिया। पिता के पर्स से सौ का नोट लेकर वह बाहर जाने लगा। तभी उसे रोकते हुए डॉक्टर अंकल ने कहा-
"सुनो। ग्यारह बज गए हैं। सारी दवा की दुकानें बंद हो चुकी होंगी। तुम हॉस्पिटल के पास से इंजेक्शन लेना। वहाँ की दुकानें सारी रात खुली रहती हैं।"
रोहन बाहर निकल गया। रात के ग्यारह बज चुके हैं यह जानकर उसके रोंगटे खड़े हो गए. शहर की सारी दुकानें बंद हो चुकी थी। वैसे भी मौसम इतना खराब था कि सारे रास्ते सूने पड़े थे। हॉस्पिटल वहाँ से बहुत दूर था और रोहन को एक घंटे के अंदर ही इंजेक्शन लाकर डॉक्टर साहब को देना था। रास्ते में कोई साइकिल रिक्शा या ऑटो रिक्शा भी नहीं चल रहा था
रोहन ने शॉर्टकट रास्ते से वहाँ जाने का निश्चय किया और तेज चाल से चल पड़ा। इस रास्ते का प्रयोग लोग दिन में किया करते थे। रात में इस रास्ते से कोई नहीं आता जाता था क्योंकि यह रास्ता एक कब्रिस्तान के निकट से होकर जाता था। जैसे-जैसे कब्रिस्तान निकट आता जा रहा था रोहन के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। पिता की चिंतनीय दशा उसे आगे बढ़ा रही थी। उसी समय उसे पिता की कही हुई बात याद आ गई. वह अक्सर कहते थे-"बेटा डरते क्यों हो? अपने ही मन का वहम तुम्हें डराता है वरना डरने के लिए कुछ भी नहीं है। तुम हिम्मत रखो तो डर खुद ही डर कर भाग जाएगा। एक निडर हजार डरों को हरा देता है।"
पिता की बात याद आते ही उसने दृढ़ता से कदम आगे बढ़ा दिये। कब्रिस्तान के पास से गुजरते समय उसने पलटकर भी उधर नहीं देखा। जल्दी ही वह दुकान पर पहुंच गया। इंजेक्शन खरीद कर लौटते समय उसके मन में भय नहीं था बल्कि एक ही धुन समाई थी कि किसी प्रकार वह इंजेक्शन लेकर समय पर पहुंच जाए जिससे उसके पिता का इलाज हो सके. एक घंटे में अभी दस मिनट बाकी ही था जब रोहन घर पहुंच गया।
डॉक्टर साहब ने उसके पिता को इंजेक्शन लगा दिया। कुछ ही देर में उन्होंने आंखें खोल दी। डॉक्टर साहब को देखकर चकित होकर वे बोले-
"डॉक्टर साहब! आप यहाँ?"
"हाँ भाई, आप तो ऐसे पड़े कि बस चारपाई ही पकड़ ली। बेटे की सेवाओं से बचे हैं आप। यदि इस वर्षा और अंधेरे में हिम्मत करके वह जीवनदायी इंजेक्शन न ले आता तो आपका बचना कठिन था। अच्छा अब आप आराम करें। मैं सुबह फिर आकर आपको देख लूंगा।"
डॉक्टर साहब रोहन को दवा देकर चले गए. उनके जाने के बाद रोहन के पिता ने उसका हाथ थामकर पूछा-
"तू दवा लेने गया था इस बारिश में? आधी रात के अंधेरे में रास्तों पर डर नहीं लगा तुझे?"
"नहीं पिता जी! आपने कहा था न कि एक निडर हजार डरों को हरा सकता है। मैं भी निडर बन गया हूँ इसलिए डर मुझसे डर गया। अब मैं अंधेरे और अकेलेपन से कभी नहीं डरूंगा।"
रोहन ने पिता के पास बैठते हुए कहा।
"युग-युग जिओ मेरे बच्चे!" पिताजी ने उसका हाथ चूमते हुए आशीर्वाद दिया। स्नेह और प्रसन्नता से उन की आंखें छलछला आयीं।