डर / दीपक मशाल
ऐसा नहीं कि बूढ़े के पास पैसों की कमी थी। बच्चे भी अपनी-अपनी जगह सैटिल हो चुके थे, बड़ा बेटा पुणे में डॉक्टर था और बेटी वहाँ चंडीगढ़ ब्याही थी। दोनों खुश थे और कई बार दोनों ने उनसे कहा भी कि-
“आपने सारी उम्र एक जगह पर रह कर हम दोनों को पढ़ाने-लिखाने में गुज़ार दी, हमारा भविष्य बनाने में लगे रहे। अब जब हम हर तरह से खुशहाल हैं तो अब तो दुनिया घूम लीजिये। हम आपके साथ चलने को तैयार हैं। ज्यादा नहीं तो चारों धाम या कुछ तीर्थ के बहाने ही घर से निकलिए तो। कहाँ यहाँ पड़े रहते हैं इस शहर में तो ढंग से बिजली भी नहीं आती। सड़ते रहते हैं गर्मियों में। “
उसकी पत्नी ने भी कई बार घूमने की इच्छा जताई लेकिन वो कहाँ मानने वाला था। पत्नी से भी कह देता “अगर तुम्हें घूमना हो तो घूम आओ। मैं नहीं जाने वाला।”
उस शहर से उसकी आसक्ति किसी से छुपी नहीं थी, जबकि ना ही वहाँ उसका कोई दोस्त था ना सगा-संबंधी। ऊपर से १२ कमरों का इतना बड़ा मकान।। बुड्ढा-बुढ़िया २ कमरों और एक किचेन से ज्यादा इस्तेमाल भी ना करते फिर भी उसे किराए से ना उठाते।
सब यही समझते कि बेटा-बेटी अपने-अपने घरों में सुख से हैं पैसों की कोई कमी नहीं इसलिए किराए पर उठायें भी क्यों!!
पर एक दिन बुढ़िया ने रात में बुड्ढे को बड़बड़ाते सुना- “ नहीं। नहीं। तुम ऐसा नहीं कर सकते। मेरे मकान पर कब्ज़ा नहीं कर सकते। इसीलिये मैं किराए पर नहीं देता था। मुझे पता था तुम सब मेरे मकान पर आँख गढ़ाए बैठे थे।। पर तुम मेरे जीते जी ऐसा नहीं कर सकते।”
अचानक बुढ़िया को ३५ साल पहले का वो दृश्य याद आ गया जब वो और उसका पति उस घर में अकेले रहने वाले बूढ़े के पास किरायेदार बनकर आये थे और फिर एक सुबह अचानक उसके मालिक बन बैठे थे। अब वो बूढ़े पति का डर समझ सकती थी।