डर / प्रभात चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
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उसके चेहरे पर पसीना आ गया था, न जाने किस वजह से चौंक जाने से उसकी नींद उचट गई थी। लालटेन को तेज कर वह बैठ गया। सन्नाटा इतना भयानक था कि हड्डियों को छेद शरीर में घुसा जा रहा था। इस महानगर में कोई रात इतनी भयावह नहीं निकली थी जितनी यह रात। थोड़ी-थोड़ी देर में ही उसकी नींद उचट जाती थी। वह फिर से सोने की कोशिश करता था पर नींद आते ही फिर कुछ हो जाता था।

खिड़की से, बाहर बिजली के खम्भे से उत्पन्न प्रकाश की एक क्षीण रेखा कमरे में तैर गई थी, उसे लगा फर्श पर कोई लाश कफन ओढ़े लेटी हुई थी। हवा से बल्ब रह रह कर हिल उठता था, और वह छाया भी कांपने लगती थी। बल्ब के बिजली के तारों से टकराने से एक धीमी आवाज होती थी किन्तु शायद इस कष्टदायक शांति के कारण दूर तक गूंज जाती थी वह शायद इसी आवाज से चौंक कर जाग गया था। पिछले चार दिनों में उसने जो कुछ देखा था, उस से वह इतना डर गया था कि जरा सी बात उसे भीतर तक हिला जाती थी।

दूर से रीढ़ में सिहरन उत्पन्न कर देने वाली आवाजें सुनाई देने लगीं। शायद वहां कहीं आग भी लगा दी गई थी क्योंकि आकाश में लपटों की छायाएं दीख पड़ती थी।

“ शायद कीर्ति नगर को लूटा जा रहा है।” वह बुदबुदाया। डर उस पर फिर से हावी होने लगा। सहमते हुए वह उठा और पांवों से बिल्कुल आवाज न होने देते हुए वह खिड़की के पास तक पहुंचा। उसे अपने पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि खिड़की खोल कर सोने की आदत क्यों डाल ली? खिड़की बन्द करने से एक चीख सी आवाज हो ही गई थी, वह वहीं खड़ा अपने को संयत करने लगा। उसकी टांगें काँप रही थी।

उसने महसूस किया कि उसके चहरे पर पसीना बह रहा है जैसे कई सांप रेंग रहे हों। बाँह से मुँह का पसीना पौंछ वह चारपाई पर आ लेटा था।

उसे तेज प्यास लग आई थी किंतु वह तब ही उठा जब जीभ पर कांटे से खड़े होने लगे। रोशनी किये बिना वह उठा और पानी पीकर झटपट वापस लेट गया था।

चार दिन पहले जो सांप्रदायिक आग मुख्य बाजार में भीड़ के बीच हुए अनेक बम विस्फोटों के बाद सिलग गई , अब ऐसे सुप्त ज्वालामुखी की तरह शान्त हो गई थी जो रह रह कर भड़क उठता हो। आतंकवादी अपने उद्देश्य में सफल रहे थे शहर में दंगा हो गया। आने वाले चुनाव को ध्यान रख कुछ कफनखसोट राजनीतिज्ञ जो जलती चिताओं पर सत्ता की रोटियां सेकना चाहते हैं वे अपने अपने तरीके से इस आग को हवा देने लगे। दौड़ता भागता महानगर जलते मकानों ओर खण्डहरों में बदल गया था। सन्नाटे के बीच कभी कभी सिर्फ सैनिकों के बूटों की आवाज सुनाई पड़ रही थी।

वह धीरे धीरे संयत होने लगा। बीड़ी के कश लेते लेते सोचने लगा कि वह इतना बुरी तरह क्यों डर गया था। क्या केवल मृत्यु का भय इतना दयनीय बना देता है। पिछले चार दिनों में उसके साथ जो बीता शायद वही इस भय का मूल कारण हो। बीड़ी बुझ गई थी उसे फैंक वह फिर पानी पीने उठा।

अब उसे नाभि पर दबाव महसूस होने लगा था। बाहर जाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पा रहा था। पिछले दो दिनों से वह कमरे से बाहर नहीं निकला था।

परसों सुबह जब कर्फ्यू हटा तब वह अपने भाई से मिलने गया, जो अपनी नौकरी के कारण शहर के दूसरे छोर पर रहता था। रास्ते में टूटे और जले हुए मकान और सेना की टुकड़ियां ही ऐसी बात थी जो एकदम नई थी। शहर के मुख्य रास्तों पर जहां अब भी पहले की तरह हलचल थी हालांकि पहले के विपरीत सब आदमी एकदम शांत और भावहीन चेहरे लिए गुजर रहे थे। तभी भीड़ के बीच अचानक एक आदमी ने दूसरे को छुरा मार दिया था और वहां भगदड़ मच गई थी। सेना में जवानों ने हवा में एक साथ गोलियों की बौछार छोड़ी थी। बहुत सारे कुत्ते अचानक एक साथ रोने लगे थे। वह बहुत दूर तक बिना रूके भागता चला गया था।

कुछ दौड़ने पर सांस फूल गई थी और शांत इलाका देख वह रूक गया था और आसपास चौकन्नी नजर डालता हुआ तेजी से चलने लगा था। थेाड़ी दूर पर एक बारह तेरह वर्ष के बच्चे की लाश उसके पांव से टकरा गई थी जिसका सिर फटा हुआ था। शायद उसे मकान की छत से फेंक दिया गया था। वह सिहर उठा।

वह अपने भाई के घर पहुंचा तब तक इतने वीभत्स दृश्य देख चुका था कि यकायक समझ ही नहीं नहीं पाया कि वहां क्या हो गया है। पूरा मोहल्ला वीरान सा भंाय भांय कर रहा था। घर का दरवाजा खुला पड़ा था। भाई की लाश तख्त के पास जमीन पर पड़ी थी, उनके हृदय में किसी तेज हथियार से छेद कर दिया गया था। भाभी वहां नहीं थी, शायद गुण्डे उन्हें अपने साथ ले गए थे। अन्दर कमरे में 2-3 वर्ष की मुनिया दो खण्डों से विभक्त पड़ी थी। सारे कमरें में खून बिखरा हुआ था। उसके मुंह से रूलाई भी नहीं फूटी। वह निशब्द खड़ा कभी भाई और कभी भतीजी की लाश की और देखता रह गया। उसका शरीर थर थर कांप रहा था।

यह सब अचानक असह्य हो उठा था, और वह एकदम भाग खड़ा हुआ था। बिना लाशों के अंतिम संस्कार की बात सोचे वह भागता चला गया था। अपने मोहल्ले में पहुंचा तो सन्नाटा था। पड़ौसी ने अपनी खिड़की से उसकी तरफ अजीब नजरों से देखा तो वह अंदर ही अंदर कांप उठा था। एक बार सोचा भी कि कहीं और चला जाए पर कुछ समझ ही नहीं आया कि कहां जाए। तब से अब तक वह कमरे के बाहर नहीं निकला।

नाभि पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। उसने धीमे से दरवाजा खोला। गली में वही ठंडा, हृदय में छेद कर देने वाला सन्नाटा है, सब दरवाजे बंद हैं। कहीं से रोशनी की एक लकीर भी तो नहीं आ रही। स्वयं को बार-बार हिम्मत बंधाते हुए वह बाहर निकला।

वह इतना भयभीत है कि बैठकर पेशाब नहीं कर पाता। उसे महसूस होता है कि उसकी टांगें कांप रही हैं क्योंकि उसकी टांगें धीरे-धीरे गीली होती जा रही है।

दूर से ढाल बजने की आवाज नजदीक आने लगी है। वह जल्दी दरवाजे की ओर बढ़ता है। बगल वाले करीम मियाँ के खासने की आवाज आती है। बलगम का एक बड़ा का कतरा ‘टप’ से गली में गिरता है। वह चौंक जाता है।

वह लगभग दौड़ता सा ही घर में घुसा है। ढोल बजने की आवाज बिल्कुल पास आ गई है। ‘नारा-ए-तकबीर अल्लाहो-अकबर’ स्पष्ट सुनाई दे रहा है।

उसकी घिघ्घी बंध जाती है। ‘अब ये लोग मुझे मार ही डालेंगे।’ उसके गले में कुछ फंस सा गया है।

लगता है भीड़ अब गली में आ गई है। वह सहमा सा दरवाजे के पास ही खड़ा है “अब क्या करू? हे भगवान!” बार-बार उसके मुंह से यही निकल रहा है।

वे लोग अब शायद करीम मियां के घर के बाहर खडे़ हैं। करीम मियां की खरखराती हुई आवाज आती है “क्या है? क्या चाहिए ?”

“यहां पर काफ़िरों के घरों में कोई है ?” भीड़ में से कोई पूछता है। वह काँपने लगा है। अगले ही क्षण ये लोग मेरे कमरे की ओर टूट पड़ेंगे। उसको लगता है कि उसकी चीखें न निकल जाएं।

तभी करीम मियां की आवाज सुनाई पड़ती है, “नहीं, यहां कोई हिन्दू नहीं है। सब लोग कहीं चले गए” उनके बेटे ने बीच में कुछ बोलने की कोशिश की है पर उन्होंने उसे डपट दिया।

भीड़ दूर जा रही है। बड़ी देर से अस्वाभाविक चल रही साँस एक निश्वास के रूप में निकल जाती है।

तभी किसी ने उसका दरवाजा खटखटाया। वह डरते डरते दरवाजा खोलता है। करीम मियां अपने छोटे लड़के सलीम के साथ आए हैं।

“बेटा बनवारी! तुम बिल्कुल न घबराओ। सलीम रात भर तुम्हारी हिफाजत के लिए यहीं रहेगा। “

वह कुछ कहने की कोशिश करता है पर वे उसे गले लगाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे वालिद मेरे बचपन के दोस्त थे , हम लोग साथ ही गांव से यहां फैक्ट्री में काम करने के लिये आए थे। एक जमाने में हम ईद और दीवाली साथ मनाया करते थे। आज मालिक के बन्दों को न जाने क्या हो गया है। तुम्हारे वालिद के मुझ पर कई अहसान थे उनमें से शायद एक आज उतर गया।”

वे खांसते हुए चले जा रहे हैं। बनवारी सलीम की ओर देखता है। यहां एक मित्रतापूर्ण मुस्कराहट है। वह भावावेश में सलीम को अपने से चिपटा लेता है और उसके आँसू टपक जाते हैं।