डर / शशि पुरवार

Gadya Kosh से
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मथुरा से हरिद्वार जाने के लिए बस में सामान रखकर 2 नो. की जैसे सीट पर बैठने लगी, तभी कंडक्टर ने कहा – इस सीट पर नहीं बैठना है, सभी को मना कर रहा था बैठने के लिए. सभी यात्री आने के बस मे आने के बाद बस तेजी से अपने गंतव्य की तरफ चल पड़ी। काफी दूर जाने पर सुनसान इलाका शुरू हो गया था, सभी यात्री को शांत बैठने के लिए कहा गया था क्यूंकि यह इलाका आतंकी क्षेत्र में आता था। कोई कुछ समझ पाता इतने में गोली की आवाज आई और उस 2 नो की सीट पर जो एक आदमी बैठा था गोली उसके शरीर के आर -पार हो गयी। सभी यात्री घबरा गए ड्राईवर ने तेजी से बस की गति बढा दी और गाडी को भगाता रहा जब तक दूसरा गाँव नहीं आया। सभी के चेहरे पर भय के बदल छा गए थे। जिस व्यक्ति को गोली लगी थी वह खून से लथपथ कहार रहा था और बडबडा रहा था कि -

"हे ईश्वर। .. यह क्या किया तुने, तेरे दर्शन कर मुझे क्या मिला। ...... पानी पिला दो कोई। .....मेरे घर फ़ोन कर दो, मेरा मोबाइल जेब में है ले लो" करूण पुकार थी। पर आश्चर्य किसी ने भी उसे हाथ नहीं लगाया, कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आया, मैंने पानी की बोतल लेकर उसे पानी पिलाना चाहा तो सभी ने रोक दिया" नहीं पानी नहीं पिलाना …. पुलिस केस है यह।“

यह सब देखकर दिमाग सुन्न हो चुका था, क्या मानवता भी ख़त्म हो गयी। सभी की आवाजे गूंज रही थी। पुलिस केस है। ..... हाथ मत लगाओ। .......वगैरह...। आगे एक गावं में ड्राईवर ने बस रोकी, एक रिक्शे वाले को पैसे दिए, और उस आदमी को रिक्शे में बिठाकर कहा कि " जिला अस्पताल छोड़ देना ".

यह कैसा डर है जो ऐसी परिस्थिति में भी मदद करने से रोक रहा है। कहाँ खो गयी मानवता या कार्यवाही के डर से मानवता इतनी स्वार्थी हो गयी थी।