डलहौजी : यात्रा / भीकम सिंह

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इस बार डलहौजी खज्जियार ट्रैक के लिए यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ इण्डिया का आधार शिविर देवी-देहरा में है। वहाँ तक पहुँचने के लिए डालहौजी का निकटतम हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन पठान कोट में ही है। हम चौबीस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस को सायं पाँच बजे टैक्सी लेकर कश्मीरी गेट बस अड्डा (महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डा) दिल्ली पहुँचे, वहाँ से हमने हरियाणा परिवहन निगम (एच.आर.टी.सी.) की बस ली, जिसने करनाल, अंबाला, लुधियाना, जालंधर होते हुए पचीस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस की सुबह पठानकोट बस अड्डे पर उतारा। बस मार्ग से पठानकोट से डलहौजी की दूरी लगभग अस्सी किलोमीटर है। बस अड्डे पर धुँधलका छाया हुआ है। सुबह के छह बजे हैं। ठंडी हवा का एक झोंका आया और हम स्वेटर पहने हुए ही सिहर उठे। अब यशपाल की कहानी 'पराया सुख' के नायक मिस्टर सेठी की तरह तो हम मोटा गरम सूट और ओवर कोट नहीं पहने थे कि पहाड़ी हवा छूने की ताब ना कर सके। फिर भी हमने जैकेट और कैप निकालने के लिए रुकसैक खोल लिये और चुस्ती से बस अड़्डे के वेटिंग रूम की जालियों से डलहौजी की बसों को भाँपने लगे। मिस्टर सेठी की तरह हमें भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि सूर्योदय हो गया है या नहीं। मिस्टर सेठी और हममें केवल इतना अन्तर रहा कि मिस्टर सेठी पठानकोट के रेलवे स्टेशन पर थे और हम बस अड्डे पर हैं। बसों के ड्राइवर बसों को आगे-पीछे कर रहे हैं और हम बसों में बैठने को बेताब हो रहे हैं। आधे घंटे बस अड्डे के मटमैले परिवेश में घूमते रहे। बस में चढ़ते ही टिकट की पुकार हुई। हम सात के सात ड्राइवर की सीट के आस-पास बैठ गए। हम सातों में, मैं और डॉ. ईश्वर सिंह महाविद्यालय में अध्यापन का कार्य करते हैं और संजीव वर्मा, अशोक भाटी, इरशाद, राजीव गहलौत ऐडवोकेट हैं और जनपद न्यायालय गौतमबुद्धनगर में प्रैक्टिस करते हैं। सातवाँ अलंकार नागर है जो न्यूयार्क में रहता है, छुट्टियों में घूमने आया है। ड्राइवर सीट पर बैठा कन्डक्टर की सीटी की प्रतीक्षा कर रहा है। हम भी सीट के सहारे पीठ टिकाकर बतियाने लगे। बॉनट के पास बैठे अशोक भाटी के कँपकँपाते हुए होठों से लगता है कि वह संजीव वर्मा से कुछ कह रहा है लेकिन बस के शोर में उसकी आवाज़ को सुन सकना असम्भव है, लेकिन उसके चेहरे पर पुते गुस्से के भावों को मैं साफ़ देख पा रहा हूँ। अशोक भाटी टैक्सी से चलना चाहते थे अब बॉनट के पास वाली तंग सीट पर बैठना नागवार गुजर रहा है। 'बस' ठंडी हवा को चीरती हुई दौड़ रही है। जिससे अशोक भाटी का सन्तुलन बिगड जाता है और वह सड़क किनारे के दृश्यों को ठीक से नहीं देख पा रहा है। अशोक भाटी के धारा प्रवाह एकालाप को सुनता हुआ ड्राइवर अपने चीकट मफलर को बाँध रहा है जो कानों से ढलक गया है। दो ढाई घंटे तक लगातार चलकर ड्राइवर ने बस की रफ़्तार धीमी कर दी है।

राजीव! अशोक भाटी ने भावातिरेक में कहा, "इतने हिचकोले टैक्सी में भी मिलते क्या!"

क्षणभर चुप रहने के बाद राजीव गहलौत ने कहा, "हिचकोले या धचकोले?"

तभी बस रुकी, तो अशोक भाटी ने फिर कहा, "उतरो!"

हम अधीरता से उतरने की प्रतीक्षा करने लगे और थोड़ी देर में देवी-देहरा के बस स्टॉप पर उतर गए। अब हम देवी-देहरा पहुँच गए हैं। सूरज की लुका छिपी अभी भी चल रही है। हम आधा घंटा देवी देहरा में ही घूमते रहे, फिर हमारी नज़र एक रास्ते पर पड़ी जो पहाड़ी की ओर निकल रहा है। बीच-बीच में यह रास्ता पेड़ों के झुरमुटों में छिपा-सा लगता है।

"यही है" संजीव वर्मा ने कहा।

अब हम आधार शिविर की ओर बढ़ रहे हैं, हमारा ध्यान आधार शिविर के मुख्य दरवाजे के पास कुछ युवाओं की जमा हो गई भीड़ की ओर गया। फिर ख़्याल आया, रजिस्ट्रेशन हो रहा है। अशोक भाटी ने पंजों पर खड़े होकर भीतर झाँका तो ग्रुप लीडर ने कहा, "पहले लंच कर लें उसके बार रजिस्ट्रेशन करा लें।" हमने ग्रुप लीडर की बात का अनुमोदन किया।

दिन चढ़ आया है। धुँधलका भी धीरे-धीरे फट रहा है। ठंड वैसी ही है किन्तु अँधेरा कम होने के कारण हमारा मन देवी देहरा में चाय पीने का हो गया है। रुकसैक टैंट में रखे और हम देवी देहरा में निरूद्देश्य घूमते रहे। हम गाँव की ऊपजाऊ भूमि, आस-पास के खेत देखते रहे। देवीदेहरा में जालपा माता के मंदिर से जुड़े प्रश्न अशोक भाटी पूछते रहे कि आख़िर यह कौन-सी माता जालपा है, राजगढ़ वाली, इसी बीच एक चाय की दुकान दीखी फिर हम उस दुकान पर रूकते हैं। कुछ दूसरे ट्रैकर भी वहाँ पहले से बैठे दिखे। यहाँ चाय, कॉफी, समोसे, मैगी है। हमने छह चाय का आर्डर दिया जिनमें दो फीकी हैं। अशोक भाटी चाय नहीं पीता है, उसने एक उड़ती-सी नज़र दुकान के अन्दर डाली और बैठ गया।

"सब ठीक है" , राजीव गहलौत ने अशोक भाटी से पूछा

अशोक भाटी ने सिर हिलाया।

"क्या हुआ" , मैंने पूछा।

सब सब हँस पड़े।

"लेकिन हुआ क्या है" , मैंने फिर पूछा।

"ईश्वर जाने" , अलंकार ने जवाब दिया।

इरशाद ने दुकानदार के पास जाकर कहा, "कितने पैसे हुए?"

"साठ रुपये" , वह बोला

इरशाद ने अपनी जेब में हाथ डालकर सौ रुपये का एक नोट बाहर निकाला।

"मेरे पास छुट्टे नहीं हैं" उसने कहा।

"रक्खो" अशोक भाटी ने तफरीह में कहा "हम कल फिर आएँगे।" कल पर्यनुकूलन (Acclimation) के लिए यहीं रुकना है, परसों दूसरे कैम्प में जाऐंगे। लेकिन हँसने का कारण खड़ा रहा। मौसम सुहावना है लेकिन हवा की ठंडक बर्दाश्त के बाहर है, लिहाजा हम उठे और कैम्प में आ गए। अलंकार और डॉ. ईश्वर सिंह अपनी जैकेट की पॉकेटों में हाथ डालकर अन्यमनस्क भाव से ज़मीन की पत्तियों को ठोकर मार रहे हैं और कैम्प के बाहर बतिया रहे हैं। संजीव वर्मा और अशोक भाटी चारों ओर से सीटियाँ मारती हवा के बीच फ़ोन लगा रहे हैं। अभी डिनर का समय ही हुआ है, लेकिन हवा की ठंडक से लग रहा है जैसे बहुत देर हो चुकी है। राजीव टॉयलेट पेपर का रोल और टार्च हाथ में लिये वॉशरूम तक गया है। मैं और इरशाद रुकसैक से कप प्लेटें निकाल रहे हैं।

डिनर करने के बाद हम सभी टैंट में आ गए हैं। टैंट में थर्मोकोल की सीट, दो कम्बल और स्लीपिंग बैग मिले हैं। स्लीपिंग बैगों में घुसने के बावजूद ग़ज़ब की ठंड है। मैंने भालू के डर से टैंट के दोनों गेट बन्द कर दिए हैं। रात में दहशत पैदा करने वाला नजारा मेरी आँखों के सामने कौंधा और डर के मारे मेरे हाथ-पैर काँपने लगे। मैंने ईश्वर को याद किया। डॉ. साहब! डॉ. साहब! टैंट में साही (कांटों वाला जीव) है। सभी ने स्लीपिंग बैग से मुँह निकालकर पूछा, "कहाँ है?" मैंने कहा, "मेरे पैरों के पास कुंडली मारे लेट रहा है।" एक क्षण के लिए लगा कि कहीं मुझे स्मृतिभ्रम तो नहीं हो रहा है? मज़बूत और घने बालों वाला साही सचमुच अन्दर आ गया है? उसकी आकृति बिल्कुल साफ़ दिख रही है। संजीव वर्मा ने भी कहा "हाँ" है। अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी, अब तो कोई दुर्भाग्यपूर्ण वारदात घटित न हो जाए, इसकी चिंता है। मैंने पैरों को स्लीपिंग बैग के अन्दर ही टटोला, कहीं काट तो नहीं लिया?

आखिरकार डॉ. ईश्वर सिंह ने अपरा सिर ऊपर उठाया। "कुत्ता है"। बस इतना कहा।

भौंचक्की आँखों से सबने देखा। संजीव वर्मा ने अपने स्लीपिंग बैग की सिलवटें ठीक करते हुए कहा, "अरे भाईसाहब! डरा ही दिया आपने तो।" मैंने स्लीपिंग बैग में ही पैर की नोक से उसकी टाँग को हिलाया। "उठो!"

कुत्ता बमुश्किल अपने पैरों पर खड़े होते हुए, टैंट से बाहर चला गया। कुछ देर बाद ही सुबह की चाय आ गई। टैंट में बैठे-बैठे हमने देखा सामने खेत की सतह पर बर्फ की एक पर्त फैली हुई है और पूर्व की ओर एक लाल आभा फूटने लगी है। गले की कसरत करते हुए ग्रुप लीडर की आवाज़ पूरे कैम्प में गूँज रही है। डी.डब्ल्यू. इलेवन, ट्वैल्व, मार्निंग वॉक के लिए बाहर आ जायें। काफ़ी विचलित भाव से हम खड़े हुए और मॉर्निंग वॉक के लिए शाम वाली जगह पर जा पहुँचे। हम कुछ देर तक हल्का-फुल्का व्यायाम करने के बाद जालपा माता मंदिर होते हुए कैम्प लौट आए। ब्रैकफास्ट के बाद पर्यनुकूलन (Acclimation) के लिए निकलना है। दो घंटे तक हम देवी देहरा के आसपास घूमते रहे। लम्बी टहल ने भूख से बेचैन बना दिया। मैंने बेतकल्लुफी से कहा, वकील साहब! कुछ लड्डू-सड्डू हैं? सारे वकील उत्सुकतावश गर्दन घुमाकर मेरी तरफ़ देखने लगे। संजीव वर्मा शालीनता से मुस्कराए और लड्डू का डिब्बा मेरी ओर बढ़ा दिया। अब हम देवी देहरा की ओर बढ़ने लगे, रास्ते में पेड़ों के बीच छोटे-छोटे बच्चे बर्फ पर 'स्की' कर रहे हैं। पीली चोंच वाली नीली मैगपाई पेड़ पर बैठी है। संजीव वर्मा फोटो शूट कर रहे हैं। अब हम चम्बा डलहौजी मार्ग पर हैं, यहाँ प्राकृतिक जलधारा को रोकर एक झरना बनाया गया है, जिसके पास एक कैफे है, थके-माँदे से हम कैफे में पहुँचते हैं। एक बज चुका है। हम कॉफी पीकर बाहर निकलते हैं। इसे देवी देहरा का मनोरंजन पार्क भी कह सकते हैं। झरने के पास पानी की मार झेलती कई चट्टान पड़ी हैं। फिर ग्रुप लीडर हमें जालपा माता का मंदिर दिखाने ले गए, जो हमने मार्निंग वॉक के दौरान भी देखा है, उसके बाद सीधे हम आधार शिविर आ गए। हमने जल्दी-जल्दी लंच किया और ताश लेकर टैंट में बैठ गए। डॉ. ईश्वर सिंह, अलंकार और इरशाद बाहर टहलने लगे। इसी समय ग्रुप लीडर टैंट में दाखिल होता है, उसके हाथ में फोटो लगे हमारे परिचय पत्र हैं जो हमें अपने साथ तलाई ले जाने हैं। परिचय पत्र देने के बाद वह धीरे से 'ओके' कहता है और जिन पैरों आया था, उन्हीं पैरों लौट जाता है। हमारा ताश खेलना बदस्तूर जारी है। इसी बीच इरशाद वापिस आ जाता है और हमारे पास ऐसे बैठ गया जैसे रेफरी हो। अलंकार और डॉ. ईश्वर सिंह ने आवाज़ दी। डिनर तैयार है, हम बाहर निकल आए हैं। अशोक भाटी की बहस में उलझना बेमतलब है। ठंडी हवा कटखनी बनकर दौड़ रही है। डाइनिंग हॉल का अहाता इस वक़्त शान्त है और कुछ क्षणों तक ही शान्त रहा, फिर डिनर के दौरान ट्रैकरों में बातचीत और हँसी-ठिठोली होती रही तभी अशोक भाटी अपने कप को सेवई से भर लाया, मैंने पूछा "ये भी है?"

"जी" , अशोक भाटी ने चेहरे पर ख़ुशी के भाव देकर कहा। सभी ने डटकर खाया, डिनर करने के बाद हम टैंट में पहुँच गए। फिर दस बजे के लगभग टैंट में बोर्नविटा आया।

आज सत्ताईस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस को अगले कैम्प 'तलाई' का कार्यक्रम है, हम जल्दी उठकर तैयार हो गए हैं। चाय के बाद ब्रैकफास्ट भी हो गया है, पैक लंच की तैयारी है। ग्रुप लीडर ने सीटी मारी और शिष्टता से आग्रह किया- "पैक लंच ले लीजिए!" यह कहते हुए उसकी आवाज़ पूरे कैम्प को लपेटे में ले रही है। रुकसैक पीठ पर धरे हम आकाश में मँडराते बादलों की ओर देख रहे हैं, कभी पैर से निरुद्देश्य ठोकर मारते हुए टहलने लगते हैं, फिर गाइड की आवाज़ सुनकर तलाई के लिए चल पड़े। चलते-चलते नौ बज गए हैं और फिर दस। पास में दिख रहे चीड़ के पेड़ों से छन-छनकर कभी-कभी सूर्य किरणें हम पर पड़ जाती हैं। आख़िर हमें तलाई दिखाई देने लगा, रास्ता कई किलोमीटर सीधा है, फूलदार झाड़ियों का एक फैला हुआ सिलसिला दिख रहा है। गाँव छोटा है। सभी मकानों की ढालू छाजनों पर भुट्टे सूख रहे हैं। एक घर में हम चाय के लिए रुक गए हैं। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनकी कोई मांग नहीं है जो जितना दे देता है उसे ही ख़ुशी से रख लेते हैं फिर भी हमने दस रुपये प्रति चाय के दे दिए हैं। हमने चलना शुरू कर दिया है, माथे पर नीला आसमान झाँक रहा है, चारों ओर पेड़ झिलमिला रहे है जैसे हमारा स्वागत कर रहे हों। तंग पगडंडियों से होते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। अलंकार पीछे खड़े हुए आसमान को ताक रहा है। राजीव ने अलंकार से पूछा, "कोई ख़ास बात तो नहीं है।" परन्तु अलंकार ने कुछ नहीं कहा, राजीव भी गर्दन बढ़ाकर आसमान को ताकने लगा और अपनी हँसी दबाने लगा। मैं जानता हूँ अलंकार प्रकृति प्रेमी है और प्रकृति का भरपूर आनन्द उठाते हुए चलता है। प्रकृति की सुन्दरता उसको अत्यधिक प्रभावित करती है। करीब ग्यारह बजे हैं। हमारे पैरों की अब यह हालत है कि चलने से मना कर रहे हैं, लेकिन सुहावना मौसम होने की वज़ह से पैदल चलना मुश्किल नहीं लग रहा है। कुछ इधर-उधर बने घरों के बच्चे जंगली फूलों के गुलदस्ते लिये बैठे हैं। गाइड ने बाईं तरफ़ मुड़ने का संकेत दिया हम ढलान पर उतरने लगे। एक लाइन में दिखे टैंट कैम्प होने की कहानी सुना रहे हैं। यही तलाई है। हम कैम्प के स्वागत बैनर तक पहुँच गए जिस पर ऊँचाई पाँच हज़ार नौ सौ फुट लिखा है। ग्रुप लीडर ने हाथ मिलाकर सभी का स्वागत किया। यहाँ वैलकम डिंªक में हमें रोड़ोडैंड्रोन का जूस मिला जो देवी देहरा में भी पिया था। तुरन्त हमने अपना टैंट ढूँढ लिया और रुकसैक जमा दिए। थोड़ी देर बाद चाय के साथ पकौड़ी खायी जिसमें कुछ अलग स्वाद था बिल्कुल यम्मी। हमने फिर सूप का भी आनन्द लिया जिसमें ब्रेड के टुकड़े पड़े है। हमारी अगली मंज़िल खज्जियार है, वहाँ टैंट नहीं है बल्कि होटल स्नेह वैली, खज्जियार में व्यवस्था की गई है जो बिल्कुल खज्जियार की सीमा पर बना हुआ है। यह जानकारी ग्रुप लीडर ने हमें दे दी है। कुछ ट्रैकर टैंटों में लेट गए हैं, कुछ बाहर टहल रहे हैं। मुझे भी टैंट में लेटने से सुख अनुभव हो रहा है। मैं लेटे-लेटे ही एकटक दृष्टि से ट्रैकर्स की व्यस्तता देख रहा हूँ। डिनर में अभी समय है और ठंडक बढ़ती जा रही है। स्लीपिंग बैग में घुसने की इच्छा कुलाँचे मारने लगी है। इसके पहले कि अशोक भाटी ताश पीसने लगे गु्रप लीडर की घोषणा होती है कि अतिरिक्त कम्बल की आवश्यकता जिसे हो वह स्टोर से ले जाए। हमें ठंड से बचने की सावधानियाँ याद आने लगती हैं और कम्बल की कमी इतनी शिद्दत से महसूस होने लगी कि तुरन्त कम्बल लाना ज़रूरी काम हो गया है। इतने में संजीव वर्मा कम्बल लाने की जिम्मेदारी अशोक भाटी को सौंप देते हैं। अशोक भाटी की हवाइयाँ भॉग खेड़ा का एंटिना पकड़ लेती है। फिर सब अपने-अपने कम्बल लेकर आते हैं। अब डिनर का समय हो गया है।

अट्ठाईस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस का सूर्योदय हो चुका है। तिलाई कैम्प में खड़े-खड़े मैं सामने के पहाड़ देख रहा हूँ। भटक-भटक आती धुंध का प्रयास भी देख रहा हूँ। सामने पहाड़ के हरियाले बदन पर जाती हुई पगडंडी देख रहा हूँ। पहाड़ी हवाएँ कभी तेज, कभी हौले टैंटों से टकराती हैं। कम्बलों के ऊपर बिना देह के पड़े स्लीपिंग बैगों से टकराती है। मैं बाहर खड़ा हूँ और सुबह भी खड़ी है। इरशाद जैसे कहना चाहता है, भाई साहब! यहाँ खड़े हो और चाय लेने चला जाता है। किचन ब्रैकफास्ट और पैक लंच तैयार करने में जुट गई है। एकाएक इदशाद ने मेरे हाथों में चाय थमा दी है और अशोक... अशोक दोहराता है। अशोक दूध के इंतज़ार में खड़ा है। हाथ में मग लेकर अशोक भाटी इरशाद की दिशा में देख रहा है। संजीव वर्मा सदा की तरह टैंट में ही चाय का इंतज़ार कर रहा है। सब कुछ हर ट्रैक जैसा। डॉ. ईश्वर सिंह और राजीव टैंट से निकलते हैं और वॉशरूम की ऊँचाई चढ़ने लगते हैं। अलंकार टैंट के खुलते बाहर देखने लगता है और टैंट के बंद होते ही कम्बल से मुँह ढककर लेट जाता है। ग्रुप लीडर लम्बी साँस भरकर जले सिगरेट के टुकडे को पैर के नीचे कुचल कर कहता है, "गाइज! ब्रैकफास्ट रेडी है।"

सभी टैंट से बाहर आ गए हैं। ब्रेक फास्ट करने के बाद टैंट क्लीन करने में जुट गए। पैक लंच लिया और पगडंडी के साथ-साथ देवदारों की घनी छाँवों में चलने लगे हैं। उछल कूद करता हिमालयी ग्रे लंगूर कभी-कभी दिखायी दे जाता है। रंगीन पंखों को समेटे तेज रफ़्तार से मोनाल जा रहा है। पहाड़ी की चोटी घास का मैदान सिर पर उठाए सीधी खड़ी है। घने पेड़ों और मटियाली पगडंगी के पास छोटे-बड़े आकारों ने टीन की लाल-हरी छतें दिख रही हैं। गाईड की सधी आवाज, " आधा घंटे में लंच प्वाइंट पर पहुँच जाऐंगें। मुड़ते ही जैसे पगडंडी पर पाँव रखा, अशोक भाटी स्थानीय चाय की दुकान पर खड़ा दिखायी दिया। आइए भाई साहब बेंच पर रखे रुकसैक को उठाकर अशोक भाटी ने सहज स्वर में कहा। बेंच पर बैठकर देखा एक बुढ़िया चाय बना रही है। झोपड़ी में ब्रेड के पैकेट और अण्डे भी हैं। खाकर इरशाद ने पैसे पूछे, उसने तीस रुपये का अण्डा बताया। चाय पीने के बाद हम झोपड़ी के नीचे वाली पगडंडी से होते हुए एक घास के मैदान में बैठ गए हैं। यही हमारा लंच प्वाइंट है। देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से बर्फीली हवाएँ बह-बह कर आ रही हैं। कुछ ट्रैकर खाना खाते-खाते खज्जियार के इतिहास-भूगोल की जानकारी बड़ी खूबसूरती से दे रहे हैं, उसी खूबसूरती से डॉ. ईश्वर सिंह और अलंकार नागर सुन भी रहे हैं। ओह... अशोक भाटी सुनते-सुनते शायद तंग आ गया है और खडा हो गया है। सभी खड़े हो गए हैं। हमने उतरना शुरू कर दिया है फिर देखा खुली चौड़ी सड़क के मोड़ से पगडंडी ऊपर जा रही है। तीरछे, सीधे, छोटे-छोटे खेत पहाड़ के घुटने पर रखे-से दिख रहे हैं। सामने बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला होटल 'स्नो वैली' है। इसे वाई.एच.ए.आइ. ने रेंट पर लिया है। यही हमारा कैम्प है। यहाँ से एक किलोमीटर की दूरी पर खज्जियार है।

आज उनतीस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस की सुबह ठंड का प्रकोप तो है ही ऊपर से हिमालय की तुषार शीतल हवा है। रात में पड़ी नयी बर्फ है। जल और बर्फ के निरन्तर सम्पर्क से कहीं-कहीं फिसलन है। खज्जियार झील लगभग छह हज़ार पाँच सौ फुट ऊँचाई पर है। काला टोप खज्जियार अभ्यारण्य की परिधि लगभग तीस वर्ग किलोमीटर है। चारों ओर शंकुधारी और ओक के पेड़ हैं, पूरी झील ज़मीं हुई है। झील के गेट पर भारत का मिनी स्विटजरलैण्ड लिखा है। यह झील हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में है और कालाटोप खज्जियार अभ्यारण्य के अन्तर्गत आती है। यहाँ काला भालू है और तीतर हैं, जो हमें नहीं दिखे हैं। अशोक भाटी ज़मीं हुई बर्फ पर चढ़ने लगा, धँसने लगा। वह चाहता था कि मुझसे कुछ पूछें, हम चाहते थे कि अशोक भाटी ही कुछ कहे, पर किसी ने भी कुछ नहीं कहा। सभी नटखट भाव से बर्फ में ठोकर मारकर देखने लगे। संजीव वर्मा सभी के फोटो शूट कर रहे हैं। पूरे खज्जियार में पर्यटक और ट्रैकर्स की चहल पहल है। गाईड हमारी प्रतिक्षा कर रहा है, पर किसी ने नोटिस नहीं किया। केवल उसकी आवाज़ ठंड में मिल-मिलकर हमारे कानों तक आ रही है। बर्फ जूतों में भरकर धीरे-धीरे पानी होने लगी है, बर्फ के नीचे टूटी-फूटी लकड़ियों के अस्थि-पंजर उभर आए हैं। देवदार के पेड़ चुप-चाप खड़े हैं। ठंडी हवा भी दम साधे खड़ी हो गई है। हम थक गए, कहीं बैठना चाह रहे हैं और सभी झील के मुख्य गेट की ओर देखने लगे। गाईड ने वापिस आने का इशारा किया तो लौटने लगे हैं। अगला कैम्प मंगला है। चम्बा जाने के लिए हमने पगडंडी पकड़ ली है। तभी तीर की तरह पगडंडी को चीरती हुई कोई चिड़िया उड़ गई है। संजीव वर्मा ने कहा, "मैगपाई! मैगपाई।" सभी संजीव वर्मा की ओर घूमने लगे, संजीव वर्मा ने उँगली का इशारा किया। पगडंडी काफ़ी लम्बी है हम एक घंटे से भी ज़्यादा समय तक चलते रहे। कभी-कभी घना जंगल आ जाता, कभी-कभी पहाड़ इस तरह ऊपर आ जाते कि आसमान दिखाई नहीं पड़ता, कहीं तीव्र मोड़ आ जाते, ऐसे खूबसूरत और रहस्यमयी रास्ते को पार करते पाँच बजे (मंगला कैम्प) चम्बा पहुँचे। सभी अपने मोबाइल से फोटो शूट करने लगे। एक ट्रैकर, शायद वही जो तिलाई कैम्प से चलने के बाद खज्जियार का इतिहास-भूगोल बता रहा था, हाँ वही बता रहा है कि चम्बा भी एक रियासत थी और भारत के स्वतंत्र होने पर पंद्रह अप्रैल उन्नीस सौ अड़तालिस को ही इसका विलय भी भारत में हुआ। हॉलाकि इसका अस्तित्व पाँच सौ पचास ई. से है। तभी ग्रुप लीडर ने वेलकम ड्रिंक ऑफर की। छत पर पड़ी बैंच और कुर्सियों पर हम बैठ गए है, चारों ंतरफ देखा बहुत सफ़ाई और व्यवस्था नज़र आई। एक बड़े से हॉल में सोने की व्यवस्था है, नीचे ही बिस्तर लगे हैं। चम्बा शहर भी दिख रहा है, उसे भी हमने उचटती निगाहों से देखा और हॉल में रुकसैक जमा दिए, अब डिनर तक कुछ नहीं करना। सभी के मुँह से एक साथ निकला ताश। अशोक की ढूँढ मची, तभी अशोक भाटी ठिठुरता-सा, हॉल में घुसा, बड़ी देर कर दी अशोक जी तुमने, कहाँ थे तब से?

"ताश निकालो?" , राजीव गहलौत ने हाथों को झटककर कहा।

हॉल की दीवार पर टंगी घड़ी छह बजने का संकेत दे रही है। अशोक भाटी ने उस समय कुछ नहीं कहा बस ताश निकाल लिए। अलंकार हॉल की दीवार से सटा कुछ सोच रहा है। इरशाद ने अपने रुकसैक से काजू-किशमिश का टिफिन खोला है। डॉ. ईश्वर सिंह ने कहीं फ़ोन मिलाया है और घंटी की आवाज़ बेचैनी से सुन रहा है। राजीव ने दस्ताने उतारकर ताश बाँटने शुरू कर दिए हैं। संजीव वर्मा ने हुड उठाकर अपने सिर को ढक लिया है। कैम्प के नीचे वाली मुख्य सड़क पर एक इण्टर कॉलेज है जिसके प्रांगण में कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहा है जिसकी आवाज़ हमारे कानों तक आ रही है। पत्तों की बाजी हमारे सामने खुलने लगी है, तभी डिनर की सूचना आई। अशोक भाटी ने प्रतिवाद किया, "अभी तो सात भी नहीं बजे!" बात ग्रुप लीडर तक पहुँची, उसने निर्णय लिया कि तापमान पाँच डिग्री होने के कारण डिनर जल्दी करा दिया है आप लोगों का ध्यान रखते हुए ताकि जल्दी स्लीपिंग बैग में घुस जाओ, हम डिनर के लिए चल पड़े। वाह! तंदूरी रोटी, मटर-पनीर, बॉएल्ड एग, दाल-चावल का कॉम्बिनेशन यम्मी रहा।

आज तीस दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस की सुबह-सुबह ही डॉ. ईश्वर सिंह में भक्तिभाव जागृत हुआ और उन्होंने चम्बा के प्रसिद्ध लक्ष्मी नारायण मंदिर देखने की अपील की, जो वकीलों ने ठुकरा दी और हम आधार शिविर देवी देहरा के लिए चल पड़े। टैक्सी ने कोई घंटा भर में आधार शिविर के स्वागत स्थल पर पहुँचा दिया। अपना अतिरिक्त सामान लेकर हम डलहौजी की तरफ़ बढ़े। यहाँ आने वाला प्रत्येक पर्यटक@ट्रैकर डलहौजी के बारे में जानना चाहता है, तो मैं बता दूँ वही लार्ड डलहौजी जो ब्रिटिश राज का गवर्नर था, उसी के नाम पर इस शहर का नाम पड़ा। उस गवर्नर की विलय नीति प्रसिद्ध थी जिसके तहत उसने झाँसी, छोटा उदयपुर, बधार, जैतपुर सम्बलपुर और सतारा रियासतों का ब्रिटिश राज में विलय किया। अब हम चाहते हैं कि इस शहर की प्राकृतिक विरासत का लुत्फ उठायें, इसलिए हमने यूथ हॉस्टल में सामान रखा और गाँधी चौक आ गए। गाँधी चौक से एक साइड मॉल रोड़ कटती है दूसरी साइड इण्डो-तिब्बत मार्केट। यहाँ एक वैष्णव ढ़ाबा है, जहाँ हमने परॉठें खाए और तंदूरी चाय पी। उसके बाद सेंट जॉन चर्च गए। फिर यूथ हॉस्टल से सामान लिया और पठानकोट की बस पकड़ ली, बैठते ही घर के ख़्याल आने लगे।

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