डाकण / हरीश बी. शर्मा
उण सुनसान अर टणकी हवेली में बस्ती रो कोई भी आदमी आज तक कोनीं गयो हो। टाबरां रै मन में इण हवेली खातर एक भौ हो तो बडेरा भी इण विषै पर बात करणै सूं संकता हा। छठै-छमास इणरै फाटकां सूं छण-छण रोषनी आंवती। कदै-कदैई आवजां भी सुणीजती। शेखर नैं याद है। उणरै मन में बालपणै में इणी हवेली में रैवण आळी डाकण रो डर कायम हो। शेखर नैं लागतो कै बस्ती री सगळी मम्मियां इण हवेली में बैठी डाकण सूं डरप्योड़ी है अर बै आपरै टाबरां नैं इण सूं बचाणो चावै। हवेली री डाकण सूं सगळां नै डर लागतो। कोई आवाज आंवती तो उणरी टी.वी. री डाकणां सूं मिलाण करता। क्रिकेट खेलता, जे दड़ी हवेली में चली जांवती तो फेर आवण रा सांसा ही हा। जिको शाॅट लगावतो उणनैं नूंवी दड़ी भी शाट लगावणियो लासी अर आउट भी मान्यो जासी। हालत आ हुयगी कै टीम रा खिलाड़ी ऊँचा शाट मारणा ही भूलग्या। बल्लैं नैं उठावणै री जग्यां दबा‘र दड़ी माथै मारता जिकै सूं थब्बो खांवती दड़ी आगै जांवती। जिकै दिन दड़ी हवेली में चली जांवती उण दिन दूजी दड़ी नीं आवती जितै तांई बातां रा ब्याळु होंवता। कोई किसै नाटक री तो कोई किसैई सिनेमा री डाकण री जिसी डाकरण रै अठै हुवणै री बात करतो। आज खेल मयंक री बल्लेबाजी सूं सरू हुयो। पइसा खरचण में चीढ़ो हो मयंक। अपणै-आपनैं धोनी सूं कम नीं समझतो। शेखर नै कुचमाद सूझी। ‘बालिंग’ इसी रसगुल्लै भांत करी कै मयंक शाट मारण री भावना पर काबू नीं कर सक्यो। बल्लो दड़ी पर अर दड़ी सीधी हवेली माथै। मयंक रो चेहरो फक्क। लागग्या पइसा। आ तो वैवस्था री बात ही, पइसा तो देवणां ही पड़सी। मयंक रीसां बळतो बल्लो फैंक्यो अर आपरै घरां पइसा लेवण गयो। डाकण री बातां सरू ही। ...इत्तै में जमीन पर तीन-च्यार थब्बा खांवती दड़ी दिखी। पैली बार इंयां हुयो। दड़ी तो पाछी आज तांईं नीं आई ही। ऊपर देख्यो तो एक छोरी खड़ी ही। शेखर समेत सगळा डरग्या। थर-थर कांपण लाग्या। छोरी मुळक रैयी ही अर नीचै खड़ा छोरा सोचै हा-अबार मरया, पछै मरया। शेखर हिम्मत कर‘र बोल्यो, ‘डाकण भेस बदळ‘र आई है। आपां मांय सूं एक नैं खासी। आपां नै भरमावण खातर दड़ी पाछी फैंक दी है।’ मयंक पाछो आयो तो मन पइसा खरच नीं हुवणै पर राजी हुंवतो बोल्यो, ‘भायला ! आ डाकण तो लागै कोनीं।’ इतरै में सगळा कांई देखै कै बा छोर ‘आई मम्मी‘ कैय‘र गई परी। ‘मम्मी नै पूछसूं, डाकणां रै भी मम्मी हुवै है कांई ?’ मदन बोल्यो। पण घणकरा खिलाड़ी सूना हुयोड़ा हा। किणी नैं भी नींद नीं आई। स्कूल गया तो मन नीं लाग्यो। आधी छुट्टी में सगळा सल्ला करी कै कीं भी हुय जावै पण पत्तो कर‘र रैसां कै है कुण ? छूट्टी हुयां पछै सगळा भायला हरोळाई हणमानजी पूग्या। हणमान चाळीसै रो पाठ करयो अर सिंदूर-रिख्या लगाई। आंख्यां मींच्यां डाकण सूं लड़णै री सगति मांगता रैया। घरै आया, बस्तो न्हाख्यो अर पाछा बारै आयग्या। मम्मी पूछयो तो बताय दियो कै खेलसां। शेखर सगळां नैं बात समझाय दी ही। हवेली री भींत सारै-सारै चालता-चालता सगळा एक बड़ी पिरोळ आगै रूकी। इतरै में कांई देखै कै एक कार सांमी सूं आवै। कार भी पिरोळ आगै रूकी। कार रूकी उणसूं पैली कार रो लारलो फाटक खुल्यो अर बा डागळै आळी छोरी नीचै उतरी। ‘अरे आ तो बा ईज है।’ शेखर मन ही मन बोल्यो। सगळा भायला भी आ इज सोचै हा। कार में सूं और भी आदमी-लुगाइ उतरया। छोरी शेखर अर उणरै भायलां कनै आय‘र पूछयो, ‘अरे थै तो काल लारै खेलता हा जिका ही हो नीं, आज फेर दड़ी पड़गी कांई ?’ ‘नीं.....नीं, हां.....हां’ मयंक बोल्यो तो सरी पण अटकतो-सो। ‘मम्मी, ऐ रोज आपांरी हवेली लारै क्रिकेट खेलै।’ छोरी री मम्मी मुळक परी बोली, ‘बेटी ! आं रा लारै घर है।’ पण शेखर नैं छोरी री मम्मी सागै खड़ी दूजी लुगाइ्र रो तरणाटो चोखो नीं लाग्यो। मन ही मन सोच रैयो हो कै पतो नीं, अबै कांई हुसी ? छोरी पूठो सवाल करयो, ‘अठीनै किंयां आया ?’ शेखर री मम्मी कनै खड़ी लुगाई बोली, ‘आ कोई बात हुई, दड़ी लेवण नैं आयां हां। अठै कोई खेलण री जग्यां है कांई ?’ कार सूं उतरणिया आदमी भी बोल्या, ‘हां जाओ, जाओ, अठै कोई दड़ी कोनीं।’ छेारी री मम्मी बोली, ‘आ ही कोई बात हुयी। जे दड़ी पड़ी है तो लेवण दो बापड़ां नैं।’ शेखर ‘बापड़ो’ सुण‘र तमकग्यो, पण चुप रैयो। छोरी राजी लागी। बोली, ‘चालो, देखलो थांरी दड़ी।’ छोरी आगै अर लारै छोरां रो झुण्ड। चमकती टाइलां, साफ काच, झालरां अर तस्वीरां देखता ठा नीं कित्ती तिबारी अर कित्ता गोखा निकळग्या। हवेली रै डागळै चढण रा पगोथिय आया तो मयंक कांप्यो। कठैई डागळै माथै आ छोरी, आपरै असली रूप में नीं आया जावै अर सगळां नै नीचै नीं न्हांख देवै। डागळै पूग‘र शेखर पैली ऊपर देख्यो। आभो नैड़ो दीखण लाग्यो। आपरा घर नीचा पड़ता दीख्या। मयंक हिम्मत राख‘र बोल्यो, ‘पण अठै दड़ी तो है ही कोनीं।’ छोरी बोली, ‘अच्छया तो अपणै-आपनैं धोनी समझै ? ओ तो सगळां सूं ऊपरलो डागळो है। थांरी दड़ी उण डागळै पड़ी हुवैली।’ सगळा पाछै नीचै आया। छोरी री बात साची ही। पण बठै एक नीं, केई दड़यां पड़ी ही। छोरी बोली, ‘अरे ! अठै तो....., थै रोज खेलो हो कांई ?’ मयंक नै तो दड़यां भेळी करणै री खतावळ ही। शेखर भी कम राजी नीं हो। छोरी फेर बोली, ‘नीं, पढ़ाई भी करां। म्हैं छठी में, मयंक भी छठी में अर रोहित, अश्विनी आद पांचवीं में पढै।’ ‘कम्पयुटर आवै ?’ सगळा एक-दूजै रा मूंडा ताकण लाग्या। छोरी बोली, ‘आवो, थांनैं कम्पयुटर दिखाऊं।’ हाथ में एक-एक, दो-दो दड़या लियां सगळा नीचै उतरया। छोरी बांनै कम्पयुटर सांमी लेयगी। खटका करण सागै कीं रा कीं रमतिया दौड़ण-भागण लाग्या। छोरी कीं खावण नै मंगाय लियो। मूंडै में पाणी आवणो ही हो। भांत-भांत रो मीठो अर नमकीन। इतरै में एक आदमी अर छोरो आंवता दिख्या। कम्पयुटर वाळै कमरै कांनी बै देख्यो तो ठैरग्या। शेखर आद नै गैरी निजरां सूं देख्या, पण बोल्या कीं नीं। छोरी नैं बुलायी ‘सोनू बाई ! अठीनै आवो।’ छोरी नैं पतो नीं एकै कांनी ले जाय‘र उणां कांई समझायो। छोरी जद पाछी आई तो उणरै चहरै रा भाव दूजा ही हा। बा बोली, ‘थांनै जे ए मिठाइंयां भावै तो आंनैं थांरै सागै ही लेय जावो, पण अबै अठै सूं जावो।’ छोरी री बात सुण‘र शेखर आद तो थिर रैयग्या। अबार तो खावणो सरू ही नीं करयो हो पण सगळां नै खड़ो हुवणो पड़ियो। दड़ी भी धरदी। शेखर नैं मयंक माथै भरोसो कोनीं हो, पण फेरूं भी बो दड़ी पैली नीचै धरी छोरी पूठ फोरयां खड़ी ही। दड़ी अर मीठै री प्लेटां छोड‘र सगळा जावण लाग्या। मयंक नैं ठा नीं कांई सुझी, सो छोरी कनै जाय‘र कैयो, ‘ओ कम्पयुटर पुराणो है, म्हैं पी-फोर चलावणो जाणूं। घणाई गेम है उणमें, थांरां मीठा थांनैं ही छाजै। म्हैं बासी मीठै नैं पसंद करां कोनीं अर नूंवी दड़ी लावण री ताब भी राखां।’ शेखर बोल्यो, ‘चाल मयंक !’ अर सगळा भायला बारै आय‘र सांस ली। मयंक बोल्यो, ‘भायला ! मम्मी सांच कैंवती, अठै डाकणां ही नीं, डाकी भी रैवै।’