डाकमुंशी / फकीर मोहन सेनापति / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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हरि सिंह सरकारी कामकाजों में अब तक कई छोटे-बड़े कस्बों में स्थानांतरित हो चुके थे। अब वह दस साल से कटक हेड पोस्ट-ऑफिस में काम कर रहे हैं। अच्छी कार्यशैली होने के कारण उन्हें प्रमोशन मिलते रहे। अब वह हेड चपरासी हैं। मासिक वेतन नौ रूपए। कटक शहर में सब कुछ खरीदना पड़ता है। आग जलाने के लिए माचिस की पेटी भी खरीदनी पड़ती थी। पेट काटकर जितना भी बचाओ, मगर पाँच रूपए से कम खर्च नहीं आता था। किसी भी हालत में घर में कम से कम चार रूपए नहीं भेजने से नहीं चलता था। घर में पत्नी और आठ साल का बेटा था गोपाल। छोटे से गाँव की जगह थी। इसलिए चार रूपए में जैसे-तैसे काम चल जाता था। अगर चार रूपए से एक पैसा कम हुआ तो मुश्किल हो जाती थी। गोपाल माध्यमिक विद्यालय में पढ़ रहा था। स्कूल की फीस महीने में दो आने थी। स्कूल फीस के अलावा किताबें खरीदने के लिए कुछ ज्यादा पैसे लग जाते थे। जब कुछ अतिरिक्त खर्च आ जाता था तो वह महीना मुश्किल से गुजरता था। कभी- कभार बूढ़े को भूखा तक रहना पड़ता था। वह भूखा रहे तो कोई बात नहीं, मगर उसके बेटे की पढ़ाई तो चल रही थी।

एक दिन पोस्ट मास्टर सर्विस बुक खोलकर बतलाने लगे, “हरि सिंह, तुम पचपन साल के हो गए हो. अब तुम्हें पेंशन मिलेगी। अब तुम नौकरी में नहीं रह सकोगे।”

सिंह के सिर पर वज्रपात हो गया। क्या करेगा? घर संसार कैसे चलेगा? घर की बात छोड़ो, गोपाल की पढ़ाई ठप्प हो जाएगी। जब से गोपाल पैदा हुआ है तब से हरि सिंह ने मन में एक सपना संजोकर रखा है - गोपाल, कस्बे के पोस्ट ऑफिस में सब पोस्ट-मास्टर होगा - कम से कम गाँव में पोस्ट-मास्टर तो होगा ही।

परंतु थोड़ी सी अंग्रेजी नहीं आने से नौकरी मिलना मुश्किल है। कस्बे में अंग्रेजी पढ़ने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए कटक भेजकर उसे पढ़ाई करवाना उचित होगा। अगर नौकरी खत्म हो गई तो उसका सपना चूर-चूर हो जाएगा. यही बात सोच-सोचकर उसका शरीर शुष्क लकड़ी की तरह हो गया था। रात को आँखों से नींद गायब हो गई थी।

हरि सिंह के ऊपर पोस्ट-मास्टर की मेहरबानी थी। उनके घर में नौकर होते हुए भी ऑफिस का काम खत्म करने के बाद शाम को हरि सिंह पोस्ट-मास्टर के घर जाकर कुछ काम कर लेता था। शाम को आराम कुर्सी में बैठकर पोस्ट-मास्टर अंग्रेजी समाचार पढ़ते समय तंबाकू की चिलम बनाता था। वह जैसे चिलम तैयार करता था, कोई नहीं कर पाता था। एक दिन हरि सिंह ने चिलम तैयार कर के बाबू के सामने रखी। बाबू के मुँह से इंजिन की तरह भक-भक करके धुंआ निकलता था और नशे से आँखों की पलकें गिर जाती थी। तब हरि सिंह को लगा, यह उचित समय है। हरि सिंह ने पोस्ट-मास्टरजी को साष्टांग दंडवत करते हुए हाथ जोड़कर विनीत भाव से अपने दुख-दर्द को उनके सामने रखा। गोपाल के लिए उसने जो सपना बुना था, उसे भी बताना नहीं भूला। पोस्ट- मास्टर बाबू तन्द्रावस्था में थे। वे गंभीर मुद्रा में बोले, “ठीक है, एक आवेदन-पत्र भरकर दे देना।”

बाबूजी यह कार्य सहज भाव से कर सकते थे क्योंकि पोस्टल इंसपेक्टर या अधीक्षक जब दौरे पर आते थे तब वे उनके बंगले में ही रुकते थे। वह उच्च अधिकारियों के लिए खाने- पीने की समुचित व्यवस्था भी करते थे। उस रात पोस्ट-मास्टर बाबू बार-बार ‘हरि सिंह, हरि सिंह’ कहकर पुकार रहे थे। हरि सिंह बहुत अनुभवी आदमी था। कई सालों से बड़े-बड़े साहिबों को वह देख चुका था। वह अच्छी तरह से उनके मिजाज के बारे में जानता था। वह यह भी अच्छी तरह जानता था कि कौन साहिब किस तरीके से खुश होते हैं। उस दिन आधी रात तक हरि सिंह को पोस्ट-मास्टर बाबू के बंगले में रुकना पड़ा क्योंकि ओड़िशा के प्रदूषित वातावरण के कारण कहीं बाबू बीमार पड़ उल्टी करने ना लग जाए। उल्टी करने के समय हरि सिंह को सोड़ा, नींबू आदि की व्यवस्था करने के साथ-साथ बाबूजी को भी संभालना था। बाबूजी के आराम से सोने के बाद हरि सिंह आधीरात को अपने घर लौटकर खाना बनाने लगा था। इस प्रकार हरि सिंह अपने ऊपर के बड़े हाकिमों से परिचित था।

हरि सिंह के आवेदन-पत्र में बाबूजी ने अपनी तरफ से अच्छी तरह सिफारिश लिखकर शहर भेज दी थी। थोड़े दिनों के बाद एक्सटेंशन ऑर्डर आ गया था। हरि सिंह बहुत खुश हो गया। उसने यह खुशखबरी अपने गाँव में भी भेज दी।

लोग तुरंत मिले सुख-दुख में खो जाते हैं, मगर भविष्य में विधाता ने जो उनके लिए तय किया है उस तरफ उनकी नजरें नहीं जाती हैं। हरि सिंह का यह सुख पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो गया। उसके घर से एक पत्र आया कि गोपाल की माँ को सन्निपात की बीमारी हो गई है और उसके जीने की आशा नहीं के बराबर है। हरि सिंह ने पोस्ट-मास्टर बाबू को वह चिट्ठी दिखाई। बाबू बड़े ही दयालु स्वभाव के थे, तुरंत ही उसकी घर जाने की छुट्टी मंजूर कर दी। एक ही झटके में हरि सिंह अपने घर चला गया। घर पहुँच कर उसने जो देखा, उसे देखकर उसकी आँखों की चमक चली गई। यह संसार मानो अंधकार में लुप्त हो गया। उसकी पत्नी मरणासन्न थी। पति को धुंधली आँखों से देखते हुए दोनो हाथ उठाकर प्रणाम किया और चरण रज लेने के लिए इच्छा व्यक्त की। सिर्फ चरण-रज लेने के लिए उसकी साँसे अटकी हुई थी? उसके बाद सब शांत। हरि सिंह की दुनिया उजड़ गई। अपने घर का बचा खुचा सामान बेचकर वह बेटे के साथ कटक लौट आया। गोपाल माइनर स्कूल (कक्षा सात) में पढ़ता था. हरि सिंह की मुश्किल से गुजर बसर हो रही थी, क्योंकि वह पेंशनभोगी हो गया था। कभी लोटा, तो कभी कांसे के बर्तन बेचकर किसी तरह घर चलता था। जब नौकरी थी तब महीने में दो-चार आने रखकर बचत खाते में रखा करता था। गोपाल के माइनर स्कूल की पढ़ाई में सब खर्च हो गया था। हरि सिंह सोचा करता था कि गोपाल के माइनर पास करने के बाद सब कष्ट दूर हो जाएँगे। गोपाल ने भी कई बार इस बात पर आश्वासन दिया था, “पिताजी, भले कर्ज लेकर मुझे पढाएँ नौकरी लगने के बाद सारा कर्ज चुकता कर दूँगा।”

हरि सिंह की प्रार्थना दीनबंधु दीनानाथ ने सुन ली। हरि सिंह की खुशी की कोई सीमा नहीं रही। वहीं पुराने पोस्ट-मास्टर बाबू अभी भी नौकरी में थे। हरि सिंह ने उनके हाथ- पैर पकड़कर काफी अनुनय विनय किया। हरि सिंह के ऊपर भी बड़े लोगों की कृपा-दृष्टि थी। गोपाल तुरंत भक्रामपुर पोस्ट-ऑफिस में सब पोस्ट-मास्टर की हैसियत से नियुक्त हो गया। महीने में बीस रूपए तनख्वाह थी। हरि सिंह खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। फिलहाल सदर पोस्ट ऑफिस से चार महीने प्रशिक्षण लेकर वह अपने कस्बे में लौट जाएगा।

हरि सिंह बार-बार भगवान के सामने नतमस्तक हो रहा था, “धन्य प्रभु, तुम्हारी दया से मुझ जैसे दीन आदमी के दुखों का निवारण हो गया।”

नौकरी लगने की खबर जिस दिन बूढ़े को मिली थी उस रात अकेले में बैठकर खूब रोया था, “हाय ! आज अगर बूढ़ी जिंदा होती तो कितना खुश होती। उसके गोपाल को बड़े साहिब की नौकरी मिली है। घर में उत्सव सा माहौल हो जाता। हाय ! अभागी की किस्मत में ये दिन देखने को नहीं थे।

देखते-देखते गोपाल बड़ा साहिब बन गया। भगवान उसकी रक्षा कीजिए।”

गोपाल ने पहले महीने की तनख्वाह लाकर बूढ़े के हाथ में दे दी। बूढ़ा बहुत खुश। उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे. बेटा बड़ा साहिब बन गया है, बहुत सारा पैसा एक साथ कमाकर लाया है। रूपयों को चार-पाँच बार गिनकर अपने अंटी में बाँधकर रखा। अगले दिन हड़बड़ाकर वह बाजार की तरफ भागकर गया। जूते, कुर्ता, धोती जिन-जिन सामानों की जरुरत थी, सब खरीदकर लाया था। गोपाल बड़ा साहिब बन गया है, अब क्या वहीं पुराने कपड़े पहनेगा? ललाट देखकर तिलक लगाते हैं। उसी तरह नए कपड़ों की जरुरत थी।

यहाँ गोपाल बाबू ऑफिस में बैठकर और पाँच आदमियों की तरह अंग्रेजी लिखता था। बाबूओं के साथ उसका उठना-बैठना होने लगा। सभी उसे डाक-मुंशी बाबू के नाम से बुलाते थे। पूरा नाम था गोपाल चंद्र सिंह।

यहाँ गोपाल घर लौटकर देखता था बूढ़ा मैली धोती पहनकर काम कर रहा है।

- गोपाल किस तरह अच्छा खाना खाएगा?

- वह नहाया या नहीं?

- गीले कपड़े सूखे हैं या नहीं?

- बेचारे के पास काम की कमी नहीं है।

ये सारी चिंताए वह दिन भर करता था।पहले हरि सिंह कभी- कभार हरिनाम लिया करता था। कुछ दान-पुण्य करता था। अब गोपाल के लिए सब भूल चुका था। शायद भगवान यह सब देखकर बूढ़े के ऊपर गुस्सा हो गए थे। मानो कह रहे थे अरे ! बुद्धिहीन, ये सब क्या कर रहे हो? एक दिन तुम्हें सब पता चल जाएगा।

अब गोपाल बाबू के हाव- भाव में कुछ परिवर्तन होने लगा था। अब पिताजी को देखने से बिना किसी कारण से वह चिड़ने लगा था। “यह मूर्ख है। इसे अंग्रेजी मालूम नहीं है। मजदूर कहीं का, मैले कुचैले कपड़े पहनने वाले इस आदमी को मैं पिताजी कहकर संबोधित करूँगा। लोग क्या सोचेंगे?” उस दिन गाउन पहने हुए कुछ पढ़ी- लिखी औरते खड़ी थी। बूढ़े के शरीर पर कमीज नहीं था। छि: ! छि: ! शरम नहीं आई उसको। अगर इसे घर से बाहर नहीं निकाला जाता है तो मेरी इज्जत का कबाड़ा हो जाएगा।

एक दिन डाकमुंशी बाबू पिताजी को कहने लगा, “देखो, तुमने मेरे लिए कुछ भी नहीं किया है। मुझे पढ़ाकर कोई मेहरबानी नहीं की। मन है तो यहाँ रहो, नहीं तो यहाँ से चले जाओ। मगर याद रखना, अगर यहाँ रहना चाहते हो तो बाबू लोग आने पर घर के भीतर से बाहर मत निकलना।”

गोपाल की बात सुनकर बूढ़े का दिल दहल गया। वह एकदम गुमसुम होकर बैठ गया। अपने बेटे की बात वह किससे करता? उसके दिल में उस जगह घाव हो गया, जिसे वह किसी को दिखा भी नहीं सकता था। जिसके सामने वह अपने मन की बात रख सकता था, वह तो इस दुनिया से चल बसी थी। उसे बूढ़ी की याद आने लगी। वह मन ही मन खूब रोने लगा। रोते-रोते उसने चारों तरफ दृष्टि डाली मगर कोई भी भरोसे वाला आदमी नहीं मिला। बूढ़ा सुख- दुख में बूढ़ी को खूब याद करता था। बूढ़े ने रोना बंद किया क्योंकि उसके रोने से गोपाल का अनिष्ट होगा।

गोपाल अगले दिन सुबह किसी काम के लिए कस्बे की तरफ जा रहा था। मगर उसने या बात बूढ़े को नहीं बताई। सुबह उठकर रुकी आवाज में कहने लगा, “ऐ बाबा ! मैं गाँव जा रहा हूँ. तुम ये सारा सामान लेकर आओ। ज्यादा सामान नहीं है। कुली क्यों करूँगा? कुली को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं।” गोपाल बाबू कपड़े पहनकर बगल में छतरी डालकर लाठी घुमाते हुए निकल पड़े। अब बूढ़ा क्या करेगा? सारा सामान इकट्ठा करके पोटली बाँधकर सिर पर रखकर चल पड़ा। वह ढंग से चल भी नहीं पा रहा था। उसके शरीर में अब वह ताकत नहीं बची थी। आँखों से आँसू टपकने लगे। जैसे-तैसे दस जगह उठते-बैठते हुए शाम तक वह मक्रमपुर में पहुँचा। विलम्ब होने के कारण बाबू ने उसे डाँटा-फटकारा। बूढ़ा गुमसुम होकर बैठ गया।

गोपाल बाबू सुबह-शाम ऑफिस आने लगे . बूढ़ा घर में बैठकर घर गृहस्थी का काम देखता था। कभी भी बाप-बेटा बैठकर सुख-दुख की बातें नहीं करते थे, डाक मुंशी यानी कस्बे के बड़े साहब। कितने लोग आकर नमस्ते करते थे। मूर्ख बूढ़ा क्या जानता है,? जो उसके साथ बातचीत करेगा। कस्बे का जलवायु बूढ़े के लिए अनुकूल नहीं था। ज्वर होने लगा। खों- खों करके खांसने लगा। रात को कुछ ज्यादा ही खाँसी होती थी। गोपाल बाबू के सोने के लिए परेशानी होने लगी। उसने अपने चपरासी को बुलाकर आदेश दिया, “जाओ, इसे बूढ़े को ले जाकर कहीं झाड़ियों में फेंक दो।”

वह चपरासी मूर्ख था. अंग्रेजी उसे नहीं आती थी। फिर भी वह देशी हृदय वाला था। वह सोचने लगा - क्या इस बूढ़े को ले जाकर झाड़ियों में छोड़कर आना उचित होगा? ज्वर से काँप रहा है। तीन दिन से पेट में एक भी दाना नहीं गया। आधी रात को अंधेरे में बाहर छोड़ना ठीक नहीं है। ठंड की वजह से बूढ़े की खाँसी और ज्यादा बढ़ गई। गोपाल बाबू के गुस्से की सीमा नहीं रही, उसने बूढ़े के सीने में दो अंग्रेजी मुक्के जड़ दिए। और बिस्तर-बिछौने को उठाकर बाहर फेंक दिया। बूढ़ा अपने गाँव को लौट गया।

आस-पास के लोगों के मुंह से यह बात सुनने को मिल रही थी। उस दिन से गोपाल बाबू का मन बहुत खुश है और वहाँ बूढ़े ने भी अपने गाँव लौटकर दो बीघा जमीन खेती करने के लिए मजदूरी पर दे दी। घर में बैठे-बैठे अनाज मिल जाता था, पेंशन के पैसों से कपड़ा-लत्ता तथा घर के परचूनी सामानों का खर्च निकल जाता था। जब से खाँसी हो रही थी तब से वह अफीम खाने का आदी हो गया। मगर उसका सारा खर्च आराम से निकल जाता था। बरामदे में बैठकर वह भगवान का नाम लेता था। अब बाप-बेटा दोनो खुश थे। पाठक महाशय दूसरों का सुख देखकर खुश होंगे।


फकीर मोहन सेनापति ((14 जनवरी 1843 - 14 जून 1918) ओडिया साहित्य के व्यास-कवि के रूप में जाने जाते हैं. ओडियाभाषा के पहले कहानीकार होने का श्रेय आपको जाता है.1898 में लिखी गई भारतीय साहित्य की लोमहर्षक कहानी 'रेवती' , अब तक की उनकी उपलब्ध कहानियों में पहली कहानी के रूप में जानी जाती है. अगर उनकी आत्म-कथा की बात मानें तो उन्होंने सन 1860 में 'बोध दायिनी' पत्रिका में 'लछ्मानियाँ' कहानी लिखी थी.मगर अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि उस कहानी का प्रति अब उपलब्ध नहीं हो रही , अन्यथा वह समग्र भारतीय भाषायी साहित्य के पहले कहानीकार होते.

ओडिशा के बालासोर में जन्मे इस लेखक ने अपने जीवन काल में, कई कहानियों के अलावा 'छ माण आठ गुंठ', 'मामूं', 'प्रायश्चित्त' आदि उपन्यास, 'उत्कल भ्रमण' , 'पूजाफूल', 'धूलि', 'पुष्प माला' आदि कविता-संग्रह तथा संस्कृत से 'रामायण' और 'महाभारत' के अनुवाद कार्य के अतिरिक्त अनेक पाठ्यपुस्तकों की रचना कर ओडिया साहित्य को सुसमृद्ध किया हैं.

फकीर मोहन सेनापति की रचनाओं की ख़ास विशेषता यह है कि उन रचनाओं में आम आदमी का वर्णन मिलता है , जो तत्कालीन भारतीय गद्य साहित्य में अनुपम दृष्टान्त है. उनके उपन्यास 'छ माण आठ गुंठ' में शोषित वर्ग के प्रति जिस दर्द का बयान किया गया है, वह दर्द सोवियत रूस के 'अक्टूबर विप्लव' के पहले लिखा गया था , इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद केलिफोर्निया विश्वविद्यालय की प्रेस द्वारा Six Acres and a Third शीर्षक से प्रकाशित है.