डागी-टेस्ट / प्रमोद यादव
पहले के जमाने में दूसरी-तीसरी कक्षा का विद्यार्थी जब स्कूल से घर लौटता तो माँ पूछती-‘ बेटा, आज स्कूल में क्या पढ़ा? ’
अब की माँ पूछती है- बेटा, मध्यान्ह-भोजन में क्या खाया? ’
पहले माँ कहती थी- ‘ राजा बेटा थक गया होगा। चल खाना खा ले। ’
अब माँ कहती है- ‘ राजा बेटा का पेट भरा होगा। जा। पहले सो जा ’
पहले विद्यार्थी घर लौटते ही कहता था- ‘ माँ। जोरों की भूख लगी है। ’
अब विद्यार्थी घर लौटते ही कहता है- ‘ माँ। जोरों की “दुक्की” लगी है। ’
पहले जब दो स्कूली बच्चे आपस में मिलते तो केवल पढाई की ही चर्चा करते।
अब आपस में मिलते हैं तो भोजन के मेनू पर चर्चा करते हैं।
पहले के माता-पिता अपने लाडले के विषय में कुछ इस तरह बातें करते थे- ‘ चुन्नू का अब स्कूल में मन लग गया है। बिला-नागा, बिना रोये-धोये चला जाता है ‘
अब के मम्मी-पापा कहते हैं- ‘बच्चे का मन मध्यान भोजन में लग गया है। अब घर में भी रोज पहले ‘मेनू’ पूछता है। ’
पहले की मांएं पूछती थी- ‘ बेटा, मास्टरजी अच्छा पढ़ाते हैं ना? ‘
अब पूछती हैं- ‘ मास्टरजी खाना अच्छा बनाते हैं ना ?
पहले स्कूल के चपरासी के साथ छात्र एकाएक समय से पूर्व कहीं घर लौट आता तो मांएं ‘धक्’ से रह जातीं कि कहीं उसके लल्ले की तबियत तो नहीं बिगड़ गयी?
अब लल्ला एकाएक लौटता है तो मांएं समझ जातीं हैं कि आज के मेनू में मरी छिपकली या मेढक भी शामिल हो गया होगा।
पहले स्कूल छूटने के बाद भी बालक घर न पहुंचता तो अभिभावक उनके सहपाठियों के घर जाकर खोज-खबर लेते।
आज बालक छुट्टी के बाद भी घर नहीं पहुंचता तो माता-पिता सीधे सरकारी अस्पताल पहुँच जाते हैं।
‘तब’ और ‘अब’ में सदैव फर्क होता है। ’तब’ को हमेशा पिछड़ापन माना जाता है और ‘अब’ को हमेशा- विकासोन्मुख।
देश के स्कूली इतिहास में ऐसा पहले कभी ना हुआ कि एक साथ २३ बच्चे खेलते-कूदते अचानक काल - कलवित हुए हों। पर पिछले दिनों ऐसा हुआ। दूषित भोजन परोसे जाने से बिहार के स्कूल में बच्चे अकस्मात् मौत के मुंह में समा गए। दुनिया की सबसे बड़ी योजना पर देश भर में हल्ला मचा। सरकार ने एहतियात बरतने बयान दिया कि भविष्य में बच्चों के लिए बने पोषाहारी भोजन का ‘पान’ (टेस्ट) पहले शिक्ष क करेंगे। यह फरमान सुन लाखों शिक्षकों ने इस स्कीम का ही बहिष्कार करने का मन बनाया और सरकार को साफ़ कह दिया कि पढ़ाना उनका काम है –खाना बनाना नहीं।
कल रात टी। वी। न्यूज में सुना कि मध्य प्रदेश के गुरुजनों ने भी भोजन टेस्ट करने से इनकार कर दिया है और मांग की है कि बच्चों से पहले कुत्ते को खिलाया जाए। ’डागी-टेस्ट’ के बाद ही भोजन परोसा जाए।
यह सुन मैं हैरान हो गया कि कहीं सरकार ने इनकी बातें मान ली तो इतने कुत्ते लायेंगे कहाँ से? देश के बारह लाख बासठ हजार स्कूल इस स्कीम से जुड़े हैं तो जाहिर है कि इस हिसाब से इतनी ही संख्या में कुत्तों की जरुरत होगी। चूँकि योजना सरकारी है तो स्पष्ट है कि कुत्तों की खरीद-फरोख्त भी वही करेगी। तब सारे कुत्ते भी सरकारी होंगे। किसी ऐरे-गेरे खुजली वाले देशी कुत्ते से तो ‘टेस्ट’ होगा नहीं ना ही सरकार को यह मान्य होगा। वह तो ले-दे कर रसोइये को बामुश्किल हजार रुपये मासिक देती है,उसी में उसकी जान निकली जाती है तो इतने सारे कुत्तों के लालन-पालन का खर्च कैसे वहन करेगी?
मानलो सरकार ये छूट दे दे कि स्कूल जैसा कुत्ता चाहे रख ले और उसका खर्च मासिक भोजन बजट में एडजेस्ट कर दिया जाए तब भी स्थितियां विचित्र ही होगी। कोई ‘जर्मन शेफर्ड ‘ रख लेगा तो कोई ‘लेब्राडोर’। तो कोई ‘अल्शेशियन’। तब। स्कूल का मासिक बजट तो अकेले कुत्ता ही चट कर जाएगा फिर बच्चे क्या खायेंगे? गौर करने वाली बात ये भी है कि अभिजात्य वर्ग के ये कुत्ते टेस्ट करना तो दूर, भोजन को सूंघेंगे या नहीं। इसमें भी संदेह है।
कल रात से मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूँ और सरकार है कि घोड़े बेच सो रही है।
मेरे पास भी विदेशी नस्ल के दो कुत्ते है। सरकारी कीमत पर इसे ‘दान’ करना चाहता हूँ।
एम। डी। एम। टेस्ट के लिए पूरी तरह प्रशिक्छित है। साल भर की गारंटी। काम में खरे न उतरे तो पैसा वापस- कुत्ता भी वापस सारे स्कूलों में जब कुत्ते काबिज हो जायेंगे तो बच्चों की बातचीत कुछ यूँ होगी-
स्कूल से लौटे बच्चे से माँ पूछेगी- ‘ इतना थका-थका,उदास-उदास क्यों दिख रहा है लल्ला ? मास्टरजी ने कुछ कह दिया क्या? ‘
तब बच्चा जवाब देगा- ‘ नहीं माँ। किसी ने कुछ नहीं कहा। दरअसल आज हमारे स्कूल के सरकारी कुत्ते की तबियत ख़राब थी तो उसने भोजन टेस्ट करने से इनकार कर दिया। मास्टरजी को बोले तो उसने भी पेट भरे होने का बहाना कर दिया। इस तरह आज हम सब ‘उपवास’ पर रहे इसलिए थोडा कमजोरी है। ’
तब माँ दौड़कर अपने लखते-जिगर को घर का खाना(बिना टेस्ट वाला) खिलाएगी।
सरकार के फैसले का सबको इंतज़ार है। मास्टरों को भी। मुझे भी। और बारह लाख बासठ हजार कुत्तों को भी।