डायन / तुषार कान्त उपाध्याय
उसदिन घर में कोहराम मचा था ।
धीरे–धीरे, सुगबुगाहट के लहजे में । जैसे सुनामी के पहले की हवाए ।
मईया चिंतित खटिया पर बैठी माई को समझा रही थीं । कुछ नजर-गुज़र से बचाने का तरीका । बीच–बीच में काली माई की दुहाई भी देती जातीं । वही रक्षा करेंगी । तो माई कुलदेवी–कुलदेवता को भाख रही थी । जैसे हर मुसीबत में, वैसे आगे भी कुलदेवी अपने आंचल की छांह रखेंगी । पन्द्रह सोलह साल की दीदी, लाल सुखा मीर्चा गोइठा पर जला के धुवां कर रही थी । जो भी था, अपने स्तर पर इस भीषण आपदा से बचाने की कोशिश में लगा था । इस ढीठ संतुआ को सबने कितनी बार समझाया था, चेतावनी दी थी कि कारी मैया के घर आने पर अपने कोठरी में रहा करे और देखिये इस ढीठ को! आज उसी कारी मैया के गोद में बैठ तिलकुट खा आया है । जैसे घर में तो इनको कुछ मिलता ही नहीं । जितने मुंह, उतनी ही फटकार । बेचारा सन्तु । उसकी समझ में नहीं आता । कारी मैया कितना तो प्यार करती है । कितने हुलास से गोद में उठाती है ।
'कारी मैया' को पूरा गाँव 'कारी' नाम से बुलाता । असली वाला क्या था किसी ने जहमत नहीं उठाई याद करने की । किसी की कारी काकी तो किसी की कारी भउजी. बस रिश्ते का नाम जोड़ लो । भरा पूरा खानदान । तीन-तीन बहुवें, एक छोटी विधवा देवरानी, बेटे-बेटियाँ, नाती-पोते । पर कारी मैया घर की सभी जिम्मेवारियों से मुक्त थीं । घर सँभालती उनकी विधवा देवरानी। कोई जिम्मेवारी बची नहीं तो जब मन करता, अडोस-पड़ोस किसी के घर चली जाती ।
कारी मैया खूब लम्बी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, लम्बे अधपके बालों के बीच मोटा सिंदूर लगाए अक्सर उसके घर आ जाती ... काना फुस्सी होती कि कारी मैया ने कोई जादू टोना सीख रखा है । सिद्ध किया है उन्होंने । देखा कितनी काली हैं । ऐसी काली औरते टोना करने में सिद्ध होतीं हैं । उनकी सुर्ख लाल आँखे, उनके डायन होने का प्रमाण मानी जाती ।
कारी मैया जिसके भी घर जातीं, लोग अपने बच्चो को उनसे छुपाने की कोशिश में लग जाते । और वह थीं कि बच्चो को थोडा ज़्यादा हीं खोजतीं । जैसे हर बच्चे में उनकी जान बसती हो । सन्तु को तो थोडा ज़्यादा ही प्यार करती । सन्तु को भी उनका आना जितना अच्छा लगता, उसके घर वाले इसको उतना ही छिपाते। सन्तु को अच्छा लगता उनकी गोद में चढ़ कर बैठना । धीरे से उनका उनके हाथ से लेकर मुंह में डालना । किसी को पता नहीं चलता । पर आज पकड़ा गया ।
बाबूजी सन्तु को समझाते । घर में उनका सबसे बहस हो जाता ।
'कुछ नहीं होता ये सब । सब बकवास है ।' ये जादू टोना सब मन का वहम है । ' मईया तो समझती भी, पर माई तो जैसे सुनने को तैयार ही नहीं थी । सन्तु को कुछ हो गया तो ...
दबे जुबान सिपाही बाबा ने खुद ही ये बताई थी ये बात किसी को । अब तो सारा गाँव जनता और मानता है ।
सिपाही बाबा पुलिस में सिपाही थे । सारे गाँव जवार में इसी नाम से मशहूर थे । खूब गोरे-लम्बे और कितने मजबूत दीखते थे । सूरज भगवान के निकलने से पहले ही गाँव के बुढवा शिव जी को जल चढाते । बम... बम..., बम-बम जोर से चिल्लाते । जैसे शिव जी को जगाने आये हों । सारा टोला-पड़ोसा जान जाता कि सिपाही बाबा छुट्टी आये हैं । सबकी भीड़ जुटती शाम में उनके दुवार पर । अपनी सिपाही वाली कहानिया सुनाते । कैसे किसी बडकी लड़ाई में इंग्लैंड के बंदरगाह पर इनकी जहाज़ तीन महीने लंगर डाल के खड़ी रही थी ।
"सातो-आठ साल के लडिका-लड़की अंग्रेज़िये में बात करता था इंग्लैंड में । आ इन्हवा देखिये । मेट्रिक पास कर गए लेकिंन एगो वाक्य अंग्रेज़ी नहीं बोलना आता है । पता नहीं क्या पढ़ते है स्कूल, में" । जब भी खिसियाते सिपाही बाबा तो बच्चो को ऐसे ही लजवाते ।
"तो उन्हवा का लड़का-लडकी हमलोग जैसे भोजपुरी बोल लेगा का" एक दिन सन्तु हिम्मत जुटा के बोल ही दिया ।
"भाग ससुरा! मुंह लडाता है, आने दे तुम्हारे बाप को" और सिपाही बाबा हँसते हुए हडकाए संतुवा को ।
पांच जवान शादीशुदा बच्चों के पिता लेकिन चुस्ती में बच्चो से भी आगे । बड़े से दालान में गाँव भर के लोग जुटे रहते । खास कर कचहरी का आनंद ले चुके लोगों के तो गुरु जी थे । कहते–जो दू चार किता केस नहीं लड़ता वह भी कोई मर्द हैं । नुकीली मुछों पर ताव देते और अपने कचहरी के किस्से ऐसे सुनते की दस्ताने–अलिफ़–लैला भी कम रोमांचक हो जाये । वकीलों से गिडगिडा के फीस कम करा लेना चतुराई लगता । जज साहब लोगों से अपने छोटी नौकरी में बड़ी जिम्मेवारियों से दबे निरीह आदमी पर दया कि याचना करना उन्हें अपनी बुद्धिमता लगती । गाँव भर के लोग उनकी काबिलियत का लोहा मानते । सभी इज्ज़त करते या कहें दबते, पर पीछे कई बातें होती । पर इसकी परवाह किसे थी ।
सिपाही बाबा ने अपने जवान छोटे भाई की अकाल मृत्यु के बाद उनके बच्चो और पत्नी को बड़े मान और अधिकार से रखा । अपने बच्चो से ज़्यादा तरजीह दी। उम्र में उनसे दस बारह साल छोटी विधवा को कोई ठेस ना पहुचे इसकी सख्त हिदायत दे रखी थी सभी को । वह तो उनके नाम से बुलाते फुलकुवारी, और बहुत स्नेह से फूलो कहते ।
कभी कभी सिपाही बाबा कि तबीयत नरम गरम होने की खबर पर फूलो उनके साथ उनके नौकरी वाली जगह पर जाकर उनका देखभाल करतीं । महीनो वही रहती तब आतीं । गाँव आने पर भी पर भी आधी रात में भी दालान में चली जातीं । तेल की कटोरी ले के । देर तक तेल लगाती और तब वह दिशा-मैदान होके नहाने जाते । कभी सिपाही बाबा खाना खाने के बाद बहुत अधिक थकान होने की शिकायत करते तो फूलो रात में ही उनकी सेवा को तत्पर हो जाती । शुरू शरू में कारी मैया ने कोशिश थी की वही उनकी देह दबा दें, फूलो नहीं जाये । और झिडकी सुन कर वापस आ गयी ।
'इनका मन किसी काम में नहीं लगता और देह भी बड़े अनमने ही दबाती है । फूलो हर काम बड़े मन से करती है' सिपाही बाबा ने सुना कर कितनी बार आँगन में कहा । छोटे भाई की पत्नी से देह दबवाना कहाँ तक सही है । घर के कई लोगों ने दबी जुबान में सिपाही बाबा से कहने की कोशिश भी की । पर उनकी ताववाली आँखे झेल नहीं पाए ।
सन्तु को आमतौर पर डर नहीं लगता । कभी भी उठकर खलिहान में चला जाता है । माघ-फागुन का दिन । धान की दवरी तो खत्म हो गयी थी पर अनाज अभी तक खिलहान में ही पड़ा है । घर के मर्द, बनिहार सब रात में खलिहान में सोते हैं । इस महीने में भोर की ठंढी-ठंढी हवा अंदर तक सिहरा जाती है ।
आसमान पर अभी तारे छिटके हैं। सन्तु घर से निकल कर खलिहान के लिए चल देता है । रास्ते में बुढवा शिवजी के पास सिपाही बाबा और फूलो मइया दीखते हैं ... पहले तो घबराता है पर हिम्मत कर नजदीक जाने पर पहचान जाता है । फूलो मइया अपना फुला हुआ पेट दिखाते हुए-हुए झल्ला रही हैं ।
'आखिर और कितना दिन छिपेगा गाँव की नज़र से । घर में तो सब ताड़ने लगे हैं । कुछ कीजिये जल्दी'
'हूँ...' और तभी सन्तु पर नज़र जाती है । उसको जल्दी खलिहान जाने की झिडकी देते सिपाही बाबा जोर-जोर से चिल्ला के अलख जगाने लगते हैं बम... बम ...बम ... ...
सिपाही बाबा और फूलो मईया उसी दिन पहली पैसेंजर से चले जाते हैं उनकी नौकरी वाली जगह ।
कारी मैया को घर से पैसा रुपया नहीं मिलता, तो चुपके से थोडा-सा अनाज अपने आँचल में छुपा लेती हैं और जब भी कोई फेरीवाला गाँव में आवाज़ लगता है, कुछ खरीदती हैं । जतन से छुपा कर रखतीं हैं ।
जिस दिन सिपाही बाबा फूलो के साथ चले गए, उस दिन भी, आँचल में कुछ छुपाये खलिहान के सुनसान वाले कोने में सन्तु को अपने साथ ले आती हैं। पुवाल के ढेर पर ढुलक कर बैठ जाती हैं ।
'अब वह लोग तीन चार महिना बाद आयेंगे । तुम्हारी फूलो मईया कि तबीयत ख़राब हो गयी है' । पर सन्तु को लगता है वह कुछ और ही कहना चाहती हैं । उनकी आँखे भी पानी-पानी हो रही हैं । शायद धान का कण पड़ गया हो आँख में ।
'मैया! आपकी आँख इतनी लाल क्यों रहती है' आज पूछ ही लेता है सन्तु ।
'नहीं समझोगे बबुआ । जब करेजा जलता है तो धुवां नहीं उठता । सीधा अंगार बन के अंखिया से निकलता है' । पेट का गड्डा तो भर जाता है बाकि धधकते करेजा का क्या करें । निनिये नहीं आता है रे सन्तु ' ।
'अच्छा बतावो, तुम खेलने जाओ और बच्चे तुमको खेलने नहीं दें, या फिर तुमको देखते ही खेल बंद कर दें । कैसा लगेगा तुमको!' सन्तु सोचकर कर हीं रुंआसा होने लगता है ।
'हम जानते हैं गाँव भर के लोग हमको डायन कहते हैं । बच्चे छुपाते हैं हमसे । हम सब जानते हैं । पर क्या करें । जब अपना ही मरदा, अपना स्वार्थ साधने के लिए इस कारी कोठरी में धकेल दे ।'
कारी मैया कि आँखों से पानी रिसने लगता है । जैसे कहीं दूर चली गयीं ।
सन्तु अवाक् । क्या हो गया । बेकार पूछ दिया । आँख लाल हैं तो रहे ।
कारी मैया शायद अपने से बात करतीं हैं।
'अरे बबुआ!' तुम्हारी जो फूलो मईया हैं न, वह गोरी हैं, सुन्दर हैं और अभी जवान भी '
'तो उससे क्या हुआ?' सन्तु विस्मय से पूछता है ।
'अरे हम काले हैं ना और बूढ़े भी हो चले'
'तो क्या हो गया...' सन्तु मूर्खों की तरह उनका मुंह देखता है ।
इससे भला इनकी लाल आखों और इनके डायन होने का क्या नाता । कुछ भी समझ नहीं आता सन्तु को ।
वो कारी मैया को जोर से अंकवार में भीच लेता है ।