डायरी के कुछ पन्ने / दूधनाथ सिंह

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तिपहर में सोकर उठने के बाद

अचानक महसूस होता है कि मैं क्यों हूँ? मैं महादेवी पर दो सालों से काम करते हुए क्यों मर-जी रहा हूँ? अचानक निस्सारता का बोध। अचानक होने की व्यर्थता। अचानक जीने का न जीना। अचानक मरने की इच्छा और मरने से डर। तभी लगा कि मैं बीमार हूँ। तभी कुछ और लगा — न जाने क्या कुछ और। अचानक मुझे तलस्तोय की याद आई। उनके दफ़न होने की। अचानक मैंने देखा कि उनके बदन को कीड़े खा रहे हैं। अचानक मैंने उनका झाँझर कंकाल देखना महसूस किया। अचानक एक बदबू जो मिट्टी को कभी भी फोड़कर ऊपर आ सकती है। अचानक मैंने खून में लिथड़ी पूरी पृथ्वी महसूस की, कि मैं इस अनन्तता में कहाँ से टपक पड़ा और क्यों? मैंने अपनी माँ का फूला हुआ पेट देखा, जिसमें मैं हिल-डुल रहा था ! क्या ऐसा कभी हुआ होगा ? अचानक यह प्रकृति की आवाजाही, अचानक यह पशुवत् व्यवहार, यह वासना, यह चेतना, यह अहं का घनघोर व्यापार। अचानक दुनिया का न ठहरना और एक कीड़े की जद्दोजहद। अचानक भूख और चिन्ता और दुःख की अनुभूति। हँसी का नाट्य। अचानक उत्तेजना और क्रोध। अचानक शोक। कुछ अचानक। अचानक एक चेहरा जो लगातार उल्टियाँ कर रहा है। ख़ून और हवा और हिसकी और प्रणय और आघात। अचानक ठगी। अचानक वध। नोटों के बण्डल। दुःखों की गठरी। सुखों के निर्मम भोलेपन। अचानक स्मृति। पुत्र और उनके पुत्र। अचानक किसी लड़की की समग्र नग्न देह। सुखद लज्जा और वासना का अवसान। अचानक मिट्टी निर्गन्ध या फूहड़ निरत-विरत। अचानक जाग्रत मौन।

अचानक कुछ नहीं।

सोकर उठने की क्लान्ति का कम होना — धीरे-धीरे।

अचानक दुनिया की निर्धन आवाज़ ।

अचानक कहीं बाहर समृद्धि की महक ।

होश का लौटना अचानक !

होना। इस बूढ़े शरीर का हवा के सूँघना और ताप को महसूस करना — अचानक !

अचानक होश का लौटना और दुनिया मे एक निर्दय अर्थ का अहसास अचानक !

अपने छोटे बेटे की याद अचानक ! मगर क्यों — अचानक ?

अभी रात लौटेगी। और बुढ़ापे का और थोड़ा अशक्त होना — तभी अचानक !

अचानक शब्द का संहार — अचानक !

बाहरी संसार से नाता अचानक !

मरने की इच्छा का मरना —अचानक !

जो है उसे पूरा करने का अनूठा सन्ताप — अचानक !

जाने दो। बन्द करो डायरी — अचानक !

(19-3-2008)

बूढ़ों की बहार

जब मैं कार से उतरकर उस सभा-स्थल की ओर चला तो मेरे आगे जिया उल हक़ साहब चले जा रहे थे। उनकी उम्र 94 साल की है। उनका ड्राइवर उनका हाथ पकड़े हुए था। आज सिर पर पहली बार ऊनी टोपी थी। इस उम्र में भी अभी दम है कामरेड जिया उल हक़ में। मैं खुद 78 साल का हो रहा हूँ। हल्का-फुल्का हूँ, इसलिए प्रकृति की कृपा से अभी तेज़-तेज़ चलता हूँ — ठीक-ठाक हूँ। कल से गर्दन की बाईं जकड़न है। बस, इतना ही।

लेकिन सभा स्थल पर तो बूढ़ों की बहार थी। यह एक दुःस्वप्न की तरह था। मैं मञ्च पर गया तो मेरे साथ अकील साहब जो ख़ुद 84 साल के हैं। अनिता ने जो कहानी पढ़ी — ’लाइफ़ लाइन’, वह भी घुटनों का ऑपरेशन कराए एक बुड्ढे के बारे में, जिसे एक कमसिन नर्स का इन्तज़ार रहता है, जो आएगी और उसको मीठी झिड़की देते हुए चलने (सीढ़ियाँ चढ़ने) का अभ्यास कराएगी। फिर क्या था, कहानी पाठ खत्म होते ही बुड्ढों की बाढ़ आ गई। एक बुड्ढा जो इधर मीटिंग में आना बन्द कर चुका था, अचानक अपने एक पुत्र का हाथ पकड़े नमूदार हुआ और सीधे मंच पर आ बैठा। बैठते ही उसने कहा, ‘मैं बोलने का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।’ फिर वह उठ खड़ा हुआ और उसने कहानी लेखिका को तरह-तरह से आशीर्वाद दिया। फिर वह अपने बुढ़ापे का निजी दुःखड़ा रोने लगा। उसका एक लड़का जो सरकारी लूटपाट में लगा हुआ है, और जो पहले अपने बाप को बहुत पैसे देता था, वह श्रोताओं में बैठा था। उसके बुड्ढे बाप ने उसकी शिकायत का रोना मंच से शरू किया। उसने इशारे से बताया कि ‘फलाँ मेरा बेटा वहाँ बैठा है, पहले बहुत घर आता था, अब नहीं आता। अब मेरी मदद नहीं करता। उसने बताया कि उसके कई-कई पोते हैं, जिनके साथ वह खुश है और अभ्यास (संगीत) करता है। उसने दुःखपूर्वक यह भी बताया कि वह अपने कई-कई पोतों का इन्तज़ार भी करता है। उसने अपने निजी दुःखडे़ को कहानी के बहाने एक सार्वजनिक तथ्य में रूपांतरित कर दिया।

बस, कहानी ने क्या गजब ढाया। तरह-तरह के बुड्ढे तरह-तरह से अपना दुःखड़ा व्यक्त करने के लिए मंच की और लपक पड़े। एक बहरा बुड्ढा मंच पर एक पुलिन्दा लेकर आया। उसने कहानी में विराम-चिन्हों की गलतियों पर एक पोथा रच रखा था। वह एक प्रकाशन गृह और उसके संचालक सम्पादक पर धुआँधार आक्रमण पेल रहा था। मैं जानता था कि वह किस तरह मुकदमेबाजी करके उस प्रकाशन-गृह से 44000=00 रुपये वसूल कर चुका है। उसका नाम भर लिखित रूप में ले लो, वह आपको कचहरी चढ़ाए बिना नहीं रहेगा। वह जिस-तिस पर मुक़दमा करके समझौते में पैसे वसूल चुका है। वह हिन्दी साहित्य का सबसे आतंककारी दलाल है, वह पुराने जमाने के अफ़गानियों की याद दिलाता है जो ऊँचे ब्याज पर गरीब-गुरबा के रुपये चढ़ाते थे और बाद में वूसली के लिए बुलेट मोटर-साइकिलों से उनका पीछा करते थे। ऐसा ही एक अफ़गानी बुलेट भड़भड़ाता हुआ जब ‘उ-सी कासिल्स रोड’ वाले हमारे मुहल्ले में आता था तो आऊट-हाऊसेज में रहने वाले सारे सागरपेशा लोग भाग जाते थे। उसने अपनी मोटरसाइकिल के नम्बर वाले प्लेट के ऊपर एक और प्लेट लगवा कर उस पर नागरी अक्षरों में लिखवा रखा था, ‘बेवफा का तलाश।’ मुझे ‘का’ व्याकरण से खटकता था लेकिन मैं उससे कुछ कह नहीं सकता था। सारे सागरपेशा लोग इस ‘बेवफा’ की श्रेणी में आते थे। मेरा छोटा बेटा इस इबारत पर बहुत खुश होता था और कहता था, ‘पापा, ‘बेवफा का तलाश में’ अभी-अभी इधर से गया है।’ फिर हम दोनों हँसते थे। घर छोड़कर भागने वाले सारे लोगों को हम जानते थे। मेरा बेटा उनके बच्चों के साथ दिन-भर खेला करता था। बुलेट की भड़भड़ पर वह हंसता जरूर था, लेकिन भीतर से वह बहुत गुस्सा होता था। उन घरों के भीतर की विपन्नता से वह घने रूप में परिचित था और अपने दोस्तों के पिताओं की इस दुर्दशा पर भीतर से बहुत दुःखी रहता था।

बहरहाल, बाद में तो बुड्ढों की बहुत सारी समस्याओं पर लोगों ने बातें की। उनके बच्चों के व्यवहार नई पीढ़ी की अपने पिताओं-माताओं के प्रति उदासीनता या निपट क्रूर व्यवहार। संयुक्त परिवार की तारीफ़। एकल परिवारों की स्वार्थान्धताएँ। शहर में जगहों की कमी। जीवन-शैली के बदलाव इत्यादि। वृद्धाओं की बातें। कुल मिलाकर जो हड़बोंग वहाँ मचा वह आंतककारी था। एक बुड्ढी बार-बार अपने बुड्ढे को डिफेण्ड करती हुई कह रही थी, ‘वह लिखकर लाए हैं।’ उसका ही वह बुड्ढा था जो माइक पर भौचक, लेकिन हिंसक तरीके से खड़ा था। दरअसल, वह अपना शिकार ढूँढ़ रहा था कि कब कोई उसका नाम लेकर आक्रमण करे और वह उसे अदालत में खींचे और मानहानि कर बाकायदा वसूली करे।

अध्यक्ष के रूप में जब मैं बोलने खड़ा हुआ तो मैंने नारंग जी और नरवणे की उदारता की बात की जिन्होंने अपनी ज़ायदादें और घर, बुढ़ापे में सेवा करने वाले नौकर या किसी लड़के के नाम कर दी थीं और अपनी सन्तानों को ठेंगा दिखाते हुए उच्च जीवनादर्शों का पालन किया था। फिर मैंने हृषीकेश वाले ‘स्वर्गश्रम’ की भी बात की। हम दोनों की जो घर में हालत है उसके बारे में मैंने मुँह तक नहीं खोला। मेरा दुःख तो वहाँ दूसरे लोग गा ही रहे थे। मेरा दुःख वहाँ सार्वजनिक दुःख का रूप ले चुका था। लेकिन बुढ़ापे पर ऐसी और इतनी दुर्लभ बहस इलाहाबाद में ही हो सकती है।

अनिता की कहानी ने यह सम्भव किया। हालाँकि कहानी दो कौड़ी की थी।

(24.02.2014)

यहाँ मैं क्यों हूँ !

यहाँ मैं क्यों हूँ? अजब-सी प्रशान्ति और बंजरता है। कुछ नहीं हो रहा। बौद्धिक सरगर्मियाँ नदारद। अपढ़ और खाऊ और नृशंस लोग यहाँ इधर-उधर चारों ओर। इमारतों का आयोजन। लोहा-सीमेण्ट, गर्डर्स। हरियाली। जबकि वहाँ एक चीत्कार है बेबस। जबकि वह और मैं मृत्यु के बिल्कुल मुहाने पर हैं। अब गिरे-अब। वहाँ उस घर में ठण्डक, सीलन, बीमारी, बन्दर किताबें, गन्दे बिस्तर, हाहाकार। बाहर पार्क में खेलते-चिल्लाते, अपने भविष्य से अनजान बच्चे। वहाँ भय, यहाँ लूट। वहाँ गत, यहाँ विगत। आज 11 बजे दिन में ही निकला। उन प्यारी जगहों, चहलकदमियों को फिर नाप लूँ। 18 नम्बर बेंच पर जाकर बैठा। अब ठीक उसके पास एक बड़ा रोड ब्लाक है। हर मोटरसाइकिल, ईंटा, बालू, सीमेण्ट, पानी लादे ट्रकें और टैंकर वहाँ रुक जाते हैं। जबकि सड़क बिल्कुल ख़ाली है। हमेशा ख़ाली रहती है। राख-रंग की ईंटें। मज़दूर-मज़दूरिनें। उनके टपरे-जगह-जगह। फिर वे उजड़ जाएँगे। उजड़ती हुई जनसंख्याएँ क्या — भारत से ज़्यादा कहीं और होंगी? उसमें सफ़ेद चिथड़ों की तरह मास्टर लोग। भविष्यविहीन छात्रा। रोमांस के सपने सँजोए बुढ़ाती लड़कियाँ। पानी की दो टँकियाँ एक उत्तरी परिसर में, जो अभी-अभी बनी हैं। सी०सी० एम०एस० से दिखती हैं।

बहुत सारी बातें मेरे बुढ़ाते दिमाग में भय पैदा करती हैं। जूनियर पी०सी० जोशी और शिवकुटी लाल वर्मा के एक बेटे श्याम का इन्तकाल हो गया।

सुधीर का सन्देश।

मेरे कमर और पीठ से लेकर पूरी गर्दन तक जलन है।

अस्थियों की बँधी हुई राख है, जैसे थोड़ी गीली — रक्त-सनी। खून ही पानी है।

कुछ भी क्यों लिखता हूँ ?

चारों और एक भय बिखरा है वातावरण में

कुछ भी ऐसा नहीं जो सुकून दे सके।

सन् 2014, तुम क्या लेकर जाओगे?

(02.03.2014)

साहित्य में इतना सन्नाटा क्यों है !

जबकि इतनी पत्रिकाएँ हैं, इतने संसाधन हैं, इतने लेखक कवि कलाकार, हुड़दंगबाज हैं... ऐसा क्यों लगता है सुबह-सुबह कि कहीं कुछ नहीं हो रहा है। पत्रिकाएँ एक कर्मकाण्ड की तरह निकलती हैं। ‘पहल’ दुबारा निकली। उसकी जो तुर्शी थी, वह होगी लेकिन ‘पहल’ कहाँ है ? किसी पत्रिका की दूकान पर नहीं। उसके वितरण का भावुक संसार नष्टप्राय-सा है। ’तद्भव’ — एक दूसरा कर्मकाण्ड। वह कभी भी ‘पत्रिका’ का दर्जा नहीं पा सकी — यानी साहित्यिक पत्रकारिता के संसार में उसने अपना हक़ अदा नहीं किया। वह हमेशा साहित्यिक आभिजात्य की पत्रिका बने रहने में अपना गौरव महसूस करती रही। वह वृहद् कमाई का जरिया रही, और है। श्रेष्ठ और स्थापित साहित्य छापने में वह अपना गौरव महसूस करती रही। अखिलेश ज्ञानरंजन का ही शिष्य है — सिखाया-पढ़ाया। उसने ‘पहल’ की तर्ज पर उसके मॉडल पर ‘तद्भव’ निकालने का प्रयत्न किया। लेकिन ‘पहल’ में जो एक अचानक सी चकमक थी, जो साहित्यिक-सम्पादकीय प्रयोग थे, जो वक़्त और अवसर देखकर व्यक्त किया गया एक वैचारिक-सामयिक आक्रोश अभिव्यक्त होता है, नए-पुराने लोगों के प्रति ज्ञानरंजन की अचानक जो ‘फ्राउनिंग’ थी, जो अभिभावकत्व था, सभी के प्रति जो असीमित अवसर-अनवसर उमड़ता हुआ, छलकता प्यार था, न लिखते हुए भी साहित्य के गले में बाँहें डाले हुए जो ज्ञानरंजन की छवि थी, वह ‘तद्भव’ के सारे भरे-पूरेपन के बावजूद कहाँ है? रचनाएँ हैं, साहित्यिक खलबलाहट नहीं। कहीं नहीं। पत्रिकाओं का बाक़ी संसार या तो विचार शून्य है, या एक कर्मकाण्ड। कालिया की खलबली भी ग़ायब। ‘नया ज्ञानोदय’ से हटते ही उसका बनाया संसार बुलबुलों की तरह ख़त्म। लगता ही नहीं कि कहीं कुछ हुआ। ‘वागर्थ’ का निरामिष, पवित्र निरर्थक साहित्य-संसार किसके लिए है? ‘नया पथ’ और ‘वसुधा’ इत्यादि समझते हैं कि वे ‘पथ’ के साथी हैं, वे भाड़ झोंक रहे हैं। विचित्र तरह की अहम्मन्यता का अनन्य सुखद संसार उनके इर्द-गिर्द सर्प-जाल बनाए हुए है।

इतनी किताबें छप रही हैं, इतने बड़े-छोटे प्रकाशक, इतनी साहित्यिक महत्त्वाकांक्षाओं के बावजूद कहीं कुछ होता हुआ नहीं दिखता। लोग ‘फेसबुक’ पर चले गए हैं, लाइक करते-करवाते हैं। साहित्य और सांस्कृतिक अभियान सूचनाओं की वस्तु हो गए हैं। कुछ भी छुपा हुआ, निजी भारी और से संदेहग्रस्त नहीं है — वह जो कला, साहित्य का बुनियादी तत्त्व है। वह जो सोचने और मरने जीते-जी मरने के लिए तत्पर करता है, वह सब कहाँ है? इस तरह के सारे लोग बूढ़े हो गए, थक गए हैं। सोकर उठते ही उनकी बीमारियों का संसार शुरू होता है। आध्यात्मिक पीड़ाएँ दैहिक दुःखों में बदल गई है। साहित्य के सत्ता-संसार में लूट और क़त्ले-आम का माहौल है। ले-दे है, अभिभावकत्व का बोलबाला है। दुर्गन्ध की दमघोट है। वैचारिक निरर्थकताएँ हैं। ‘हाशिये पर’ और ‘कभी-कभार’ के ज़माने, ‘मतवला’, ‘हंस’ की जमानतों का उद्बद्ध संसार ख़त्म है। माना कि सब कुछ वैसा ही नहीं रहता। नहीं रहता, माना तो साहित्य को आगे तो बढ़ना चाहिए। ‘हिन्दी संस्थान, आगरा, की मदद ने पत्रिकाओं को चमकाकर भोंथरा कर दिया है। पत्रिका निकालने को सुगम बनाकर उसकी हवा निकाल दी है। कुछ भी छाप लो, संपादक बने रहो। ‘दस्तावेज़’ जैसी टुटही पत्रिका पर भी हाथ फेरो तो चिकनाहट महसूस होती है। उपन्यास, कविता, कहानियों, यात्रा-विवरण, आलोचनाएँ एक ‘फुस्स’ की तरह हैं। एक दिन का संसार है और गिरोहबाज़ी है। वह भी वैचारिक नहीं, प्रतिशोधात्मक। हर ‘ग्रुप’ के कवि-लेखक-आलोचक हैं। सभी सक्रिय-निष्क्रिय। अजब-सा दुःखद माहौल है। रात की बहसों और एक कविता या एक कहानी में भटकते जागरण का हैंगोवर भी नहीं — उल्टियों की तरह-तरह की दुर्गन्धें हैं। और तेवर यह कि बहुत कुछ हो रहा है।

हो तो रहा है।

(06.03.2014)

हैंगोवर

नशा उतर गया है, हैंगोवर (हैंग-ओवर) अभी बाक़ी है। उससे सिर भारी-भारी-सा रहता है। हैंगोवर उतारने के लिए कभी-कभी फिर पीने की इच्छा करती है। और यह सब शराब के बारे में नहीं है। शब्द एक प्रतीक है।

प्रतीकार्थ भिन्न भी हो सकते हैं —

जैसे कि लिखने के बाद का हैंगोवर — असफलता

जैसे कि उम्र बीत जाने का हैंगोवर — अवसाद

जैसे कि प्रेम का हैंगोवर — खीझ

जैसे स्मृति का हैंगोवर— पछतावा

जैसे विश्वास और आस्थाओं का हैंगोवर — रुदन

जैसे कुछ नहीं का हैंगोवर— स्लेट साफ़

इन सबका सम्मिलित हैंगोवर — मौत

(उसी तारीख को)

आख़िरी क़लाम

कहीं एक अलबम रखने की जगह बनाते वkxt वहाँ ‘आख़िरी क़लाम’ की दो प्रतियाँ (द्वितीय संस्करण) मिलीं। पढ़ने लगा बीच-बीच से। मुझे लगा, अब इसके बाद लिखने को क्या बचा है मेरे पास। सब कुछ तो कह चुका हूँ, सब कुछ तो है, उसमें, जो कहने लायक था। सब कुछ — राजनीति, समाज, पारिवारिक नष्ट-भ्रष्टताएँ, संस्कृतियाँ, मनुष्यों के प्रतीक मनुष्य, कलह-अनिवार्य कलह और उसके दूरगामी परिणाम। रचाव — काव्यात्मक। कलात्मकता का उच्चतम सोपान। प्रयोग और प्रयोग को अन्तर्निहित दर्शन — जीवन का सच। और मृत्यु और विनष्टता के बाद भी जीवन का चल निकलना। खल्लास। अपने को पूरी तरह रिक्त कर देना और पिछले 12 वर्षों से उस रिक्तता को पुनः भरने की कोशिश। उस कोशिश में तरह-तरह के उपक्रम, हौलदिलीपन, उठापटक, हलकान होना। ना, कुछ भी दुबारा सम्भव नहीं है। जैसे किसी नारियल की गिरी को खखोल-खखोलकर खाते हैं, वैसे ही मैं खा-चबा चुका हूँ अपने को।

तो अब कुछ भी करने को शेष नहीं है।

लेकिन चुप बैठा नहीं जाता।

जब उस उपन्यास को खत्म करके पाण्डुलिपि भेज दी और वह छप गया, उसके बाद किस तरह से घनघोर रूप से बीमार पड़ा। बेटी के यहाँ लखनऊ में पड़ा रहा। वहीं पत्नी ने कहा; ‘कुछ लिखो तो मन बहलता रहेगा।’ तो यह डायरी शुरू हुई। पिछले 10 वर्षों से यह डायरी चल रही है। तब इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि बैठ सकता और क़लम पकड़ सकता। अतः शुरुआती कुछ पन्ने बोलकर लिखवाया। पत्नी की हस्तलिपि में इस डायरी की शुरूआत हुई। और अब? अब इसे भी खत्म करना चाहिए।

आमीन।

(25.4.2014)