डायरी लेखन- एक तरल विधा / अरुण प्रकाश
डायरी एक तरल विधा है, जिस बर्तन में डालो उसी का आकार वो ले लेगी। उपन्यास में डालिए तो उपन्यास का आकार ले लेगी। डायरी का उपयोग यात्रा आख्यान में लिखने में किया गया है। आप कल्पना करें कि यदि वास्को डि गामा जर्नल नहीं लिखता तो क्या होता। यदि चार्ल्स डारविन ने जर्नल्स नहीं लिखे होते तो क्या होता। जर्नल में व्यक्तिगत बातें प्रायः नहीं लिखी जातीं। जहाज के हर कप्तान के लिए यह आवश्यक है कि वह जहाज की गतिविधियों के बारे में रोज जर्नल लिखे। वास्को डि गामा का लिखा हुआ जैसा भी यात्रा वृत्तांत भारत पर उपलब्ध है उसकी शक्ल जर्नल की ही है। जर्नल और डायरी में बुनियादी अंतर एक तो है ही, वह है कि एक डायरी बहुत व्यक्तिगत होती है और जर्नल एक सार्वजनिक दस्तावेज है। डायरी में लोग दूसरों के बारे में भी लिखते हैं तब वह डायरी कम जर्नल का रूप अधिक ले लेती है। विलियम वर्ड्सवर्थ की बहन डोरोथी वर्ड्सवर्थ ने जर्नल लिखे, जो वर्ड्सवर्थ के रचनात्मक मन और जीवन पर पर्याप्त रोशनी डालती है। जर्नल लिखने का काम कई लेखकों ने किया है प्रख्यात कथा लेखिका कैथराइन मैनसफ़ील्ड, फ्रांसीसी लेखिक आंद्रे जीद के जर्नल प्रसिद्ध हैं। वर्जीनिया वुल्फ़ की डायरी आज भी लोकप्रिय मानी जाती है। जर्नल लिखने के लिए भी डायरी के आकार जैसी ही स्टेशनरी की जरूरत पड़ती है शायद इसीलिए बहुधा इस रूपबंध के प्रैक्टिशनर डायरी और जर्नल में अंतर नहीं रख पाते। जर्मन उपन्यासकार फ्रांज काफ़्का की डायरी पढ़ते समय अपराध, एकांत और अशंका के बोध से दबे लेखक के वास्तविक साथी स्वप्न जैसे संसार से हम परिचित होते हैं। काफ़्का का आत्मसंघर्ष व्यक्तिगत मुक्ति के प्रयत्नों और उसकी व्यर्थताओं में हम देखते हैं।
यूँ जिस तरह की गैर वैयक्तिक डायरी हमारे साहित्यिक मित्र लिख रहे हैं यह भी कोई नई चीज नहीं है। बहुत पहले दोस्तोवस्की ने एक पत्रिका द सिटीजन का संपादन का जिम्मा लिया तो वे उसमें एक स्तंभ लिखा करते थे, डायरी ऑफ़ ए राइटर। बहुत दूर न जाएँ अपने गजानन माधव मुक्तिबोध ने भी एक साहित्यिक की डायरी लिखी। लेकिन दोस्तोवस्की की डायरी काफ़ी लोकप्रिय सिद्ध हुई क्योंकि वे इसमें विभिन्न प्रकार के विषयों को समेट लेते थे। विषयों 'कहानी, कहानी लिखने की योजनाएँ, आत्मकथात्मक निबंध, रेखाचित्र, पत्रकारिता, अपराधों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, राजनीतिक विश्लेषण, टिप्पणी और सातिहत्यिक विश्लेषण' को समेट लेते थे। वैसे ये स्तंभ दो साल ही (१८७३-१८७५) तक ही चल पाया।
यूँ तो डायरी प्रायः रोजमर्रापन, चिंतन और मनन के लिए ही उपयोग में आती रही है। लेकिन दूसरे रूपबंधों में भी विशेषकर कथात्मक रूपबंधों में आसानी से ढल जाती रही है। अगर डायरी में निरंतरता का, धारावाहिकता का प्रवाह नहीं होता तो इस तरह कथात्मकता में पानी की तरह घुल जाना संभव नहीं होता। इस प्रकार हम देखते हैं कि आख्यानात्मकता से डायरी का पुख्ता संबंध बनता है। जैसे किसी घटना का संबंध घटना को एक गवाह ही जीवंत रूप में प्रस्तुत कर सकता है उसका ग्राफ़ीय ब्यौरा दे सकता है उसी तरह डायरी कई बार हमें जीवंत ब्यौरे से समृद्ध कर देती है वस्तुतः जब भी इस तरह की घटनाओं का वर्णन डायरी में होता हैं, तो डायरी लेखक और डायरी दोनों गवाह बन जाते हैं।
डायरी रहस्यों को अपने में समाए रहती है। उसके खुल जाने का भय लेखक भोगता है। कई बार डायरी ग़ायब होने पर लेखक की नींद हराम हो जाती है, कई बार उसका भयादोहन भी डायरी के चलते हो सकता है। फिर भी डायरी लेखक को उन्मुक्त करनेवाली विधा है। आप नियमित रूप से भले लेखक न हों लेकिन डायरी लिखने का अधिकार और साहस हर किसी में हो सकता है। और जिसने कभी न लिखा हो या पहली बार भी लिखने बैठेगा तो उसे अपने असाहित्यिक होने का संकोच कभी परेशान नहीं करेगा। अब ऐसे लेखन में कितनी साहित्यिकता है या अभिव्यक्ति के दूसरे रंग कितने हैं, ये डायरी लिखनेवाले पर निर्भर करता है।
आश्चर्य ये है कि अधिकांशतः डायरी लिखनेवाले पुरुष होते हैं। फिर भी संसार में जो प्रसिद्ध डायरियाँ हो गई हैं उनमें एक डोरोथी वर्ड्सवर्थ और वर्जीनिया वुल्फ़ की चर्चा हम पहले कर चुके हैं, तीसरी सबसे बड़ी लेखिका एन फ्ऱेंक मानी जाती हैं। उनका पूरा नाम एनेलिस मेरी फ्रेंक था। इस यहूदी युवती को नीदरलैंड पर नाजी कब्जे के दरम्यान दो साल तक छिपे रहना पड़ा। उसके बाद उनका परिवार को जर्मन खुफ़िया पुलिस गेस्टापो ने पकड़ लिया और उसके परिवार को पोलैंड स्थित कंसंट्रेशन कैंप में भेज दिया। वहाँ एन की माँ मर गई। बाद में उसकी बहन और एन दोनों टायफ़ायड से मर गईं। जब जर्मन हटे, रूसियों ने उस क्षेत्र को आजाद करवाया तब एन की डायरी मिली। उसी के परिवार के ऑटो फ्रैंक ने इसे प्रकाशित करवाया। द डायरी ऑफ़ ए यंग गर्ल का पचासों भाषाओं में अनुवाद हुआ है और सर्वाधिक लोकप्रिय डायरी में शुमार किया जाता है।
चूँकि डायरी में निजता बहुत होती है इसलिए भाषा अंतर्मुखी आए तो कोई आश्चर्य नहीं। डायरी को क्या एक पादरी जैसा होना चाहिए जिसके समक्ष आप अपने गुनाह को कुबूल करते हैं। वस्तुतः यह डायरी लेखक पर ही निर्भर करता है कि डायरी में वो कितना कुबूल करे, कितने गोपन को वह प्रकट करे और कितने प्रकट को वह हाशिए पर ठेल दे। दूसरों के बारे में वह मनोगत धारणाएँ लिख दे या आत्म-प्रशंसा करे। डायरी से वस्तुगत होने की उम्मीद किसी को भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि डायरी अंततः एक व्यक्ति का आत्मप्रक्षेण है। यदि वह व्यक्ति घायल है तो डायरी में मरहम की गाथा जरूर लिखेगा। जिसकी हत्या न कर सका हो उसकी निंदा जरूर लिखेगा। कुछ लोग डायरी को मृत व्यक्ति का अंतिम बयान मानते हैं और उसे अंतिम साक्ष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। डायरी अंततः एक आत्मगत विधा है, वह वस्तुगत नहीं है। और उसे सिर्फ़ सुझावात्मक मानना चाहिए न कि अंतिम सत्य। डायरी शत-प्रतिशत लेखक के व्यक्तित्व, आकांक्षा, विफलता के बीच एक झूलता हुआ स्पेस है। डायरी के सत्य होने के दावे बहुत बार किए गए हैं लेकिन उसमें वर्णित तथ्यों की अन्य ヒाोतों से जाँच पड़ताल कर भी लें तब भी यह कहना मुश्किल होता है कि डायरी लेखक ने ऐसा क्यों लिखा। मोटिव या उद्देश्य लेखक के मन में अवस्थित होता है, वह कभी भी डायरी के पन्नों पर नहीं उतरता। इसलिए डायरी के मूल्यांकन के निकष को दो हिस्सों में रखना ही पड़ेगा। एक हिस्से में सामान्य विशेषताएँ होंगी और दूसरे हिस्से में निजी विशेषताएँ होंगी।
डायरी में निष्कपटता और रंजकता, चटपटापन और आत्म का बेलौसपन तो होना ही चाहिए। दूसरी तरफ़ जिस क्षेत्र से लेखक आता है उस क्षेत्र विशेष से संबंधित अंतरंग जानकारी, अनूठा चिंतन, विजन और उस क्षेत्र से जुड़े दूसरे लोगों के साथ लेखक की अंतर्क्रिया के बारे में बल होना चाहिए। लेकिन यह सब गुण धरे रह जाएँगे यदि आप किसी झंझावात में एन फ्रेंक की तरह फँसे हों। इसीलिए अच्छी डायरी के कुछ ही निकष सुस्थिर रहते हैं बाकी सब चंचल हैं।
प्रस्तुत संकलन (डायरी : अंतर्जीवन के साक्ष्य) में दस लेखकों -- रमेशचंद्र शाह, महेंद्र राजा जैन, मनोहर काजल, रामेश्र्वर द्विवेदी, रजनी गुप्त, राजेश जैन, महावीर अग्रवाल, राजेंद्र उपाध्याय, विजय कुमार और शीला त्रिपाठी के डायरी के पन्ने सम्मिलित हैं।
शीला त्रिपापठी ने डायरी अंश 'दुख ही जीवन की कथा रही' में लिखा है “बहुत दिनों से घर में शांति है। अम्मा-पापा लड़ नहीं रहे। याद नहीं पड़ता, जो हम भाई-बहनों में कभी लड़ाई हुई हो। एक-दूसरे को अपना-अपना हिस्सा देने में तत्पर रहनेवालों के मध्य लड़ाई क्यों कर हो? एक यही अच्छी बात है जिससे घर जुड़ा गुथा है। सच, हम एक-दूसरे के बगैर नहीं रह सकते।
'सब कुछ सही अनुरूप चल रहा हो तो लिखने को कुछ नहीं रहता। शब्द ही नहीं सूझते, अन्यथा आप ही व्यथा कोरेपन पर उकेरने लगती हूँ। आज पापा की डायरी हाथ लगी।”
“आज पापा की डायरी हाथ लगी तो पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई। जानती हूँ, ग़लत है। पर पापा को समझने का यह जरिया था। ज्यादा नहीं पढ़ पाई। निषेध लगा औलाद के लिए। जितना पढ़ा अंदर तक दहल गई। वह कितने अकेले हैं! वर्षों से परित्यक्त, बिना स्नेह, प्यार के कोई कैसे ठीक रह सकता है। अम्मा आखिऱ ऐसा क्यों करती हैं? पापा की ग़लती क्या इतनी बड़ी थी कि वह पत्नी घर निभाना भूल गईं?”
“इस घर कलह में निस्संदेह पापा निरीह होते गए, अम्मा प्रचंड। दोनों समानांतर, पर विपरीत दिशा में चल रहे हैं, जिसे हम बच्चों का आलंबन मिला हुआ है। वरना संबंधविच्छेद होते देर नहीं लगती।”
यह अंश निश्चय ही एक परिवार के वृत्तांत को आख्यायित करता है। लेकिन यह १० मई १९८५ को लिखा गया और २००६ में प्रकाशित हुआ। पूरे २१ साल बाद। छपा यह तब है जब इसका डंक भोथरा हो चुका है। यदि यही अंश बीस साल पहले प्रकट हो जाता तो उस परिवार को एक झंझावात से गुजरना पड़ता। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि पिता, अम्मा बहुत वृद्ध हो गए होंगे, और क्या पता संसार ही छोड़ गए हों। पहले यह डायरी अंश ज्वालामुखी का पलीता था परंतु अब यह एक निर्दोष फुलझड़ी है।
रामेश्र्वर द्विवेदी के डायरी अंश कोहरे में बाँसुरी शीला त्रिपाठी के डायरी अंश के ठीक उलट है। यह अतीत में नहीं है, वर्तमान में चलता है। २००६ मार्च से लेकर अगस्त २००६ तक। इसमें रामेश्र्वर द्विवेदी माता, पिता संतान बीमारी नौकरी, गोपन-अगोपन सब आख्यायित करते हैं। और विशेषता यह है कि इसको पढ़कर आप डायरी नहीं कह सकते बल्कि कहानी कहेंगे। यह डायरी अंश इतना सुगढ़ है जितनी सुगढ़ कहानियाँ रामेश्र्वर द्विवेदी लिखते रहे हैं।
कथाकार डायरी लिखेगा तो उसमें कहानी डॉमीनेट करेगी और कवि लिखेगा तो उसमें कायदे से कविता को डॉमिनेट करना चाहिए। पर हाल में कवि मित्रों की जितनी डायरियाँ मैंने पढ़ीं उसमें कविता डॉमिनेट नहीं करती, कविता की आलोचना डॉमिनेट करती है। ऐसा क्यों होता है इसका उत्तर कवि मित्रों को ही देना चाहिए।
लेखक महावीर अग्रवाल की डायरी १९७२ से लेकर २००६ तक फैली है। उसी के चुनिंदा अंश इस पुस्तक में प्रकाशित हैं। मैं महावीर अग्रवाल जी को जानता हूँ, दो-एक बार मिलना भी हुआ, उनसे ख़तो किताबत भी होती रही है लेकिन इस डायरी के अंशों को पढ़कर उनकी रणनीति, उनकी कमजोरियाँ, सीमाएँ तो जान ही पाया, उनका बड़पन्न भी प्रदीप्त हुआ। उन्हें प्रायः एक सुरुचि संपन्न लेखक के बजाय एक व्यवसायी के रूप में पेश किया जाता रहा है। मुझे लगता रहा कि उनकी यह छवि संपूर्ण नहीं है लेकिन जो डायरी के ये अंश पढ़े तब इसका कारण समझ में आया कि वे अपने बड़प्पन को कितने जतन से ढँक कर चलते रहे हैं। २३ अप्रैल २००१ की डायरी का अंश देखिए : “बिटिया गरिमा जिस युवक से शादी करना चाहती है, दो दिल पहले वह मुझसे मिलने घर आया। मैंने उसे पूछा कि विवाह के बाद रखोगे कहाँ? उसने कहा अलग मकान बनवा रहा हूँ। मैंने कहा, जाओ, मकान बन जाए
तब आना। पिछले दो वर्षों से जितनी जानकारी मिल मिल रही है, उससे लगता यही है कि गरिमा का विवाह इसी युवक अय्यूब खान से करना पड़ेगा। १८ मई २००३ को महावीर अग्रवार ने लिखा “गरिमा अग्रवाल ने अय्यूब खान से विवाह करने के लिए आवेदन लगाया है। इतनी सुंदर, सुशील, पढ़ी-लिखी और व्यवहार कुशल होने के बाद भी ऐसा कदम उठा रही है।बात अभी अपने हाथ में ही है, बिटिया को समझा लें तो आवेदन वापिस लिया जा सकता है। मैंने उनसे कहा, ये सब पिछले कई वर्षों से मुझे जानकारी में है कि गरिमा प्रत्येक स्थिति में अय्यूब खान से विवाह करने के लिए अड़ी हुई है। १६ जून की डायरी में अग्रवाल जी ने लिखा -- एक माह हम लोग पूरे तनाव में रहे, गरिमा को हम बड़ा समझाते रहे और गरिमा हम लोगों को समझाने की कोशिश करती रही कि जो लड़का उसने चुना है वह बहुत ही समझदार और योग्य है। एक माह की जद्दोजहद के बाद मजबूरी में ही सही, पत्नी ने भी कोर्ट में जाकर विवाह के लिए अपनी सहमति दे दी। (विवाह की तिथि तय हो गई) इसी क्रम में अनेक मित्रों को दूरभाष से विवाह में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। कलाकार भाऊ समर्थ ने अपने इंटरव्यू में मुझे कहा था कि सारी दुनिया में यदि प्रेम और सद्भाव फैलाना चाहते हैं तो उसका एक ही रास्ता है, हमें अपनी जाति में विवाह बंद करके केवल अंतर्जातीय विवाह ही करना चाहिए।' मैंने उनके इस विचार का समर्थन किया था। इस विचार को मेरी ही बिटिया गरिमा सच का बाना पहना रही है।”
डायरी में भी लोग छिपाएँ तो फिर कौन सी जगह खुलने की होगी? रमेश चंद्र शाह की डायरी पढ़ते समय आपको लगता है कि डायरी में एक रचनाकार, एक नागरिक, एक मनु¹य, एक परिवारी सब एक साथ मुकम्मिल तौर पर उपस्थित हैं। -- परेशानी, चिंता, आत्मस्वीकृति, कमजोरी, उपलब्धि सबों के साथ। 1 अगस्त १९८२ की डायरी में शाह साहब ने लिखा, “कल शाम निर्मल जी के यहाँ गया। अब मैंने निश्चय कर लिया है -- मैं निर्मल जी से कहूँगा -- मुझ को पीने को न कहें -- मुझे बिलकुल रास नहीं आता यह -- उस वक्त भले ही अच्छा लगे बाद में डिप्रेशन ही होता है अजीब झुंझलाहट होती है मुझे कि ये भी कैसी बाध्यता है। कोई शाम आप बिना इसमें शरीक हुए निर्मल जी के साथ क्यों नहीं गुजार पाते? क्यों? आखिऱ क्यों? और इसमें भला उनका क्या दोष है? मैं ही तो हर बार कमजोर पड़ जाता हूँ। क्यों पड़ जाता हूँ मैं कमजोर?”
यदि डायरी में अत्यधिक पॉलिश हुई तो वह कंस्ट्रक्ट लगने लगती है। यदि उसका खुरदुरापन थोड़ा भी बचा रह जाता है वह उसे विश्र्वसनीय ही नहीं सत्य के निकट भी बनाए रखता है। यह खुरदुरापन सबसे अधिक इस संकलन में महावीर अग्रवाल की डायरी में है जिसके चलते उनकी डायरी में ठीक से चीन्हा जा सकता है बल्कि वे किस वातावरण में अवस्थित हैं उसे भी महसूस किया जा सकता है।
डायरी एक अधूरी विधा है। उसमें कोई भी चीज राउंड अप नहीं होती। हाँ, जीवन के कुछ प्रदीप्त, कुछ धुंधले अंश जरूर दिखते हैं और यह खुरदुरापन पाठकों को विकर्षित नहीं करती बल्कि गोपन को जानने की उत्सुकता का प्रवाह पाठकों को अपने जद में ले लेता है। हर किसी का जीवन समुद्र की तरह होता है। आप जब भी डुबकी लगाएँगे एकाध कंकड़ हाथ आएगा। उससे मुकम्मिल चेहरा बनाना मुश्किल है। किसी को जानने के लिए डायरी के क्षण नहीं, जिंदगी का फैलाव चाहिए और निदा फ़ाजली के शब्दों में:
कहीं चेहरा, कहीं आँखें, कहीं लब, हमेशा एक मिलता है कई में गुजर जाती है यूँ ही उम्र किसी को ढूँढ़ते हैं हम किसी में।