डायरी –1913 / फ़्रांज काफ़्का
06 नवम्बर 1913
न जाने, अचानक मेरे मन का सारा आत्मविश्वास कहाँ बिला जाता है? काश ! ऐसा नहीं होता। और मैं किसी ऐसे आदमी की तरह, जो अपने पैरों पर ख़ुद खड़ा रह सकता है, सभी दरवाज़ों के आर-पार आ-जा सकता। हालाँकि मैं ख़ुद भी यह बात नहीं जानता कि क्या मैं सचमुच ऐसा ही होना चाहता हूँ।
18 नवम्बर 1913
मैं फिर से लिखना शुरू करूँगा। लेकिन मेरे इस लेखन ने मेरे भीतर कितनी सारी दुविधाएँ पैदा कर दी हैं। वास्तव में अगर सच-सच कहा जाए तो मैं एक औसत दरजे का जाहिल आदमी हूँ। अगर बचपन में मुझे स्कूल जाने के लिए मजबूर नहीं किया गया होता — मुझे अपनी मरज़ी से रहने की छूट भले ही न दी जाती, पर मेरे साथ ज़बरदस्ती नहीं की जाती — मुझे एक कुत्ते के बाड़े में रहने दिया गया होता, जहाँ से मैं अपना खाना खाने के लिए ही बाहर आता और खाना निगलकर वापस अपने बाड़े में घुस जाता।
19 नवम्बर 1913
मैं अपनी डायरी को पढ़कर मन्त्रमुग्ध रह जाता हूँ। कहीं ऐसा इसलिए तो नहीं, क्योंकि मुझे आज अपने मौजूदा हालात पर ज़रा भी भरोसा नहीं है? मुझे ऐसा लगता है, जैसे सब कुछ ख़ास तौर पर मेरे लिए ही बनाया गया है। कोई भी टीका-टिप्पणी, कोई भी विचार, कोई भी चीज़ मुझे बेहद विचलित करती है। यहाँ तक कि कोई एकदम बेकार सी याद भी, जिसे मैं पूरी तरह से भूल चुका था, मुझे व्याकुल और विक्षुब्ध करने लगती है। मैं अब ख़ुद को पहले से कहीं ज़्यादा असुरक्षित और अस्थिर महसूस करता हूँ। ऐसा लगता है जैसे मैं पूरी तरह से ख़ाली हो गया हूँ और मेरे प्रति जीवन और ज़्यादा हिंसक होता जा रहा है। मैं उस भेड़ की तरह हो गया हूँ, जो पहाड़ों के बीच कहीं खो गई है और रात उतर आई है या फिर उस भेड़ की तरह, जो किसी भटकी हुई भेड़ के पीछे-पीछे भाग रही है। मैं कहाँ खो गया हूँ ? क्या हालत हो गई है मेरी? भला, ऐसा भी कहीं होता है कि आदमी इस तरह ग़ुम हो जाए कि उसके भीतर रोने की भी ताक़त न रहे।
मैं जानबूझकर लाल बत्तियों वाले उस इलाके में घूमने जाता हूँ, जहाँ चारों तरफ़ वेश्याएँ घूमती रहती हैं । जब मैं उनके पास से गुज़रता हूँ, तो मैं यह सोचकर ही बेहद उत्तेजित और उत्साहित हो जाता हूँ कि मैं इनमें से किसी एक के साथ जा सकता हूँ, हालाँकि दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नहीं होती। परन्तु क्या ऐसा करना वास्तव में अश्लील होगा ? लेकिन इससे बेहतर और हो भी क्या सकता है ? ऐसा करने में, भला, दोष भी क्या है, और शायद ही बाद में मुझे इसका कोई पश्चाताप होगा। मुझे तो, बस, मोटी और अधेड़ औरतें ही पसन्द आती हैं, जिन्होंने मैले-कुचैले कपड़े पहन रखे हों। ऐसा लगता है कि इनमें से एक औरत मुझे जानती-पहचानती भी है। आज दोपहर खाने के बाद मैं उससे मिला भी था। वो बनी-ठनी नहीं थी, जैसेकि अक्सर धन्धे पर निकलती होगी। उसके बाल बिखरे हुए थे। वह सामान्य घरेलू कपड़ों में थी। उसने टोपी भी नहीं पहन रखी थी। देखने में वह कोई बावरचन या रसोईदारिन की तरह लग रही थी। उसकी कमर पर एक बड़ी-सी गठरी लटकी हुई थी, शायद गन्दे कपड़े धोबी के पास ले जा रही थी। मेरे अलावा शायद ही किसी को वो मोहक लगी होगी। हमने एक-दूसरे की उचटती निगाहों से देखा।
अब, शाम हो चुकी है और मौसम थोड़ा सुहावना हो गया है । मैंने उसे ज़ेल्टनरगैस की मुख्य सड़क से एक संकरी गली में घुसते हुए देखा, जहाँ वह आमतौर पर ग्राहकों का इन्तज़ार करती थी। उसने पीले और भूरे रंग का एक लम्बा ओवरकोट पहना हुआ है। मैंने दो बार उसकी तरफ़ देखा, उसने भी मेरी ओर देखा, लेकिन आख़िरकार मैं उससे दूर दूसरी तरफ़ चला गया।
21 नवम्बर 1913
पिछले दिनों में मैंने अपने भीतर जो बदलाव नोट किया है, उसे सुखद नहीं कहा जा सकता है। हालाँकि यह बदलाव मेरे मन में भरे ख़ालीपन से ही पैदा हुआ है। जैसे ही मैंने अपनी मेज़ पर से अपनी स्याही की दवात और क़लम दूसरे कमरे में ले जाने के लिए उठाई, मुझे अपने भीतर एक मज़बूती महसूस हुई, मसलन — जैसाकि अक्सर होता है कि अचानक आपको किसी बड़ी-सी इमारत का कोई कोना झलकता हुआ सा महसूस होता है और आपके क़दम बढ़ाते ही वह तुरन्त कहीं ग़ायब हो जाता है। पल भर के लिए मुझे भी लगा कि अब मैं खोया हुआ नहीं हूँ, अब मैंने लोगों पर निर्भर रहना बन्द कर दिया है, यहाँ तक कि एफ़० के सहारे की भी मुझे कोई ज़रूरत नहीं है। मेरे मन के अन्दर एक धुँधली सी उम्मीद जगी। मैंने सोचा, अगर मैं सचमुच इन सब लोगों से दूर भाग जाऊँ तो क्या होगा, जैसे, कोई आदमी अचानक सबकुछ छोड़कर साधु हो जाता है।
कितना मज़ेदार है यह सोचना कि भविष्य में क्या होगा । अगर ऐसा होता तो वैसा होता, अगर ये होगा तो वो होगा। मसलन, आदमी के मन में बसे ’डर’ की भावना को ही लें। इस तरह की सभी बातें आम तौर पर हमारे मन की उपज होती हैं। लेकिन जैसे ही वे यथार्थ और वास्तविकता की सच्चाई से टकराती हैं, वे हवा हो जाती हैं, ग़ायब हो जाती हैं और पहले धक्के में ही तुरन्त ढह जाती हैं। मुझे, भला, वह जादुई हाथ कहाँ मिलेगा, जो किसी विकराल मशीन में आने के बाद भी टुकड़े-टुकड़े होकर न बिखरेगा और हज़ारों चाकुओं जैसे ख़तरे भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे।
मैं ऐसी कल्पनाओं की तलाश में हूँ, जैसे मैं किसी कमरे में घुसता हूँ और उसके किसी कोने में इन सफ़ेद जादुओं को आपस में घुलता-मिलता देखता हूँ।