डिजाइन / विनीत कुमार
बांह, गला, कमर, घुटने... एक के बाद एक टेलर इतनी तेजी से इंचटेप रागिनी पर टच करता जा रहा था कि जैसे वो उसके कुर्ते की नाप लेने के बजाय खचर-खचर कपड़े काट रहा हो। काउंटर से थोड़ी ही दूर पर खड़ा रघु जो पिछले पांच मिनट तक काला-खट्टा में रमा हुआ था, गोले के जमीन पर चू जाने के बावजूद भी ठंठल को चूसे जा रहा था, एकटक रागिनी को देख रहा था। अब वो मल्कागंज की इस सड़ियल सी गली में क्यों आएगी कुर्ते की नाप देने? इतने नौकर-चाकर होंगे कि जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
"ओए रघु, कहां खो गया तू?", रागिनी की आवाज से रघु अकचका गया और फिर डिजाईन बुक पर नजरें टिका दी। नहीं, चौड़े गले का कुर्ता अब रागिनी के लिए सही नहीं होगा। क्यों न इस बार उसे नेहरु कट ट्राय करनी चाहिए? उसने डिजाइन का वो पन्ना मोड़ दिया और आगे बढ़ गया। वैसे सिद्धि जैसे कुर्ते पहनती है, वो भी बहुत प्यारे लगेंगे। उस पन्ने को भी मोड़कर आगे बढ़ गया। कुछ और ट्राय किया जाए... बढ़ता गया। उसे पता तक नहीं चला कि कब पीछे खड़ी रागिनी उसकी इस हरकत पर नजरें टिकायी है। वाह बेटाजी, अभी तक तो तुम जब भी टेलर के पास आए मेरे साथ, दस फिट की दूरी पर खड़े नजर आते थे। लाज आती थी तुम्हें यहां खड़े होने में और अब मैं दिल्ली से जा रही हूं तो खड़े क्या डिजाइन तक चुनने लगे। सही जा रहे हो रघु। मुझे नहीं लगता मोतिहारी जाकर ज्वायन करते-करते तुम ये भी याद रखोगे कि रागिनी नाम की कोई लड़की मेरी जिंदगी में थी।