डूब / गरिमा संजय दुबे

Gadya Kosh से
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"बस अरु थोड़ा दण, न पूरो गाँव को इतिहास पाणी मss" स्टेशन पर पान की दुकान लगाने वाले केशव काका बोल रहे थे हाथ यन्त्रवत पान पर कत्था लगा रहे थे। अब चौपालों पर गली में मोहल्ले में हर कहीं बस यही चर्चा। गाँव के माड़साब सबको नफे नुक़सान समझाते तो पटवारी ज़मीन की लिखा पड़ी में मगन। कुछ लोग विरोध करने को दिन रात पानी में खड़े रहते, खूब पेपर बाजी हुई, नारे लगे लेकिन सरकार को न मानना था न मानी। पहले भी कुछ गाँव और शहर डूब में आ चुके थे। अब कौन किसे समझाये कि गाँव केवल गाँव ही तो नहीं होते। किसी के बचपन को खिलखिलाते देखा हो जिन गाँव की गलियों चौबारों ने, नई दुल्हन के शर्मीले चेहरे और मधुमास की साक्षी रही हो जो गलियाँ, किसी की जवानी के पहले प्यार और लुका छिपी और धड़कते दिल और कांपते हाथों को देखा हो जिसकी हवाओं ने, नए जीवन को आकार लेते पाया हो या किसी बुज़ुर्ग को अनंत यात्रा पर पहुँचाया हो, जीवन का ऐसा कौन-सा रंग है, कौन-सी ऋतु है जो इस जगह से न गुज़री हो। हाँ गाँव केवल गाँव ही तो नहीं होते, केवल ज़मीन का एक टुकड़ा भर तो नहीं, केवल गारे मिट्टी के मकान तो नहीं। गाँव एक पूरी की पूरी यादों की गठरी होतें हैं। विमला काकी ओटले पर बैठ गाँव भर की बहुओं की बुराई करती, उनकी गिद्ध दृष्टि से कोईं घटना बच नहीं सकती, चलता फिरता bbc हैं वह। पर मजाल है कि कोईं गाँव का मर्द किसी औरत पर हाथ उठा ले या कोईं ऐसी वैसी बात बोल दे। चीर कर रख देती हैं, अब वह जा रहीं थीं नए गाँव में पता नहीं कैसे रहेगी अपनी आधी बहुओं को पूराने गाँव में छोड़कर। रमेश की गाय के बछड़ा हुआ तो चीके का दूध किस घर नहीं गया, या कि छांछ बनी हो तो किस देहरी पर आवाज़ न लगी हो। हर घर में बनने वाले पकवान, अचार की कटोरियाँ और प्याले मोहल्ले के सब घरों के दर्शन कर आते थे। ज़रूरत पड़ने पर एक दूजे के घर से बिना पूछे सामान उठा लाने और काम हो जाने पर वापस कर देने की स्वतंत्रता अब भी थी। अब ऐसे गाँव के दो टुकड़े कर दिए लोगों ने। कोईं लड़ाई थोड़ी हुई थी कि भारत पाक की तरह बंटवारा हो गया। लाइन खींच दी बीच में इधर वाले डूब में हैं और इधर वाले नहीं। स्तब्ध से देखते रह गए गाँव वाले। डोकरो बड़, बूढ़ा बरगद, की चौपाल पर रोज़ जमने वाली बैठकों में एक ही चीज़ अब होती छूटने वाली जगह की यादों की जुगाली, बद्री काका बोल पड़े "जवss हऊँ छोटो थो, कईं नी थो, अवsss देखो कईं बड़ी गयो, या नदी का किनारा पss दन भर बठिया रओ तो भी नी थको" रमेश माड़साब बोले "काई करा भाई, अब तो बस यादनज रई जावग"। दरबार बोले "मालम छे जवांss पैळी बार पक्की टट्टी बणी थी, कसा सबका सब उकsss देखणss क आया था," बद्री काका बोले "हओ न नवी गैस आवि थी तवंsss" बाई न कss बाळतsssज नी आवsss "न यो रमेशियो गयो खुबज होशियार बणी क न, झुकी कsss न, बाळी रयो थो कि मूँछनज बळी गई, हा-हा हा ठहाकों से चौपाल गूंज उठा" हओ केत्रा दिन तक हाथ-सी मुड़ो ढकी ढकीकsss न फ़रियो थो"। सुभाष दादा बोल पड़े" यो दीनू को पोरियो, केतरि आग मूतssss, न अंगारा खातो थो, न अवंssss देखो NVDA को लाड़ साब बणी कs नs सबकsss फायदो नुक़सान बतई रयोज "। सब ने गर्दन हिलाई। हाँ यह बरगद भी पानी में समा जाएगा साथ ही चौपाल पर सजने वाली महफ़िल, बहस, क्रिकेट कमेंट्री सुनते गाँव के प्रौढ़ स्वर भी। त्रिवेणी की पूजा करते लाख की चूड़ियों और पायल की रुनझुन और लोकगीत से गूंजते स्वर भी। वह कुआं भी जो नल कनेक्शन होने के बाद भी पनघट बन हंसी ठिठोली से गूंज उठता था। वह गली का कोना भी जहाँ गाँव की छोरियों ने दरबार के लड़के की धुनाई कर दी थी। वह खळा (ला,) छोटे खेतों की मुंडेरे जो हरी भरी रहती थी। वह स्कूल, छोटा अस्पताल, पोस्ट ऑफिस और पीर मज़ार भी। वह दीवाली, दशहरे, होली, राखी, गणेश चौक की झांकी, शादी, ब्याह सुख दुख सांझे सब यादों में रह जाएंगे। अजीब-सी मायूसी से घिरा है गाँव, दोनों तरफ़ के लोग एक दूजे से आँख नहीं मिला पाते, न-न कोईं अपराध बोध से नहीं एक दूजे की आंखों के दुःख से व्यथित होने के कारण। रोज़" काई करा भाई, अवंsss जाणू तो पड़गsss "कहते हुए" सभा विसर्जित होत है " कहते वे घर को चल देते।

कोशिशें हज़ार हुई कि न हो ऐसा पर एक न चली। मुआवज़े की बड़ी रक़म ने कईयों के ईमान हिला दिए, नए पूराने के बीच भी अजीब-सा खिंचाव आ गया था, गाँव के नवयुवक जो कम पढ़े लिखे थे और छोटी मोटी दुकानदारी कर घर चला रहे थे मुआवज़े की रक़म से सुनहरे भविष्य को देख रहे थे। गाँव छूटने पर दुखी तो वे भी थे, लेकिन मन ही मन ख़ुद को समझाते आधा गाँव वैसा के वैसा ही तो उठकर चल देगा नई जगह, तो कैसा अकेलापन वहाँ भी दुनिया आबाद कर लेंगे, गाँव भी तो रहने वालों से बनता है, ये सब भी तो वहाँ रहेंगे तो बुरा क्यों लगेगा, धीरे-धीरे आदत हो जाएगी। जाने वाले ऐसा सोचते-सोचते अपने सामान के साथ अपनी यादों की पोटलियाँ भी साथ में बाँधने लगे थे। बड़े बूढ़े उनकी इस नई व्यावहारिक सोच से नहीं जुड़ पा रहे थे। बोलते "रमेशियो कयज कि, नवी जगो पsss नवी याद नsss बणई लेवांगा, अबsss कुण समझावsss कि पूराणा डोळा न मssss नवी याद कसी आवगssss" सच तो है उनकी उम्र तो पूरानी यादों की जुगाली करने की है नया कैसे रचें। केशव काका के भाई माधव काका का घर भी डूब में था। जिस दिन से यह ख़बर हुई थी, दोनो भाई अलग होने के नाम से सदमे में थे एक गली के अंतर ने उन्हें डूब प्रभावित इलाके में ला दिया था। गरीब परिवार छोटे मोटे धंधे से घर चल रहा था, अलबत्ता पूराने घर बहुत बड़े-बड़े थे तो माधव काका को मुआवज़े में 50 लाख की रक़म मिलने वाली थी क्योंकि खळा और घर दोनों ही डूब में थे। 50 लाख की रक़म कम नहीं होती लेकिन पैसा भावनाओं की क़ीमत तो नहीं ही हो सकता न। जीवन भर की यादों, अपनों का साथ, गाँव से जुड़े होने का अहसास और इस विस्थापन का दर्द जोड़ कर देखेंगे तो इनके बदले तो 50 लाख कम ही लगेंगे।

विस्थापित होने वालों में डर था, नई जगह पर सब सुविधाएँ कहाँ से एकदम मिलेगी, फिर नया पान नया चूना और सरकारी काम है, कब होगा पता नहीं, गाँव के उत्साही युवा नेता कहते "अवंsss धीरsss-धीरsss सब होयगsss, फिरि इन्हा क्षेत्र को विकास भी तो करणु चावांज हम लोग, पाणी तो जीवन छे, खेती सुधरग, नहर नss बनी जावग, रोज़गार बढगsss" ,। लेकिन गाँव वाले गाँव छूटने और विस्थापन के दर्द से उबर नहीं पा रहे थे। अजीब कशमकश में ज़िन्दगी चल रही थी क्या होगा, कैसे होगा, क्या इन पैसों से जैसा सोचा है वैसा जीवन होगा, तमाम आशंकाए।

भावनाओं और व्यवहारिकता का बड़ा व्यतिक्रम सम्बंध है। गरीब को मिलने वाला पैसा पल भर में सारी समस्याएँ हल कर देता है फिर भावनाएँ पीछे छूटने लगती हैं, नए के साथ इंसान ढलने लगता है। ऐसा ही कुछ होने लगा था उनके साथ जिन्हें मुआवज़े की रक़म मिली थी। पांडे माड़साब के लड़के ने एक मोटर साइकल के शोरूम का आवेदन कर दिया था। भेरू नाई पक्के घर और पक्की दुकान की सोच-सोच खुश था। बच्चे पूरानी टपकती स्कूल से नए स्कूल में जाने को उत्साहित थे, पूराने दोस्तों के छूटने के ग़म के साथ, लेकिन यह कहते हुए "मिलने आएंगे ना, फिर फ़ोन व्हाट्सअप तो है ही" , नया अस्पताल, नई सड़कें सब नया होगा, बस लोग वही पूराने होंगे, यादें फिर बना लेंगें, बुन लेंगें नए ताने बाने सम्बंधों के। एक नई चौपाल, एक नई त्रिवेणी आकार लेने लगी थी नई बसाहट की तरफ़। बद्री काका के बेटे की बरसों की साध थी एक ट्रैक्टर की जो अब पूरी होने जा रही थी। 25 लाख 50 लाख, कहीं 1 करोड़ कम तो नहीं होते। मुरली की लुगाई को सोने के नए ज़ेवर मिल गए थे, तो किसी के बच्चों की शादी ब्याह और पढ़ाई की चिंता दूर हो गई थी। कईं तो यह कहते पाए गए कि "नर्मदा माँ छे नी, कभी केको बुरो थोड़ी क़रज, देखी ळओ डुबावsतsss डूबावsतsssss भी तारी रईज। जय हो नर्मदा मैया"।

जिस दिन मुआवज़े की पहली रक़म हाथ में आई माधव काका का लड़का दौड़ता हुआ मीठाई ला कर केशव काका का मुँह मीठा करवा गया "काका जीवन भर भी कमावतो तो इत्तो पैसो नी मिळतो जो अबकी एक बार मssज मिळी गयो, अब तो बस एक पक्को मकाण न एक दुकाण और बाक़ी पैसो बैंक मsss, इणी डूब न तो म्हारी ज़िन्दगी बणई दी काका," काका ने कहा "लेकिन बेटा अपणो गाँव तो छूटी जायग नी" "कईं काका कसी वात करो, वळ्यांग नयो गाँव बणी जायग अरु कईं, सब वळ्यांग तो जई रयाज, फिरि इत्ता पैसा भी तो मिळी रयाज की नई" , कहते वह पाँव छू कर निकल लिया, सारी बात सुन रहा उनका सत्रह साल का पोता बोला "भाई जी, अपणो घर भी डूब मsss आई जावतो तो कितरो भलो होतो, अपणा कssss भी रक़म मिळी जाती तो सब चिंता मिटी जाती, न हऊँ इंदौर मs रई कs नs पड़ी भी लेतो" कहते-कहते वह रुआंसा हो गया। जर्जर घर, विधवा बहु और पोते को देखते हुए केशव काका बाहर निकल आये। गाँव तो डूब ही रहा था, आज उनका मन भी डूबने लगा, लेकिन अफ़सोस आज उनके मन पर डूबने वाले गाँव के दुःख की जगह किसी और डूब के दुःख ने ले ली थी।