डेढ़ हजार की पर्ची / गजेन्द्र रावत

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रात का एक बजा था। निस्तब्ध वातावरण अंधकार की भयावहता को तेजी से सघन बना रहा था। यूं अहसास होता था मानो अज्ञात भय जेल के भीतर बंदियों के बीच हवा में विचरण कर रहा हो। बैरक के बाहर फैले मैदान के बौनें पेड़ों पर पड़ते हल्के धुंधले प्रकाश का जैसे अस्तित्व समाप्त हो चला हो। मैदान में चारों तरफ फैले कोहरे की गंध बैरक के भीतर तक आ रही थी।

वार्ड के सभी कैदी विभिन्न मानसिक उलझनों के रहते हुए भी निद्रा की गिरफ्त में निश्चिंत पड़े थे ,सिर्फ नदीम अनिद्रा से विवश दोनों हथेलियों से सीखचों को पकड़े हुए धुन्ध में होने वाली छोटी से छोटी हलचल पर नजर रखे हुए था। वह प्रतीक्षा में था कि नाइट ड्यूटी पर तैनात सिपाही कब उसकी बैरक के सामने से गुजरेगा तो कुछ बात हो पाएगी।

मोटे शरीर पर लदा भारी ओवरकोट झाड़ता हुआ चोखेलाल वहाँ से गुजर रहा था , तभी उसे आवाज सुनाई दी। “बाबा ! एक बीड़ी तो पिला दे। ’’

दाईं तरफ बैरक के सींखचों की ओर नजर उठाकर चोखेलाल ने देखा कि नदीम कम्बल ओढ़े सलाखों से एकदम सट्करउकड़ूँ बैठा हुआ था। उसे इतनी रात गए ऐसे बैठे देख चोखेलाल नें आश्चर्य से रुक कर कहा , “नींद नहीं आ रही क्या ?’’

“ हाँ। ’’

कोट कि जेब से बंडल निकाल कर एक बीड़ी उसकी तरफ बढ़ाते हुए चोखेलाल बोला , “ये ले , और पीकर सो जा , चल। ’’

“अरे ! ऐसे नहीं ,लगा के दो। ’’ नदीम बड़ी ही आत्मिएता से बोला। “और जा कहाँ रहे हो ? एक जरूरी बात करनी थी तुमसे। ’’

चोखेलाल दूर पड़े स्टूल को खींचकर लाया और सलाखों से सट्कर बैठते हुए बोला , “इतनी रात में क्या बात करनी है तुझे ?’’ वह दो बीड़ियाँ अंगुलियों में फसाकर जलानें लगा

“बाबा मुझे चक्की (सेल) चाहिए ! बैरक में रहा नहीं जाता। ठंडे फर्श पर मेरी कमर अकड़ जाती है ; सच पूछो तो दर्द के मारे रात भरसोया नहीं जाता। ’’ माचिस की रोशनी में नदीम चोखेलाल के चेहरे को देखता हुआ बोल रहा था।

चोखेलाल ने हाथ से हिलाकर एक सुलगी बीड़ी उसे पकड़ा दी।

“वैसे मैंने डिप्टी को अर्जी लगाई है लेकिन उसमें तो टाइम लग ही जाएगा तब तक तो मेरी कमर जवाब ही दे देगी। ’’ बीड़ी का कश लेते हुए नदीम धीमी आवाज में बोलता जा रहा था।

चोखेलाल ने मूंछों पर हाथ फेरकर सुलगी बीड़ी का लंबा – सा कश मारा और नदीम के चेहरे पर देखते हुए बोला , “तू जानता है ये जेल है ! और यहाँ हर काम को अमलीजामा देने के लिए ......’’ कुछ रुक कर वो फिर बोलने लगा , “अरे , अरजी से क्या होता है , यहाँ अरजी फरजी हो जाती है जब तक वजन न रखा जाए। ’’

“ तो बाबा वजन भी रख दूँगा , मैंने कब मना किया है , बस आपको थोड़ी तकलीफ उठानी पड़ेगी। ...... घर से लाना पड़ेगा पैसा। ’’

“इस झंझट में नहीं पड़ता मैं ! मैं किसी के भी घर नहीं जाता। खाए डिप्टी और भागा दौड़ी करूँ मैं। ’’

“ मेरे लिए भी नहीं.......’’ नदीम ने अपने अति विशेष संबन्धों का सेतु बनाते हुए कहा।

बीड़ी के सुलगते अंगारे की लाल रोशनी में कुछ देर तक नदीम चोखेलाल के चेहरे को पढ़ता रहा , फिर उसकी खामोशी देखकर बोला , “और कुछ नहीं तो दो- चार

सौ तुम भी लोगे ही बाबा। ’’

इस पर तपाक से चोखेलाल बोला , “अरे कहाँ ! तू नहीं जानता डिप्टी को ...........स्साला भूखा है भूखा। ’’

भारी बूटों से बीड़ी को मसलते हुए चोखेलाल खड़ा हुआ तो नदीम बोला , “ कितने लग जाएंगे पता करना , पर्ची लिख दूंगा। ’’

ओवेरकोट की जेब में हाथ डालकर बिना उत्तर दिये चोखेलाल वार्ड के मेन गेट की तरफ चल दिया।

नदीम जानता था कि किसी भी सिपाही को इस काम के लिए तैयार किया जा सकता है। कौन नहीं चाहता कुछ पैसे बनें , लेकिन क्योंकि चोखेलाल से वह खुला हुआ था इसलिए भी कहने-करने में एक सुविधा थी ! अगर मुश्किल बात थी तो वह यह की अम्मी रुपयों का इंतजाम कर भी पाएगी ?

वह सलाखों से सिर टिकाकर सोचने लगा , “ टाइम तो पूरा हो गया है .........रेहाना के बच्चा हो गया होगा ? लेकिन समझ नहीं आता अम्मी ने नया पता कैसे दिया है क्या मकान मालिक ने निकाल दिया ?”

दो दिन बाद चोखेलाल ने पर्ची ली और पुरानी दिल्ली में पता ढूंढनें लगा।

घंटे भर से गलियों-गलियों के चक्कर लगाते-लगाते उसका माथा भन्ना गया। पाँव बुरी तरह थक गए। वह बड़बड़ाने लगा , “ये साली गली ही खतम नहीं होती , गली के अंदर गली , यही खराबी है पुरानी दिल्ली में ..........यार मैं तो पहले ही मना कर रहा था , नदीम की जिद्द है ......चलो थोड़ी मेहनत तो है पर डेढ़ हजार की पर्ची है , पाँच मैं धर लूँगा ......हजार काफी हैं डिप्टी के लिए .......और वह कर भी क्या रहा है , टांगें तो मेरी टूट रही हैं। ’’

थोड़ा रुककर उसनें दुकान पर खड़े बूढ़े से पता पूछा तो जवाब में बूढ़ा बोला , “नए किराए पर आए हैं क्या ?’’

“ हाँ , हाँ। ’’

“कोई बुढ़िया है क्या ? ’’

“ हाँ , हाँ ,हाँ .....’’

“ ये साथ वाली गली में तीसरा मकान। ’’

गली में मुड्कर चोखेलाल गिनने लगा। “ एक दो और तीन ....यही है। ’’ उसनें बाहर के दरवाजों से भीतर झांककर देखा , मकान के बीचों – बीच आँगन था जिसका फर्श ईंटों का था। उस आँगन में चार दरवाजे खुलते थे।

भीतर ईंटों के फर्श पर खड़े होकर चोखेलाल ने आवाज लगाई , “है कोई ?”

कुछ देर खामोशी छाई रही , फिर दाहिनी ओर का दरवाजा खुला। पुराने तरीके के बने दरवाजे की सांकल बजने लगी। सफ़ेद चिट्टे बालों वाली एक बूढ़ी औरत दरवाजे पर खड़ी चश्में के भीतर से चोखेलाल को देख रही थी। बुढ़िया की इस दृष्टिगत कमी को भाँपते हुए चोखेलाल बोला , “नदीम का घर यही है ?’’

बुढ़िया सीधी खड़ी हो गई और काँपते स्वर में बोली , “ कौन है भई ? ’’

“ मैं जेल से आया हूँ। नदीम ने एक चिट्ठी दी है। ’’ चोखेलाल दरवाजे की ओर घूम गया और बुढ़िया को देखते हुए बोला।

“ तो भीतर आ जा न बेटा। ’’ कमरे के भीतर बढ़ती हुई बुढ़िया बोली। अब उसकी आवाज में वैसा कंपन नहीं था।

चोखेलाल झुककर भीतर कमरे में आ गया। बहुत छोटा सा कमरा था और दीवारों का बड़ा हिस्सा जमीन से आ रही सीलन से नम पड़ गया था। सफेदी कब की झड़ चुकी थी। दीवारों की रेत निकल आई थी और जगह – जगह अजीबो – गरीब आकृतियां – सी बन गई थी। कमरे के एक कोने में स्टोव , चार बर्तन तथा प्लास्टिक के मैले डिब्बे रखे हुए थे , कमरे के बीचों – बीच एक पतला हल्का टाट टंगा था और दूसरी ओर चारपाई पर एक औरत लेटी हुई थी जिसकी पीठ का एक हिस्सा इस ओर से भी दिखाई दे रहा था।

“ बेटा , नदीम कैसा है ? तुम क्या दोस्त हो उसके ?’’ बर्तनों के पास रखे पट्टे को खींचकर बैठते हुए बुढ़िया बोली , “इधर बैठ जा, बेटे। ’’

चोखेलाल दीवार से सटे बक्से पर बैठते हुए बोला , “हाँ सब ठीकठाक है। आप नदीम की माँ हैं न ? ’’

“हाँ बेटे , मैं ही हूँ उस बदकिस्मत की माँ ! ’’ इतना कहने भर से उसकी छोटी – छोटी आँखें आंसुओं से भर गई। अपनी बात को सिलसिले में जारी रखते हुए वह धीरे – धीरे बोलने लगी , “ क्या बताऊँ बेटा , हमारा तो वही सहारा था ..... दिन – दिन गिन रही हूँ मैं , पूरे आठ महीने हो गए है , कैसे-कैसे दिन देखने पड़ रहे है। ’’

वह कहते – कहते रुक गई। सिर नीचे कर हथेलियों से आँखें मलने लगी। सिसकियों की ध्वनि उस छोटे से कमरे में गूंजने लगी। जब बुढ़िया ने सिर उठाया तो उसकी पलकें , आँखें और गालों के उठाव गीले पड़ गए थे। वह फिर बोलने लगी , “ खुदा कसम, वह चोर नहीं है .... बिल्कुल झूठा इल्जाम है ये !जानबूझ कर मुकदमा बनाया है उसपर !....देखना मेरी बददुआ लगेगी , उनका भी कभी भला नहीं होगा ! ’’ फिर से दबा – दबा रोने का स्वर कमरे में फैलने लगा।

चोखेलाल हैरान- सा , बिना हिले- डुले बुढ़िया के झुके हुए चेहरे को देखता रहा।

“ उसके जेल जाने के बाद हमारी बदहाली के दिन शुरू हो गए , पुराना मकान गया , यहाँ बड़ी मुश्किल से इस छोटे से कमरे का जुगाड़ हो पाया है। बुढ़िया ने हाथ हवा में घुमाते हुए कहा , “ बहू को परसों ही बच्चा हुआ है। मैं बुढ़िया तो न भी खाऊँ पर जच्चा को तो चाहिए न , जिसके साथ नन्ही सी जान जुड़ी है। ’’

बुढ़िया के झर-झर बहते आंसुओं को गालों की झुर्रियों के बीच रिसने में किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। कुछ बूंदें चेहरे से नीचे गिरकर कपड़ों में समा रही थी। क्षणभर की खामोशी में उसके सिसकनें की आवाज बनी रही। वह पुराने दुपट्टे के किनारे से दोनों आँखों को पोछते हुए सिसकारियों को जबरन काबू करते हुए फिर कहने लगी, “क्या लिखा है नदीम ने चिट्ठी में ? बेटा जरा पढ़ के सुना।’’

चोखेलाल को काटो तो खून नहीं। जेब से पर्ची निकालकर सोचने लगा, “क्या करूँ ? क्या इस दुखी बुढ़िया से कहा जा सकता है कि चिट्ठी में डेढ़ हजार रुपए लिखे हैं?’’

कमरे में, आँखों के आगे पसरे बेबसी के मंजर और अपने यहाँ आने के प्रयोजन के विरोधाभास से चोखेलाल का मन ग्लानि से भर गया। पल भर को उसको लगा जैसे उसके चेहरे पर चिपकी मासूमियत की परत पिघलकर नीचे खुरदरे फर्श पर फैल गई हो और बुढ़िया अपनी छोटी – छोटी आँखों से सब कुछ देख रही हो। भेद खुलने के डर से उसका चेहरा लाल पड़ गया। पल – पल उसे लगने लगा कि कहीं बुढ़िया उसके मनोभाव को ताड़ न जाए जिसका साक्ष्य उसकी हथेलियों में कागज की पर्ची के रूप में मौजूद था।

निरक्षरता कभी – कभी सामने वाले को भरपूर मौका देती है कि कागज की निर्मम लिखावट को छिपाकर माहौल मुताबिक नए शब्द गढ़ ले। चोखेलाल ने नजर बचाकर बुढ़िया की ओर देखा और फिर कागज की पर्ची पर सिर झुकाकर पढ़ने लगा ,

“ आपको सलाम लिखा है .....और लिखा है , मैं यहाँ ठीक से हूँ , मेरी चिंता नहीं करना। वकील से बात हो गई है वह जल्दी ही जमानत करवा देगा .....हाँ , अगली मुलाक़ात पर खुशखबरी लेकर आना। आपका बेटा नदीम खान। ’’

इतना कहकर चोखेलाल खामोश हो गया। उसने धीरे –धीरे गर्दन उठाकर बुढ़िया के चेहरे पर नजर डाली तो देखा कि चिट्ठी के जवाब में उसकी आँखों से टप- टप आँसू बह रहे थे। बुढ़िया कि तरबतर आंखे देखकर चोखेलाल कि गहरी काली सख्त आँखों के कोरे भी नम हो उठे। वह खड़ा हो गया और बोला , “ आप फिक्र न करें , मैं कह दूँगा जच्चा-बच्चा ठीक-ठाक हैं। ....मैं दोस्त हूँ उसका !....मेरे लायक कोई भी काम हो तो खबर करना। ’’ जेब से पाँच सौ रुपए निकालकर बुढ़िया को देते हुए फिर बोला , “ये रख लो , नदीम ने कहा था कि आपको दे दें। बहुत खर्च होता है ....ऐसे समय में।’’

बुढ़िया ने खड़े होकर चोखेलाल का माथा चूम लिया और दोनों हाथ उठाकर भर्राए गले से बोली , “ अल्लाह ! बेटा जेल में है और ऐसे मौके पर दोस्त बनकर आया है मददगार। ’’

बुढ़िया कि आँखों से आँसुओं का सिलसिला थमने को नहीं आ रहा था। साथ – साथ रोने कि ध्वनि भी धीरे – धीरे रिसने लगी।

“अम्मी, रोओ नहीं ! मै फिर आऊँगा .....अपना ख़याल रखना। ’’ यह कहते – कहते चोखेलाल तेजी से कमरे से बाहर निकल आया , शायद इसलिए कि उसकी आँखें आँसुओं से भर आई थीं।