डॉक्टर जीवन सिंह / महेश चंद्र पुनेठा
(सितम्बर, 2011 का सम्पादकीय)
साहित्य चिंता की अपेक्षा जीवन चिंता को प्राथमिकता देने वाले आलोचक
‘आकंठ’ के वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह पर केन्द्रित अंक (सितम्बर, 2011) का सम्पादन कवि महेश चंद्र पुनेठा ने किया है।
इस अंक का सम्पादकीय:
यदि हम पूरी हिन्दी आलोचना-परम्परा का अवगाहन करें तो हमें दो मुख्य धाराएँ दिखाई देती हैं- पहली जो साहित्यशास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की विवेचना-विश्लेषण करती है और दूसरी वह जो जीवन के गहरे अनुभवों से प्राप्त चेतना के आलोक में साहित्य को देखती है तथा उसका केवल विवेचन-विश्लेषण ही नहीं करती, बल्कि उसे दिशा भी प्रदान करती है। पहली धारा साहित्य चिंता को प्राथमिकता देती है और दूसरी जीवन चिंता को। साहित्य चिंता से प्रेरित धारा रूप पक्ष को महत्व देती है और उसकी प्रेरणा पूरी तरह रचना में निहित रहती है, जबकि जीवन चिंता से अभिप्रेत धारा वस्तु और रूप दोनों को लेते हुए वस्तु पक्ष को अधिक महत्व देती है और जीवन-प्रश्नों की उपेक्षा नहीं करती है। उसके लिए साहित्य विशुद्ध कला नहीं है जहाँ वर्ण-चमत्कार और वर्णन-चमत्कार का बाहुल्य हो, बल्कि जहाँ जीवन की कठोर और कोमल धड़कनें दर्ज हों तथा मुक्ति की पदचापें सुनाई देती हों। डॉक्टर जीवन सिंह आलोचना की दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके यहाँ किसी तरह की व्यूह रचना और उठाने-गिराने का खेल नहीं दिखाई देता है। उन्हें जहाँ जीवन के बड़े प्रश्न और मनुष्यता दिखाई देती है वह उसे अपने विवेचन का विषय बनाते हैं। वह हमेशा साहित्य को अपने समय और समाज की संबद्धता में देखते हैं। उनके लिए जीवन-व्यवहार और जीवन-संदर्भों के सवाल कितने महत्वपूर्ण और अनिवार्य हैं, उनके पूरे लेखन में देखा जा सकता है। ये सवाल उनके लेखन में अंतःसूत्र के तरह निहित हैं। उनका लेखन जीवन प्रश्नों से कहीं भी किनारा नहीं करता। वह अपने आलोचना कर्म में हमेशा इस बात की तलाश करते हैं कि क्या रचनाकार अपनी रचनाओं में जीवन-तथ्यों के मूल तक उतर पाया है, उसने अपने समय की पेचीदगियों को पहचाना है, जन अर्थात सर्वहारा वर्ग के जीवन और मूल्यों की सही विवेचना की है तथा वह जीवन को पूरी गहराई और संश्लिष्टता के साथ व्यक्त कर पाया है। किसी भी कृति का मूल्याँकन करते हुए वह देखते हैं कि प्रस्तुत रचना में-जीवन के किस रूप को प्रधानता दी गई है, किस वर्ग का जीवन उसमें प्रतिबिंबित हुआ है, क्या उसमें शोषक वर्गों के विरूद्ध श्रमिक जनता के हित मुखरित हुये हैं या नहीं, रचनाकार की अपने समय के जीवन से कितनी गहरी एवं व्यापक संपृक्ति है, उनका लेखन जीवन की क्रियाशीलता, जीवन-सौंदय, जीवन-बोध, जीवन की संश्लिष्टता, जीवन की विविधता तथा जीवन की भाषा की तलाश का पर्याय है।
डॉक्टर जीवन सिंह, कवि की निजी ईमानदारी और निजी अनुभूति के स्थान पर उसकी समय और समाज के प्रति ईमानदारी को अधिक महत्व देते हैं। उनकी मान्यता है, इसके लिए जरूरी है कि वह अपनी निजी सीमाओं से बाहर निकलकर जीवन-संग्राम में शामिल रहे । पर यह विडम्बना है कि हिन्दी के कुछ आलोचक एवं विमर्शकार रचनाकार के लिये जीवन संग्राम में उतरना कोई अनिवार्य नहीं मानते। इसी का परिणाम आज हम देखते हैं कि अधिकांश रचनाकार अपने आप को केवल लिखने तक सीमित किये हुये हैं। समय और समाज के प्रति अपने दायित्व को वे केवल वैचारिक अभिव्यक्ति तक सीमित मानते हैं। यह गलत प्रतिमानों को मान्यता देने का परिणाम है। उस ईमानदारी का क्या मूल्य जो समाज को कहीं ले नहीं जाती है। अपनी निराशा, कुंठा, उदासी को ईमानदारी से व्यक्त करने मात्र का समाज की दृष्टि से कोई महत्व नहीं। कुछ आलोचकों ने अनुभूति की प्रमाणिकता और ईमानदारी के नाम पर कविता को कवि के निजी मामले तक सीमित कर दिया। फलस्वरूप अनेक बार अवैज्ञानिक स्थापनाओं को भी महत्व मिला। इसलिये जीवन सिंह बिल्कुल सही स्थापना देते हैं कि ‘ईमानदारी और प्रमाणिक अनुभूति’ के बजाय ‘अनुभूति की व्यापकता और समकालीन सामाजिक यथार्थ’ से कविता को परखा जाना चाहिये। जनता को हिकारत की नजर से देखने वाली ईमानदारी प्रकारांतर से जनता की ताकत को नकारना तथा परिवर्तनकारी ताकतों के प्रयासों को झूठा सिद्ध करना ही है।
जीवन-चिंता के आलोचक होने के कारण उनके सौंदर्य की कसौटी में हमेशा उन लोगों का जीवन है जो श्रम से जुड़े हैं, क्योंकि उनके लिये जो कुछ सौंदर्यपूर्ण है वह मनुष्य के श्रम की देन है। प्रकृति के सौंदर्य के समानान्तर इस पृथ्वी पर मनुष्य ने जो कुछ सौंदर्यपूर्ण सर्जन किया है उसमें मनुष्य के श्रम की मुख्य भूमिका है। जीवन और दुनिया से प्रेम करने वाला व्यक्ति ही सामान्य जन और उसके जीवन के प्रति इस तरह के भाव रख सकता है। उनकी मानवीय श्रम पर गहरी आस्था है। वह मानते हैं कि मानवीय श्रम के बिना कुछ सम्भव नहीं है। लेकिन यह हमारी संकीर्णता और स्वार्थबद्धता है कि श्रम को हमेशा दरकिनार करते हैं और आधुनिक ज्ञान प्रक्रिया को इतना बढ़कर मानते हैं कि श्रम की क्रूर उपेक्षा करने में कोई संकोच नहीं बरतते। उनका विश्वास है कि कभी फिर समय आएगा जब श्रम के दर्शन के अनुसार दुनिया बदलेगी और पूँजी और बाजार का वर्चस्व खत्म होगा। वह मेहनतकश को अपना सच्चा साथी कहते हैं और उसकी पक्षधरता स्वीकारते हैं। एक जनसम्बद्ध साहित्यकार ही ऐसा कह सकता है। यह उनकी ताकत भी है। उनका उद्देश्य अपनी आलोचना द्वारा कला और श्रम के बीच पैदा किये गये अलगाव को दूर कर सौंदर्यबोध को उसकी मानवीयता में स्थापित करना हैं जिसमें वह सफल भी रहे हैं। वह श्रम और पूँजी के संबंध की सच्चाई को खोलने का काम अपनी आलोचना में करते हैं।
वह मानते हैं कि जब एक रचनाकार के भाव का स्तर, इस जगत की सारी संकीर्णताओं, संकुचितताओं और स्वार्थबद्धताओं का अतिक्रमण कर, विशुद्ध रूप से मानवीय स्वरूप ग्रहण कर लेता है, तो समकालीन और सच्ची कविता को जन्म देता है। कवि का सामान्य जन के भावभूमि से एक रिश्ता कायम होना चाहिये। उसे सामान्य जन से संबंधित सम्पूर्ण परिस्थितियों के बीच से होकर गुजरना चाहिये। इस दौरान उसे केवल उसकी दुरावस्थाजन्य विषमता और वेदना को ही नहीं वरन् उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति, वर्ग और व्यवस्था की पहचान भी जरूरी है। वह कुछ उदाहरणों के द्वारा भी अपनी इस बात को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं- ‘बड़े रचनाकार हर युग में इस तरह की स्थितियों से गुजरे हैं। कबीर अपने जमाने में सामान्य जन और उसकी दुरावस्था के पक्ष से, उस समय के पंडे और मौलवी से बहस करने से नहीं चूकते। तुलसी भी अपने समय के सामान्य जन की पीड़ा की अनदेखी नहीं करते।’ वह बहुत सही कहते हैं कि ‘पद्मावत’ की नागमती जब अपना रानीपन भूलकर सामान्य स्त्रियों की भाँति विरह-दग्ध होती है, तभी उसका वास्तविक रूप सामने आता है। रानीपन की विशिष्टता और आभिजात्य में वह काव्य चरित्र नहीं बन पाती। मीरा भी मीरा तभी बनती है, जब वह राजमहलों की पटरानी न बनकर, सामान्य जनजीवन की भावनाओं से एकाकार कर उनमें घुलमिल जाती हैं। इस तरह वे साधारणता के सौंदर्यशास्त्र को महत्व देते हैं।
वह जीवन की सच्चाई से वे मुँह नहीं मोड़ते हैं। उनकी आलोचना में वास्तविक जीवन-सौंदर्य का अन्वेषण कर आवृत्त सत्य को उद्घाटित करने की सतत् प्रक्रिया चलती रहती है। वह लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों और उसके सांस्कृतिक आचरण की प्रतिष्ठा अपनी आलोचना द्वारा करते हैं। यहीं पर वह पक्षधरता का सवाल भी उठाते हैं। उनका मानना है कि इसके बिना जीवन और समाज की जटिलता एवं वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता है। उनकी दृष्टि में जीवन साहित्य के लिये नहीं बल्कि साहित्य जीवन के लिये है। वह नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, मुक्तिबोध आदि को अज्ञेय से इसलिये बड़ा कवि मानते हैं कि उनके यहाँ साहित्य की अपेक्षा जीवन की चिन्ता अधिक दृष्टिगोचर होती है। उनका मानना है कि इनकी कविताओं में जीवन की धड़कन सुनाई देती है। यहाँ जीवन के चित्र विविधता एवं गहराई लिये हुये हैं। ये कवि केवल जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं के चित्र ही नहीं उकेरते, बल्कि उनसे बाहर निकलने की राह भी बताते हैं। यदि वह अज्ञेय, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, श्रीकांत वर्मा, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह आदि कवियों तथा ‘कविता के नये प्रतिमान’ रचने वाले नामवर सिंह और नवलकिशोर नवल व अशोक वाजपेयी जैसे आलोचकों से सहमति नहीं रखते हैं तो उसका कारण उनकी जीवन चिंता ही है। वह इनकी रचनाओं का विश्लेषण कर बताते हैं कि इनके यहाँ जीवन समग्रता के साथ नहीं आता है। जीवन की सम्पूर्णता की इनकी रचनाओं में घोर उपेक्षा हुई है। इसका सीधा कारण है उनकी अपने समय के जीवन में पैठ न होना । इन कवि-आलोचकों द्वारा उस समृद्ध हिन्दी काव्य परम्परा की अनदेखी की गई है जो अपनी देशी तथा लोक जीवन से सम्बद्ध जीवन-यथार्थ तथा सौंदर्यानुभूति की उपज है। इनके द्वारा कविता को जीवन की विसंगति एवं विडम्बनाओं के चित्रण एवं आलोचना को उसके विवेचन तक सीमित कर दिया है।
‘कविता के नये प्रतिमान’ के सन्दर्भ में जीवन सिंह यदि यह कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं कि दरअसल कवि मोहग्रस्त नहीं था, आलोचक मोहांध हो गया था। उसकी कसौटी में खोट आ गया था। उसने जो ‘प्रतिमान’ रचे और उसकी जो आधारभूमि तैयार की, वह अपनी भूमि के यथार्थ से कम, परायी भूमि के प्रभाव की गिरफ्त में ज्यादा थी। वह कविता की अंतर्वस्तु पर आधारित रूप विन्यास से ज्यादा रूप पर आधारित अंतर्वस्तु से मुग्ध हो गया था। उसने रूप पर आधारित प्रतिमानों को रूपवादी संरचना में कुछ इस तरह की कलाकारी से प्रस्तुत किया था कि पाठक अपनी-अपनी भावना के अनुरूप प्रभु की मूर्ति के दर्शन कर लें।’ यदि ऐसा नहीं होता तो प्रतिमानों के रचे जाते वक्त आलोचक की नजर में नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार सरीखे वे कवि अवश्य होते जिनके यहाँ न केवल जीवन की विसंगति-विडम्बना तथा व्यापक सामाजिक अनुभव ऐतिहासिक एवं द्वंद्वात्मक दृष्टि से व्यक्त हुये हैं बल्कि उन ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल भी गहराई से हुई जो उन विसंगति-विडम्बनाओं के लिये जिम्मेदार हैं। यह दुःखद है कि कुछ कवि-आलोचक डॉक्टर जीवन सिंह की इस आलोचना को विध्वंसात्मक आलोचना या ‘निंदा ही निंदा’ की आलोचना मानते हैं। मैंने जहाँ तक जीवन सिंह जी के आलोचना कर्म को जाना-समझा है उसके आधार पर कह सकता हूँ कि उनकी आलोचना में ऐसे अनेक प्रकरण आते हैं जहाँ वह उक्त कवियों तथा आलोचकों की प्रशंसा करते हैं तथा उनके साहित्यिक अवदान को स्वीकारते हैं। क्या किसी रचनाकार की सीमाओं की ओर ध्यान दिलाना उसका ध्वंस करना होता है ? क्या आलोचना का काम केवल प्रशंसा ही प्रशंसा करना मात्र है? आलोचना मीठी ही मीठी नहीं होती है। कृति की सीमाओं या कमजोरियों को बताना भी आलोचक का धर्म होता है। किसी रचनाकार की सीमाओं की ओर संकेत करने का मतलब उसे खारिज करना नहीं होता है। इससे तो रचनाकार और साहित्य दोनों का ही हित होता है और अंततः समाज का । रचना हो चाहे आलोचना उसमें यदि विसंगतियों को उभारा जाता है तो उसका उद्देश्य उन विसंगतियों को दूर करना होता है। यदि हम किसी विसंगति को नजरअंदाज करते हैं तो उसका आशय है उसे बने रहने देना है। एक अच्छी आलोचना का काम है रचना की विसंगतियों को रेखांकित करना ताकि आगे उन्हें दूर किया जा सके। इस तरह की आलोचना को विध्वंसात्मक आलोचना कहना कहीं न कहीं आलोचना को पथ विचलित कर उसको भ्रष्ट करना है।
जीवनानुभवों की व्यापकता व विस्तृत एवं विविध क्रियाधर्मीं जीवन का समर्थन जीवन सिंह जी की जीवन चिंता से ही उद्भूत है। उनका मानना है कि सौंदर्यबोध का गहरा रिश्ता लेखक का जीवनानुभवों तथा विश्वदृष्टि से रहता आया है। विश्व दृष्टि और जीवनानुभवों की व्यापकता के अभाव में लेखक का सौंदर्यबोध भी जागतिक संकीर्णताओं से नहीं उबर पाता। इसके लिए वह जीवन से निकट सम्पर्क जरूरी मानते हैं। अपनी पुस्तक ‘कविता और कवि कर्म’ में एक स्थान पर वह लिखते हैं- ‘कविता दरअसल कवि पहले अपने जीवन में रचता है। जो कवि अपने जीवन में कवि नहीं वह कविता में भी वैसे ही हानि-लाभ के जोड़-तोड़ बिठाता है जैसे अपने जीवन में।….जो कविता जीवन की सहजताओं के जितनी नजदीक होगी वह उतनी ही दीर्घायु और कालजयी होगी।’ मध्यवर्गीय कवियों में यह आज कम होता जा रहा है। इसी का परिणाम है उनकी कविता में सरसता एवं जीवंतता की कमी दिखाई देती हैं। ये कविताएं एकरस व एकरूप होती जाती हैं। डॉक्टर सिंह तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, मीरा, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, कुमारेंद्र, विजेंद्र, मानबहादुर सिंह, ज्ञानेंद्रपति, मदन कश्यप, एकांत श्रीवास्तव, केशव तिवारी आदि कवियों का उदाहरण देकर बताते हैं कि उनकी कविता की श्रेष्ठता का कारण कहीं न कहीं उनकी जीवन से निकटता ही है। इनकी कविताओं में वाग्वैधग्दता, क्रीड़ा-कौतुक और अर्थ-चमत्कार के लिये कोई स्थान नहीं है। ये कवि उन्हें इसलिये प्रभावित करते हैं क्योंकि इनकी कविताओं में जीवन का ताप और जीवन के संघर्ष हैं।
कविता में जीवन की तलाश करते हुए डॉक्टर जीवन सिंह कवि के जीवन तक पहुँच जाते हैं। कवि के जीवन को उसकी रचना से अलग नहीं रखते, क्योंकि उनका मानना है एक सार्थक और बड़े रचनाकार का संघर्ष मूल्य के स्तर पर उसके जीवन व्यवहार से प्रारम्भ होता है। कविता को यदि हमें बचाना है तो उसे पहले अपने जीवन में बचाने के लिये काम करना होगा। प्रलोभनों, लालचों के सामने आत्मसंघर्ष करना होगा। यदि हमारे जीवन में कविता नहीं है तो वह शब्दों में रचित कविता में कैसे बच सकेगा, हमारे जीवन का भीतरी स्वर ही बाहर की शब्द रचित कविता के स्वर को पकड़ता है । जहाँ यह स्वर नहीं है वहाँ कविता की कोई जरूरत नहीं । इस तरह वह जीवन और कविता की एैक्यता को देखते हैं। इस तरह वह उस आलोचना परम्परा के वाहक है जो किसी रचनाकार का मूल्याँकन करते हुये उसके जीवन को उसके कृतित्व से अलग नहीं रखती। उनका दृढ़विश्वास है कि कोई भी कलाकार उसी स्थिति में आत्म साक्षात्कार या आत्मसंभवा अभिव्यक्ति करने में सक्षम होता है जबकि उसने अपने जीवन में स्वयं उदात्त स्थिति को प्राप्त कर लिया हो। जिन रचनाकारों की आत्मसंस्कृति अपनी विकारग्रस्तता में संकुचित रहती है, वे अपनी रचनाओं में उत्कृष्ट स्थिति को नहीं पहुँच पाते।
डॉक्टर सिंह को अपनी परम्परा और लोक जीवन का गहरा एवं व्यापक ज्ञान है जिसके चलते ही वह किसी रचनाकार के अपनी परम्परा-क्लैसिक एवं लोक जीवन के अपरिचय को एकदम ताड़ लेते हैं। उनकी रचनाओं में उन्हें जीवन और कविता की फाँक तुरन्त दिखाई दे जाती है। यह उन्होंने सायास अर्जित किया है। उनकी जीवन की उबड़-खाबड़ घाटियों में गहरी पैठ एवं उसकी यथार्थ की जटिलताओं की खूब समझ है जिसके कारण वह उन कवियों को बहुत जल्दी पकड़ लेते हैं जो कविता में बनावटी जीवन का चित्रण करते हैं तथा विचारवक्रता और प्रतीकात्मकता से काम चलाना चाहते हैं।
वह एक कवि-आलोचक के लिये जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण आवश्यक मानते हैं- ‘आज की कविता में जो बड़ी कमजोरी है, वह कवि द्वारा कविता रचने के लिये किये जाने वाले निरीक्षण की कमी की वजह से है। आज के ज्यादातर कवि, कुछ प्रचलित काव्य सूत्रों, फार्मूलों और कला योजनाओं की काव्यरीति के बल पर कविता रचने में लगे हुये हैं। इससे कविता में सरसता के स्थान पर सूखे जैसा माहौल व्याप्त है। जो कविता जीवन के निरीक्षण से रची जाएगी, उसमें अपने आप सरसता का वेग आता जाएगा ।’ उनका यह कथन बिल्कुल तर्क संगत है कि किसी भी जीवन स्थिति या कला जगत में उस समय रीतिवाद की स्थिति पैदा हो जाती है जब वह जीवन-क्रियाओं के निरीक्षण से अपना नाता तोड़ लेता है। वह जीवन-अनुराग रखने वाले आलोचक हैं इसलिए जीवन-संबंधों, जीवन-रूपों तथा जीवन-क्रियाओं के इंद्रियबोधात्मक ज्ञान एवं भाव प्रसार से बिम्ब ग्रहण करने पर अधिक बल देते हैं। उसे कविता की सृजनात्मकता को जानने की कसौटी बनाते हैं- ‘यदि कवि अपने समय के जीवन और जीवन संबंधों, रूपों, एवं उसकी जटिलताओं को मात्र एक नये सोच के रूप में और वक्रताओं में व्यक्त करता है तथा कहीं-कहीं सतही एवं चलताऊ बिम्बात्मक सक्रियता भी दिखला देता है तो समझा जा सकता है कि वह कविता के चालू मुहावरे को उड़ाकर कवि बनने चला है, जीवन की समग्रता में गहरी पैठ के आधार पर नहीं।’
वह ऐसे आलोचक हैं जो जीवन को नजदीक से देखते हैं और पहचानते हैं। मुक्तिबोध के इस कथन पर कि ‘साहित्य विवेक मूलतः जीवन विवेक है’ पर उनकी गहरी आस्था है। उनका मानना है कि जिस रचनाकार का जीवन का अनुभव जितना व्यापक होता है उसका साहित्य उतना ही प्रमाणिक एवं जीवंत होता है। एक रचनाकार को अपने समय या समकाल को समझने के लिये न केवल भावना या सम्वेदना के स्तर पर एक व्यापक और बुनियादी क्रियाशील संसार की आंतरिकता का अनुभव करना पड़ता है वरन् उसके यथार्थ की जटिल तहों तक जाने के लिये उससे जुड़े सामाजिक, आर्थिक और दार्शनिक प्रश्नों की गुत्थी को भी सुलझाना पड़ता है। उनकी जीवन के प्रति रागात्मकता को इस कथन में भी देखा जा सकता है कि सच्ची सौंदर्य की सृष्टि लोक-जीवन के तादात्म्य से ही होती है। लोक जीवन की अनुभूति जितनी व्यापक एवं गहरी होगी कविता का सौंदर्य उतना ही अधिक निखरता है। वह इस बात को चिह्नित करते हैं कि तुलसी, कबीर, सूर, जायसी, मीरा आदि के काव्य में जो सौंदर्य की सृष्टि हुई है उसका कारण इन कवियो की लोकभूमि से सम्बद्धता है। जब-जब कविता ने इसे छोड़ा है तब-तब न केवल संकुचित हुई बल्कि कला के ऊँचे आसन से भी गिर गई। उनकी आलोचना इस तरह कविता में सौंदर्य की लोक सृष्टि करती है। आखिर ऐसा कौन करेगा! वही ना जो लोक से सम्बद्ध हो। जिसका मन लोक में रचा-बसा और रमा हो। जिसे लोक से सच्ची प्रीत हो। मानवीय मूल्यों और श्रम के प्रति जिसकी गहरी आस्था हो। ठालप जीवन जीने वाले किताबी आलोचक ऐसा नहीं कर सकते हैं। वह मानते हैं कि शास्त्र की उत्पत्ति लोक से हुई। लोक के विवेचन से जिन नियमों-उपनियमों का निर्माण हुआ उसे शास्त्र कहा गया। शास्त्र में रूढ़ि है तो लोक में खुलापन होता है। जीवन की तरह कला एवं साहित्य रूपों को भी शास्त्रीयता की जकड़बंदी से मुक्ति आवश्यक होती है। शास्त्र और लोक दोनों का उन्हें गहरा ज्ञान है पर हमेशा शास्त्र के ऊपर लोक को ही रखते हैं। उन्होंने लोकभूमि के सूत्र को काव्य और काव्य चिंतन की अपनी परम्परा के भीतर से पकड़ा है। पर वह लोक जीवन में व्याप्त रूढ़ियों और अंतर्विरोधों की अनदेखी नहीं करते। यह उनकी जीवन चिंता का ही प्रमाण है कि वह मानते हैं कि मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अंतर्विरोध मनुष्य के रूप में अमनुष्य होते जाना है। मानवीय मूल्यों में ह्रास उन्हें कचोटता है। वह अपने लेखन में हमेशा उसे बचाने की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि मनुष्यता की सृष्टि और फैलाव जितना ज्ञानसत्ता से होता है उतना ही मनुष्य की भावसत्ता से । इन दोनों के बीच संतुलन और द्वंद्वात्मक रिश्ता होना जरूरी होता है। मनुष्य की भावसत्ता को स्थापित करने के लिए लोक के मूल को पकड़े रहना पड़ता है। उनके लिये लोक वह क्रियाशील सामूहिक जीवन है जो अपने श्रम प्रक्रिया में आज भी मानवीय भावसत्ता को बचाए हुये है । उसकी सहजता को बचाये है। जीवन सिंह लोक से बोध एवं भाव दोनों स्तरों पर जुडे़ हैं । उनके लिये लोक सजावट की चीज नहीं है। वह लोक जीवन और प्रकृति को रचना के लिये महत्वपूर्ण मानते हैं।
जीवन-चिंता के चलते जीवन सिंह ने कभी-भी अपने लेखन को पद-प्रतिष्ठा प्राप्ति की सीढ़ी नहीं बनाया। कभी इस बात की परवाह नहीं की कि उनके लेखन से कौन प्रसन्न और कौन नाराज होगा ? पूरी ईमानदारी के साथ आलोचना कर्म में संलग्न रहे हैं। साहित्य और समाज के प्रति उनकी गम्भीरता एवं प्रतिबद्धता कम नहीं हुई। उनके डायरी के पन्नों तथा पत्रों से भी हमें पता चलता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं, उनकी चिंताओं के मूल विषय कौन से हैं। उन्होंने हमेशा उन बातों को कहा जो उन्हें मनुष्यता के पक्ष में लगीं। उन्होंने साहित्य के अभिजात्य केन्द्रों की कभी परवाह नहीं की। इसी का परिणाम उन्हें उपेक्षा के रूप में झेलना पड़ा। पर उन्हें इस बात का भी कोई मलाल नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं कि इसके बारे में उन्हें पहले से पता नहीं था। वह तो इसे अपने संघर्ष का एक हिस्सा मानते आये हैं। जहाँ पूरा लोक ही हाशिए में है वहाँ उसके रचनाकारों का हाशिए में होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। इन खतरों को उन्होंने जानबूझ कर उठाया है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह लोक की लड़ाई को इतने आगे तक भी नहीं ले जा पाते। इतनी बेवाकी एवं साफगोई से अपनी बात नहीं कह पाते।
जीवन चिंता को प्राथमिकता देने का मतलब यह नहीं है कि वह कला पक्ष की उपेक्षा करते हों । उनके लिए रचना का न वस्तु पक्ष उपेक्षणीय है न कलापक्ष, न ही जीवन मूल्य उपेक्षणीय हैं और न कला मूल्य। वह इन सब का संतुलन बनाकर ही आगे बढ़ते हैं। जीवन की गहरी एवं व्यापक समझ वाला व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है, क्योंकि जीवन की सम्पूर्णता इन सब से मिलकर ही है। वह कवि की कला में ही उसकी स्वायत्तता देखते हैं। उनकी स्थापना है कि एक अच्छी रचना रूप और वस्तु के द्वंद्व से ही पैदा होती है। कविता और आलोचना के क्षेत्र में आये वाक्छल जिसने साहित्य को आम आदमी के यथार्थ से अलग कर समाज में विभ्रम की स्थिति पैदा की, को उद्घाटित करने से वह कहीं और कभी नहीं चूकते हैं।
वह सामाजिक क्रियाओं की जटिलता में जीवन यथार्थ की पड़ताल करते हैं, इसलिए शब्द-शिल्प के जाल में नहीं फँसते बल्कि बुनियादी, उत्पादक, क्रियाशील एवं वास्तविक समाज, मानवीय और अमानवीय ताकतों के यथार्थ को उद्घाटित करते हैं। इस तरह समकालीन यथार्थ को समग्रता में उजागर करते हैं। यही कारण रहा है कि उनके आलोचना कर्म केन्द्र में हमेशा जीवनधर्मी यथार्थवादी कविता-परम्परा रही है। अधूरी एवं खंडित अभिप्राय वाली कविता को कटघरे में खड़ा करते रहे जिसके चलते हुये उन्हें जड़ीभूत सौंदर्याभिरूचि वाले कलावादी आलोचकों का कोपभाजन बनना पड़ा है।
यह उनकी जीवन के प्रति प्रतिबद्धता ही है कि कविता को परखने के औजार भी जीवन से ही लेते हैं । लोकधर्मी प्रतिमानों को लेकर उनकी मान्यता है कि वे श्रम की संस्कृति और सौंदर्यभावना से उत्प्रेरित हैं। लोक की साधारणता, सहजता, सक्रियता और उन्मुक्तता ही वह कसौटी हो सकती है जो किसी भी समय की कविता को परखने का काम कर सकती है क्योंकि साधारणता, सच्चाई, सक्रियता, सहजता आदि का नाम ही तो लोकजीवन है जहाँ किसी तरह का कोई आडम्बर व पाखंड नहीं। पर वह इस बात से भी वाकिफ हैं कि संबंधों की निरंतर आती और बढ़ती जा रही जटिलता को इतने मात्र से परख-जाँच पाना सम्भव नहीं है। उसके लिए अर्थ, समाज, राजनीति आदि की अपर सम्बद्धता से मानव निर्मित मानव-मन और व्यवहार की भीतर तक जाँच जरूरी है।
एक आलोचक का जीवनानुभव एक रचनाकार के जीवनानुभवों से अधिक होने चाहिये तब ही वह रचना का सही-सही मूल्याँकन कर सकता है। जो आलोचक केवल रचना के द्वारा ही जीवन को जानता है स्वयं उस जीवन से अपरिचित है तो वह रचना के साथ न्याय नहीं कर सकता है। आलोचना को रचना से अधिक गहरे स्तर पर समाज से जुड़ा होना चाहिये। तभी वह समाज से रचना के जुड़ाव का सही मूल्याँकन कर सकती है। इधर के आलोचकों में इस बात की कमी दिखाई देती है। जीवन से जुड़ाव की कमी के चलते ही आज की आलोचना लोकधर्मी और जनपदीय चेतना के साहित्य की उपेक्षा करती है। आलोचना मध्यवर्गीय जीवन के आसपास ही घूमती रह गई है। लेकिन जीवन सिंह की आलोचना जनपदीय जीवन और प्रकृति के प्रति रागात्मकता पैदा करती है। इसका कारण यह है कि वह अपनी आलोचना के केन्द्र में उन कवियों और कविताओं को रखते आये हैं जो लोकधर्मी और जनपदीयता बोध से लैस हैं। उनकी कविता में मनुष्य, समाज, प्रकृति और जीवन के प्रति राग-विराग गहराई से व्यक्त हुआ है। उन्हें जनपदीयता जीवन में भी और साहित्य में भी अपनी ओर आकर्षित करती है क्योंकि भले वहाँ जीवन के बड़े प्रश्न चाहे न निकलकर आयें हों किंतु कुछ बुनियादी व आधारभूत प्रश्नों को यहाँ कई तरह और कई कोणों से लाया गया है। उनकी दृष्टि में जनपद की महक सनी और लोकरंग में रंगी कविता का महत्व इस तथ्य में है कि वह ‘व्यक्ति के मनोवेगों पर असर डालती है।’
उनका मानना है कि पूँजी द्वारा निर्मित नए माहौल में आदमी पत्थर जैसा जड़ और संवेदना शून्य बनने की स्थिति में आ गया है। आदमी इससे कैसे बचे ? इसका उत्तर महानगरीय सभ्यता और पूँजीवादी दर्शनों के पास नहीं है। वहाँ जीवन की जटिलताएं और मनोगत उलझनें तो बहुत हैं लेकिन इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। उन्हें इसकी गुंजाइश जनपदीय जीवन में दिखाई देती है, क्योंकि जनपद की खासियत होती है जन की प्रकृति से सम्बद्धता । यह सम्बद्धता जहाँ उसे एक ओर जीवट का धनी और संघर्षशील बनाती है वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक एवं सम्वेदनशील बनाती है। प्रकृति उसे मानवीय स्वभाव के समीप बने रहने की ठोस स्थितियाँ प्रदान करती है। प्रकृति के अपूर्व सौंदर्य के बीच मानवीय सौंदर्य का भी बराबर अहसास बना रहता है। भरपूर क्रियाशील जीवन से जीवंत संबंध बना रहता है। प्रकृति की कठिन परिस्थितियाँ एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के महत्व का अहसास भी कराती हैं। सामूहिकता के महत्व को बताती हैं। जबकि पूँजी निर्मित महानगरीय सभ्यता सबसे पहले आदमी का प्रकृति से और उसके बाद मानवीय प्रकृति से अलगाव करती जाती है। डॉक्टर जीवन सिंह प्रकृति के इस महत्व को स्वीकार करते हैं और रचना में प्रकृति को अधिक से अधिक स्थान देने के पक्षधर हैं। उनके लिए जीवन का प्रसार केवल मनुष्य तक नहीं है उसके चारों ओर की प्रकृति भी इसमें शामिल रहती है जो जीवन को गतिशील बनाती है।
जीवन सिंह की आलोचना के महत्व को कम करने की नीयत से अक्सर व्यंग्यात्मक रूप से कहा जाता है कि वह कवि विजेंद्र के आलोचक हैं । पहले तो उनके बारे में यह कहना उनका सीमित मूल्याँकन है क्योंकि जिसने उनकी आलोचना को समग्र रूप से पढ़ा है वह जानते हैं कि उन्होंने कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, कुमारेंद्र, मानबहादुर सिंह, ज्ञानेंद्रपति सहित उन तमाम वरिष्ठ-कनिष्ठ कवियों की कविता पर भी लिखा है जिनकी कविता जीवन व लोकधर्मी प्रतिमानों में खरी उतरती है। उन्होंने जितना कवि विजेंद्र की कविता पर लिखा है उससे कम मुक्तिबोध, नगार्जुन, त्रिलोचन, केदार पर नहीं लिखा है। इसलिये उनको एक कवि विशेष का आलोचक बताना कहीं न कहीं उनका गलत एवं अधूरा मूल्याँकन है। यह सौतिया डाह का परिचायक है। फिर भी यदि किसी को लगता है कि उन्होंने कवि विजेंद्र को कुछ अधिक महत्व दिया तो इसमें भी असंगत क्या है? विजेंद्र हमारे समय के एक समर्थ कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की गहराई एवं व्यापकता के दर्शन होते हैं। कविता हो या गद्य उसमें लोक की पक्षधरता और लोक-जीवन की धड़कनें साफ-साफ सुनाई देती हैं। विचारबोध, इंद्रियबोध और भावबोध का एक सही संतुलन उनकी कविताओं में दिखाई देता है। अपनी आलोचना में जीवन सिंह कविवर विजेंद्र को जो महत्व देते हैं, वह व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि अपने जन, जनपद और उसकी प्रकृति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा के चलते ही है। डॉक्टर रामविलास शर्मा ने कवि निराला पर सबसे अधिक लिखा है पर उन्हें ‘निराला का आलोचक’ क्यों नहीं कहा जाता है?
अंत में, यही कहा जा सकता है कि जो आलोचक अपने समय और समाज की जटिलताओं को जितनी गहराई एवं व्यापकता से समझाता है वह उतनी ही अच्छी तरह रचना की जटिलता को खोल पाता है तथा उसका उतना सही विश्लेषण कर पाता है। जीवन सिंह यह काम बखूबी कर पाते हैं क्योंकि उन्हें अपने समय, समाज एवं जीवन की गहरी एवं व्यापक समझ है। वह चीजों को केवल ऊपरी तौर पर नहीं देख़ते हैं बल्कि उसके भीतर तक पैठ उसे खंगालते हैं तथा ऐतिहासिक-भौतिकवाद और द्वंद्वात्मकता की कसौटी पर कसते हैं, एकांगी रूप में कोई निर्णय नहीं लेते है। उन्हें अपने इतिहास, परम्परा एवं संस्कृति की भी गहरी समझ है। इस सबको देखने की उनके पास लोक दृष्टि है। वह हमेशा लोक के पक्ष में खड़े होकर देखते हैं। वह लोक की क्रियाशीलता और सामूहिकता के मूल्य को कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने देते। साथ ही व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता का भी सम्मान करते हैं। उनका लोक पक्ष में खड़ा होना प्रकारातंर से जीवन के पक्ष में खड़ा होना है। उनकी मान्यताओं-स्थापनाओं-निष्कर्षों से असहमति हो सकती है पर उनकी जीवन के प्रति निष्ठा और जन के प्रति प्रतिबद्धता असंदिग्ध है। इसका प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि इस अंक के लिए सामग्री जुटाने के दौरान मैंने जिन भी साहित्यिकों से उन पर लिखने का अनुरोध किया] उस पर जो उत्साह और आत्मीयता का इजहार उनकी ओर से देखने को मिला वह अद्भुत था। वह केवल एक ईमानदार, प्रतिबद्ध व निष्ठावान व्यक्ति के प्रति ही सम्भव था।