डॉली की डोली : उपदेश विहीन सार्थक मनोरंजन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
डॉली की डोली : उपदेश विहीन सार्थक मनोरंजन
प्रकाशन तिथि :20 जनवरी 2015


अरबाज खान की निर्माण की गई आैर उमाशंकर सिंह की लिखी 'डॉली की डोली' की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह इस कदर मनोरंजक आैर युवा पसंद को आंक कर बनाई गई है कि इसमें कहीं भी कोई उपदेश नहीं है, कोई नैतिकता का पाठ नहीं है। इतना ही नहीं कहीं किसी गहराई का संकेत भी नहीं है। यह फिल्म जो नहीं कहती, वह काफी हद तक महत्वपूर्ण है परंतु फिल्मकार ने सब कुछ दर्शक की अपनी अभिरुचि पर छोड़ दिया आैर यही इस दौर की मांग है। अब कोई किसी की सुनना नहीं चाहता, सब अपनी बात कहना चाहते हैं गोयाकि पूरा विश्व ही नक्कारखाना है परंतु इसमें तूती की आवाज थोड़े से प्रयास से सुनी जा सकती है। अपरोक्ष रूप से यह फिल्म दहेज विरोधी हैं आैर शादी के आडम्बर को भी इस विषय में अपनी खामोशी से नकारती है। यह बात भी फिल्म में किसी सतह के नीचे छुपाई भी नहीं है, संकेत भी नहीं परंतु, शादी का केंद्रीय विचार होना ही सोचने के लिए काफी है।

दूसरी विशेषता यह है कि सारे चरित्र जीवन से उठाए लगते हैं, कहीं कोई अनजाना नहीं है। ये सारे चरित्र किसी सुधार की प्रतीक्षा में भी नहीं हैं, वे बदलना ही नहीं चाहते गोयाकि नारेबाजी वाले परिवर्तन के खोखलेपन से वाकिफ हैं। जो पात्र इसमें ठगे जा रहे हैं, वे बार-बार ठगे जाने को बेकरार लगते हैं। हरियाणा के धनाढ्य गन्ने उपजाने वाले का बेटा ठग के नए ठिए पर जा पहुंचता है परंतु उसे पुलिस के हवाले नहीं करता, वरन् दूसरे मौके का 'पानी भरी थाली में चांद की छवि' के साथ हाजिर है आैर कमाल है कि इस बार ठगनी उसे दूध के बदले पानी में ही नशा भरकर देती है। यह ठगनी अपनी ठगी विद्या के प्रति इतनी समर्पित है कि उसे पहली बार ठगकर उसे इस पथ पर जाने के लिए बाध्य करने वाला पश्चाताप स्वरूप उसे ग्रहण करने को आतुर है परंतु वह स्वयं इस तथाकथित पत्नी नामक 'सादर हैसियत' को नकार कर फिर अपनी ठगी यात्रा पर रवाना हो जाती है। यद्यपि इस युवा मनोरंजन से लवरेज फिल्म का फणीश्वरनाथ रेणु आैर शैलेंद्र की गहरी गंभीर 'तीसरी कसम' से कोई संबंध नहीं है परंतु उस महान फिल्म में नौटंकी की अभ्यस्त हीराबाई सच्चे प्रेम के लिए भी नौटंकी नहीं छोड़ सकती जैसे उसका गंवई गांव का माटी सा मासूम गाड़ीवान प्रेमी हीरामन गाड़ी चलाना नहीं छोड़ सकता आैर वे दोनों प्रेमी रेलगाड़ी पर जुदा होते हैं। इस फिल्म के अंतिम शॉट में भी ठगनी अपने दल सहित ट्रेन में सवार हैं अगले शिकार के लिए। क्या यह संभव है कि 'रेणु' की तरह उमाशंकर सिंह भी बिहार के हैं, इसलिए यह साम्य गहराता है। कोई ताज्जुब नहीं कि सफलतम रेल मंत्री भी बिहारी ही थे। बहरहाल अनेक दुनियावी ढकोसले आैर स्वांग पुरुष के पौरुष आैर मर्दानगी के मिथ से जन्म लेते हैं।

इस फिल्म का श्वसुर भी युवा बहू से दूध का गिलास लेते हुए उंगली छू ही लेता है। यह फिल्म प्रेम आैर विवाह के नाम पर पाखंड किए जाने के स्वांग की कहानी है आैर सारे पात्र जानते हैं कि वे धन कमाने के लिए अपनी भूमिकाआें का निर्वाह कर रहे हैं, फिर भी 'भाई' का पात्र अभिनीत करने वाला पात्र नायिका से सच्चा प्रेम करने को इस तरह अभिव्यक्त करता है कि वह 'भाई' की भूमिका नहीं करेगा। यह रिश्तों की पृथ्वी के भीतर के ज्वालामुखी को देखिए कि वह अपनी प्रेयसी का 'भाई' नहीं कहलाना चाहता। तमाम बनावटों के बावजूद मानवीय रिश्तों में कोई सच्चाई ताे है जो लाख परदेदारी के बावजूद उजागर हो जाती है। यह लेखक का कमाल है कि इस मजबूर आशिक पात्र को एक परिस्थिति में सचमुच 'भाई' की भूमिका करनी पड़ती है। हैरानी है कि भाई-बहन के पावन रिश्ते का इस्तेमाल भी एक गाली की इजाद में कैसे हुआ होगा। सभी गालियों के जन्म पर शोध संभव है। इसी तरह इस मंडली में दादी की भूमिका करने वाली महिला सारे समय एक ही संवाद बोलती है 'बेटी दे दी, सब दे दिया'- यही संवाद वह मनके की माला की तरह इस कदर दोहराती है कि पूछताछ करने वाले सारे पुलिसवाले थक जाते हैं। हमारे नेता भी इस तरह दोहराते रहते हैं। भ्रष्टाचार मिटा देंगे, काला धन विदेश से ले आएंगे इत्यादि।

निर्माता अरबाज इस पात्र दादी की तरह ही सारा समय दर्शक की पसंद पर सोचते रहते हैं आैर मजाल है कि कोई यूनिट का सदस्य इस मंत्र को भूले। साजिद-वाजिद ने अरबाज की पसंद की धुनें बनाई हैं आैर अपनी बुजुर्गों की याद किसी धुन में साफ ध्वनित होती है जैसे इसी फिल्म का मधुरतम गीत "ना सजदे मे दिल है, ना इबादत में दिल है, बस आजकल बगावत में दिल है, तेरी वजह से मुंह फेरे हैं अपने खुदा से मेरे नैना काफिर हो गए, तेरी गलियों के मुसाफिर हो गए"। इस फिल्म में भी अरबाज की 'दबंग' की तरह उनकी पत्नी मलाइका का आइटम है। उम्र के खूंख्वार नाखूनों से हमेशा बची रही हैं। मलाइका आैर वह अपने पति अरबाज की फिल्मों का 'लकी मॉस्कोट' भी है। दरअसल कम बजट में बनी यह युवा हास्य की फिल्म अरबाज खान को नई पहचान देगी।