डॉ. तुलसीराम से बातचीत / कुमार मुकुल
डॉ. तुलसीराम से कुमार मुकुल की बातचीत
कुछ सवाल
पिछले कुछ समय से साहित्य में बदलाव को लेकर कौन से नये विमर्श सामने आए हैं। आज का भारतीय समाज जिन संकटों से गुजर रहा है, क्या साहित्य उन संघर्षों और संकटों की पहचान कर पा रहा है, यदि हां , तो उनका स्वरूप क्या है...साहित्य में हो रहे परिवर्तनों के प्रति आपका नजरिया क्या है ...नये यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाली रचनाएं क्या आज हो पा रही हैं, यदि नहीं तो क्यों...क्या मोबाइल और रसोई गैस ने दुनिया बदल दी है...क्या आज का साहित्य केवल नये मध्यवर्ग को संबोधित है...साहित्य सर्वहारा के संघर्ष से कट क्यों रहा है...
जवाब
विमर्श दो ही हैं इस समय, दलित और स्त्री। दोनों ने परंपरिक साहित्य की जडें हिला दी हैं। उसके जातीय वर्चस्व को चुनौती दी है। फलत: दोनों के विरुद्ध आवाज उठती रही है। दलित साहित्य के बारे में परंपरावदियों का तर्क यह है कि ये टेम्परारी फेनोमना है,ख्त्म हो जाएगा। जातिव्यवस्था के खिलाफ हुए आदोलनों की उपज है दलित साहित्य। इसलिये जबतक जाति व्यवस्था रहेगी दलित साहित्य रहेगा। इसका भविष्य उज्ज्वल है।
आज जाति राजनीति व्यवस्था का अंग बन गयी है। चुनाव का आधार जाति है और राजनीतिक व्यवस्था आज जाति व्यवस्था बन गयी है। जातियां धर्म से जुडी हैं तो धर्म का इस्तेमाल राजनीति में धर्मनिरपेक्ष्ता के खिलाफ होता है।
दलित विमर्श के अपने अंतरविरोध भी हैं। जो दलित विमर्श जाति व्यवस्था को चुनौती दे रहा था,वह आज मायवती के रूप में एक बिगडा रूप ले चुका है। आज दलित भी जातिवादी हो रहा है। और इससे बहुत नुकसान हो रहा है। सदियों से चला आ रहा जातिवादी मूवमेंट इस दलित जातिवाद के चलते कठिन होता जा रहा है। बीजेपी और बीएसपी की चक्की में आज दलित साहित्य भी पिस रहा है। दलित साहित्यकार भी जातीय गौरव को उपलब्धि मान रहे हैं।
साठ के दशक में माहराष्ट्र में दया पवार के कथा लेखन और बलूत या अछूत के आने से दलित विमर्श सशक्त रूप में विकसित हुआ था और आत्मकथाएं दलित समाज को रिफलेक्ट कर रही थीं तब इस लेखन में अभिव्यक्त अनुभूतियों ने विमर्श का एक नया केन्द बनाया था।
बौद्ध साहित्य के नवजागरण के बाद सदियों तक अंधविश्वास गायब रहा। इसके विरूद्ध ब्राह्मणों का संघर्ष चलता रहा। उन्होंने बुदध के साहित्य को जलाया। और मिथकों पर आधारित पुराणों की रचना की, जिनका यथार्थ से संबंध नहीं था। इसका सिलसिला चलता रहा। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मनुस्म्रति से ज्यादा कठोर दंड दलितों के लिये हैं। इस मिथकीय दबाव का असर संत साहित्य पर भी पडा और कबीर, रैदास के समानांतर तुलसी और सूर जैसे मिथकों के आधार पर रचाना करने वाले सामने आए। मिथकीय साहित्य का बर्चस्व हमेशा कायम रहा। आज भी परंपरावादी मिथकीय चरित्रको कविता कहानी में अवश्य लाते हैं। इस लेखन को दलितों ने हर युग में चुनौती दी है। गावब हुए बौद्ध साहित्य में ये दलित चरित्र थे। कहीं कहीं ये अब भी मिलते हैं।
तालकूट बुद्ध का समकालीन नाटककार था। वह गांव गांव नाटक दिखाता था। मतलब बुद्ध के समय लोकनाटक मंडलियां थीं भारत में। ऐसे बहुत सारे चरित्र एक समानांतर साहित्य रचते थे। पर मिथकीय परंपरा ने भारत में इस साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचाया। यह आज भी जारी है।
दलित स्त्री लेखन ने आज अलग परंपरा कायम की है। यह और विकसित होगी। अब गैर दलित स्त्री लेखक भी खद दलित स्त्री लेखन का क्लेम कर रहे हैं, यह भी इन दोनों के विकास को दर्शाता है।
मोबाइल ने निश्चित दुनिया बदली है। पश्चिम के विद्ववान डिजिटल डिवाई का नया कांसेप्ट चला रहे। गरीब अमीर की जगह आज सूचना से धनी और सूचना से गरीब देश का कांसेप्ट आ रहा है। सूचनाएं थोपी जा रही हैं। इंटरनेट मोबाइल मिथ्कों को बदल कर पेश कर रहे। क्राइम स्टोरी बढ रही है। इससे सूचना बढ रही है पर ज्ञान घट रहा है।