डॉ. बकरा / विक्रम शेखावत

Gadya Kosh से
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आजकल अख़बार, टीवी और दीवारों पे विज्ञापनों के जरिये रोज रोज छाए रहने वाले डॉ. बकरा का नाम सुनकर मेरे एक दोस्त का दिल उनपे आ गया। दोस्त को कुछ दिनो से सोरियासिस (चर्म रोग) था। उसने डॉ.बकरा के बारे मे कहीं पढ़ा जो कुछ ही दिनो मे गंजे लोगों के सिर पर बालों की फ़सल लहलहाने के दावे करता था और सोरियासिस का इलाज होम्योपैथिक के जरिये करने का दंभ भर रहा था। एक रोज सुबह सुबह अख़बार लेकर मेरे घर आ धमका और बड़े गर्व से बोला, “यार आज मेरा डॉ.बकरा से अपॉइन्ट्मन्ट है इसलिए तुम भी मेरे साथ चलो ताकि तुम्हें भी थोड़ा अनुभव हो की वर्ल्ड क्लास डॉ. कैसे होते हैं।“

मैंने उसके हाथ का अख़बार लिया और पढ़ा, मै बोला,”यार इन इश्तहारों पे मत जाओ, इनका कोई भरोसा नहीं”। दोस्त ने मुह बिचकाया और बोला,”यार तुम रहोगे वही देहाती के देहाती, डॉ.बकरा सिर्फ 250 रुपए लेते हैं, और वो भी परामर्श के तौर पर, ना तुम्हारे इन नुक्कड़ वाले एमबीबीएस की तरह लूटते नहीं”।

काफी जद्दोजहद के बाद मैं उसके साथ चलने को तैयार हो गया। डॉ. बकरा का क्लीनिक किसी पाँच सितारा होटल के रिसेप्शन सा था। लाल और नीले रंगों का समावेश हर जगह नज़र आ रहा था।

रिसेप्शनिस्ट के पीछे की दीवार पे अनेकों डाक्टरों के नाम उनकी डिग्री के साथ लिखे हुये थे, वो शायद वहाँ आते होंगे। इंतजार मे बैठे लोगों के सामने की दीवार पर डॉ॰ बकरा की अनेकों तस्वीरें लगी थी जिसमे डॉ. बकरा अनेकों फिल्मी हीरो और हीरोइनों के साथ खड़ा मुस्करा रहा था। कुछ बड़े बड़े नेता लोग के साथ भी डॉ. बकरा अपना चोखटा लिए मुस्करा रहा था। बायीं तरफ की दीवार पे कुछ “बड़े” मरीजों (लोगों) से लेकर अप्रीशीऐशन (Appreciation) पत्रों की फोटो कॉपी चिपकाई हुई थी जो मरीजों मे विश्वास पैदा करने का मार्केटिंग का नया तरीका था। कई बेशकीमती सोफ़ों पे 3,4 लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और समय बिताने के लिए कुछ अपने मोबाइल और कुछ अपने लैपटाप पे लगे हुये थे। पहली बार किसी डॉ. के क्लीनिक मे लैपटाप पे काम करते हुये मरीज को देखकर आश्चर्य हुआ। ये सब देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और मुझे हैरानी में देखकर मेरा दोस्त ऐसे मुस्करा रहा था जैसे बच्चे को चिड़ियाघर देखकर खुश होने पर उसके पापा मुस्कराते हैं। कुछ देर पश्चात नीले रंग के कपड़े पहने हुये एक कम्पाउडर नीले रंग के छोटे से सुंदर से बैग मे दवा भरके एक मरीज को देने आया। मरीज ने अपना लैपटाप बंद किया और दवाओं का बैग लेकर बड़े गर्व से बाहर चला गया।

मेरे दोस्त ने रिस्पेशन पर बैठे एक साहब से कहा की मुझे ये SMS मिला है और डॉ. साहब से मेरा अपोइनमेंट है”।

“आप फ़र्स्ट टाइम आए है सर ?”, रिस्पेशन पर बैठे व्यक्ति ने विनम्र लहजे में पूछा

“हाँ”, दोस्त ने कहा।

“आप ये फॉर्म भर दीजिये”, उसने एक फॉर्म दोस्त की तरफ बढ़ा दिया। दोस्त ने फॉर्म लिया और मेरे पास आकर भरने लगा। भरने के बाद फॉर्म रिसेप्शन पर दे दिया।

कुछ देर के इंतजार के बाद दोस्त का नाम पुकारा गया, मै भी दोस्त के साथ जाने लगा तो रिस्पेसन पर बैठे व्यक्ति ने सिर्फ मरीज को जाने को कहा। में वापिस आकर क्लीनिक का वैभव देखने लगा। पास ही रखे फिल्टर से मैंने ठंडा पानी पिया और दीवार पे लगे टीवी को देखने लगा।

करीब आधे घंटे के बाद दोस्त बाहर आया, उसके चेहरे से लग रहा था की डॉ. ने उसे कोई बड़ी बीमारी बताई थी। रिस्पेशन पर आकार उसने क्रेडिट कार्ड से करीब आठ हज़ार रुपए का पेमेंट किया और बुझे मन से मेरे पास आकार बैठ गया। मैंने पूछा,”क्या कहा डॉ.बकरा ने”।

“अंदर डॉ. बकरा नहीं कोई लेडी डॉक्टर है, उसने कहा की इलाज लंबा चलेगा”

“कितना लंबा”, मैंने उसके और करीब होते हुये पूछा।

“कई पैकेज बताए हैं जिनकी अलग अलह कीमत है “, दोस्त ने कहा।

“पैकेज ?”, मैंने आश्चर्य से पूछा।

“हाँ, छ: महीने से लेकर पाँच साल तक का”, दोस्त ने उदास होते हुये कहा।

“लेकिन उस विज्ञापन मे तो छपा था सिर्फ 250 रुपए लेते हैं फिर ये तुमने आठ हज़ार क्यों दिये ?“

“मैंने छ: महीने का प्लान लिया है”, दोस्त ने कहा।

“प्लान? अरे तुम सलाह के लिए आए थे या किसी ट्रैवल प्लान के लिए ?”, मैंने कहा।

“नहीं, वो उस आठ हज़ार रुपए मे छ: महीने का परामर्श, चैकउप,दवाइयाँ सब देंगे”, दोस्त ने कहा।

“चलो फिर ठीक है अगर बीमारी ही ऐसी है जिसको ठीक होने मे ज्यादा समय लगेगा तो छ: महीने दवा दारू का खर्चा तो इतना हो ही जाता”, दोस्त भी मेरे जवाब से कुछ संतुष्ट हुआ और दवाइयाँ मिलने का इंतजार करने लगा।

कुछ देर बाद वही कम्पाउडर वैसा ही दवाओं का थैला लेकर दोस्त के पास आया और वो छोटा सा बैग उसे देते हुये बोला।

“सर, ये तीन दिन की दवा है सुबह शाम लेनी है। तीन दिन के बाद आपको फिर से परामर्श के लिए आना है तब और दवाइयाँ दी जाएंगी।“, कहकर वो चला गया।

उसके जाने के बाद दोस्त ने सोफ़े पर संभलकर बैठते हुये बैग को खोला, मैं भी उत्सुकतावश उस बैग को देखने लगा। उसके अंदर एन छोटा सा नीले रंग का लिफाफा था। लिफाफे को दबाने से लग रहा था उसमे कुछ है। दोस्त ने लिफाफा खोला तो उसमे होम्योपैथिक की चूसने वाली सफ़ेद रंग छोटी छोटी छ: गोलियां थी। दोस्त ने गोलियां उलट-पलट कर देखी। मैं उन आठ हज़ार की छ: गोलियों को देखता रह गया। खैर मैं जैसे तैसे दोस्त को समझा बुझाकर घर ले आया और कहा की सायद तीन दिन बाद और दवाइयाँ देंगे।

अगले तीन दिन दोस्त उन गोलियों को चूसता रह, और फिर तीन दिन बाद, मुझे फिर से उसके साथ डॉ.बकरा के भव्य क्लीनिक के दर्शनार्थ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कड़ी धूप के बाद डॉ.बकरा के क्लीनिक के ए.सी की ठंठक से काफी सुकून मिला। ये बात अलग है की उस सुकून के लिए मेरे दोस्त ने आठ हज़ार रुपए दिये थे।

कुछ समय के आन्दालोक अनुभव के पश्चात दोस्त का नाम पुकारा गया। वो अंदर गया और उस दिन की तरह आधे घंटे बाद बाहर आया। मुझे मन से मेरे पास आकार बैठ गया। “क्या कहा डॉ. ने”, मैंने पूछा।

“कहा है इंतजार कीजिये, काउंटर से दवा मिलेंगी”

हम इंतजार करने लगे। कुछ ही समय पश्चात काउंटर से दोस्त का नाम पुकारा गया तो मैं भी दोस्त के साथ बढ़ गया। फिर वही नीला बैग हमारी तरफ बढ़ाया गया, उसे खोला तो उसमे वैसा ही नीले रंग का लिफाफा और उसमे वही छ: नन्ही नन्ही गोलियां थी। दोस्त ने काउंटर के उस तरफ बैठे व्यक्ति से पूछा, “डॉ. ने एक Ointment (मरहम) के लिया बोला था”

“हाँ”, ये लीजिये, इसके 270 रुपए आपको देने होंगे”, दवा देने वाले ने कहा।

“क्या !, लेकिन दवाओं के लिए मैंने आठ हज़ार पहले ही जमा करा दिये”, दोस्त ने आश्चर्य से कहा।

“सर, वो सिर्फ गोलियों और परामर्श के दिये हैं”, दवा देने वाले ने विनम्र भाव से कहा।

“लेकिन ये दवा भी सोरियासिस के लिए है”, दोस्त ने कहा।

“जी हाँ, लेकिन ये क्रीम है इसलिए आपको इसके पैसे अलग से देने होंगे”

काफी बहस के बाद मैं “बकरा” बन चुके अपने लूटे पिटे दोस्त को घर ले आया। दूसरे दिन उसे एक प्राइवेट क्लीनिक मे दिखाया। डॉ. की फ़ीस और दवाओं के मिलाकर कुल 200 रुपए खर्च हुये। एक महीने के इलाज के बाद मात्र 500 से 600 रुपए खर्च करने के बाद दोस्त की बीमारी लगभग ठीक हो चुकी थी। अलमारी मे पड़ी डॉ. बकरा की दी हुई वो मीठी गोलीयां आजकल उसके बच्चे चुराकर चूसते रहते हैं।