डॉ. भगवान दास माहौर / शिवजी श्रीवास्तव
डॉ. भगवान दास माहौर का स्मरण आते ही एक मुस्कारता हुआ स्नेहिल चेहरा आँखों के सामने उभरता है और ओजस्वी वाणी कानों में घुलने लगती है-"मेरे शोणित की लाली से कुछ तो लाल धरा होगी ही। मेरे वर्तन से परिवर्तित कुछ तो वसुंधरा होगी ही।"
सर्वप्रथम मुझे उनके दर्शनों का सौभाग्य तब मिला जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, मेरे पिताश्री भगवती शरण दास ने घर पर बसन्तोत्सव के उपलक्ष्य में काव्य-गोष्ठी आयोजित की थी। घर पर ऐसी गोष्ठियाँ प्रायः होती रहती थीं, पर उस दिन की गोष्ठी विशिष्ट थी क्योंकि उस दिन उस गोष्ठी में माहौर जी भी आने वाले थे, बाबू ने हम भाइयों से कह रखा था, आज माहौर जी आएँगे। ये माहौर जी कौन हैं?-मैंने अम्मा से प्रश्न किया था...माहौर जी.।अम्मा के शब्दों में श्रद्धा उमड़ी थी-अरे, बहुत बड़े क्रांतिकारी हैं, चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे, कोर्ट में गोली चला दी थी, काले पानी की सजा हुई थी...
अम्मा ने एक क्षण में माहौर जी के प्रति अगाध श्रद्धा और उन्हें देखने की उत्सुकता जाग्रत कर दी थी। माहौर जी आए तो हम भाई लोग मंत्रमुग्ध से उन्हें देखते रहे, मुझे आज तक स्मरण है, उस दिन गोष्ठी में माहौर जी ने पद्माकर का कवित्त 'बनन में बागन में बगरो बसन्त है' ...पूरी लय के साथ सुनाया था, तभी किसी ने कहा-ये तो हुआ बसन्त का कवित्त माहौर जी अब 'मेरे शोणित की लाली' वाला गीत भी सुनाइए, माहौर जी ने बड़े ही ओजस्वी स्वर में गाना शुरू किया-मेरे शोणित की लाली से कुछ तो लाल धरा होगी ही...गोष्ठी में निस्तब्धता छा गई थी। माहौर जी के प्रथम दर्शन की वह छवि आज तक स्मृति पटल पर अंकित है।
उसके बाद सन1975 में बुन्देलखण्ड कॉलेज झाँसी में एम.ए. (हिंदी) के छात्र के रूप में पढ़ते हुए, उन्हें निकट से जानने का अवसर मिला। भले ही वे बम बंदूकों से खेलने वाले निर्भीक क्रांतिकारी रहे हों; पर हम छात्रों के लिए श्रेष्ठ एवं सहृदय अध्यापक थे। वे एक अच्छे कवि थे, गम्भीर चिंतक, उत्कृष्ट लेखक एवं कुशल वक्ता थे। 'यश की धरोहर' में लिखे गए उनके संस्मरण हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्त्व वाले माहौर जी का जन्म 27फरवरी सन 1909 को दतिया (म।प्र।) के बड़ौनी ग्राम में श्री तुलसीदास माहौर जी के घर हुआ था, प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वे अध्ययन हेतु अपने मामा कवींद्र नाथूराम माहौर के यहाँ झाँसी आ गए, यहीं उनके क्रांतिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।
सन 1924 में श्रीशचीन्द्रनाथ बख्शी ने झाँसी में 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोशियेशन' के जिला संगठनकर्ता के रूप में कार्य करते हुए नवयुवकों को संगठित कर रहे थे। माहौर जी भी उस संगठन में सम्मिलित हुए। शीघ्र ही आजाद जी इन युवकों से मिलने झाँसी आए। माहौर जी उनके आत्मीय व्यवहार के साथ ही, उनके बलिष्ठ शरीर और तीव्र मेधा से भी बहुत प्रभावित हुए। माहौर जी उस समय मात्र 15 वर्ष के किशोर थे, जबकि आजाद जी लगभग 19 वर्ष के नौजवान थे। इस मुलाकात के कुछ महीनों बाद ही 9अगस्त 1925 को 'काकोरी-प्रकरण' के बाद आजाद जी फरार होकर झाँसी आ गए। फिर वे झाँसी में ही रहे तथा अपनी सूझबूझ के कारण कभी पुलिस के हाथ नहीं आए। यहीं रहकर उन्होंने भगतसिंह आदि साथियों के साथ मिलकर 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' का गठन किया। माहौर जी भी उसके सक्रिय सदस्य बने। धीरे-धीरे माहौर जी चन्द्रशेखर आजाद के अत्यंत प्रिय एवं विश्वस्त सहयोगी बन गए। माहौर जी ने आजाद जी से निशानेबाजी की ट्रेनिंग ली और दल में वे अचूक निशानेबाज माने जाते थे। अनेक अवसरों पर संगठन में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन् 1928 में आजाद जी के निर्देश पर माहौर जी ने ग्वालियर आकर विक्टोरिया कॉलेज में बी.ए. में एडमिशन लिया और छात्रावास में रहने लगे। यह छात्रावास क्रांतिकारियों की गतिविधि के लिए निरापद था। यहाँ अध्ययन के साथ-साथ उनकी दलीय सक्रियता भी जारी रही, अक्टूबर 1928 में एक दिन उन्हें दल के कार्य से आगरा बुलाया गया। यहीं उनका भगतसिंह से प्रथम साक्षात्कार हुआ। इस साक्षात्कार का प्रभाव भी उनके ऊपर बहुत गहरा पड़ा। स्वयं माहौरजी के शब्दों में-"क्रांतिकारी दल का प्रथम सन्देश मैंने श्री शचीन्द्रनाथ बख्शी से झाँसी में सुना था, उसके बाद जब श्री चंद्रशेखर आजाद के दर्शन मैंने प्रथम बार किए। उनके बलवान शरीर और निर्भीक मुद्रा का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब, जब भगतसिंह को पहली बार देखा, तो उनकी बातचीत और रंगढंग से क्रांतिकारियों की विद्या बुद्धि पर अच्छी आस्था हो गई।"
भगतसिंह ने ही एक प्रकार से सही अर्थों में उन्हें क्रांतिकारी के रूप में दीक्षित किया और दल का सक्रिय सदस्य बनाया। दल में आने के पश्चात दल के नियमों के अनुसार उनका नया नामकरण 'कैलाश' भगतसिंह ने ही किया था। कुछ ही दिनों में उनकी भगत सिंह से भी इतनी अंतरंगता ही गई कि कभी-= कभी उनसे हाथापाई भी करने लगे। वस्तुतः दल के अंतरंग सदस्यों के बीच कुश्ती और हाथापाई होना एक मनोरंजन ही था।
यद्यपि माहौर जी का दल में कैलाश नाम था पर साण्डर्स वध के बाद फरार लोगों की सूची में कई समाचार पत्रों में उनका नाम 'कुठे गुंतला' छपा, इस 'कुठे गुंतला' की कहानी भी बहुत रोचक है। दिसम्बर 1928 में साण्डर्स-वध से पूर्व उन्हें दल की ओर से लाहौर बुलाया गया था, वहाँ भगतसिंह सहित अनेक क्रांतिकारी एकत्र थे। दल के एक सदस्य हंसराज बोहरा से माहौर जी की यहीं पहली मुलाकात हुई। इस मुलाकात का घटनाक्रम कुछ नाटकीय हो गया था। दरअसल क्रांतिकारी घर के ऊपरी कक्ष में रहते थे, हंसराज जब आया, तो उसने नीचे से ही आवाज लगाई। भगतसिंह ने माहौर जी से कहा कि हंसराज आया है। तुम नीचे जाकर उसकी साइकिल ऊपर ले आओ। माहौर जी ने सोचा, ऐसा कौन लाटसाहब आया है, जो साइकिल ऊपर नहीं ला सकता। उन्होंने भगतसिंह की बात अनसुनी कर दी और नीचे नहीं गए, तो भगतसिंह ने राजगुरु को नीचे भेज दिया, हंसराज ऊपर आया, तो माहौर जी उसके सुदर्शन व्यक्तित्व को देखते ही रह गए, भगतसिंह ने व्यंग्य किया-"अब इस वक्त हम आपका गाना न भी सुनना चाहें, तो भी आप सुनाएँगे अवश्य: क्योंकि आप इसी प्रकार अपनी सुंदर सूरत के प्रभाव को परिमार्जित करेंगे। जल्दी से गाना सुना दीजिए।"
माहौर जी को बुरा लगा, वे चिढ़कर बोले, "अभी मेरा गाने का मूड नहीं है" ...भगतसिंह उन्हें और अधिक खिझाने लगे, माहौर जी ने गुस्से में उन्हें एक मुक्का लगा दिया। फिर क्या था दोनों में मुक्केबाजी होने लगी और भगतसिंह ने उनकी अच्छी धुनाई कर दी, दल के अन्य लोगों ने बीच बचाव किया तो भगतसिंह ने इस शर्त पर उन्हें छोड़ा कि कैलाश अपना वही 'कुठे गुंतला' गाना अभी सुनाए। 'कुठे गुंतला' माहौर जी का प्रिय एक मराठी गीत था, जिसे वे गाया करते थे। अंततः उन्होने 'कुठे गुंतला' गाकर ही अपनी जान छुड़ाई। उसी दिन से लाहौर में उनका नाम 'कुठे गुंतला' पड़ गया। बाद में यही हंसराज बोहरा भी पुलिस का मुखबिर बन गया। उसने पुलिस को माहौर जी का नाम 'कुठे गुंतला' ही बतलाया।
माहौर जी दल के इतने विश्वस्त थे कि लाला लाजपतराय के हत्यारे स्कॉट को मारने के लिए उन्हें भी भगतसिंह अपने साथ ले गए थे। इस कार्य के लिए भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु मौके पर मोर्चाबंदी किए थे, जयगोपाल का कार्य स्कॉट को पहचानकर इन्हें संकेत देना था। थोड़ी—सी चूक से स्कॉट की जगह साण्डर्स मारा गया था। इस टुकड़ी के पीछे सुखदेव,
विजयकुमार सिन्हा और भगवानदास माहौर की मोर्चाबंदी थी। यही जयगोपाल बाद में पुलिस मुखबिर बना, जिस पर माहौर जी ने अदालत में गोली चलाई थी और उसके लिए उन्हें आजीवन काले पानी की सजा सुनाई गई थी।
अदालत में गोली चलाने का प्रसंग भी उनके जुझारू व्यक्तित्व को सामने लाता है, दरअसल साण्डर्स वध और असेम्बली में बम फेंकने के पश्चात भगतसिंह इत्यादि अधिकतर सक्रिय सदस्य गिरफ्तार किए जा चुके थे। उन पर लाहौर में केस चल रहा था। चंद्रशेखर आजाद अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ ग्वालियर में छुपे थे। उत्तर भारत में धर-पकड़ जोरों पर थी, अतः आजाद जी ने सोचा-अब दक्षिण भारत में सक्रियता बढ़ाई जाए। क्रांतिकारी राजगुरु असेम्बली में बम काण्ड में साथ न ले जाए जाने के कारण नाराज होकर महाराष्ट्र चले गए थे और वहाँ जाकर क्रांतिकारी संगठन का कुछ काम शुरू कर चुके थे। आजाद जी ने माहौर जी एवं सदाशिवराव मलकापुरकर को राजगुरु का पता लगाकर उनके पास जाने का आदेश दिया। राजगुरु का सम्भावित ठिकाना अकोला था; अतः दोनों क्रांतिवीरों ने ग्वालियर की बम फैक्टरी का बहुत-सा सामान, दो जीवित बम, दो पिस्तौलें और कुछ कारतूस लेकर ग्वालियर से अकोला के लिए ट्रेन द्वारा प्रस्थान किया। इनकी ट्रेन शाम को भुसावल पहुँची, वहाँ से अकोला के लिए ट्रेन बदलनी थी। इन्होंने अकोला की ट्रेन तक सामान ले चलने के लिए कुली लिया और ट्रेन की ओर चल दिए। वहाँ एक्साइज पुलिस रहती थी, इसकी जानकारी इन लोगों को नहीं थी, एक्साइज पुलिस ने कुली को रोक लिया। यहाँ इनके सामान की तलाशी में 60 जिंदा कारतूस पकड़े गए, यद्यपि इन दोनों ने मय सामान के भागने का प्रयास भी किया; पर पकड़े गए।
जलगाँव अदालत में दोनों पर केस चला, वहाँ सरकारी गवाह बने फणीन्द्र घोष और जयगोपाल भी गवाही के लिए लाए जाते थे। सदाशिव और माहौर जी ने सोचा-अगर अदालत में ही इन दोनों गवाहों को मार दिया जाए, तो कुछ सार्थक कार्य हो जाएगा। इसके लिए उन दोनों ने अपनी योजना झाँसी के वकील श्री र।वि।धुलेकर जी के माध्यम से आजाद जी तक पहुँचाई और जेल में एक पिस्तौल भेजने का अनुरोध किया। आजाद जी ने इनकी योजना की जाँच कराके इस निर्देश के साथ पिस्तौल भेजने की व्यवस्था की-"दोनों को इस काम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। केवल भगवानदास ही यह काम करे। दोनों को फाँसी चढ़ने या लड़ मरने की जरूरत नहीं है।"
21 फरवरी 1930 को जलगाँव के सेशन जज की अदालत में इन मुखबिरों की गवाही होनी थी, योजनानुसार 20 फरवरी को शाम को ही सदाशिव के बड़े भाई शंकरराव जेल में इन लोगों के लिए खाना लेकर आए और भात से भरे बड़े कटोरे में पिस्तौल छिपाकर दे गए। दूसरे दिन माहौर जी पिस्तौल को अपने कोट की जेब में छुपा कर अदालत में ले गए, वे तलाशी में भी सुरक्षाकर्मियों को चकमा देने में सफल रहे। लंच के समय दोनों मुखबिर कचहरी के हाते में पुलिस की अभिरक्षा में बैठे थे, साथ ही पंजाब के दो सी.आई.डी. अफसर भी थे। इन दोनों को भी सामने ही बरामदे के नीचे दो कुर्सियाँ डाल कर बैठाया गया था। दस सिपाही और एक हवलदार इन्हें घेर कर खड़े थे। माहौर जी का दायाँ हाथ और सदाशिव का बायाँ हाथ एक ही हथकड़ी से बंधा था। मौका अच्छा था उन्होंने सदाशिव के भाई से खाने को कुछ मँगाया और खाने के बहाने अपनी हथकड़ी खुलवा ली। इस बीच पुलिस ने तमाशबीनों को भी वहाँ से हटा दिया था। माहौर जी ने देखा मुखबिरों तक जाने का रास्ता साफ है। खाते-खाते उन्होंने जेब से पिस्तौल निकाली और तम्बू की ओर झपटे, दरवाजे पर बैठे सब इंस्पेक्टर इन्हें रोकने के लिए उठा। माहौर जी ने एक गोली उसकी-उसकी जाँघ में मारी और सामने बैठे फणीन्द्र और जयगोपाल पर भी एक-एक गोली चला दी, परन्तु अचानक पिस्तौल जाम हो गया और गोलियाँ लक्ष्य से चूक गईं। सर्वत्र भगदड़ मच गई और माहौर जी बाहर भागे। वहाँ उपस्थित एक बड़ा जनसमूह 'मारने वाले की जय' के नारे लगाकर उनके समर्थन में सड़कों पर पथराव करने लगा, पर अंततः माहौर जी गिरफ्तार हुए। अदालत ने सारे केस रोककर इस-इस काण्ड की तुरत सुनवाई की और सदाशिवराव मलकापुरकर को 14 की और भगवानदास माहौर को भुसावल बम-काण्ड में 7 वर्ष तथा जलगाँव अदालत में गोली चलाने के कारण आजन्म कारावास की सजा मिली। अदालत के आदेश पर उन्हें और सदाशिव मलकापुरकर को धूलिया जेल भेजा गया। बाद में मार्च 1930 में माहौर जी को धूलिया जेल से अहमदाबाद जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया। यहाँ वे 1938 तक रहे। सन1938 में कांग्रेस की अंतरिम सरकार बनने पर दोनों की रिहाई हो गई। उस दिन पिस्तौल जाम होने का अफसोस माहौर जी को सदा बना रहा। भारत रक्षा कानून के अंतर्गत माहौर जी 1940 में पुनः गिरफ्तार कर लिये गए। देश की आजादी तक उनका जेल जाने का सिलसिला जारी रहा। उन्होंने लगभग पंद्रह वर्ष जेल में व्यतीत किए।
क्रांति-जीवन के पश्चात माहौर जी ने अपनी रुकी हुई पढ़ाई को आगे बढ़ाया, पढ़ाई पूरी करके वे बुन्देखण्ड महाविद्यालय झाँसी में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गए। अनवरत अध्ययनरत रहकर उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से '1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि ग्रहण की। उनके शोध-प्रबंध 'रानी लक्ष्मीबाई काव्य-परम्परा में मदनेश कृत लक्ष्मीबाई रासो' विषय पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा उन्हें साहित्य महामहोपाध्याय की उपाधि प्रदान की गई। उनकी सेवाओं के लिए बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी ने उन्हें डी. लिट्।की मानद उपाधि प्रदान की।
12मार्च 1979 को लखनऊ विश्वविद्यालय में चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति के अनावरण समारोह के कार्यक्रम में वे अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। वहीं भावुक क्षणों में भाषण देते हुए ही उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और वे अपने आदर्श नायक की प्रतिमा के सम्मुख ही अचेत हो गए। उसके बाद बहुत प्रयास के बाद भी चिकित्सक उनके जीवन को नहीं बचा सके। निःसन्देह जब-जब क्रांति का इतिहास लिखा जाएगा, चन्द्रशेखर आजाद के बिना वह अपूर्ण रहेगा और चन्द्रशेखर आजाद की गाथा भगवानदास माहौर की गाथा के बिना अपूर्ण रहेगी।