डॉ. रामदरश मिश्र से साक्षात्कार / शिवजी श्रीवास्तव

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साहित्य हमारी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास का दस्तावेज है। -रामदरश मिश्र

(15 अगस्त 2024को डॉ.रामदरश मिश्र जी जीवन के सौ वसंत पूर्ण कर रहे हैं। वे भारतीय ऋषि परंपरा के मनीषी हैं,उनसे मिलना सदैव एक आत्मीय परिजन से मिलने जैसा सुखद होता है और एक ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है। उनका यह साक्षात्कार मैंने 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' की 'वृहत अनुसंधान परियोजना' पर कार्य करते हुए शोध-प्रबंध हेतु जून 2006 की एक दोपहर में, उनके उत्तम नगर स्थित आवास 'वाणी विहार' में लिया था। मेरे साथ इंटरव्यू रिकार्ड करने हेतु मेरे शिष्य पंकज सिंह भी थे। उस समय 82 वर्ष की अवस्था में भी उनकी ऊर्जा हम युवाओं से अधिक थी।वे लगातार 3 घंटे बातें करते रहे।कुछ साहित्य की कुछ समाज की अनेक चर्चाएं हुईं।बीच बीच में हम लोगों के लिए चाय- स्वल्पाहार भी आता रहा। ये साक्षात्कार उनकी रचना- प्रक्रिया पर न होकर समकालीन समस्याओं पर केंद्रित था। साक्षात्कार हेतु कोई प्रश्नावली पूर्व निर्धारित नहीं थी,बस बातों में से बातें निकलती गईं। साक्षात्कार शोध-प्रबंध में चला गया,कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। डॉ . शिवजी श्रीवास्तव )

शिवजी:-डॉ. साहब, वर्तमान में साहित्य के समक्ष जो अनेक चुनौतियाँ हैं इनमें से एक है भूमण्डलीकरण के बाद समाज में आए बदलाव । भूमंडलीकरण के बाद समाज में जो बदलाव आ रहे हैं उन्हें आज का साहित्यकार किस रूप में देख रहा है?

मिश्र जी:-देखिए, भूमण्डलीकरण के बाद आए बदलावों को साहित्य ने एक चुनौती के रूप में ही लिया है , देखने में ऐसा लगता है कि भूमण्डलीकरण जो है वह विश्व-ग्राम की कल्पना है । सोचा यह गया था कि इससे समस्त विश्व के मध्य आर्थिक संवाद होगा, राजनीतिक संवाद होगा और किसी भी एक भाग की समस्या पूरे विश्व की समस्या बन जायेगी पर ऐसा हुआ नहीं । अब इसके पीछे जो खतरा है जिसे साहित्यकार महसूस भी कर रहा है वह यह कि हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं । विश्व-ग्राम के चक्कर में हम अपने ही गाँव से कट रहे हैं । हमारी अपनी जो पहचान है वह पहचान खोती जा रही है और ऐसा लगता है कि एक उपभोक्तावादी संस्कृति पूरे विश्व में फैल रही है । वह संस्कृति हमारी जो परम्परा है, हमारी जो संस्कृति है, हमारी जो सभ्यता है उसे कहीं निगल रही है और इसका अहसास आम आदमी को नहीं हो रहा है क्योंकि तमाम जो चीजें आ रही हैं वे सब उतनी अच्छी हैं नही जितनी अच्छी लग रही हैं,असल में इलेक्ट्रोनिक मीडिया इनका प्रचार कर रहा है और आम आदमी इनका उपभोग कर रहा है उसे लगता है कि ये चीजें हमारे हित की हैं जबकि वे हमको हमसे काट रही हैं और साहित्य जो है वह तभी बनता है जब आप अपनी जड़ों से जुड़े हुए हों। सर्वकालीन या सर्वजनीन अवधारणा से साहित्य नहीं बनता, वह तभी बनता है जब वह अनुभव बनता है, और अनुभव प्राप्त होता है अपने आसपास के परिवेश से । उस परिवेश से हम कटते जा रहे हैं और साहित्यकार हमें इसका अहसास करा रहे हैं और कोशिश कर रहे हैं कि लोग अपनी जड़ों से जु़ड़े रहें और इस बात को महसूस करते रहें।

शिवजी: आपने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार कर रहा है, सचमुच ये बड़ी चिंता का विषय है, आपके विचार से इलेक्ट्रोनिक मीडिया के आगमन से साहित्य के समक्ष किस प्रकार का संकट उत्पन्न हो रहा है?

मिश्र जी:- दखिये यह भी एक चैलेंज तो है, एक चुनौती तो है ही इसमें कोई दो राय नहीं । चाहे कम्प्यूटर हो चाहे सिनेमा हो चाहे टी.वी. के सीरियल हों इस मीडिया की तरफ से साहित्य को एक नई चुनौती प्राप्त हो रही है और प्रायः यह कहा जा रहा है कि लोग साहित्य से दूर हो रहे हैं, पर इसके अनेक आयाम हैं । पहली बात तो यह है कि साहित्य के जो पाठक हैं, जो सही पाठक हैं वे किसी भी हाल में साहित्य से दूर नहीं हुए हैं, पर जो लोग साहित्य को केवल मनोरंजन के लिए पढ़ते रहे हैं उन्हें लगता है कि जब उनके सामने मनोरंजन के लिये कम्प्यूटर हैं, टी. वी. है, फिल्में हैं और उन्हें बैठे ही बैठे आनन्द मिल रहा है तो फिर साहित्य पढ़ने जैसा कष्टकर कार्य क्यों करें ? पर जो लोग साहित्य को गम्भीर उद्देश्य के लिये पढ़ते रहे हैं, जो साहित्य में जिन्दगी खोजते रहे हैं, जिन्दगी के अर्थ खोजते रहे हैं, जिन्दगी की पहचान खोजते रहे हैं तथा जिन्दगी की बुनियाद खोजते रहे हैं उनका काम साहित्य के बिना कभी नहीं चलेगा । वे देख रहे हैं कि जो मीडिया परोस रहा है उसमें कितना झूठ है कितना असत्य है, चाहे वे पात्र हों, चाहे वे घटनाएं हों चाहे समस्याएं हों सब बनायी हुई हैं और साहित्यकार कभी भी इसे बर्दाश्त नहीं करेगा । साहित्यकार जब भी लिखता है तो कोशिश करता है कि कहीं कोई झूठी बात हमारे साहित्य में न आने पाये । कोई पात्र, कोई कैरेक्टर आरोपित न हो, बनावटी न हो । कैरेक्टर जो हों हमारे आस पास के हों प्रामाणिक हों, घटनाएँ जों हों प्रामाणिक हों, समस्याएँ जो हों प्रामाणिक हों । जो लोग साहित्य के पाठक हैं, सही पाठक हैं वे जानते हैं कि साहित्य का विकल्प नहीं है। साहित्य हमारी संस्कृति का, सभ्यता का, इतिहास का और हमारे समाज का दस्तावेज है। कल हम अपने समाज को देखना चाहेंगे तो साहित्य को ही देखेंगे।

शिवजी:- मीडिया जो परोस रहा है उसमें अपसंस्कृति है, अश्लीलता है पर डॉ. साहब एक प्रश्न अक्सर मुझसे भी किया जाता है व्ह यह कि इधर कुछ इस प्रकार की कहानियाँ आ रही हैं ‘स्त्री-मुक्ति’ के नाम पर, ‘देह-मुक्ति’ के नाम पर जो अपने आप में लोगों को उतनी ही अश्लील लगती है जितना मीडिया लगता है वे कहते हैं कि वही चीज जब मीडिया दिखाता है तो उसकी आप आलोचना करते हैं पर जब आप खुद लिखते हैं और बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं तो वह साहित्य हो जाता है। जो मीडिया में है वही साहित्य में है तो आखिर आप इसके बीच में विभाजक रेखा कहाँ खींच रहे हैं? कैसे खींच रहे हैं? और हम आपके साहित्य को क्यों पढ़ें? उनका कथन कुछ हद तक सही भी है क्यों कि इधर कुछ पत्रिकायें और कुछ लोग स्त्री-मुक्ति के नाम पर इस प्रकार का साहित्य दे भी रहे हैं। इस सन्दर्भ में मैंने भगवान सिंह जी का एक लेख भी पढ़ा था कि ‘साहित्य रति बन्धों का एलबम’ तो नहीं है। तो साहित्य में जो इस प्रकार के पूरे-पूरे रति-दृश्य आ रहे हैं इनसे आप कहाँ तक सहमत हैं या आपकी क्या टिप्पणी है?

मिश्र जी:- इस प्रकार का साहित्य पहले भी थोड़ा बहुत आता रहा है पर मैं या मेरे समान लोग इसे स्वीकार नहीं करते। दरअसल लगता यह है कि समाज बोल्ड हुआ है और मीडिया ने भी उसे काफी बोल्ड किया है और इतना बोल्ड कर दिया है कि हम साहित्य में भी बोल्ड चीजें दे सकते हैं (हँसते हैं) लेकिन भाई जो लोग मीडिया की उस बोल्डनेस को झेल रहे हैं वे हमसे शिकायत क्यों करते हैं?

शिवजी:- नहीं, लेकिन सवाल यह नहीं है .......

मिश्रजी:- हाँ मैं आपकी बात समझ रहा हूँ । हम तो कह ही रहे हैं कि मीडिया साहित्य का पर्याय नहीं है । उनका सवाल भी जायज है, अगर मीडिया की देखा-देखी आप भी अश्लीलता परोसते हैं तो आप सही काम नहीं कर रहे हैं । आज भी जो लोग समाज की सभी समस्याओं को सही ढंग से देना चाहते हैं वे अश्लीलता में या नंगेपन में नहीं पहुँचते हैं, वे इसका विरोध करते हैं पर जो कुछ आधुनिकतावादी रुचि के लोग रहे हैं वे पहले भी यह सब काम करते रहे हैं । आज जो हैं ये वे लोग हैं जो मार्क्सवादी हैं या अपने को मार्क्सवादी कहते हैं वे यथार्थ के नाम पर इस बोल्डनेस को परोस रहे हैं उनका मानना है कि यदि हमारा यथार्थ इस प्रकार का है और उस यथार्थ का साक्षात्कार आदमी मीडिया के माध्यम से कर रहा है तो साहित्य इसको क्यों न ले?

शिवजी:- लेकिन साहित्य में इसके बिना भी काम चल सकता है?

मिश्रजी:- हाँ और यह अच्छा भी नहीं लगता है साहित्य में । मैं मानता हूँ कि कुछ सन्दर्भ ऐसे होते हैं जीवन में जो गोपन में ही अच्छे लगते हैं, गोपन के लिए होते ही हैं । अब पति-पत्नी का रिश्ता है सब जानते हैं कि वे सम्भोग करते हैं पर वे पर्दे में करते हैं, ऐसा नियम बनाया गया है। अब टट्टी-पेशाब करते हैं, वे आड़ में करते हैं। इतना ही नहीं तमाम आवश्यक क्रियाएँ हैं जिनको हमारे यहाँ ऐसे नाम दिए गए हैं जो गन्दे न लगें, उनको बडे़ अच्छे-अच्छे शब्द दे दिए गए हैं इसलिए कि वे सब क्रियाएँ अनिवार्य तो हैं पर सार्वजनिक होने पर गन्दे लगने लगते हैं पर ये लोग यथार्थ के नाम पर ये जो सब कर रहे हैं, वे साहित्य का अहित कर रहे हैं, समाज का अहित कर रहे हैं और एक काफी बड़ा वर्ग जो है, वह ऐसे लोगों का विरोध कर रहा है।

शिवजी:- हमारे जैसे छोटे शहरों में तो हर कोई इसका विरोध करता है। हमने इसका समर्थन करते हुए किसी को नहीं देखा है, लोग चटखारे लेते हैं और आलोचना करते हैं।

मिश्र जी:- चटखारे तो लेंगे ही लोग, असल में ऐसे वे लोग हैं जो आधी बात तो देखते हैं पर सब कुछ नहीं देखते । जैसे कि हमारे जो अखबार वाले हैं उन्हें खबर के नाम पर यही दिखायी पड़ता है कि किसी ने आत्महत्या कर ली, किसी ने बलात्कार किया या कुछ इसी प्रकार पर उन्हें यह कभी दिखायी नहीं पड़ता कि किसी गली में मुहल्ले में किसी घर में किसी ने किसी के जले में फाहा लगा दिया है या किसी ने किसी को गिरते में सहारा दिया है। वह खबर नहीं बनेगी, ऐसी तमाम खबरें होती हैं पर वे खबर बनती नहीं हैं । ये जो आलोचना करने वाले लोग हैं वे उन्हीं साहित्यकारों को देखते हैं जो साहित्यकार चटक-मटक कर रहे हैं। बाकी के तमाम साहित्यकार हैं जो गम्भीर लेखन कर रहे हैं जो अच्छा लिख रहे हैं,उनको देखो भाई । वे ज्यादा संख्या में हैं।

शिवजी:- हाँ प्रायः लोग ऐसे ही साहित्य को खोज-खोज कर लाते हैं और उसकी चर्चा करते हैं?

मिश्र जी:- ये उनकी अपनी मनोवृत्ति, अपनी रुचि हो सकती है।

शिवजी:- तो क्या इसे उनकी कुत्सित रुचि कहेंगे ?

मिश्र जी:- हाँ ,कह सकते हैं।

शिवजी:- फिर भी ऐसा जो साहित्य लिखा जा रहा है इसका क्या कारण है? ये बाजार का प्रभाव साहित्य पर है या साहित्यकारों की कोई अलग वृत्ति काम कर रही है?

मिश्र जी:- बाजार का प्रभाव तो इसे मैं नहीं कह सकता हूँ लेकिन नारी-मुक्ति का जो आन्दोलन चला है उस नारी-मुक्ति का स्वरूप क्या हो इसको लेकर भिन्न-भिन्न समझ हैं। एक वर्ग यह मानता है कि नारी को अपने तन पर स्वाधीनता है, उसका वह चाहे जैसे उपयोग करे, यह उसका अधिकार है । तो ये तन के अधिकार की बात करते हैं और हम लोग मानते हैं कि नारी का अधिकार उसकी अस्मिता में है, पुरुष के बराबर उसके अधिकार हों, पुरुष के बराबर उसको परिवार में, समाज में हर चीज पसन्द-नापसन्द करने का उसको हक हो, उसको भी आर्थिक समानता प्राप्त हो, यानी एक नारी जो है, वह पुरुष के साथ चलती हुई पुरुष के बराबर अपने को महसूस करे। पुरुष और नारी का विच्छेद या नारी का नंगापन वास्तव में ये नारी-विमर्श के स्वरूप नहीं हैं, पर ये लोग जो हैं ये नंगापन दिखा कर नारी-मुक्ति के आन्दोलन को कमजोर करते हैं ,उसके मुद्दे को कहीं आहत करते हैं पर ये अपनी बात को सही बताने के लिए कहते हैं कि साहित्य में भी जनतंत्र है।

शिवजी:- तो ये अधिक चलने वाला नहीं लगता है?

मिश्र जी:- हाँ, आपने सही कहा ये चलने वाला नहीं है पर देखिए, राजेन्द्र यादव हैं, वे हंस में कुछ छापते हैं चारो तरफ से तमाम हल्ला-गुल्ला होता रहता है कि आपने ये क्या किया? ये क्या किया? लेकिन उनको अच्छा लगता है कि उनकी चर्चा तो हो रही है । वे चाहते यही हैं और लोग जो हैं वे चुप क्यों नहीं रहते भाई? अगर वे लिख रहे हैं तो आप चुप रहिए लेकिन लोग जो हैं चुप नहीं रहेंगे वे हल्ला-गुल्ला करेंगे और मेरा मानना है कि इस प्रकार हल्ला-गुल्ला करके उनको प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

शिवजी:- जिस प्रकार स्त्री-विमर्श की बात चल रही है उसी प्रकार दलित-विमर्श की बात भी चल रही है और दलित-मुक्ति के नाम पर ऐसी भी अनेक कहानियाँ आ रही हैं उनसे सामाजिक समरसता की बात खतम हो रही है। इनमें संघर्ष की बात की जा रही है, वर्ण-संघर्ष की, तो क्या ये भी किसी प्रकार की राजनीति है? ऐसी तमाम कहानियाँ या हंस के कई सम्पादकीय आए हैं जिन्हें पढ़कर लगता है कि भारतीय संस्कृति या गांधीवाद के विरोध में बात जा रही है । क्या इससे समाज में कई नए प्रकार के खतरे पैदा हो रहे हैं?

मिश्र जी:- देखिए इसका एक जायज पक्ष यही है कि कि दलित जो आज उठ खड़े हुए हैं अपने अधिकारों के लिए, उसके ठोस कारण हैं । हम लोग जो दलित नहीं हैं पर दलितों की पीड़ा को समझते रहे हैं महसूस करते रहे हैं, हमें सदा लगता रहा है कि उनके साथ कुछ होना चाहिए । मुझे लगता है कि उनकी ओर देखने से पहले हम अपनी ओर भी देखें ; सवर्णों की ओर देखें कि आज के समय में भी वे क्यों नहीं ये महसूस कर सके कि वे भी हम जैसे हैं। आज भी हमारे मन में कहीं न कहीं ये है कि ये चमार नेता है, ये पासी नेता है और कहीं न कहीं हम मन में उसको गाली देते हैं। मुझे स्मरण है कि मेरे गाँव का एक धोबी एम. एल. ए . हो गया तो वे लोग उसको धोबिया-धोबिया कहते थे। मैं ये सोचता था कि हम अगर अपनी बाहें बढ़ाकर उन्हें गले लगा लेते, तो उनका आक्रोश कुछ हद तक कम होता। पर हमने वह नहीं किया, और ये आज जो लोग हैं, जो पढ़ लिख कर सचेत हो रहे हैं उन्हें लगता है कि सदियों से उन्हें जो पीड़ित किया गया है तो उसी पीड़ा को वे साहित्य में दे रहे हैं और अपने लिए अपेक्षणीय व्यवहार की माँग कर रहे हैं। लेकिन आपने जो कहा कि राजनीति नहीं आनी चाहिए वे ठीक है।

शिवजी:- अब देखिए प्रेमचन्द के उपन्यास की प्रतियाँ जलाई जा रही हैं। प्रेमचन्द को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है । यह राजनीति है?

मिश्र जी:- ये जो लोग आ रहे हैं, दलित-लेखन के नाम पर या दलित नेता आ रहे हैं,वे दलितों के लिए क्या कर रहे हैं? सवाल तो यह है। आप गाली देकर के अपने बाप दादों की पीड़ा को भुनाकर के साहित्यकार बन गए । अपने गाँव का जो आदमी है उसके लिए आपने क्या किया? जो नेता लोग हैं वे बड़े आदमी बन गए और इतने बड़े बने गए कि उनक सामने तमाम सवर्ण छोटे हो गए। सवाल यह है कि वे लोग क्या कर रहे हैं अपनी जाति के लिए? तो ये लोग जो हैं अपने-अपने लिए कर रहे हैं। अपने लिए इनकी राजनीति उठ रही है अपने लिए इनका साहित्य उठ रहा है। मैं कहता हूँ कि आप कोशिश कीजिए, आपके भीतर का या आपके आसपास का जो आम आदमी है उसे कुछ चेतना मिले । आप क्यों नहीं कुछ कोशिश करते उसकी शिक्षा का सही इंतजाम हो? आपके उपन्यास कहानी लिख देने से तो दलित नहीं उठेंगे? तो उनको उठाइए उनकी शिक्षा का इन्तजाम कीजिए उनके अधिकारों के प्रति सचेत कीजिए, वगैरह-वगैरह लेकिन चक्कर ये है कि ये लोग साहित्य की राजनीति कर रहे हैं। देखिए प्रेमचन्द हों या तमाम और लोग हों, उनके साहित्य को देखिए, दलितों के लिए उन्होंने लिखा है। हम नहीं जानते कि कब दलित-विमर्श या दलित चेतना उभरी होगी। लेकिन जो हमने गाँव में अपने आसपास देखा उनकी पीड़ा देखी और उनके साथ अत्याचार देखा, उस पर मुझे बड़ा गुस्सा भी आया। उस पर मैंने लिखा प्रेमचन्द ने भी लिखा, कइयों ने लिखा। अब ये है कि आप ये मानकर चल रहे हैं कि इन लोगों ने कुछ भी नहीं लिखा।

शिवजी:- बल्कि ये लोग तो उसे तो झूठा लेखन बता रहे हैं।

मिश्र जी:- हाँ उसे ये झूठा लेखन बता रहे है क्यों कि आज उन्हें लग रहा है कि अगर ये लोग शामिल हो गए तो हमारी असली छवि धूमिल हो जाएगी, हम कहीं छोटे पड़ जायेंगे क्योंकि हम नए लोग हैं। इनको दलित-विमर्श के नाम पर अपने को उठाने की चिन्ता ज्यादा है, उन तमाम लोगों को जोड़ने की चिन्ता कम है जो लोग आपके साथ मिलकर आपकी जाति या आपके वर्ग का हित कर रहे हैं। अनुभव तो यह भी बतलाते हैं कि दलितों में स्वयं ही बहुत जाति-भेद हैं, उनमें भी लोग मानते हैं कि हम बड़े हैं और ये छोटे हैं, ....वे छोटे हैं....ये क्या है? आप कौन सा दलित-विमर्श चला रहे हैं कि दलितों के भीतर भी तमाम भेद दिखाई दे रहे हैं? इन भेदों को हटाया जाए, इन्हें दूर किया जाए, ये इनका काम है, बाकी कहानी-कविता में गाली बकना तमाम लोगों को, इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है।

शिवजी:- आप परम्परा-प्रेमी हैं, प्रकृति-प्रेमी हैं, आपके साहित्य में सांस्कृतिक परम्पराओं का जीवन्त रूप देखने को मिलता है क्या आपको नहीं लगता कि आज साहित्य से ये सब लुप्त हो रही हैं।

मिश्र जी:-साहित्य से क्या जीवन से भी नदारद हो रही हैं। बड़ी विचित्र बात तो यह है कि एक ओर तो हमारी सांस्कृतिक परम्परायें टूट रही हैं, दूसरी और पूजा-पाठ, धर्म-कर्मकाण्ड को बढ़ाया जा रहा है।

शिवजी:- सचमुच यह विरोधाभास ही है कि जितना विज्ञान आगे जा रहा है उतना ही अंधविश्वास और बढ़ रहा है।

मिश्र जी:- हाँ, हर वर्ग के, हर जाति के, हर कौम के लोग अपनी खोखली परम्पराओं से, कर्मकाण्डों से, रूढ़ियों से भयंकर रूप से चिपक रहे हैं, मुझे लगता है कि ये सब देखा-देखी हो रहा है। आप जरा किसी बाग में जाइए, वहाँ पीपल के पेड़ के नीचे पंडित बैठा है, दान करा रहा है-ये शनि का दान है, ये राहु का दान है....ये फलाँ का दान है....ये सब क्या है? मुझे लगता है कि जो रहस्य रहा है हमारी परम्पराओं का वह खत्म हो रहा है,और जो रूढ़ियाँ है उसकी ओर लोग आकृष्ट हो रहे हैं,यह राष्ट्र के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। इन रूढ़ियों से लड़ना भी साहित्य के लिए एक बड़ी चुनौती है।


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