डॉ. रामविलास शर्मा को - 1 / अमृतलाल नागर
चौक, लखनऊ-3
1-9-64
प्यारे डॉक्टर 'जत्थेदार' ,
इधर पाँच-छह रोज तक मेरा मन आठोयाम अंतर्मुखी ही रहा-बहिर्मुखी होकर कार्य-संपादन करते हुए भी वह अविराम रूप से अंतर्मुखी ही रहा। दुनिया की हर बात केवल एक ही धुन में सुनाई पड़ रही थी। 'यद् यद् कर्म करोमितद्ददखिलं शंभो तवाराधनम्' वाली उक्ति का एकलय हो जाने वाला भाव अब अपना अनोखा सौंदर्य बोध 'नैक-नैक' दरसाने लगा है। आज सुबह उठा; पानी खूब बरस रहा था। मेरा मन भी मुक्त होकर झमाझम बरस उठा। वह बेखुदी, हिप्नॉटिज्म जैसा आलम, सिर और कलेज से बेहोशी की मोटी पर्त दर पर्त जमी हुई बर्फ-सी ठंडक पिघल कर हरहराती सैलाबी आनंदी नदी बन कर बहने लगी। इतना आनंद मुझसे सहा न जा सका। भाव को अपनी शक्ति-भर प्रस्फुटित होने देने लायक सामर्थ्य अभी मेरे शरीर में नहीं। खैर अब पुरानी बातों पर गम करने के बजाय इतने में ही मस्त हूँ। गो चाँद तक पहुँचा तो क्या हुआ, जो मजा गागारिन ने अपनी दुनिया से ऊपर उठ कर उसे देखने और आकाश को नए रूप में देखते हुए पाया होगा, वह आज मुझे भी आ गया।
आज सुबह पाँच बजे उठने की योजना से अलार्म लगाई थी। चूँकि मैं पहले ही जाग कर बरामदे में अपनी खाट पर बैठा हुआ बाहर-भीतर के दृश्य में लीन था, इसलिए ये बडा अजीब लगा कि आनंद का उद्दाम प्राण वेग जब मेरेलिए असह्य था तभी अलार्म बज उठी और उसकी घनघनाहट जैसे मुझे बड़े सहज भाव से बाहर उँगली पकड़ कर सीढ़ियों से उतारती ले आई. जैसे एक जटिल नाटकीय क्लाइमॅक्स का दृश्य अपने चरम बिंदु पर पहुँचते ही सहसा एक हल्का-सा झटका लेकर ऐसे सहज कलात्मक सौंदर्य के साथ खुल गया कि तब से अब तक मन उसी पर मुग्ध है।
आज मंगलवार है। मैंने कल शाम को ही यह निश्चय किया था कि आज सबेरे छाँछू कुएँ के बजरंगबली को अपनी 6 तारीख की सार्वजनिक सभा का न्यौता देने जाऊँगा। गया। पहला न्यौता दिया। मन को यह विश्वास हो गया कि जीत अवश्य ही हमारी होगी। उस भरी पूरी श्रद्धा पूजा के क्षणों में न जाने कैसे, धीमे से, बाँकेमल का चौबे दंगल प्रसंग में कहा हुआ डायलाग मन में सरक आया: "बजरंगबली, ये क्या खुस्कैटी दिखला रहे हो यार, ज़रा जोर लगाओ." हम तो मन ही मन हँसे ही, पर हमें लगा कि श्री बजरंगबली भी हँस रहे हैं। रामविलास, अपने कलेजे में यह लिख रखो कि हम जीतेंगे अवश्य। प्राणों की बाजी तो अंत में ही लगेगी। मैं आज से जन संपर्क करने निकल पड़ा हूँ। सभी सरकारी गैर-सरकारी नेताओं, विधायकों, पत्रकारों और बौद्धिकों से मिलूँगा। हिन्दी जितनी मेरी है, उतनी ही उनकी भी। व्यक्तिगत रूप से मेरी किसी से दुश्मनी तो है नहीं; इस विधेयक का विरोध करने के पीछे मेरा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ तो नहीं है। मैं भाई की तरह से गिड़गिड़ाऊँगा, हाथ जोड़ कर राम और कृष्ण की बूढ़ी परम पवित्र आत्मा की लाज रखने के लिए भीख माँगूँगा और जब यों भी काम नहीं चलेगा तो राम का नाम लेकर अनशन द्वारा आत्मोत्सर्ग कर दूँगा।
यह तो मेरा भाव रूपी ब्रह्म था, अब मेरे वस्तु ब्रह्म को भी तनिक निहार, ओ भाषा और समाज के यशस्वी लेखक-
1. सरकार संविधान की धारा 210 (2) में संशोधन करना चाहती है। इसके अनुसार 25 जनवरी 65 तक संसद या प्रादेशिक विधान सभा (आदि) में राज्य की भाषा या भाषाओं या हिन्दी या अंग्रेज़ी में काम हो सकता है। याद रखना, प्रदेश को इनमें से एक ही 'या' की स्थिति चुननी है। 26 जनवरी 65 को इनमें से अंतिम 'या' अर्थात अंग्रेज़ी एकदम गायब हो जाती है।
2. सन 50 (या 51) से हिन्दी विधानानुसार उ।प्र। की राजभाषा है। विधान सभा में तब से अंग्रेज़ी नहीं बोली जा सकती और यदि बोली भी जाती है तो अध्यक्ष की सहमति से ही। यदि 'किसी कार्य के वास्ते सीमित प्रयोग करने के लिए' अंग्रेज़ी के व्यवहार का संशोधित कानून बन गया तो एसेंबली में अंग्रेज़ी बोलने की परंपरा फिर से पड़ जाएगी। यह हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के सही विकास के लिए सर्वथा अनुचित है।
3. संविधान में धारा 348 (3) के अंतर्गत प्रदेश के राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह विधान सभा में प्रदेश की भाषा में पास होने वाले संशोधनों या पूर्ण विधान धाराओं को मूल के साथ ही साथ उसका अंग्रेज़ी का प्राविधिक अनुवाद भी राज्य के हिंदी-अंग्रेजी गजटों में प्रकाशित कर दे। न्याय समस्त कार्यों के लिए उक्त अंग्रेज़ी अनुवाद मूल के समान ही प्रामाणिक माना जाएगा।
जब यह सुविधा मौजूद है तब धारा 210 (2) में नए संशोधन की आवश्यकता क्या है? क्या हमें इसे अंग्रेज़ी फैनेटिसिज्म और इंपीरियलिज्म'का खुफियावार न समझें कि "बेटा उट्टर प्रडेश, टुम शान पचाश में हमको जान से मार कर अपना अम्मा हीन्डी को गड्डी पर बिठाया। मगर डेखो, हम मरा नहीं हैंगा, हम अब फिर शे असेंबली में टुमारा अम्मा का चाटी पर चरहकर मूँग डलेगा। टुम शाला हीन्डि वाला हमारा मूँ पर ठूका था, अब शाला लोक अपना ठूका' अनन्ट काला' टलक चाटते रहो। हाः-हाः हाः! गॉड सेव द क्वीन!"
बोलिए, महाचेता डॉक्टर रामबिलासजी शर्मा जत्थेदार, अब भी आप वक्त पड़े मेरे अनशन करने पर जत्था लेकर आएँगे?
गदर के फूल का एक प्रसंग याद आ गया। बाराबंकी जिले के बावन गाँवों के सत्रह सौ किदवाई जवान नवाब शुजाउद्दौला के साथ अंग्रेज़ी के विरुद्ध बक्सर में लड़ने के लिए गए थे। नवाब अंग्रेजों से हारकर घर लौटने लगे तो किदवाई लोग बोले: "हुजूर, आप तो शाहे जमाना हैं, हार कर भी मुँह दिखा लेंगे, मगर हम मामूली सिपाही यह शर्म क्यों कर बर्दाश्त कर पाएँगे।" डॉक्टर साहब, मेरे बहुत से 'हिंदी बुजुर्ग' अपनी नपुंसक चिड़चिड़ाहट-भरी भाषाई टीसों में कराहते हुए भी बाइज्जत जी सकते हैं, परंतु यह साधारण जन-अमृत-जिसे हिन्दी माता ने ही, जो कुछ भी वह है, बनाया है, उसका अनंत काल तक अपमान होने के बाद फिर कौन-सा मुँह दिखाने के लिए जीवित रहे?
...बात यहाँ पर आते ही तुम्हारे 25 / 8 के पत्र का उत्तर देने लायक स्थिति में आप से आप आ गई. लेकिन पहले तुम्हें एक पुराने चालू शेर की याद दिला दूँ:
इश्क की मजबूरियाँ पूछे जुलेखा से कोई
मिस्र के बाज़ार में यूसुफ को रुसवा कर दिया।
इसमें न तो मैं जुलेखा हूँ और न तुम यूसुफ, मगर बकौल तुम्हारे, मेरी 'नखरा' अदायगी के पीछे इश्क की मजबूरियाँ तो भरपूर थीं ही। गलती मुझसे एक ही हुई, धर्मयुग को पत्र भेजने के साथ ही मुझे तुरंत तुम्हारे पास कैफियत लिख भेजनी थी। लापरवाही कर गया, चाहो तो क्षमा कर दो और न करोगे तो... मेरा क्या? खैर, विवरण सुनो-
माई डियर मिनिस्टर मानव के पत्र वाला रहिमन दोहा तुम्हें लिख कर भेज ही चुका हूँ। अब दूसरे दिन सुबह की डाक से पाए गए दो पत्रों के अंश फूल की तरह सूँघो:-
(1) नवनीत किशोर मिश्र, लखनऊ (स्व। डॉ। ब्रजकिशोर मिश्र का ज्येष्ठ पुत्र) अंतर्देशीय पत्र के पैसे खर्च करके लिखता है: "आज पूज्य चरण के सम्बंध में लिखे गए लेख को पढ़कर मन न जाने कैसा हो उठा। ...आपका स्मरण करके पुनः एक चित्र-सा उभर आता है। (पिता की) शवयात्रा के समय कितना आपने मुझे बल दिया था। आज मन काफी परेशान हुआ और सहसा आपकी याद करके मेरी आँखें भींग गईं।" आदि-आदि।
(2) आनंदशंकर कटारे, विदिशा: "धर्मयुग में आपका विवरण पढ़कर हिन्दी साहित्य के महारथियों की इस देश में स्थिति का विचार आया। वास्तव में देखा जाए तो स्थिति बहुत कुछ सोचनीय है..." इत्यादि।
(3) एक टेलीफोन दिन में रिजर्व बैंक के आफिस से किसी बाबू पाठक श्री... जैन का आता है। "...साहब ये क्या हमारा दुर्भाग्य है कि आप जैसे महान पुर्शों को इतना सहन करना पड़ता है"-इस टाइप की वार्ता 15 मिनट तक!
शाम को उनसे न रहा गया तो 'महान पुर्श की दैनीय दशा' पर आँसू बहाने के लिए पूछते-पूछते घर आ पधारे। यहाँ आकर उन्हें दिखलाई दिए साहजी की हवेली के रोमन खंभे महफिली आग्न और मेरे ड्राइंग रूम का बिन टके का राजसी वैभव। देखते ही बुझ गए बेचारे। हालाँकि मैंने उन्हें चाय, पान और अपनी मीठी भली बातों से काफी संतुष्ट कर दिया, पर इसका मुझे पक्का विश्वास है कि वे मुझसे और तुमसे (तुमसे विशेष रूप से) बोर होकर ही लौटे थे। मेरी आर्थिक स्थिति की दीनता उन्हें मेरे घर में नजर न आई. उनकी एक बात मेरे इस विश्वास का प्रमाण है। -"ये जाने क्या बात है साहब कि हिन्दी के महान पुर्शों के लिए चंदों की अपीलें बहुत निकलती हैं साहब? क्या वाकई पब्लिसर लोग इनको एक्सप्लाएट करते हैं या इनके खर्चे इतने जादा और अधिक होते हैं कि..."
इन जैन साहब के जाते ही मैंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया।
तुम्हारी बात सही है। हैमलेट और किंग लियर की थकनी, हँफनी और संजीवनी तीनों ही मुझमें ज्यों की त्यों मौजूद हैं, तीनों ही अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग ढंग से अपना-अपना जलवा दिखलाती हैं। मगर हिन्दी के वर्तमान दैन्यभरे वातावरण को अपनी आर्थिक चिंता से लाद कर और दीन नहीं बनाना चाहता। इस समय हिन्दी भाषा-भाषी समाज को हिन्दी की दीनता के जूने पुराने रोने से मुक्त किए बिना हमारा काम चल ही नहीं सकता। यह दीनता का स्वर हमारे जन को निःसहाय, हत बुद्धि और नपुंसक विद्रोही बनाता जा रहा है। यह झूठ नहीं कि शुद्ध साहित्य लेखन व्यवसाय में आने वाले को अपनी सीमिततम आमदनी होने की बात को सावधानी से होश में गिरह देकर बाँध लेना चाहिए. मैंने भी बाँधी थी, वही आन तो मेरी संजीवनी है। थकनी-हँफनी मानवीय कमजोरी या विशेषता के तौर पर आती है और अपना उदास जल्वा भी दिखलाती हैं, मगर ये जल्वा महज चलता-फिरता ही है, स्थायी भाव लेखन कार्य की आस्था ही है। इसीलिए जन भ्रमजाल से अपने को बचाने के लिए दो एक वाक्य सारे खालिस सच में 'नरो वा कुंजरो वा' ट्रिक से लिख दिए, "अब वैसा टूटापन अनुभव ही नहीं करता..." , मेरे 'नखरे' के 'ही' वाले जोर पर ध्यान दो जानेमन! इसीलिए कहा कि इश्क की मजबूरियाँ भी समझा करो। मैं अपने जीते जी अपने पाठक के सामने वह 'अर्थ-दयनीय' चित्र नहीं आने देना चाहता। विद्वान तो खैर तुम औवल-नंबरी हो ही, परंतु भावुक भी बेहद हो। मेरे पत्रों में कभी-कभी लिखी गई थकनी और हँफनी की बात को तुमने एक साथ पढ़ा, सनाका खा गए, जैसे अभी मेरे अनशन की बात पर, मेरे मोहवश सनाका खा गए. हे महावीर, तनिक अपने सिद्धांत का विचार भी करो। हिन्दी समाज का 'मनेादर्शन' करो। एक तो मेरा विश्वास है, रामकृपा से मैं बिना अनशन किए ही अपने मिशन में सफल हो जाऊँगा; पर मान लो, न हुआ, अनशन द्वारा प्राणांत होने की नौबत भी आ गई तो... तेरा तो महज एक दोस्त ही जाएगा, मगर उससे हिन्दी के साहित्यिक गौरव और उसके स्वाभिमान की बिखरी चेतना में नए प्राण पड़ जाएँगे, वह संगठित हो जाएगी। कितना बड़ा लाभ होगा।
तुम्हें बहुत-बहुत प्यार। अपनी दिल सम्हालो। बहुत जोश आए तो कुछ लिख डालो। चाहत जगाओ हिन्दी वालों के दिल में हिन्दी के लिए.
सौ। भाभी को राम राम। तुम्हें भी। आयुष्मान् बेटों, बेटियों और सौ। बहुओं को बहुत-बहुत असीसें और प्यार।
तुम्हारा
अमृत
(2 सितंबर 64, 2.34 रात्रि)
पुनः
1. अपने वक्तव्य की नकल शीघ्र ही भेजूँगा।
2. हिन्दी के भुजबल दिखलाने वाले 50 हजार तैयार तो कर लो। वह संगठन अभी हमने किया ही कहाँ है? वही हो जाए तो कौन... अनशन करके प्राण दे?
विद्वद्वर, हिन्दी भूषण
श्रीमान डॉक्टर रामविलासजी शर्मा
एम.ए., पीएच.डी.
30, न्यू राजामंडी
आगरा