डोनाल्ड ट्रम्प की संकीर्णता से हत्याएं? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :03 मार्च 2017
अमेरिका के चुनाव प्रचार में डोनाल्ड ट्रम्प ने अन्य देशों के लोगों को अमेरिका नहीं आने देने का एजेंडा प्रस्तुत किया था। उनका विचार था कि अमेरिका में रोजी-रोटी कमाने का अधिकार केवल अमेरिका में जन्मे लोगों को है। अरसे पहले द्रविड मुनेत्र कड़गम का जन्म भी इसी विचार से हुआ था कि बाहर वालों को तमिलनाडु में अवसर नहीं दिए जाए। बाद में बाल ठाकरे ने भी महाराष्ट्र में यही नारा लगाया। इस तरह से संकीर्णता का दृष्टिकोण चेन्नई से मुंबई होता हुआ वॉशिंगटन पहुंचा। दरअसल, संकीर्णता की जंगल घास सब जगह उग जाती है अौर इसके लिए किसी बीज का आयात नहीं करना पड़ता। यक्ष ने युधिष्ठिर से यह प्रश्न भी पूछा था कि समय या राजा कौन अधिक बलवान होता है। युधिष्ठिर का उत्तर था कि राजा उसी को कहते हैं, जो समय की धारा की दिशा बदल सके। साधारण लोग प्रवाह के साथ ही बहते हैं।
एक दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हॉलीवुड फिल्मों के भारत में आयात को प्रतिबंधित कर दिया था। उस समय कोई भी अप्रवासी भारतीय राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम में पांच हजार डॉलर जमा करके विदेशी फिल्म का आयात कर सकता था, जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तेजक एवं हिंसक फिल्मों का आयात हुआ, जिनमें से कुछ फिल्में लगभग नीले फीते के जहर अर्थात पोर्नोग्रॉफी की तरह थीं। उन फिल्मों के उत्तेजक दृश्य सेन्सर काट देता था परंतु कटे हुए अंश पुन: जोड़कर फिल्में प्रदर्शित की जाती थीं और इस जोड़ने को
इंटरपोलेशन कहा जाता था। इन फिल्मों में एक लोकप्रिय फिल्म 'सिराको' थी, जिसमें अभद्र दृश्यों के कारण उसकी कमाई मुख्यधारा की हिंदुस्तानी फिल्मों से अधिक हुई थी।
किसी भी क्षेत्र में संकीर्णता का आगमन पूरी मनुष्य जाति को हानि पहुंचा सकता है। राजनीति में राइटिस्ट संकीर्णता का हिमायती रहा है। यह चिंताजनक है कि वर्तमान में अनेक देशों के प्रमुख संकीर्णवादी हैं। मानवता की धारा को विपरीत दिशा में प्रवाहित करने के प्रयास किए जा रहे हैं और सबसे अधिक दुखद बात यह है कि इन विभाजक शक्तियों को अवाम का समर्थन मिला है तो क्या हम इस नतीजे पर पहुंचे कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की नकारात्मकता के प्रभाव में आ चुका है? साधारणीकरण गलत नतीजे पर भी पहंुचा देता है। आत्महत्या कभी कोई समाधान नहीं हो सकती। विपरीत परिस्थितियां स्वयं उनसे संघर्ष करने की ताकत देती है। रावण, कंस, हिटलर जैसे लोग अपनी नकारात्मकता में ही अपने विनाश के बीज लिए जन्मे थे। बुराई के विपरीत दिशा में उठे कदमों का विरोध स्वयं उनकी जांघें ही करती हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प के पागलपन के प्रभाव सामने आ रहे हैं। दो भारतीय लोगों को अमेरिका में गोली मार दी गई। यह ट्रम्प कार्ड स्वयं ट्रम्प के खिलाफ अकाट्य प्रमाण की तरह उभरा है और पूरा अमेरिका सन्न रह गया है। सीनेट में ट्रम्प का विरोध हो रहा है। वहां एक आंदोलन पनप रहा है कि प्रेसीडेंट डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ सीनेट में अविश्वास का प्रस्ताव रखा जाए। अब ट्रम्प महोदय सकते में आ गए हैं और उदारवादी दिखने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि लोमड़ी की तरह चतुर डोनाल्ड ट्रम्प जानते हैं कि अपनी कट्टरता को छिपाने के लिए उदारवाद का मुखौटा आवश्यक है। तानाशाही प्रवृत्ति नाना प्रकार के वेश और मुखौटे धारण करने में प्रवीण होती है। वे देवकीनंदन खत्री की तरह अय्यार होते हैं, जो इच्छाधारी नागिन के गल्प की तरह स्वंय को बदले हुए रूप में प्रकट करना जानते हैं। वे लखलखा सुंघाकर विरोधी को बेहोश करते हैं। हमारे वजीरे आज़म की लच्छेदार वाणी भी यही काम करती है। वे अपने लखलखे को नाक में नहीं वरन कान के द्वारा विचारप्रणाली में प्रवेश कराते हैं। निदा फाज़ली की पंक्तियां हैं, 'औरों जैसा होकर भी, जीवन जीना सहज न समझो, यह है बहुत फनकारी भी,' वर्तमान में देवकीनंदन खत्री का प्रासंगिक होना भी एक किस्म की लाचारी है। लुग्दी साहित्य हमेशा सार्थक साहित्य को पीछे धकेल देता है।
क्या ऑस्कर समारोह में श्रेष्ठ फिल्म के नाम की घोषणा में हुई त्रुटि को पूरे अमेरिका के विचलित होने का प्रतीक मानें। हॉलीवुड फिल्मों में आप वहां के अवाम के अवचेतन की झलक देख सकते हैं। भारतीय सिनेमा में भारत उतना नहीं दिखाई देता, जितना हॉलीवड फिल्मों में अमेरिका नज़र आता है। रॉबर्ट स्कलर की किताब का नाम है, 'मूवी-मेड अमेरिका।' आज के भारत के आकलन के लिए देश को राजेंद्र माथुर, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल व शरद जोशी के नज़रिये से देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने में भी भ्रम कई तरह से उजागर होता है। कुछ दशक पूर्व एक विज्ञापन फिल्म की हर पांचवीं फ्रेम में एक निर्वस्त्र स्त्री थी और एक सेकंड में चौबीस फ्रेम होते हैं, तो देखने वाले के अवचेतन में उस स्त्री छवि का प्रभाव पड़ता था। इस विज्ञापन फिल्म के खिलाफ दायर मुकदमे में सारी बातें उजागर हुईं। वर्तमान में भारत विकास नामक विज्ञापन फिल्म की हर पांचवीं फ्रेम में साधनहीन भूखा निर्वस्त्र भारतीय खड़ा हुअा है, जो सामान्यत: देखने में नज़र नहीं आ रहा है परंतु देश के अवचेतन में दर्ज हो रहा है।