डोरियाँ / अर्चना राय
अस्पताल के बेड पर पड़े-पड़े दुख और ग्लानि से उनका दिल बैठा जा रहा था। जब से उन्हें पता चला कि उनके आपरेशन के लिए बेटे ने घर गिरवी रख पैसे जुटाए हैं, उनके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वे उस घड़ी को कोस रहे थे, जब उन्होंने बेटे से मिलने गाँव से शहर आने का फ़ैसला किया था।
न आता तो कम-से-कम यह एक्सीडेंट न होता, न ही बेटे के सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता। सोच-सोचकर उनका बुरा हाल था। पैर टूटने से कहीं ज्यादा, उन्हें घर गिरवी रखने का दर्द हो रहा था।
बेटे-बहू को सामने से आते देख उनका जी चाहा कि अभी धरती फट जाए और वे उसमें समा जाएँ। मैं अपने बेटे से कैसे नजरें मिला सकूँगा, बहू मेरे बारे में क्या सोच रही होगी?
पिता तो वह होता है जो बच्चों के दुख-तकलीफ दूर करता है और एक वह है, जिसने अपने बच्चों को ही तकलीफ में डाल दिया है। एक्सीडेंट में मैं मर क्यों न गया, मन-ही-मन अपने आप को लानतें दे रहे थे।
"बेटा मनीष, ...बहू मुझे मा...आ। फ...करना"-हाथ जोड़कर वे हिलककर रो पड़े।
"अरे! पिताजी यह आप क्या कर रहे हैं..."-बेटे ने झट उनके हाथों को थाम लिया।
"बेटा, मुझे पता ही नहीं चला, कब पीछे से आकर कार ने टक्कर मार दी।"
"पिताजी, सड़क हादसा तो किसी के साथ भी हो सकता है... इसमें आपकी कोई गलती नहीं है।" बहू ने कहा।
"पर बेटा... मेरी वज़ह से घर..."-कहते हुए उनकी हिचकियाँ बँध गईं।
"कोई बात नहीं पिताजी आपके साथ और आशीर्वाद से ऐसे कई घर बना लेगें।" बेटे ने ढा़ढ़स बँधाया।
"हम्म..."-बेटे की बातों ने उनके मन पर पड़े बोझ को हल्का कर दिया।
दर्द और कमजोरी की वज़ह से उनकी आँखें मुँद रहीं थीं, इसलिए वे उन्हें बंद कर शांत भाव से लेट गए।
"पिताजी! ...आप बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए ... सब ठीक हो जाएगा।"-आगे बढ़कर बहू ने ससुर के माथे पर प्यार से हाथ फेरकर सहलाते हुए कहा।
ममता-भरा नर्म स्पर्श पाकर उन्होंने आँखें खोलीं। सामने देखकर वे चकित रह गए! अचानक उन्हें बहू के चेहरे में अपनी माँ की छवि दिखाई दे रही थी।
वह भी तो ऐसे ही उनके सिर पर हाथ फेर सारी तकलीफें हर लेती थी।
वहाँ खड़ी नर्स की आँखें बरबस भीग गईं।
एक तीस साल की माँ का साठ साल के बेटे को दुलार करते देखकर!
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