ढँकी हुई बातें / तरुण भटनागर
उस रोज जब बीजू आया, मैं पहले पहल उसे पहचान नहीं पाया। मैं उसके इस तरह आने के लिये तैयार नहीं था। ऐसा कोई कारण भी नहीं था कि वह दुबारा आता। वह भी पूरे बारह सालों के बाद एक दिन अचानक। पर ऐसा भी नहीं सोचा था कि वह इतना विस्मृत हो जाएगा कि वह मेरे सामने खड़ा हो और मैं कुछ क्षणों को उलझ जाऊं कि वह कौन है? उस दिन तेज गर्मी पड़ रही थी। वह शायद देर तक बाहर खड़ा रहा था। कॉलबेल खराब हो गई थी और कुंडी खड़खड़ाने की आवाज़ कूलर की आवाज़ में गुम हो गई थी। "क्यों डाल दिया न चक्कर में ...।" मैं उसे पहचानने के असमंजस में था। पर उसकी सहजता ने मुझे सतर्क कर दिया। मैं उसे पहचाने बिना मुस्कुरा दिया। "क्यों भूल गए।" "तुम, अरे ...।" "मुझे बीजू कहते हैं।" "अरे यार तुम भी ...।" वह मेरा असमंजस जान चुका था। वह पहले भी ऐसा ही था। वह भाँप लेता था कोई मुखौटा लगाएँ तब भी वह जान जाता था। मुखौटा लगाने पर भी आँख कान बाल वगैरा खुले रहते हैं। बीजू के लिए इतना पर्याप्त होता था ...भाँपने के लिए।
"एक क्षण को तो मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया था।" "कभी–कभी ऐसा हो जाता है।" हम ड्राइंग रूम में आ चुके थे। "तुम बिल्कुल वैसे ही हो।" "पर तुम मोटे हो गए।" "अरे नहीं, अभी तो गुंजाइश है।" "उहुँ ...। कुछ कंट्रोल करो।" ड्राइंग रूम में वह सोफे पर अध–लेटा फँसा था। उसकी बिन सोची नज़र ड्राइंग रूम पर टिक रही थी, उड़ रही थी। कभी दीवार पर शिबु की फोटो पर, फिर शोकेस की मूर्तियों पर, दीवान की कार्विंग पर, किनारे रखे चीनी मिट्टी के पॉट पर, गुलदस्ते में सजे हैलेक्राइसम पर ...। उसके बैग की काली पट्टी उसके दाहिने हाथ की ऊँगलियों के बीच फँसी थी। वह एक ऊँगली से दूसरी के बीच सरकती, फिर फिसलती, फिर ऊँगलियों पर कसती, फिर ढ़ीली होकर झूलती ...। वह अपने भीतर के खोखल में मगन था। फिर वह ऊँगली पर नाचती पट्टी हो या उड़ती, टिकती, गिरती नज़र, किसी के पीछे मन नहीं था। बस एक भीतर वाला खाली कुआँ..। फिर अचानक उसकी आँख मुझपर आकर रूक गई। हम आँख मिलाते भावहीन चेहरों के साथ कैसे बैठ सकते थे। मैंने अपने को उससे बचाने के लिए जीभ पर जो बात आई, चालू कर दी – "बहुत थके लग रहे हो।" "बड़ा लंबा सफर था ...बिलासपुर से कटनी, फिर भोपाल फिर यहाँ ...।" "किस ट्रेन से आए।" मैं जानता था, ऐसी एक ही ट्रेन है। "नर्मदा एक्स्प्रेस से ...।" "रिजर्वेशन तो रहा होगा ...।" "हुँ ...।" "फिर ...।" "भीड़ बहुत थी और गर्मी भी।" "पर नर्मदा एक्स्प्रेस तो सुबह आती है।" "चार घंटे लेट हो गई थी।" "शुरू से ही लेट चली होगी।" "नहीं भोपाल के बाद एक स्टेशन पर इंजन खराब हो गया था ...वहाँ करीब तीन चार घंटे खड़ी रही।" "कहाँ पर ...?" "नाम याद नहीं आ रहा है। कोई ...कुछ पीपल करके था।" "कालापीपल ...।" "हाँ शायद वही।" "तुम क्या उतनी देर ट्रेन में ही बैठे रहे?" "हाँ, फिर थोड़ी देर स्टेशन पर भी भटके और क्या ...।" "वैसे तुम्हें वहाँ से यहाँ तक के लिए बस मिल जाती।" "हाँ ...कुछ लोग बस के लिए चले गए थे, पर इस एरिया का कोई आयडिया न होने के कारण मैं वहीं रूका रहा।" ट्रेन का इंजन तो वहाँ ठीक नहीं हुआ होगा?" "कहीं और से आया था।" "एक क्षण को तो मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया था।" "कभी–कभी ऐसा हो जाता है।" हम ड्राइंग रूम में आ चुके थे। "तुम बिल्कुल वैसे ही हो।" "पर तुम मोटे हो गए।" "अरे नहीं, अभी तो गुंजाइश है।" "उहुँ ...। कुछ कंट्रोल करो।" ड्राइंग रूम में वह सोफे पर अध–लेटा फँसा था। उसकी बिन सोची नज़र ड्राइंग रूम पर टिक रही थी, उड़ रही थी। कभी दीवार पर शिबु की फोटो पर, फिर शोकेस की मूर्तियों पर, दीवान की कार्विंग पर, किनारे रखे चीनी मिट्टी के पॉट पर, गुलदस्ते में सजे हैलेक्राइसम पर ...। उसके बैग की काली पट्टी उसके दाहिने हाथ की ऊँगलियों के बीच फँसी थी। वह एक ऊँगली से दूसरी के बीच सरकती, फिर फिसलती, फिर ऊँगलियों पर कसती, फिर ढ़ीली होकर झूलती ...। वह अपने भीतर के खोखल में मगन था। फिर वह ऊँगली पर नाचती पट्टी हो या उड़ती, टिकती, गिरती नज़र, किसी के पीछे मन नहीं था। बस एक भीतर वाला खाली कुआँ..। फिर अचानक उसकी आँख मुझपर आकर रूक गई। हम आँख मिलाते भावहीन चेहरों के साथ कैसे बैठ सकते थे। मैंने अपने को उससे बचाने के लिए जीभ पर जो बात आई, चालू कर दी – "बहुत थके लग रहे हो।" "बड़ा लंबा सफर था ...बिलासपुर से कटनी, फिर भोपाल फिर यहाँ ...।" "किस ट्रेन से आए।" मैं जानता था, ऐसी एक ही ट्रेन है। "नर्मदा एक्स्प्रेस से ...।" "रिजर्वेशन तो रहा होगा ...।" "हुँ ...।" "फिर ...।" "भीड़ बहुत थी और गर्मी भी।" "पर नर्मदा एक्स्प्रेस तो सुबह आती है।" "चार घंटे लेट हो गई थी।" "शुरू से ही लेट चली होगी।" "नहीं भोपाल के बाद एक स्टेशन पर इंजन खराब हो गया था ...वहाँ करीब तीन चार घंटे खड़ी रही।" "कहाँ पर ...?" "नाम याद नहीं आ रहा है। कोई ...कुछ पीपल करके था।" "कालापीपल ...।" "हाँ शायद वही।" "तुम क्या उतनी देर ट्रेन में ही बैठे रहे?" "हाँ, फिर थोड़ी देर स्टेशन पर भी भटके और क्या ...।" "वैसे तुम्हें वहाँ से यहाँ तक के लिए बस मिल जाती।" "हाँ ...कुछ लोग बस के लिए चले गए थे, पर इस एरिया का कोई आयडिया न होने के कारण मैं वहीं रूका रहा।" ट्रेन का इंजन तो वहाँ ठीक नहीं हुआ होगा?" "कहीं और से आया था।" हम दोनों फिर चुप हो गए। बारह साल पहले बीजू ऐसा नहीं था। वह एक्स्ट्रोवर्ट था, बातूनी और खुराफाती भी। तब हम दोनों कॉलेज में पढ़ते थे और बिलासपुर में एक कमरा किराये पर लेकर साथ रहते थे। उन दिनों जब वह छुट्टियों के बाद घर से आता था, मुझे उससे कुछ पूछना नहीं पड़ता था। वह दरवाज़े से ही बक–बक सी करता आता, चुटकुले सुनाता। अपनी किसी गर्लफ्रेंड की चटकारे भरी बातें बताता, ब्रीफकेस कहीं पटकता, कपड़े कहीं उतारता ...मैं कभी–कभी उसकी बक–बक से झल्ला जाता था। पर मुझे पता भी नहीं था कि मुझे उसकी आदत सी थी। जब वह नहीं होता था, तब वह कमरा बेजान सा लगता था। जब वह नहीं होता था तब मैं दूसरे दोस्तों के साथ घूमने–फिरने निकल जाता था। कभी बाज़ार चला जाता तो कभी सिनेमाघर, तो कभी टहलने चला जाता था। उन दिनों मैं सोच भी नहीं सकता था कि एक दिन बीजू कम बोलने वाला चुप्पा हो जाएगा। जो धकेलने पर भी बस कुछ ही बातें करता है। फिर बातों को छोड़कर चुप हो जाता है। पल भर में अपने में मगन हो जाता है। पर आज मुझे उसका ऐसा चुप्पा होना सुकून दे रहा था। क्योंकि अगर वह आज भी वैसे ही बक–बक करता हुआ आता जैसा बारह साल पहले आता था, तब नीरजा क्या सोचती कि मेरे दोस्त कैसे हैं और शिबु ...। शिबु अभी ढ़ाई साल का है। अपने परायों को पहचान लेता है। वह तो बीजू की बक–बक सुनकर घबरा जाता। शायद दौड़कर आता और मेरी टांगों के बीच धंस जाता। शायद नीरजा की साड़ी पकड़कर उससे चिपट जाता। शायद रोने लगता पर थैंक गॉड ऐसा नहीं होना है। बीजू शून्य में ताक रहा था। मैंने उससे मुँह हाथ धो लेने को कहा। वह बाथरूम चला गया। उसके जाने के बाद कमरे में, अकेले में, मुझे सुकून सा लगा, जैसे वेइंग मशीन से वजन हटने के बाद उसका काँटा शून्य के दोनों ओर डोलता है। पर थोड़ी ही देर में मुझे कुछ मतली सी आने लगी। मुझे लगा मुझे बीजू से कम से कम यह तो पूछना ही चाहिए था, कि वह कैसा है? उसका घर, उसके बीवी बच्चे, उसका सुख–दुख ....। मैंने क्यों नहीं पूछा? छिः ऐसा भी कोई करता है। मुझे खयाल ही नहीं आया। खैर अभी जब बीजू आ जाएगा तब पूछ लूँगा। पर उसने भी तो सब बातें मुझसे नहीं पूछीं। मुझे संतोष सा हुआ कि उसने भी ये सब बातें मुझसे नहीं पूछीं। पर बारह साल पहले मैं किसी बात को इस तरह जस्टीफाई नहीं करता था कि बीजू ने क्या कहा? उसने क्या किया? कुछ था जो बस कहलवा देता था। सोचने भी नहीं देता था। कहलवा देता था, साफ सी अंतरतम की हर पीड़ा और उथलेपन की हर हँसी ...। छुपाने की चतुराई हम नहीं सीख पाए थे। मैं सोचने लगा, जब मैं बीजू से पहली बार मिला था। उस समय हम छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव में रहते थे। मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला दुबली–पतली मरियल सी काया वाला लड़का था। स्टड़ी टेबल पर झुका रहनेवाला जो किताबों में डूबने के कारण होने वाले एक अजीब से डिप्रैशन में रहता है। उन दिनों मैं इतना ज्यादा पढ़ता था कि आज जब वे दिन याद करता हूँ तो मुझे टेबल लैंप का वह प्रोजेक्शन तक याद आ जाता है जो रात को सोने के बाद भी देर तक मेरी आँखों में बना रहता था। उस गाँव में खूब पानी गिरता था। ऐसी ही एक बरसाती रात में वह आया था। बहन ने बताया कि मेरा कोई दोस्त है। मुझे याद आया कि स्कूल में मैंने बीजू से मैथ्स की एक किताब माँगी थी और उसने घर पर लाकर देने को कही थी। मैं उसे अपने स्टडी रूम में ले आया। "ये तुम्हारा कमरा है।" "हाँ ...यहाँ सोता भी हूँ।" "ये वही पुस्तक है जो तुमने माँगी थी।" उसने गीली बरसाती में से एक पुस्तक निकालकर मेरी टेबल पर रख दी। लोनी की ट्रिग्नामेट्री जिस पर बना मैकमिलन का 'एम' टेबल लैंप की रोशनी में चमकने लगा। "थैंक्स ...मैं जल्द ही वापस कर दूँगा।" "तुम रख लो मेरे पास एक और है।" बाद में परीक्षा के समय मुझे पता चला उसके पास दूसरी नहीं थी। किताबों के मामले में वह ऐसा ही था। "तुम कुछ खेलते–वेलते हो ...।" "कोई खास नहीं। पहले जहाँ हम रहते थे वहाँ कभी–कभी बैडमिण्टन खेलता था।" "भला वह भी कोई खेल हुआ। हम लोग रोज शाम फुटबॉल खेलते हैं। कल से तुम भी चलना।" "इतनी बरसात में ...।" "बरसात में ही तो फुटबाल खेलने का मज़ा है। जब तक पानी में न भीगो, कीचड़ में न गिरो तब तक फुटबाल खेलने का मज़ा कहाँ ...।" "नहीं यार मैं नहीं आ पाऊँगा।" "तुम एक बार चलो तो, बड़ा मज़ा आता है।" "कहीं बीमार पड़ गए तो ..." "तुम तो खामखां डरते हो ...पर चल तो सकते हो। भले मत खेलना, स्कूल के बरान्डे में खड़े रहना।" "ठीक है ...।" "देखना कुछ दिनों बाद तुम्हारा भी फुटबाल खेलने का मन करने लगेगा ...।" मैं अगले दिन बेमन से उसके साथ गया, उसकी जिद के कारण। बाद में मुझे पता चला यह उसकी आदत थी। वह जिद्दी नहीं था, बस उसे हमेशा यही लगता था कि जिन कामों में उसे मज़ा आता है, दूसरों को भी उन्हीं कामों में मज़ा आता होगा। उसमें एक आदत और थी, वह अपने को किसी मॉनिटर या कैप्टन जैसा मानता था और दूसरों से अपेक्षा रखता कि वे उसकी बात को पर्याप्त तवज्जो दें। जब उसकी बात की अनदेखी होती तो वह जिद सी करने लगता या सामने वाले का मज़ाक बनाता। क्लास में कई बार उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी खासी ठन जाती पर वह अड़ियल सा बना रहता। उसने मुझ पर अपनी धाक जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने मुझे बताया कि जब से वह फुटबाल खेल रहा है, स्कूल की फुटबाल टीम का कैप्टन है और उससे उसकी यह स्थिति कोई नहीं छीन सकता। स्पोर्टस टीचर भी नहीं क्योंकि उसने स्पोर्टस टीचर को पटा लिया है। क्लास के मॉनिटर की बात वह नहीं मानता है क्योंकि वह उससे कम मैच्योर है। वह हमेशा टीचर की चमचागिरी करता रहता है और इसलिए मुझे भी उसकी बात नहीं माननी चाहिए, वगैरा–वगैरा। उस दिन से रोज शाम वह मुझे लेने आने लगा। शाम को हम दोनों एक साथ फुटबाल ग्राऊँड तक जाते। मैं छतरी में अपने को पानी से बचाता सा चलता और वह रास्ते भर पानी में भीगता, फुटबाल को पैरों से उछालता, कूदता–फाँदता सा चलता। ज्यादातर रास्ते भर वही बोलता और अपनी हर बात पर मुझसे हामी की अपेक्षा रखता और अक्सर मेरी बात को बीच में ही काटकर, अपनी कोई बिल्कुल नई बात चालू कर देता। मैं उसकी इस बात पर कई बार उखड़ सा जाता। फिर वह मुझे नाराज़ देख मुस्कुराता। उसे मुस्कुराता देख मेरा गुस्सा और बढ़ जाता। उसके मुस्कुराने में चिढ़ाने जैसा कुछ भी नहीं होता था, बस वह यूँ रिएक्ट करता जैसे मैं कोई बच्चा हूँ और मेरा गुस्सा करना बेमानी है। मुझे बहला फुसलाकर मनाया जा सकता है। कई बार मैं उसकी इस हरकत पर उसे रास्ते पर छोड़कर वापस घर चला आता और मुझे उसकी आवाज़ दूर तक सुनाई देती कि उसका मतलब यह नहीं था, वह फलां–फलां बात कर रहा था, मैं समझ नहीं पाया और भी जाने क्या–क्या। हम दोनों एक दूसरे से अच्छे खासे विपरीत थे और इसीलिए मैं आज तक यह नहीं जान पाया हूँ कि हम दोनों में निभी क्यों? बहुत समय तक इसका जवाब नहीं मिला, बस समय ने एक अनुभव सिखा दिया कि निभने के पीछे वास्तव में कुछ नहीं होता ...सोचकर कुछ भी नहीं निभता।
बीजू बाथरूम से आ चुका था। उसने अपने गीले बाल पीछे करके काढ़ रखे थे। मैंने देखा उसके माथे पर वह गोल निशान अभी भी था। एक अजीब सी इच्छा हुई कि उस निशान को छूकर देखूं। जब बीजू के माथे के घाव का टांका खुला था तब मैं उसे अपनी साइकिल में अस्पताल ले गया था। टांका खुलने के बाद घाव की जगह नई चिकनी चमड़ी आ गई थी। डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए मुझसे उस जगह को छूने को कहा। मैंने उसे छुआ। वहाँ की चमड़ी चिकनी लिजबिजी सी थी। उसका लिजबिजापन मैं आज भी महसूस कर सकता हूँ। उसको यह चोट फुटबाल खेलते हुए लगी थी। फिर लगा बीजू को याद दिलाऊं कि कैसे वह फुटबाल खेलते हुए गिर पड़ा था। एक बड़ा सा पत्थर उसके सिर में चुभ गया था और वह बेहोश हो गया था। पर फिर मुझे लगा आज हम उस घटना पर कैसे रिएक्ट करेंगे? क्या हँसकर? क्या उस बात को यूँ ही छोड़ देंगे कमरे के सन्नाटे के हवाले? क्या टालू अंदाज में तब तक जब तक वह बात बेमानी न हो जाए? कितना कुछ बेमानी हो जाएगा – घायल बीजू को देखकर मेरा रूंआसा हो जाना। यह देखकर घबरा जाना कि सब साथी डरकर हमें छोड़कर भाग चुके हैं। हड़बड़ाहट में उसे रिक्शे में डालकर अस्पताल ले जाना, बीजू के जल्द इलाज के लिए डॉक्टर से गिड़गिड़ाना, दवाओं के लिए दौड़–भाग और फिर मम्मी–पापा की डांट खाने के बाद रात को बिस्तर पर लेटे–लेटे भगवान से प्रार्थना करना कि वह सिर्फ बीजू को ठीक कर दे, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। आज तक आते–आते वे बातें सिर्फ शब्द रह गई हैं। उन्हें सोचकर तरस सा आता है। हिच होता है, पता नहीं किस चिज ने रोक दिया, मैंने बीजू से उस घटना पर बात नहीं की।
थोड़ी देर बाद नीरजा कमरे में आ गई, मैंने उसे बीजू से मिलवाया। "आपके बारे में यश से सुना था।" "क्या सुना था?" उसके चेहरे पर धुंधलाते संदेह का भाव आ गया। "यही कि आप दोनों अच्छे दोस्त थे, स्कूल में, कॉलेज में। यश ने बताया ...आप दोनों एक बार स्कूल से भागकर मेला देखने गए थे, फिर आप दोनों की खूब खोज खबर हुई थी।" मुझे वह धूल भरा मेला याद आया, जहाँ हम दोनों थकने के बाद भी अजीब से कौतुहल के साथ, घिसटते से घूम रहे थे। "आपकी पत्नी कहाँ की हैं?" "दुर्ग की ...।" "आपके बच्चे।" "एक लड़की है, दो साल की ...।" "उसका क्या नाम रखा?" "अपूर्वा ...।" "अच्छा नाम है ...है ना यश।" "हूँ ...।" "मैं अभी आई।"
भीतर से शिबु के रोने की आवाज आई और नीरजा उसे संभालने चली गई। हम दोनों देर तक अपने–अपने में बैठे रहे। थोड़ी देर बाद शिबु आ गया। उसने अपनी रंग–बिरंगी किताबें, चाइनीज़ चेकर की गोलियां, एल्फाबैट वाले ब्लॉक्स और प्लास्टिक के खिलौने ड्राइंग रूम में बिखेर दिए और उनमें मगन हो गया। हम दोनों उसका खेल देखने लगे। न हम शिबु की बेमेल और रहस्यमयी दुनिया को जान सकते थे और न शिबु को यह पता चल सकता था कि हम उसका खेल देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद उसने अपनी दुनिया में से कुछ चीजें उठाई और पर्दे के पीछे जाकर छुप गया। फिर धीरे से पर्दे के किनारे से झांककर हम दोनों को देखा और खिलखिलाता हुआ घर के भीतर तक दौड़ पड़ा। फिर दुबारा भागता हुआ वापस आया और परदे के पीछे आकर खड़ा हो गया और फिर चुपके से झांककर खिलखिलाता हुआ घर के भीतर तक दौड़ पड़ा। उसने एक खेल ढूंढ़ लिया था। मैं और बीजू उसकी इस हरकत पर एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा लेते।
"तुम्हारा आज का क्या प्रोग्राम है?" बीजू ने अचानक पूछा। "मुझे एक जगह जाना है। ब्लॉक हैडक्वार्टर है यहाँ से लगभग बत्तीस किलोमीटर दूर, एक सरकारी काम है।" मैंने जानबूझ कर यह कार्यक्रम बनाया। "पर आज तो सण्डे है।" "इस नौकरी में कभी–कभी सण्डे को भी काम करना पड़ जाता है। क्या करें।" "क्यों टाल नहीं सकते?" "अरे नहीं यार ...जरूरी काम है। तुम भी साथ चले चलना, रास्ते में बातें करेंगे और फिर तुम यह एरिया भी देख लोगे।" "गर्मी बहुत है ...चलो खैर कोई बात नहीं।" "रात आठ बजे तक वापस घर लौट आएँगे।" "फिर घर आने के बजाय मुझे सीधे रेल्वे स्टेशन ही छोड़ देना।" "इतनी जल्दी वापस ...अरे अभी तो आए हो। एक दो रोज रूक जाओ।" "मैं एक्चुअल में काम से आया था। कल मुझे भोपाल पहँचना है। जरूरी काम है। आज का दिन खाली मिला तो सोचा तुमसे मिलता चलूँ।" मुझे कुछ सुरक्षित सा महसूस हुआ, कि वह सिर्फ मुझसे मिलने नहीं आया है। "ये तुमने अच्छा किया ...पर कुछ दिन और रूकते तो अच्छा लगता।" "इच्छा तो मेरी भी यही थी ...पर कल जाना जरूरी है।" "ऐसा क्या काम है?" "नौकरी का चक्कर।" "कोई प्रॉब्लम हो तो बताना ...भोपाल में मेरे कुछ परिचित हैं।" "जरूर ...।"
हम फिर चुप हो गए। नीरजा ने बताया खाना लग गया है। हम दोनों डायनिंग टेबल पर आ गए। शिबू भी एक कुर्सी पर चढ़ गया। वह चम्मच से टेबल बजाने लगा। नीरजा ने उसे झिड़की दी। मैंने और बीजू ने आज का प्रोग्राम बना लिया। अभी तीन बजे हैं, लगभग साढ़े तीन बजे हम दोनों घर से चलेंगे। आने जाने में दो घण्टे और वहाँ पर मेरे काम में भी लगभग दो घण्टे लग जाएँगे। याने लौटते तक साढ़े सात बज चुके होंगे। बीजू की ट्रेन आठ बजे हैं, सो वापसी में घर आने का रिस्क लेना ठीक नहीं रहेगा। बीजू अपना सामान भी साथ ले चले और लौटते समय मैं सीधे उसे रेल्वे स्टेशन ही छोड़ दूँगा। कहीं कोई दिक्कत नहीं।
जीप में बीजू मेरे किनारे बैठा था। हम दोनों चुप थे। मुझे एक पुरानी बात याद आई। उन बातों की तरह जो बिना कॉलबेल दबाए आ जाती हैं। जिनके आने का कारण हम कभी नहीं सोचते। सोचने की बात सूझती ही नहीं, जिसमें भटकने से खुद की कोई रोक नहीं...।
मैं एक बार बीजू के साथ उसके पैतृक गाँव गया था। उन दिनों मैं और बीजू कॉलेज में पढ़ते थे। परीक्षाएँ हो चुकी थीं। गर्मी की छुट्टियां थीं और मुझे उसके गाँव जाने की इजाजत मिल गई थी। बीजू का गाँव सूखे खेतों के बीच धुंआ छानते छप्परों वाला गाँव था। गाँव के चारों ओर घना जंगल था। गाँव में बस बीजू का मकान ही पक्का था। उस घर में बहुत से लोग रहते थे, बीजू के दादा–दादी, बड़े पिताजी, चाचा–चाची और कई भाई बहन। पर उस घर में मेरी सबसे ज्यादा बीजू की दादी से पटी। उन्होंने मेरा नाम बदल दिया। वे मुझे गोपाल कहकर बुलातीं। जब मैंने इसका कारण पूछा तो कहने लगीं कि कृष्ण भगवान की ठोड़ी पर भी वैसा ही गड्ढ़ा था, जैसा कि मेरे है, सो मेरा नाम गोपाल होना चाहिए। मुझे उनकी इस बात पर हँसी आ गई। वे मेरी कई बातों का ध्यान रखती थीं, जैसे नौकर ने मेरे नहाने के लिए पानी निकाल दिया या नहीं, मैंने खाना खाया या नहीं। इतने दिन हो गए मुझे आए पर बीजू मुझे रामलला की मंदिर क्यों नहीं ले गया, ...। फिर उस गाँव में मेला लगा। दादी ने मुझे और बीजू को अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कहा वे हमें एक चीज देंगी, पर हमें वादा करना होगा कि हम दूसरे भाई बहनों को नहीं बताएँगे। हमने उनसे वादा किया कि हम किसी को नहीं बताएँगे। फिर वे अपनी संदूकची ले आई। उसमें से लाल रंग का एक थैला निकाला। उस थैले में सिक्के थे। उन्होंने उन सिक्कों को बिस्तर की चादर पर फैला दिया। फिर उन सिक्कों के दो ढ़ेर बनाए और मुझसे पूछने लगीं – "पहले तू बता गोपाल ...। तू कौन सा ढ़ेर लेगा?" "पर दादी मुझे नहीं चाहिए।" "क्यों मेला नहीं जाओगे, वहाँ खर्चने को पैसे लगेंगे।" "पहले बीजू ...।" "नहीं तू बता ...।"
मैंने एक ढ़ेर की ओर इशारा किया और उन्होंने वापस उसे उसी पोटली में बांधकर मुझे थमा दिया। पर उन पैसों में से ज्यादातर मेरे पास बच गए। वह लाल पोटली कई दिनों तक मेरे पास थी। उसे देखकर मुझे बीजू की दादी की पनीली आँखें और पोपले मुँह से उनका गोपाल कहना याद आ जाता था। मैंने याद करने की कोशिश की पर याद नहीं आया कि अब वह पोटली कहाँ होगी, कब उसे आखरी बार देखा था और वह कहाँ–कहाँ हो सकती है? इच्छा हुई बीजू से दादी के बारे में पूछूं। पर मैंने देखा वह जीप की सीट पर सिर टिकाए सो रहा था। मुझे उसे जगाना थोड़ा झंझट सा लगा।
जीप ऑफिस के सामने रूकी। बीजू जाग गया। मैंने उससे कहा वह मेरे साथ चल सकता है। पर उसने कहा वह जीप में ही मेरा इंतजार करेगा। इस ऑफिस में आकर फाइलें टटोलना मेरी दिनचर्या में नहीं था, पर मैं यहाँ जान बूझकर आया था। बीजू नहीं आता तो मैं यहाँ नहीं आता। एक टालू सा काम जिसमें उलझकर भीतर की घुटन से मुँह फेरना आसान हो जाए। एक टालू जो अतीत के पीलेपन और आज के बीच से थोड़ी देर तक मुझे बाहर रख सके।
पिछले सात–आठ सालों से मैंने बीजू को कम ही याद किया है। याद करने का मौका ही नहीं बना। बहुत सा पेण्ट, जंग, रेगमाल से छुड़ाया है। पर उसमें से कुछ आज भी ढीठ सा नए पेण्ट के नीचे चमकता है। जिसे मैं अपनी सुसंस्कृत अदा से छुपा रहा हूँ ...फैशन का समर कलेक्शन जो छुपाकर भी नहीं छुपाता ...गाड़ी में टोचन की तरह लगा स्मृतियों का कौतुहल जो थोड़ी सी पीड़ा, आँसू, हँसी, प्यार ...अपनी डिक्की में भरा रहेगा और मैं मानता रहूँगा कि अतीत में याद करनेवाली चीजें कम ही हैं।
मुझे ऐसा ही एक दिन याद आया जब मैंने बीजू को याद किया था। उस दिन मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। सुबह–सुबह ट्रेन बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर रूकी। मैं मुँह में झाग भरे टूथब्रश के साथ अपने कंपार्टमेण्ट से बाहर आकर प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो गया। एक पेपर खरीदा और उसे पलटने लगा। मेरा ध्यान उस पेपर में छपी एक फालतू सी लिस्ट पर पड़ा– शिक्षा विभाग में चयनित उच्च श्रेणी शिक्षकों की लिस्ट। उस लिस्ट में बीजू का नाम भी था। उसकी पोेस्टिंग बिलासपुर जिले के ही किसी गाँव में हुई थी। बाद में घर पहुँचने के बाद मैंने नक्शे में वह गाँव ढूंढ़ा था। पर वह मुझे नहीं मिल पाया। उस रोज ट्रेन में मैं देर तक बीजू के बारे में सोचता रहा। पर उस रोज मैंने उसके बारे में थोड़ा अलग तरह से सोचा। उस समय तक मैं बड़े ओहदे वाला सरकारी अधिकारी बन चुका था। मुझे यह सोचते हुए अच्छा लगा कि मैं उससे कहीं ज्यादा ऊंचे ओहदे पर हूँ। मैं बड़ा हूँ और वह छोटा। यदि वह मुझसे कभी मिला तो मैं उस पर हावी रहूँगा। स्कूल के दिनों में बीजू मुझपर हावी होने का प्रयास करता था। पर अब वह ऐसा नहीं कर सकता। समय ने कुछ और ही सिद्ध किया है। उस दिन मुझे लगा मानो हम छत्तीसगढ़ के उस गाँव में फिर से शुरूआत कर रहे हैं, जहाँ मैं बीजू से पहली बार मिला था। बस चीजें बदल गई हैं। फुटबाल खेलते जाते समय मैं बीजू की जगह हूँ और बीजू मेरी जगह है। बीजू अपने को छतरी में पानी से बचाता चल रहा है और मैं पानी में भीगता अपनी टांगों पर फुटबाल उछालता चल रहा हूँ। बीजू मुझसे बातें कर रहा है पर मैं बीजू की बातोंको इग्नोर सा कर रहा हूँ। उन दिनों जब बीजू मुझे इग्नोर करता था मैं उसपर झल्ला जाता था। पर आज बीजू ऐसा नहीं कर पाएगा। वह मानेगा कि मैं बड़ा हूँ और वह छोटा। उसे मानना ही पड़ेगा, न मानने का कोई कारण नहीं है। समय की डॉट सोडा की बॉटल पर कसकर लगी है, उसका झाग, फुहार छूटकर निकल नहीं सकता। उस समय यह सब सोचते हुए मुझे एक अजीब सी खुशी हो रही थी। पर जब हम साथ थे, स्कूल में, कॉलेज में साथ–साथ पढ़ते थे, तब कभी नहीं सोचा था कि हम दोनों में से कौन बड़ा हो सकता है। कभी सूझा ही नहीं।
हमने कुछ और सोचा था। जिस दिन सोचा उस दिन मैं बीजू के गाँव में था। उसने मुझे सुबह जल्दी उठा दिया था। मुझसे कहने लगा मैं भी उसके साथ दौड़ने चलूँ। बीजू रोज सुबह दौड़ने जाता था। शुरू में तो मुझे उस पर गुस्सा आया। पर हमेशा की तरह मुझे उसकी जिद माननी पड़ी। मैं ऊंघता–आँघता सा उसके साथ हो लिया। हम गाँव के बाहर कच्ची रोड़ पर चलते–चलते जंगल में घुस गए। उस समय सूरज नहीं निकला था। क्षितिज के नीचे हल्की लाइट थी जो सिंदूरी रंग की नहीं हो पाई थी। फिर हम दोनों एक तालाब के पास पहुँचे। मैं तालाब के पास वाली पुलिया पर बैठ गया और वह दौड़ता हुआ जंगल में खो गया। वहाँ सरई के पेड़ों की गंध आ रही थी और चारों ओर चट्टान सी चुप्पी थी। इतनी शांति कि सूखे पत्तों पर पड़ने वाली ओस की बूँदों की आवाज़ तक सुनाई दे रही थी। तालाब में से भाप के छल्ले उठा रहे थे। एक अजीब सी खुशी देने वाली हवा बह रही थी। सुबह की हल्की ठण्डी हवा जो कभी धीरे तो कभी फुरफुराती सी मुझे छू जाती थी। थोड़ी देर बाद बीजू भी आ गया। वह एक्सरसाइज करते हुए मुझसे पूछने लगा – "क्यों मेरे गाँव की सुबह मजेदार होती है न ...।" "हाँ ये तो है।" "तुम कल सुबह भी मेरे साथ आना।" "ठीक है ...।" "कल मढ़िया के पार वाली रोड तरफ चलेंगे। वहाँ एक छोटा पहाड़ी नाला बहता है। उस पर एक छोटा सा बांध भी है।" "शहर में यह सब नहीं है।" "हम दोनों बाद मे यहीं बस जाएँगे ...क्यों ठीक रहेगा ना।" उसने हँसते हुए कहा। "लेकिन करेंगे क्या?" "पंसारी की दुकान खोल लेंगे।" "यह भी कोई काम हुआ।" "अरे! तुम्हें नहीं मालूम, गाँव में वही सबसे ज्यादा चलती है।"
पहले तो हम दोनों हँसते रहे। फिर सोचने लगे दुकान कहाँ होगी, दुकान का सामान कहाँ से आएगा... हम दोनों साथ–साथ रहेंगे। पर लंबे समय तक साथ नहीं रह पाएँगे। शादी के बाद अलग–अलग रहना होगा। ठीक है कोई बात नहीं। दो अलग–अलग घर ले लेंगे। गाँव में घर सस्ते हैं पर पास–पास ही रहेंगे। दुकान तो अच्छी चलेगी। हम दोनों चलाएँगे तो अच्छी ही चलेगी। पता नहीं वह क्या था? गाँव का आकर्षण या साथ रहने की इच्छा पर इतना तय है, कि उस समय वह बात असंभव नहीं लगी थी। हम दोनों हँसते जा रहे थे पर सोचने में खुशी भी हो रही थी।
हम जीप से वापस लौट रहे थे। "यहाँ के गाँव और रोड़ें अच्छी हैं। काफी संपन्न क्षेत्र लगता है।" बीजू ने जीप के बाहर गुजरते गाँवों को देखकर कहा। "हाँ। यहाँ की मिट्टी अच्छी है और सिंचाई की सुविधा भी है। किसान ज्यादातर कैश क्रॉप लेते हैं।" "क्या उगाते हैं।" "सोयाबीन और कपास।" "तुम तो इस एरिया से अच्छी तरह से वाकिफ हो गए होंगे?" "हाँ, मुझे यहाँ रहते दो साल से ज्यादा हो गया है।" "पर मैं गाँव से निकलने की सोच रहा हूँ।" "क्यों?" "बच्चों के कारण। उनकी पढ़ाई–लिखाई के लिए किसी शहर में रहना जरूरी है।" "हाँ ये तो है। फिर क्या सोचा है?" "भोपाल या इंदौर। बस इसी वजह से भोपाल आया था। अपना ट्रांसफर करवाने। इन दोनों में से किसी भी शहर हो जाय।" "और वह जो तुम्हारा गाँव में घर है ..."। "वह सब बेच दिया ...जमीन भी, अब वहाँ कुछ नहीं है।" "और माँ–पिताजी, दादा–दादी ...।" "मैं घर से अलग हो गया था।" उसने एक झटके में कहा। फिर एकदम से चुप हो गया। मेरी ओर से मुँह फेरकर वह दूसरी तरफ देखने लगा। मानो कहना चाह रहा हो कि इस विषय पर और कोई बात न की जाए। रल्वे स्टेशन आने वाला था। हम दोनों बहुत देर से चुप बैठे थे। मैं सोच रहा था कि थोड़ी देर बाद बीजू चला जाएगा। ऐसा एक बार और हो चुका है। पर उस रोज बीजू नहीं, बल्कि मैं जा रहा था।
पापा का ट्रांसफर हो चुका था। हमें बहुत दूर जाना था। जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। घर का सारा सामान ट्रक में लद चुका था। मुहल्ले के कई लोग हमें विदा करने आए थे। पर वहाँ बीजू नहीं था। मैंने बीजू की मम्मी से पूछा, उन्होंने बताया वह घर पर है। मुझे उस पर गुस्सा आया। क्या वह थोड़ी देर के लिए नहीं आ सकता था? हम बहुत दूर जा रहे हैं। फिर शायद ही आना हो। मैंने बीजू को कई बार बताया था कि आज दोपहर को हम लोग चले जाएँगे, पर फिर भी वह नहीं आया। कम से कम एक बार मिलने तो आ सकता था। ऐसा कौन सा इंपॉर्टेण्ट काम आ गया कि दो मिनट को मिलने भी नहीं आ सकता? फिर मेरी इच्छा हुई कि मैं ही खुद उससे मिल आऊं। पर मैं ही क्यों जाऊं? नहीं मैं उससे मिलने नहीं जाऊंगा। मैंने सोचा मैं उससे मिलने नहीं जाऊंगा। भला मैं क्यों जाऊं? उसको खुद आना चाहिए। पर मैं अपनी जिद पर ज्यादा देर कायम नहीं रह पाया। मुझे लगा अगर मैं उससे नहीं मिला तो मुझे बाद तक लगता रहेगा कि मुझे उससे मिल लेना था। फिर इससे कोई अंतर भी नहीं पड़ता कि मैं ही उससे मिल आऊं। मैं सिर्फ अपनी वजह से उससे मिलने उसके घर गया।
जब बीजू के घर पहुँचा तब पता चला वह अपने कमरे में था। अपने कमरे में वह स्टडी टेबल के किनारे बैठा था। उसके हाथ में कैलकुलेटर था और वह उसके बटन बेतरतीब ढंग से दबा रहा था। मुझे देखकर वह रूक गया। मैं स्टूल खींचकर उसके पास बैठ गया। "हम लोग जा रहे हैं। सोचा तुझसे मिलता चलूँ।" "क्यों आज ही निकल जाओगे क्या?" "हाँ ...मैंने तुझे बताया तो था। मैं तो तेरा इंतजार कर रहा था। ऐसा कौन सा काम पड़ गया तुमको? अरे एक मिनट को तो आ ही सकते हो।"
मैंने कुछ झल्लाते हुए कहा। उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। पर हमेशा की तरह उसके चेहरे पर मुझे इग्नोर करने वाला भाव नहीं था। उसने कैलकुलेटर एक तरफ रख दिया। हाथों की ऊँगलियां फोडते हुए वह टेबल के सामने की खिड़की से नीला आकाश देखने लगा। थोड़ी देर हम दोनों चुप बैठे रहे। बीजू के चेहरे पर एक अजीब सा भाव उतर आया जैसे तेज हवा में पड़ी मोटे गत्ते की किताब जो फड़फड़ा नहीं पाती है। उसकी आँखों में एक बूँद उभर आई। मैं इस स्थिति के लिए तैय्यार नहीं था। मैं निष्क्रीय बना रहा। मैंने बीजू की कुर्सी के हत्थे पर हाथ टिकाया और उस नीले आकाश की ओर देखने लगा जहाँ बीजू देख रहा था। उस सपाट नीले आकाश में देखने लायक कुछ भी नहीं था। तभी मेरे हाथ पर कुनकुने आँसू की एक बूँद गिरी और मैंने भावशून्यता के साथ बीजू के कंधे पर हाथ रख दिया।
"कुछ नहीं होता यार। मैं आऊंगा ना ...।" पर फिर मैं कभी नहीं गया और बारह साल बीत गए। रेल्वे स्टेशन पर ट्रेन आ चुकी थी। बीजू ट्रेन में बैठ चुका था और मैं बोगी की खिड़की के पास खड़ा था। "क्या टाइम हुआ?" "आठ बीस ...।" बीजू की पुरानी आदत थी, घड़ी न पहनना और दूसरों से समय पूछना। मैं उसे इस बात पर कई बार टोका करता था। तो क्या वह अभी भी नहीं बदला है। "यह ट्रेन तो यहीं से पैंतीस मिनट लेट हो गई।" "इस ट्रेन का ऐसा ही है। भोपाल तक पैसेंजर की तरह चलती है।" "भोपाल पहुँचने में कितना समय लग जाएगा?" "करीब छह सात घण्टे ...।" "बाप रे तब तो बड़े बोर हो जाएँगे।" "तुम तो अपनी बर्थ पर लेट जाना।" "हाँ, यही ठीक रहेगा।" "भोपाल कब तक रहोगे?" "परसों दोपहर तक ...फिर वापस रायपुर।" "किस ट्रेन से जाओगे?" "अमरकण्टक एक्सप्रेस।" "परसों हैं क्या?" "हाँ ...परसों शनिवार है।" हम दोनों फिर चुप हो गए। तभी गार्ड ने सीटी बजाई। उसने मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा – "चलता हूँ ...मौका लगा तो फिर आऊँगा।" मुझे याद आया, उस दिन जब पापा का ट्रांसफर हो गया था, हम जा रहे थे, तब मैं बीजू से नहीं कह पाया था – "अच्छा चलता हूँ।" स्मृतियों का खुला पैराग्राफ जिसके नीचे उस दिन हम क्लोजिंग लाइन खींचना भूल गए थे, उसे आज एक साथ खींचना और पक्का कर देना चाहते हैं ताकि उस पैराग्राफ के नीचे कोई शब्द न धड़के ...। क्लोजिंग लाइन जिसके नीचे खड़े होकर सहजता से कहा जा सके – "फिर आऊँगा।" वहाँ आऊँगा जहाँ चाहकर आने का कारण नहीं बचा और क्या फर्क पड़ता है अगर यह सब दिखावे के भी पार चला जाए ...दो शब्द 'फिर आऊंगा' ...सिर्फ दो शब्द जिनका खून सूख गया है। ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी थी, उसने दूर देखते आउटर सिग्नल को पार कर लिया। ट्रेन की अंतिम बोगी के पीछे काले रंग पर बना सफेद क्रॉस का निशान और उसके नीचे जलती बुझती लाल लाइट धीरे–धीरे अंधेरे में खोती जा रही थी।