ढकाइंच का भाषण / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
आइए , अपना घर देखें। मरखप कर हमने आजादी हासिल की। मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला। आजादी तो सभी तरह की होती है न ? भूखों मरने की आजादी , नंगे रहने की आजादी , चोर-डाकुओं से लुट-पिट जाने की आजादी , बीमारियों में सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही है न ? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है ? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे , कोयले , सीमेंट और किरासिन तेल को खा-पीकर तो चले गए नहीं। ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं। फिर भी मिलती नहीं! जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं! नमक की भी वही हालत है। कपड़ा यदि मिलता है तो पारसाल से डयोढ़े दाम पर साहु बाजार में और उससे भी ज्यादा पर चोरबाजार में। क्या पारसाल से इस साल किसान के गल्ले वगैरह का दाम एक पाई भी बढ़ा है ? ऊख का दाम तो उलटे घट गया। तब खुद सरकार ने कपड़े का दाम इतना क्यों बढ़ा दिया ? जब चोरबाजार में सभी चीजें जितनी चाहो मिलती हैं तब तो उनकी कमी न होकर नए शासकों में ईमानदारी , योग्यता और नेकनीयती की कमी ही इसका कारण हो सकती है। लोगों में इन गुणों की कमी ठीक ही है ; क्योंकि ' यथा राजा तथा प्रजा ' ।
हमें आए दिन पुलिस और हाकिमों की झिड़कियों को सहना पड़ता है , बिना घूस के कोई भी काम हो नहीं पाता और मिनिस्टरों के पास पहुँच नहीं। रात में बदनाम चोर-डकैतों के मारे नाकोंदम है , खैरियत नहीं और दिन में इन नेकनाम डकैतों के डाके पड़ते हैं। मालूम होता है जनता की फिक्र किसी को भी नहीं है। खाना नहीं मिलता-महँगा होता जा रहा है। फिर भी ये मिनिस्टर बड़ी उम्मीदें बाँध रहे हैं कि वोट तो अगले चुनाव में इन्हें और इनके कठमुल्ले ' खाजा टोपी ' धारियों को जरूर ही मिलेंगे। जन साधारण को ये गधों से भी गए-बीते समझते जो हैं। यही है हमारी नई आजादी का नमूना और इसी का दमामा बजाया जाता है। किसान समझता था और मजदूर मानता था कि आनेवाली आजादी यदि चीनी-मिश्री जैसी नहीं तो गुड़ जैसी मीठी होगी ही। मगर यह तो हर हर माहुर साबित हुई जिससे हमारे प्राण घुट रहे हैं।