ढलान से उतरते हुए(चिन्तन) / निर्मल वर्मा
मैं किसी शाम उनकी आँख बचा कर अकेला निकल जाता। चौड़े पत्थरों की ठंडी और बर्फ में लिथड़ी सड़क मेरे नीचे खट-खट बजती। मुझे भ्रम होता, कोई मेरा पीछा कर रहा है। मैं रुक जाता, पीछे मुड़ कर देखता। कोई नहीं, न कोई सिपाही, न जासूस, न सिक्योरिटी पुलिस का गुप्तचर। क्रेमलिन के पीछे टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ, किसी नुक्कड़ पर फूलों की दुकान और सिर पर स्कार्फ बाँधे कोई भोली बूढ़ी औरत, बीच रास्ते में अथाह लोगों की भीड़। पता नहीं, वे कहाँ जा रहे थे, कहाँ से आ रहे थे? एक अजनबी, विदेशी शहर में वैसे भी हर व्यक्ति रहस्य का पुतला जान पड़ता है - और यदि वह रूस का कोई शहर हो - तो यह रहस्य एक रोमांच, एक चमकीली आशा, एक खोए हुए संसार में पुनर्जीवित होने लगती है, हम एक साथ दो दुनियाओं के अलग-अलग काल-खंडों में जीने लगते हैं -एक वह जो सामने है, मकान, गलियाँ, चलते-फिरते लोग, दूसरी वह जो हमारी स्मृतियों में जीती है, कभी किसी बूढ़े के साथ हो जाती है, जिसे कभी चेखव की कहानी में देखा था या उस लंबे बालोंवाली लड़की के साथ हो लेती है, जो तुर्गनेव की लिजा की याद दिलाती है - बिलकुल वैसी ही स्वप्निल, संगमरमर-सी सफेद और थोड़ी-सी आकुल, आहत आँखें।
ऐसी ही एक दुपहर हम लेनिनग्राड में दॉस्तोएव्स्की का घर देखने गए थे। नेवा की कैनाल बर्फ में जमी थी। हमने हजारों पुलों में से एक पुल पार किया, लंबे, बीहड़ मकानों के बीच एक सूनी गली में आए, जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी का समय भी बर्फ की तरह जम गया था। हमारी गाइड इशारे से एक दुमंजिला मकान दिखाती है, जिसकी अँधेरी सीढ़ियों पर एक बिल्ली हमें निहार रही थी। 'क्या यहाँ दॉस्तोएव्स्की रहते थे?' मैंने पूछा। उसने सिर हिलाया, 'नहीं, यह वह मकान है, जिसमें रोसकोलनिकोव (दॉस्तोएव्स्की के उपन्यास 'अपराध और सजा' का मुख्य पात्र) रहता था। यह जीना देखते हो, वहीं से उतर कर वह उस दुकान में गया था, जहाँ उसने उन दो बूढ़ियाँ की हत्या की थी।' हम कुछ क्षणों तक उस मकान को देखते रहे और तब मुझे लगा, बरसों बाद उपन्यास के लेखक और काल्पनिक पात्रों के बीच अंतर करना कितना निरर्थक काम हो जाता है और यह बात कितनी अप्रासंगिक हो जाती है कि हम दॉस्तोएव्स्की का जन्मस्थान देख रहे हैं या उसके नायक की कालकोठरी, जिसमें उपन्यास का जन्म हुआ था।
क्या इसी कारण से नाबाकोव ने महान उपन्यास को दुनिया की 'महान परीकथाएँ' माना था? नहीं, हम अपनी गाइड और मित्र एवा से कोई भी प्रश्न नहीं पूछते, न नाबाकोब के बारे में, जो अपना देश छोड़ कर चले गए थे, न बावेल के बारे में, जिनकी मृत्यु सायबेरिया के किसी अज्ञात कोने में हुई थी... लेकिन शहर और मकान वही है, जहाँ एक जमाने में वे रहते थे, प्रेम करते थे, कहानियाँ लिखते थे। एक दिन मास्को में चलते हुए एवा ने वह घर दिखाया था, जिसके अकेले कमरे में मॉयकोवस्की ने आत्महत्या की थी। चुप, शांत, शाम की धूप में झिलमिलाता दुमंजिला मकान
परी-कथा? सिर्फ उपन्यास ही परी-कथाएँ नहीं होते, कुछ शहर भी अपनी ईंटों, गलियों, मकानों में पूरा एक मायावी संसार लिए जीते हैं, हमारे लिए जो किताबी स्मृति है, एवा जैसी औरतों के लिए वह जीता-जागता इतिहास है, जहाँ से वह हर रोज गुजरती है। 'यह वह इमारत है, जिसमें स्टालिन के समय में राजनीतिक बंदियों को इंटेरोगेशन के लिए रखा जाता था, सोल्जेनित्सिन ने कारागृह की पहली रात यहाँ गुजारी थी...' हम ऊपर देखते हैं, एक लंबी, भयानक, किलानुमा इमारत, जिसके नीचे लोहे की छड़ें लगी हैं। मेरे मराठी लेखक मित्र, न जाने क्या सोच कर, उस काली, ठंडी, जंग लगी छड़ी को छूते हैं। सब कुछ वैसा ही है, बसें और ट्रामें चलती हैं, लोग फूलों की दुकानों से फूल खरीदते हैं, पार्क में पेड़ों के नीचे प्रेमियों के जोड़े दिखाई देते हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि कौन-सी इमारतों के पीछे किसने कितना कष्ट भोगा था। 'भयानक बात यह नहीं है कि इतनी यातना है', एक बार मैंडलश्टाम ने अपनी पत्नी से कहा था, 'भयानक बात यह है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद जिंदगी नार्मल गति में चलती रहती है।'
हमारे सिर टोपों से ढके हैं, हाथों में दस्ताने हैं, गले में मफलर... और यद्यपि इन सबके रंग अलग-अलग हैं - ये सब सफेद दिखाई देते हैं, बर्फ की सफेदी में चिट्टे और साफ! हम एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देख सकते, जरा-सा बोलते हैं तो शब्दों की भाप मुँह से निकल कर चेहरों को ढक लेती है।
लेकिन इस जगह बोलने की जरूरत नहीं, यह एक पुराना गिरजा है जहाँ ठठ-के-ठठ लोग बूढ़े पेड़ों की तरह हिल रहे हैं, बाहर रात है और बर्फ मोस्क्वा नदी का सफेद पाट। भीतर प्रार्थनारत लोगों की भीड़ है, गिरजे में तिल रखने की जगह नहीं, इसलिए हम दरवाजे की देहरी पर खड़े हैं, मोमबत्तियों और अगरबत्तियों के धुँधलाए आलोक में प्रार्थना के शब्द उन पर उठते हैं-एक अंतहीन विलाप की तरह और गिरजे की दीवारों से टकराते हुए लहरों की तरह वापस लौट आते हैं। आधी रात की घड़ी में कोई गिरजा ठिठुरते हुए लोगों से इतना भरा होगा, एक ऐसे देश में, जहाँ पिछले साठ वर्षों से ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं, एक ऐसा रहस्य है, जिसकी कुंजी मार्क्स, लेनिन, किसी के पास नहीं। एवा ने बताया कि ये सब अपने मृतकों की आत्मा के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। हर पीढ़ी के अपने मृतक हैं, लड़ाई के अलग, लेबर कैंपों के अलग... उनकी प्रार्थना उतनी ही अनंत है, जितने गुजरे हुए सगे-संबंधियों की याद, जिनका नाम किसी कब्र, रजिस्टर या स्मारक पर अंकित नहीं। हर स्त्री के हाथ में मोमबत्ती और फूलों का गुच्छा है। ऊपर पेडेस्टल से पादरी की घनी, गहरी आवाज सुनाई देती है - और फिर गाने का समवेत स्वर,... ऊपर उठता हुआ... नीचे गिरता हुआ...
मुझे एक दूसरा दिन स्मरण हो आया, जब हम मास्को की एक पुरानी सिमिट्री देखने गए थे। वहाँ चेखव की कब्र थी और दूसरे कोने में दूसरी कब्र दिखाई दी, काले पोलिथिन की चादर से ढकी हुई, पास जाने पर पता चला कि वह स्टालिन की पत्नी की कब्र थी, पोलिथिन का बचाव इसलिए कि कहीं गिरती हुई बर्फ उसे खराब न करे।
चेखव की कब्र पर न कोई कपड़ा था, न फूल, वह एक छोटे-से काले चेपल में काफ्का की कब्र की तरह, लेकिन वहाँ माँ-बाप एक ही कब्र की सतहों में दबे थे, अपने बेटे के साथ, जो पहले चला गया था।
लेकिन ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ मृत्यु को वैसे ही 'पकड़' लिया गया, जैसे वह आई थी, वह अब भी उन भिक्षुओं की देह को पकड़े है, जो पिछले चार सौ वर्षों से अपने-अपने तहखानों में सुरक्षित हैं। उनका हर अंग-प्रत्यंग जीवित जान पड़ता है, चेहरा, आँखें, हाथ, पास रखी हुई बाइबल, बर्तन; मानो वे अभी सो गए हों और अभी उठ जाएँगे। वे मध्यकालीन भिक्षुक हैं, जो एक जमाने मे कीव की मानेस्ट्री के नीचे तहखाने में रहते थे। उन दिनों रूस में कीव उतना ही बड़ा तीर्थ स्थान था, जितना हमारे यहाँ काशी है। यात्रियों और भिक्षुओं का पुण्यस्थल। मेरी शुरू से ही प्रबल और पुरानी इच्छा थी कि मैं वह शहर देख सकूँ जहाँ एक समय ईसाई और यहूदी इतनी बड़ी संख्या में जमा होते थे और दिन-रात हवा में गिरजों की घंटियाँ गूँजती थीं।
लेकिन तब किसने कल्पना की थी कि आज के रूस में धर्म भिक्षुओं को सचमुच, शाब्दिक-अर्थों में 'अंडर-ग्राउंड' जा कर देखने का मौका मिलेगा? एक पुरानी मानेस्ट्री के नीचे बर्फ की असंख्य परतों को पार करते हुए हम उतरते गए, सबसे नीचे एक गेट दिखाई दिया, पुराने मठ का भूमिगत द्वार, जिसकी सीढ़ियाँ भिक्षुओं की कोठरियों की तरफ उभरती थीं। लगता था; हम एक गढ़हे के तले पर हैं और चारों तरफ एक भूल-भुलइयाँ फैली है, जमीन के नीचे धँसी हुई, दोनों तरफ छोटे-छोटे बक्सों-से तहखाने थे, जिनके भीतर भिक्षुक लेटे थे, साबूत, जीते-जागते, संपूर्ण मानव-शरीर, जिन्हें देख कर एक क्षण के लिए यह सोचना असंभव लगता है कि वे महज कंकाल हैं, शताब्दियों से मृत और निष्प्राण; लेकिन समय ने एक भी खरोंच उनके शरीर पर नहीं छोड़ी है। नीचे का तापमान इतना कम है कि गुजरी हुई शताब्दियों ने उनकी देह को ज्यों-का-त्यों अछूता छोड़ दिया है। हमारे पीछे दर्शनार्थियों की इतनी लंबी भीड़ थी कि हम हर 'सैल' के आगे लमहा-दो लमहा ही ठहर पाते थे, फिर आगे घसीट लिए जाते थे। मेरे लिए यह असाधारण अनुभव था... जिन आस्थावान भिक्षुओं की देहों को प्रकृति ने सुरक्षित छोड़ दिया था, वहीं मास्को में विज्ञान की मदद से एक ऐसे राजनेता के मृत शरीर को सुरक्षित रखा गया था, जिसने हर धर्म को अंधविश्वास माना था... विडंबना सिर्फ यह थी कि उस मॉसोलियम और इस मानेस्ट्री, दोनों के आगे आस्थावान दर्शनार्थियों की लंबी, अंतहीन कतार लगी थी... सिर्फ बरसों बाद भिक्षुओं की जमी देह और केमिकल्स से लिपटे लेनिन के मृतशरीर में कोई अंतर नहीं था, दोनों ही अपने बक्सों में - आस्था और अनास्था के परे - रूस की बर्फ की तरह नश्वर और शाश्वत दिखाई देते थे।
रूस की सर्दियों की कितनी स्मृतियाँ हैं, बचपन में भूगोल की क्लास में हम टुंड्रा के जानवरों, स्टेपी के मैदानों, सायवेरिया की बर्फ के बारे में पढ़ते थे, फिर जब कुछ बड़े हुए तो भूगोल का स्थान पुश्किन ने ले लिया, मुझे अभी तक याद है, जब पहली बार मैंने उनकी वह लंबी, मर्मांतक प्रेम-कविता 'यूजिन ओनेजिन' पढ़ी थी... किताब में एक वुडकट तस्वीर थी, लैंप के नीचे तान्या पत्र लिख रही है और खिड़की के बाहर बर्फ गिर रही है... फिर धीरे-धीरे पुश्किन को छोड़ कर हम पीटर्सबर्ग की 'सफेद रातों' में चले आए, जहाँ दॉस्तोएव्स्की के अभिशप्त पात्र पुलों के पास नीचे झाँकते हुए दिखाई दे जाते थे। तब मुझे सीजर पावेस का यह वाक्य याद हो आता था, जो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था, 'हम हर चीज को दूसरी बार देखते हैं', और इसमें बड़ा सच है क्योंकि जिसे हम असली मानो में 'देखना' कहते हैं, उसे पहली बार हम बचपन की किताबों और दिवास्वप्नों में पहले से ही स्मृति में सँभाल रखते हैं... यही कभी-कभी एक अजीब जादुई चमत्कार जान पड़ता है... लेनिनग्राड में जब एक रात मैं नेवा के पुल के पास खड़ा था और नीचे उतनी ही सफेद बर्फ थी, जितनी गर्मियों की सफेद रातें होती हैं तो मुझे लगा, एक लड़की पुल के दूसरे छोर पर खड़ी है और जब वह जरा नीचे झुकती है, कूदने के एक क्षण पहले हिचकिचाती हुई तो अचानक मुझे पुल के आर-पार एक अजीब हँसी सुनाई देती है और तब मैं एक क्षण के लिए निर्णय नहीं कर पाता; यह 'हँसी' पहली बार मैंने काम्यू के अंतिम उपन्यास में सुनी थी, जो अमस्टरडम के बारे में था या पुल पर झुकी वह लड़की पीटर्सबर्ग की 'सफेद रातों' से बाहर आई थी, जिसे दॉस्तोएव्स्की ने ऐन आत्महत्या की घड़ी में देखा था?
रूस ही शायद ऐसा देश है जहाँ हमारी अपनी जिंदगी, पुराने पढ़े उपन्यास और इतिहास की मौजूदा घड़ी आपस में ऐसा उलझ जाते हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना असंभव है।
मौजूदा घड़ी का अनुभव उसी दिन होगा, जिस दिन हम भिक्षुओं के 'मृत आवास' से लौटेंगे, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। वह कीव का उतना ही भव्य और भयावह होटल था, जैसे हमारे यहाँ 'पंच नक्षत्रीय' होटल होते हैं। वह शहर की ऊँची हथेली पर टिका था, जहाँ से शहर की छतें और गिरजों की बुर्जियाँ दिखाई देती थीं। खिड़की के बाहर एक अवसन्न पीली दुपहर थी, न रोशनी, न अँधेरा, अप्रैल के महीने का अंत था, किंतु वसंत के आसार कहीं दिखाई नहीं देते थे।
मॉनेस्ट्री से लौटने के बाद सिर्फ अपने होटल के कमरे में सोने की इच्छा थी, किंतु न ठीक से नींद आई, न बाहर बर्फ गिरना बंद हुई। मैं शायद ऊँघ रहा हूँगा, जब बाहर दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। मैं हड़बड़ा कर उठा तो देहरी पर एवा दिखाई दी। उसके पीछे मराठी कवि दिलीप चित्रे और कन्नड़ कथाकार अन्नतमूर्ति भी थे। हम सब एक साथ ही आए थे।
'खाने के लिए नहीं आएँगे?' एवा ने कहा और भीतर चली आई। उसे मालूम था, हम इतनी जल्दी नीचे नहीं उतरनेवाले, जब कभी बाहर जाने का प्रोग्राम नहीं होता था तो हम होटल के कमरे में बैठकर ही शाम गुजारना पसंद करते थे। हमने अपनी कोन्याक बाहर निकाली जो हम मास्को से साथ लाए थे, ऐसे मौकों पर एवा भी हमारा साथ देती थी। उसका लड़का मास्को में अपने सौतेले पिता, एवा के दूसरे पति के साथ रहता था। कभी-कभी बातचीत के दौरान वह पुराने दिनों के संस्मरण सुनाया करती थी, दूसरी लड़ाई का जमाना था, जब वह स्वयं छोटी बच्ची थी।
'जहाँ अब आप बैठे हैं, वह सब खंडहर थे... कीव से मास्को तक शरणार्थियों की कतार बराबर चलती रहती थी।'
'तुम उन दिनों कहाँ थीं?'
'अपनी दादी के गाँव में... उन दिनों खाने की इतनी कमी थी कि हमारी दादी आधी रोटी हमें देती थी, बाकी रोटी छिपा कर अपने एप्रन में रखे रहती थीं... अजीब बात यह थी कि हमें अपनी हालत इतनी बुरी नहीं लगती थी... उलटे हमें इंग्लैंड और अमेरिका के बच्चों पर दया आती थी।'
'उन पर कैसी दया?' मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा।
एवा मुस्कराने लगी, 'आपको यह परीक्षा जान पड़ेगी, लेकिन भूखे लोगों पर भी प्रोपेगेंडा का कितना असर होता है, इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। हमारे यहाँ खाने की कमी क्यों न हो, प्रचार की कमी नहीं थी। उन दिनों सोवियत सरकार छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकाला करती थीं। उनमें यह दिखाया जाता था कि कैसे पूँजीवादी देशों के बच्चे भूख से मर रहे हैं। मुझे अब भी एक तस्वीर याद है, एक सोवियत जहाज इंग्लैंड की किसी बंदरगाह पर खड़ा है और कुछ सोवियत सेलर नंगे-भूखे बच्चों को अपने जहाज से फल और चाकलेट निकाल कर बाँट रहे हैं।'
'तुम लोग इन बातों पर विश्वास कर लेते थे?'
'क्यों नहीं! क्या आज भी हमें नहीं बताया जाता कि सोवियत सेनाएँ अफगानिस्तान को बचाने भेजी गई हैं?'
उन दिनों अफगानिस्तान को ले कर एक अदृश्य-सी तनातनी फैली थी, सच्ची खबरें पता नहीं चलती थीं, इसलिए हवा में अफवाहें उड़ती रहती थी। दुकानों में पहले भी चीजों का तोड़ा रहता था, अब स्थिति और खराब हो गई थी। एवा ने हाल की ही एक घटना बताई, जब स्कूल जाते हुए उसके लड़के ने देखा कि एक दुकान में साबुन मिल रहा है। उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि क्यू में खड़ा हो सके। उसने माँ को फोन किया। किंतु जब तक एवा पैसे ले कर आई, सारा साबुन खत्म हो चुका था। सिर्फ दुकान के फर्श पर चूरा पड़ा था, जिसे लोग अपने थैलों में बटोर रहे थे... 'कभी-कभी यहाँ टायलेट पेपर या टूथपेस्ट-जैसी चीजों के लिए भी क्यू लग जाती है... सच बात यह है कि हम लोग हर रोज इस तरह चीजें खरीदने निकलते हैं जैसे आदिम युग में लोग शिकार के लिए निकलते थे। कभी शिकार हाथ लग जाता है, कभी खाली हाथ लौटना पड़ता है। मैं तो जिस दुकान के आगे क्यू देखती हूँ, वहीं खड़ी हो जाती हूँ; कुछ-न-कुछ तो हाथ लगेगा ही... हजारों लोग इसी तरह अपने दफ्तर या फैक्ट्री से छुट्टी ले कर दुकानों की क्यू में खड़े रहते हैं, यदि कोई दुर्लभ चीज हाथ लग जाती है तो वह आदमी एक हीरो की तरह घर लौटता है!'
हम बैठे रहते हैं, सुनते रहते हैं, बातचीत और कोन्याक की गरमाई में समय का पता नहीं चलता। अचानक एवा उठ खड़ी हुई, खाने का आदेश दिया और हम स्कूल के बच्चों की तरह उसके पीछे लाइन बना कर नीचे रेस्तराँ में चले आए।
रेस्तराँ में काफी भीड़ थी, बड़ी मुश्किल से एक मेज खाली मिली। चारों तरफ जगमगाती रोशनियों, भोजन की सुगंध और शराब की बोतलों के बीच हम यह भूल गए कि उसी दिन सुबह हम बर्फ में ठिठुरते हुए मॉनेस्ट्री के नीचे मृत भिक्षुओं को देखने गए थे। सबको भूख लगी थी और पास के मेजों पर वेटर जो एक के बाद दूसरी प्लेटें ला रहे थे, उसे देख कर यातना कुछ और बढ़ जाती थी।
हमारी मेज सबसे ज्यादा उपेक्षित थी। बहुत देर तक हम अपने इशारों के बावजूद किसी वेटर की आँख नहीं पकड़ पाए। आखिर एवा किसी तरह एक वेटरेस को पास बुलाने में सफल हुई। वह एक लंबी लड़की थी और काफी तुनुक मिजाज-सी दिखाई देती थी। लगता था, हमारे पास आने में उसे जरा भी खुशी नहीं हुई है। 'क्या चाहिए?' उसने हमसे पूछा और एवा ने उसे मीनू पर वे सब चीजें बता दीं, जो हमने चुनी थीं कुछ देर बाद वह वापस लौटी और मीनू मेज पर रख कर एवा से कुछ कहा, एवा ने उत्तर में कुछ कहा, लेकिन लड़की निरासक्त-सी हो कर सिर हिलाती रही। आखिर एवा ने कुछ निराश हो कर हमें देखा, 'यह कहती है, आपने जो कुछ मँगवाया है, वह सब खत्म हो गया, सिर्फ एक-दो चीजें बची हैं, जो हम मँगवा सकते हैं।' मैं इतनी लंबी प्रतीक्षा से तंग आ गया था, कि वह जो कुछ भी ले आती, लंगर का प्रसाद समझ कर खा लेता, किंतु मेरे मित्र दिलीप चित्रे कवि ही नहीं, पत्रकार भी हैं, उनकी आँखों से कुछ भी नहीं बच सकता था। उन्होंने एवा को बताया कि जो खाना हमने मँगवाया था, बिलकुल वही दूसरी मेज के मेहमानों को परोसा जा रहा है। फिर खत्म कैसे हो गया? जब एवा ने यही बात अनुवाद करके वेटरेस से कही तो वह भभक पड़ी, उसने कुछ खीज कर एवा से कहा और एवा ने उत्तर में कुछ उससे कहा... हमें यह तेज वार्तालाप कुछ समझ में नहीं आया, सिर्फ यह देखने में आया कि एवा की आवाज बुरी तरह काँप रही है और वेटरेस मीनू पटक कर भुनभुनाती हुई चली गई है।
'आपने जो खाना है खाइए... मैं अपने कमरे में जाती हूँ।' एवा ने कहा।
'लेकिन बात क्या हुई?' दिलीप ने पूछा।
एवा सुन्न बैठी थी और उसकी आँखों में आँसू झर-झर बह रहे थे।
'बात क्या हुई?' हमने दुबारा पूछा। लोग हमारी मेज की ओर देख रहे थे।
'दूसरे होटलों में ऐसा होता है, लेकिन आपके साथ?'
हम सचमुच अपराधी-से दीख रहे थे, 'क्या कह रही थी?' दिलीप ने पूछा। एवा को शांत होने में कुछ देर लगी, रूमाल से आँख पोंछी, फिर अपने स्वर को साधने की कोशिश की।
'वही बात जो आपने कही थी, मैंने वेटरेस से कही... अगर दूसरों को वही खाना मिल रहा है तो इन्हें क्यों नहीं मिल सकता? कहने लगी तुम तो इस देश की रहनेवाली हो, तुम्हें नहीं मालूम, यह खाना सिर्फ सफेद लोगों के लिए है...'
इस बार हमारे सुन्न होने की बारी थी।
'क्या यहाँ भी सफेद और काले में भेद बरता जाता है?'
इस बार एवा हमारे भोलेपन पर मुस्कराने लगी, 'नहीं, नहीं, यहाँ यह सिर्फ व्यंग्य में कहा जाता है - सफेद लोग वे माने जाते हैं, जो पार्टी या सरकार के ऊँचे अधिकारी हैं, बाकी लोग 'कालों' की श्रेणी में गिने जाते हैं।'
'हम तो वैसे भी काले और ऐसे भी...' मैंने कहा। लेकिन दिलीप को यह हँसने की बात नहीं लगी, उन्होंने इसे हम सबका अपमान समझा (जो ठीक भी था)। वह उठ खड़े हुए और एवा से कहा कि हमें मैनेजर के पास जा कर सारी बात कहनी चाहिए।
पूरा रेस्तराँ पार करके हम काउंटर पर पहुँचे, जहाँ एक स्थूलकाय, किसाननुमा, यूक्रेनियन महला बैठी थी, वह मैनेजर थी। एवा ने उत्तेजित स्वर में हमारी व्यथा सुनाई, शायद यह भी बताया कि हम कितने 'पहुँचे' हुए लोग हैं। बेचारी महिला कुछ सहम-सी गई। अपनी टूटी अंग्रेजी में उन्होंने कहा, 'माफ कीजिए, वेटरेस ने कुछ और समझा होगा!'
'क्या समझा होगा?'
'उसे नहीं मालूम था कि आप विदेशी हैं।'
'क्या हम यूक्रेनियन दिखाई देते हैं?' दिलीप ने कहा।
वह हँसने लगी और साथ में हम भी... 'आप जा कर बैठिए, आपने जो आर्डर दिया था, वही आपको मिल जाएगा।' उसने कहा।
हम वापस अपनी मेज पर लौट आए, कुछ देर बाद हमें सब वही मिल गया, जो हमने मँगवाया था। हम 'गोरों' की गिनती में आ गए थे।
लेकिन ड्रामे का अंतिम सीन अभी बाकी था।
भोजन के बाद हम आराम से कॉफी पीने लगे। इस बीच एवा को याद आया कि उसके कुछ संबंधी कीव में हैं, जिनसे वह फोन पर बात करना चाहती थी। वह होटल के रिसेप्शन-हॉल में चली गई, जहाँ टेलीफोन-बूथ था। हम कुछ देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे, जब वह नहीं लौटी तो हमें किसी नई आशंका ने पकड़ लिया - कहीं इस बीच कोई और घटना तो नहीं हो गई? हम रेस्तराँ के बाहर आए और कुछ बेचैनी से एवा को ढूँढ़ने लगे। अचानक हमने देखा, टेलीफोन के पीछे एवा उसी वेटरेस के पास खड़ी है, जिसके साथ अभी कुछ देर पहले उसका झगड़ा हुआ था। लेकिन आश्चर्य यह था कि अब एवा नहीं, वह लड़की फोन बूथ पर सिर टिका कर रो रही थी।
हमें देख कर एवा भागती हुई हमारे पास आई। क्या कोई नया झगड़ा हुआ? लेकिन उसकी आँखें खामोश थीं, जैसी कि हर विपत्ति में हमने रूसी आँखों को खामोश पाया था।
'इस लड़की का भाई जाता रहा।' एवा ने धीरे-से कहा।
'लेकिन कुछ देर पहले तक...'
'अभी-अभी मास्को से फोन आया है... वह अफगानिस्तान में था।' हम खड़े रहे, लड़की चुपचाप रो रही थी, सत्य से ज्यादा विचित्र अफवाह और क्या हो सकती है?
कभी-कभी भ्रम होता कि हम मार्क्सवादी देश में नहीं, माया के लीला-जगत में विचर रहे हैं, कौन-सी सीमा पर कल्पना-लोक शुरू होता है, यथार्थ की बाउंडरी खत्म होती है, कहना असंभव था। यह माया-संसार अनेक स्तरों पर संचारित होता है। एक तरफ पूँजीवादी देशों की घोर-घोर निंदा, दूसरी तरफ इन्हीं देशों की चीजों के लिए पागल-सी होड़। लेनिनग्राड की सड़कों पर चलते हुए हमेशा कुछ युवक पीछे लग जाते थे, 'क्या आप डॉलर एक्सचेंज करवाएँगे?' साधारण दुकान में चीजें मुश्किल से मिलती थीं, लेकिन ऐसी दुकानें भी थीं, जिनमें वोदका, चॉकलेट, तरह-तरह की 'शराबें' और फल आसानी से उपलब्ध हो जाते थे - यदि उन्हें खरीदने के लिए डालर हों। समाजवादी देश में हर जगह रूबल का यथार्थ डालर की माया के आगे नतमस्तक दिखाई देता था... कुछ ऐसा लगता था कि 'समाजवादी यथार्थवाद' का सिक्का सिर्फ साहित्य में ही चलता है, बाहर की दुनिया में उसका कोई मूल्य नहीं।
लेकिन साहित्य कहीं-न-कहीं मायालोक को उखाड़ देता है - समस्त बंधनों और दबावों के बावजूद - क्या इसीलिए किताबों की दुकानों में इतनी भीड़ दिखाई देती है? लगता है, हम पुस्तकों की दुकान में नहीं, किसी चलते-फिरते मेले से गुजर रहे हों। इतने पाठक, ज्ञान के जिज्ञासु शायद ही किसी देश में दिखाई दें। यह शायद रूसी संस्कार हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता है, इसीलिए पुराने जमाने में जार जिस तरह लेखकों से भयभीत रहते थे, उसी तरह आज की सोवियत सत्ता कलम के जादू से संत्रस्त दिखाई देती है। क्या है यह जादू जिसके रहते बावेल और मेंडलश्टॉम को सायबेरिया में मरना पड़ा, बोरिस पास्तरनाक को बरसों चुप्पी में जीना पड़ा, सोल्जेनित्सिन को जोर-जबरदस्ती देश-निकाला देना पड़ा? क्या किसी रूसी लेखक से मिल कर हम इस रहस्य की थाह पा सकेंगे - कोई भी लेखक नहीं, लेखक संघ के कर्मचारी या अकादमी के सुविधाजीवी साहित्यकार नहीं - कोई ऐसा लेखक जो सत्ता और सुविधा के घेरे से बाहर - अपने अकेले, निजी यथार्थ में जीता हो? दिलीप ने अपनी डायरी में एक ऐसे लेनिनग्राड-निवासी कवि का पता नोट कर रखा था, जिनकी कुछ कविताएँ उन्होंने अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ी थीं। हमारे सौभाग्य और एवा की मदद से उनका सुराग पता चलाते देर नहीं लगी और एक शाम वह हमारे होटल में आने के लिए राजी भी हो गए।
उस शाम हमने अपने होटल के कमरे में जो भी चीजें बाजार से हासिल की जा सकती थीं - चीज, सलामी, वाइन - उन सबको मेज पर लगा दिया। प्रकाशनगृहों और लेखक संघ के औपचारिक वातावरण में अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला था, किंतु अपने 'घर' में चाहे वह होटल क्यों न हो, एक जीते-जागते युवा सोवियत कवि से मिलने का यह पहला अवसर था। हम सब थोड़ा-बहुत आशंकित और उत्तेजित थे।
वह आए लेकिन अकेले नहीं, एक महिला-मित्र उनके साथ थीं। बातचीत कुछ मुश्किल से शुरू हुई, दिलीप ने उन्हें बताया कि पहली बार उनकी कविताएँ उन्होंने पेंगुइन के संकलन में पढ़ी थीं। वह यह जानकार काफी खुश हुए कि हिंदुस्तानी लेखक येवतेशेंको और वॉजनेसेंस्की के अलावा भी ऐसे सोवियत कवियों से परिचित हैं, जिन्हें पश्चिम में ज्यादा लोग नहीं जानते। उन्होंने कुछ अमेरिकी, अंग्रेजी अनुवादकों का नाम बताया, जिनसे मैं और दिलीप ओयोवा में मिले थे। साहित्य का असर रहा हो या शराब का, कुछ ही देर में बातचीत चल निकली। ज्यादा बातचीत दिलीप कर रहे थे इसलिए मैं ध्यान से रूदिन और उनकी मित्र को देखने लगा।
नहीं, उनका असली नाम रूदिन नहीं था, किंतु वह तुर्गनेव के उपन्यास के एक जीवित पात्र दिखाई देते थे - मृदु, शालीन और शांत। उम्र पैंतालीस-चालीस से ज्यादा नहीं थी, लेकिन आँखों के नीचे झुर्रियों का जाल था और आँखें, चेहरे की मृदुता को झुठलाती हुई कुछ अजीब ढंग से इंटेंस और ज्वरग्रस्त दिखाई देती थीं। जब वह बोलते थे या किसी प्रश्न का उत्तर देते थे, तो बार-बार अपने साथ बैठी महिला को देखने लगते थे और वह उन्हें सिर हिला कर प्रोत्साहित करती रहती थी... कुछ देर में हम यह भी भूल गए थे कि किस भाषा में बातचीत हो रही है, उन्हें शायद थोड़ी-बहुत अंग्रेजी आती थी किंतु कभी-कभी भ्रम होता था कि हम बातें कर रहे हैं और एवा अनुवाद का काम भूल कर सिर्फ हमें सुन रही है।
बातों में ही पता चला कि उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, किंतु किसी संग्रह की एक भी प्रति दुकान में उपलब्ध नहीं है।
'क्या कविता-संग्रह इतनी जल्दी बिक जाते हैं?'
'कुछ कवियों के... जिन्हें लोग पढ़ना चाहते हैं, उनकी किताबें आसानी से मिलती नहीं...'
'फिर नया संस्करण नहीं छपता?'
'जल्दी नहीं... वैसे भी छपने में काफी झंझटें पड़ती हैं।'
'कैसी झंझटें?'
वह कुछ सोचने लगे, फिर थोड़ा-सा मुस्कराए, 'बीच में कई मंजिलें पार करनी पड़ती हैं, अगर आप कहीं दुर्भाग्यवश बीच में अटक गए, तो कई वर्ष लग सकते हैं... सोल्जेनित्सिन और पास्तरनाक ऐसे ही बीच में फँस गए थे और कभी बाहर नहीं निकल सके।'
'लेकिन अगर एडिटर को कविताएँ पसंद हैं, तो क्या बाधा है?'
'सिर्फ एक एडिटर की पसंद-नापसंद काफी नहीं है... हमारे यहाँ पूरी मशीन है, नीचे से ऊपर तक, अगर कविता के एडिटर ने आपकी पुस्तक एप्रूव कर दी तो वह फिर जनरल एडिटर के पास जाएगी, उसके बाद लेखक संघ के अधिकारी... सबसे अंत में यदि सब कुछ ठीक हो भी जाए तो कोई गारंटी नहीं कि आपकी पुस्तक छप जाएगी... हो सकता है, सिक्योरिटी पुलिस के अधिकारी उसे पसंद न करें...'
'सिक्योरिटी पुलिस? लेकिन उन्हें कविता के बारे में क्या मालूम?'
रूदिन ने झूठे आश्चर्य से हमें देखा, 'नहीं... नहीं... उन्हें सब कुछ मालूम रहता है।'
'और यदि वह भी पसंद कर लें...'
'तो फिर वह पांडुलिपि मास्को जाएगी, और फिर उसे वही मंजिलें पार करनी होंगी जो उसने यहाँ की हैं।' उनके स्वर में कोई शिकायत नहीं थी, वह जैसे हमें एक ठंडा, कोरा तथ्य बता रहे हों, जिसके वह मुद्दत से आदी हो चुके थे, किंतु फिर उनके चेहरे की उदास, असामायिक झुर्रियों को देख कर लगा कि कुछ तकलीफें अपना इतिहास शिकवों में नहीं, आँखों के आसपास अंकित कर जाती हैं!
'हमें बताया गया कि काम्यू और काफ्का की पुस्तकें भी आपके यहाँ प्रकाशित हुई हैं... क्या यह सच है?'
'हाँ, सच है!' पहली बार वह महिला बोलीं और हम कुछ चौंक-से गए। उनकी आवाज ऊँची थी, लेकिन वह मुस्करा रही थीं, 'छपी जरूर हैं, लेकिन मिलती नहीं।'
'कैसे?' मैंने पूछा।
इस बार वह काफी देर तक बोलती रहीं, शुद्ध रूसी में... हमने एवा को देखा, 'वह कह रही है कि कुछ लेखकों को सिर्फ नाम के तौर पर प्रकाशित किया जाता है, किंतु उनका प्रिंट-आर्डर माँग को देखते हुए बहुत कम होता है। दुकानदार अक्सर ऐसी किताबों को 'दुर्लभ' मान कर अपने सगे-संबंधियों के लिए रख लेते हैं... बाकी प्रतियाँ छोटे कस्बाती शहरों में भेज दी जाती हैं जहाँ लोगों को ऐसी किताबों में दिलचस्पी नहीं... इसलिए कभी-कभी ऐसी हालत हो जातीं है कि वे किताबें जो मास्को या लेनिनग्राड की दुकानों में ढूँढ़े नहीं मिलती, वही दूर-दराज के गाँवों में बेकार पड़ी रहती हैं... ऐसा सिर्फ काफ्का या काम्यू की किताबों के साथ नहीं, अनेक रूसी लेखकों की पुस्तकों के साथ भी होता है... मारिना स्वेतायोवा और मेंडलश्टाम के संकलन प्रकाशित हुए हैं, किंतु उन्हें प्राप्त करना लगभग असंभव है।
'और वे लेखक जो बाहर चले गए हैं... सोल्जेनित्सिन, बूनिन, रेमीजशेव?'
रूदिन ने हताशा से सिर हिलाया, एक लंबी, थकी-सी साँस ली, 'बाहर जाने से कोई समस्या हल नहीं होती।'
'लेकिन यदि कोई लेखक कुछ भी प्रकाशित न कर सके?'
'तो भी क्या? सोल्जेनित्सिन यहाँ रहते तो ज्यादा असर पड़ सकता था।'
'लेकिन वह अपनी इच्छा से कहाँ गए?'
'उन्हें कोशिश करनी चाहिए थी...'
शायद वह ठीक कहते थे। कौन रूसी लेखक अपने देश को छोड़ कर जाना चाहता है? बोरिस पास्तरनाक ने तो नोबल-पुरस्कार लेना भी अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें डर था कि ऐसा करने से उन्हें अपने देश में नहीं रहने दिया जाएगा... कोशिश! लेकिन किस सीमा के बाद हर कोशिश दीवार से सिर फोड़ना नहीं होगा, इसका निर्णय कौन करेगा?
कुछ देर हम चुपचाप पीते रहे। मुझे लगा, हम कोई सौ साल पहले के रूस में बैठे प्राणी हों, सरदी की ठिठुरती रात में जिंदगी का अर्थ टोहते हुए...
'आप कभी देश के बाहर नहीं गए?' मैंने पूछा।
'नहीं, कभी नहीं।' उन्होंने सिर हिलाया।
'अगर आपको बाहर जाने का मौका मिले तो?'
'नहीं, नहीं...' उनके स्वर में एक गहरा संकल्प था, 'मैं अपने को इस नगर से अलग नहीं देख सकता!'
उनकी सूनी आँखें होटल की खिड़की पर ठहर गईं, परदों के पीछे लेनिनग्राड पर बर्फ गिर रही थी, रात की चिरंतन शांति में चुपचाप। 'एक लेखक की जिंदगी...' उन्होंने कहा, 'वह और लोगों की तरह है। फर्क सिर्फ इतना है, लोग कुछ और सुनते हैं, वह कुछ और सुनता है...'
वह उठ खड़े हुए, हाथ मिलाया और फिर अचानक कुछ सोच कर हमें बारी-बारी से बाँहों में लपेट लिया।
वे दोनों रात की बर्फ में ओझल हो गए, लेकिन मैं कुछ देर होटल के पोर्च में खड़ा रहा। मुझे वह रात याद हो आई, जब हम मोस्कवा नदी के पीछे गिरजे में गए थे। लौटते हुए हमें लेनिन हिल दिखाई दी जहाँ बर्फ से ढली ढलान नीचे चली गई थी। एवा ने हमें बताया कि इसी हिल को देख कर चेखव ने वह स्मरणीय कहानी लिखी थी... एक लड़की अपने मित्र के साथ उस ढलान पर स्की करने आती थी, लड़का हमेशा चुप रहता था, लेकिन जब वे दोनों तेजी से स्कीस पर नीचे उतरते थे तो लड़की को सरसराती हवा में एक आवाज सुनाई देती थी, 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' - लेकिन नीचे उतर कर उसे पता नहीं चलता था कि ये शब्द नीचे उतरते हुए लड़के ने उससे कहे हैं या यह महज उसके दिल का भ्रम है, जो सरसराती हवा में गूँजता है...
क्या एक क्रांति की ट्रेजडी भी यह नहीं है, लोग कुछ और चाहते हैं इतिहास कुछ और कहता है, हम कुछ और सुनते हैं?