ढाई आखर सिखाने वाले कवि : कबीर / शिवजी श्रीवास्तव
आज हम कबीर के जन्म के लगभग सवा छह सौ वर्षों बाद उनको याद कर रहे हैं, उनके साहित्य का मूल्यांकन कर रहे हैं, वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं तो इसलिए कि कबीर एक अद्भुत कवि हैं, उनकी कविताओं में जीवन का सार तत्त्व छुपा है। कबीर ही ऐसे कवि हैं जो लोगों को हर अवसर पर याद आते हैं। हमें क्रांति की बात करनी हो, तो कबीर याद आते हैं, शांति की बात करनी हो तो भी कबीर याद आते हैं, समाज में रहने का सलीका सीखना हो या ईश्वर से निकटता स्थापित करनी हो तो भी कबीर ही राह दिखाते हैं। कबीर हमें हर अँधेरे के खिलाफ एक प्रकाश स्तम्भ की भाँति खड़े नजर आते हैं।
कबीर के काव्य में विलक्षण विरोधाभास है, एक ओर वे इतनी सहज साखियाँ रुचते हैं, जो किसी अनपढ़ के लिए भी सहजग्राह्य हैं यथा-
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥
इसी के साथ वे इतनी जटिल उलटबांसियों की रचना करते हैं, जिसकी व्याख्या में बड़े-बड़े ज्ञानिजन भी सोचने के लिए विवश होते हैं यथा-
एक अचम्भा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई,
पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागे पाई
जल की मछली तरुवर ब्याई, पकड़ बिलाई मुर्गी खाई।
दरअसल कबीर का समय बड़ा अराजक समय था, वे हर प्रकार की अव्यवस्था और रूढ़ियों के विरुद्ध सतत संघर्षरत रहकर विरोधों में जीते हुए विरोधों के मध्य ही मार्ग निकालते रहे। वे अपनी कविताओं के माध्यम से विद्रोह का बिगुल भी फूँकते रहे और शांति की रागिनी भी बजाते रहे। उनकी कविताओं की जितने आयामों से व्याख्या की जाए कम है।
कबीर सत्य के शोधक हैं पर वे सत्य की ओर उस मार्ग से जाने का निषेध करते हैं जो परम्परागत हैं। वह मार्ग आडम्बरों से भरा है। पंडितों द्वारा बताए गए मार्ग को कबीर झूठा बतलाते हैं—
पण्डित, वाद बदन्ते झूठा,
राम कह्या दुनिया गति पावै खाण्ड कह्या मुख मीठा।
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नर के साथ सुआ हरि बोले, हरि परताप न जानै
जो कबहूँ उड़ि जाए जंगल में, बहुर न सूरतै आनै।
कबीर की दृष्टि में पंडित जन केवल उलझाते हैं, किताबी ज्ञान बतलाते हैं। किताबों को पढ़कर कभी सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता सच्चे ज्ञान का आधार तो प्रेम है-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय॥
कबीर प्रेम पढ़ने की बात करते हैं जो व्यक्ति प्रेम के तत्त्व को जान लेगा वह ईश्वर के मर्म को जान लेगा। संसार में दो धर्मों के मध्य झगड़े भी इसीलिए हैं कि कोई मर्म को समझने का कोई प्रयास नहीं करता-
अरे, इन दोउन राह न पाई
हिन्दू कहे मोह राम पियारा, तुरक कहे रहमाना
आपस में दोऊ लरि-लरि मूए मरम न कोऊ जाना।
लड़ने का कारण स्पष्ट है किसीने भी मर्म को नहीं जाना है। ये मर्म क्या है? यही कबीर जीवन भर समझाते रहे, वह मर्म है प्रेम करने की कला। प्रेम ही ईश्वर से साक्षात्कार कराता है, प्रेम ही समाधि की अवस्था तक ले जाता है। उस प्रेम को सीखने की ही आवश्यकता है। प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है।
प्रेम शब्द कहने में जितना सरल है जीवन में उतारने में उतना ही कठिन है। प्रेम को पढ़ने से ही सारा पांडित्य सारा ज्ञान अन्तस् में उतर आता है। यूँ तो संसार में हर कोई प्रेम करने के दावे करता है-स्त्री से प्रेम, संतान से प्रेम, धन-संपत्ति से प्रेम पर संसार में चलने वाले इस प्रेम को कबीर प्रेम नहीं मानते। वे स्पष्ट कहते हैं-
प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, प्रेम न चिन्हे कोई।
जा मारग हरि जी मिले, प्रेम कहावै सोई॥
या फिर
प्रीत बहुत संसार मे, नाना विधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिए, हरि नाम से जो होय॥
स्पष्ट है जिस मार्ग से ईश्वर का साक्षात्कार हो जाए, वही प्रेम है। ईश्वर से प्रेम ही उत्तम प्रेम है। ईश्वर के नाम से प्रेम करना ही सच्चा प्रेम है, ये प्रेम जीवन में बहुत कठिनाई से आता है।
संसार से प्रेम और ईश्वर से प्रेम में अंतर ये है कि सांसारिक प्रेम बाँधता है और ईश्वरीय प्रेम मुक्त करता है। संसार का प्रेम अधिकार माँगता है, अहंकार बढ़ाता है। लोग संसार में अपनी वस्तुओं से प्रेम करते है, अपने पद से अपनी हैसियत से प्रेम करते हैं या अपने सगे-सम्बन्धियों से प्रेम करते हैं। यह प्रेम चाहे जड़ वस्तुओं से हो या चेतन से अपने साथ मैं और मेरा का भाव ले कर आता है। मेरा मकान, मेरी जमीन, मेरा पद, मेरी सम्पत्ति, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र इत्यादि। जहाँ 'मैं' आता है वहाँ बीच में माया आ जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है-
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहि बस कीन्हें जीव निकाया॥
...अर्थात ये मैं हूँ ये मेरा है यही माया है। सारे जीवों को इसने अपने अधीन कर रखा है।
कबीर इसी माया को बीच से हटाने की बात करते हैं। इसी 'मैं' को मारने की बात करते हैं। जब तक 'मैं' रहेगा, अहंकार विलीन नहीं होगा तब तक प्रेम के घर में प्रवेश नहीं मिलेगा-
यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुइँ धरे सो पैठे इहि माँहिं॥
प्रेम के घर में प्रवेश की यही शर्त है कि अपने सिर को उतार कर जमीन पर रख दो। अहंकार मिटा दो। द्वैत भाव समाप्त कर दो। जब अहंकार मिटेगा, द्वैत समाप्त होगा तो अंदर प्रेम आएगा। ये प्रेम ही परमात्मा होगा। गीता में भगवान कृष्ण ने भी कहा है-'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज'-सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ... परमात्मा को पाने के लिए सारे सांसारिक धर्मों को छोड़ना पड़ता है।
प्रेम का अर्थ माँगना नहीं अपने को दे देना होता है। प्रेम समर्पण करता है अपने को प्रिय की सत्ता में विलीन कर देता है। अल्लामा इकबाल ने भी लिखा है-मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे। कि दाना ख़ाक में मिलके गुलो-गुलज़ार होता है। ...अर्थात् बिना स्वयं को मिटाए प्रेम के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। प्रे म का अर्थ ही है अपने को मिटा देना। क्योंकि जहाँ दो की भावना होती है वहाँ याचना होती है, कामना होती है, आकर्षण होता है, तृष्णा होती है, अधिकार-लिप्सा होती है; पर प्रेम नहीं होता। प्रेम में द्वैत नहीं होता, हृदय में या तो संसार का प्रेम रहेगा या ईश्वर का। दोनों एक साथ नहीं रह सकते; इसीलिए कबीर प्रेम की गली को बहुत सँकरी बतलाते हैं-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं
प्रेम गली अति साँकरी जामें दो न समाहिं।
प्रश्न है कि प्रेम का अधिकारी कौन है, तो उसके लिए कबीर कोई विभाजन नहीं करते। प्रेम पाने के लिए कबीर परम्परा से चले आ रहे सारे बंधनों को नकारते हैं। हिन्दू-मुस्लिम, ऊँच-नीच, जाति-वर्ण जैसे किसी बंधन को वे नहीं मानते। प्रेम के साम्राज्य में हर वह व्यक्ति प्रवेश कर सकता है जो अहंकार छोड़ सकता हो-
प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय॥
कबीर तो चाहते हैं कि हर व्यक्ति को प्रेम में हो जाना चाहिए बिना प्रेम के जीवन मुर्दे के समान है-
जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान॥
परमात्मा के इस प्रेम को प्राप्त करने के लिए किसी कर्मकांड, किसी व्रत-उपवास किसी तीर्थ-तप को भी अवश्यक नहीं मानते। उनके ईश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-
मोको कहाँ ढूँढता बन्दे मैं तो तेरे पास में
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न मैं कौनो क्रिया करम में, न जप तप उपवास में।
ईश्वर हृदय में विद्यमान है जरा-सा अहंकार विसर्जित करने की देर है ईश्वर मिल जाएगा। अहंकार विसर्जन या प्रेम करने की कला गुरु सिखाते हैं, पर सीखने की ललक स्वयं पैदा करनी होती है-
गुरु गोविन्द तो एक है, दूजा यह आकार।
आपा मेट जीवित मरै, तो पावै करतार॥
गुरु के सामने भी अहंकार लेकर नहीं जा सकते। गुरु भी तभी मिलता है जब ईश्वर कृपा करता है-
ज्ञान प्रकास्या गुरु मिला, सो जनि बीसर जाइ।
जब गोविंद कृपा करी, तब गुर मिलया आइ॥
ईश्वर तभी कृपा करेगा जब प्रेम आएगा।
हृदय में प्रेम आने के बाद सहज समाधि की अवस्था मिल जाती है वही परमानन्द की अवस्था है। इस अवस्था में आने के बाद कुछ पाने की लालसा शेष नहीं रहती। सहज समाधि में पहुँचे व्यक्ति को हर समय हर कार्य में ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति रहती है। यही ढाई आखर सीखने का रहस्य है। ढाई आखर सीखने के बाद कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती।