ढोल / राजेन्द्र यादव
किसी शहर में एक क्लर्क रहता था। वह बहुत ही कमजोर, सूखा और दुबला-पतला था। सब तरह से वह कोशिश करके हार गया, लेकिन उसका स्वास्थ्य वैसा ही रहा। शहर में काफी भीड़भाड़, धक्का-मुक्की थी, इसलिए और भी दुखी था। फाइलों, कागजों या दूसरे कामों में लगे रहने के कारण उसे समय नहीं मिलता था। भीड़ में किसी की कुहनी की चोट, किसी का धक्का उसे कई दिनों तक दर्द करता रहता था। उस समय तो केवल चोट लगती, आंखों के आगे अंधेरा छा जाता और वह लड़खड़ाकर पीछे हट जाता। अक्सर सपने देखता-एक दिन किसी दैवी शक्ति से ऐसा शक्तिशाली हो जाएगा कि इन सबको मजा चखा देगा। उसे विश्वास था कि एक-न-एक दिन ऐसा होगा जरूर। फिलहाल तो उसे हमेशा डर बना रहता कि कभी कोई पीट-पटक देगा, उससे चीजें छीन लेगा, या उसे धक्का देकर गिरा जाएगा। इसलिए वह हमेशा सिर झुकाकर काम करने का भाव दिखाए रहता और जहां भी दो-चार आदमी दीखते, वहां से कतरा जाता। जहां तक बन पड़ता, दफ्तर या घर ही रहता और किसी चमत्कार की राह में, तरह-तरह की कल्पनाएं किया करता। मगर यह आशंका उसे हमेशा बनी की तरह खाती रहती कि कभी कोई दुर्घटना हो सकती है। शांति उसे अपने कमरे में भी नहीं मिलती थी। ऊब, डर, आशंका उसे चैन से नहीं बैठने देते। कोई चोर-डाकू ही आ जाए, तो? जिस तरह हर राह चलता आदमी उसे अपनी तरफ ही आता लगता, उसी तरह रात-रात-भर उसे चोर-डाकुओं की चिंता सताती। जरा-से खटके से कंपकंपी चढ़ जाती। शरीर पसीने-पसीने हो जाता। यहां से भागकर किसी और शहर में चला जाए, तो?-वह सोचता। लेकिन वहां भी तो यही सब लोग होंगे, यही सारी चिंताएं होंगी। एक दिन चुपचाप कहीं भागना है, वह सोचता रहता और दुबला होता जाता।
अब भगवान की लीला देखिए कि एक दिन उसने कवच पहने हुए किसी पुराने योद्धा का चित्र देखा और उसे देखता रह गया। खयाल आया कि अगर ऐसा ही कवच वह भी पहन ले, तो समस्या हल हो सकती है। आखिर बहुत माथा-पच्ची करने के बाद उसने एक तरकीब खोज निकाली। वह बाजार से अपने शरीर के नाप का एक ढोल खरीद लाया और घर के दरवाजे बंद करके ठोक-पीटकर उसे अपने शरीर के हिसाब से तैयार करने लगा। अपनी समझ से काम पूरा होने पर उसने शरीर पर ढोल चढ़ाकर ऊपर से ढ़ीला-ढ़ीला कुरता पहना। शीशे के सामने गया, तो अपने को देखकर हंसी आ गई। सूरत-शक्ल जरूर बेडौल लगती है, लेकिन दूसरे लोग धक्का-मुक्की करके उसे परेशान नहीं कर पाएंगे। जल्दी ही उसके भीतर के कसे अंग दुखने लगे, तो उसने ढोल उतारकर अलग रख दिया। बहुत बड़ा बोझ उतर गया। अपने-आपको समझाने लगा कि जल्दी ही आदत पड़ जाएगी, तो इतना बुरा नहीं लगेगा। पहले घर के भीतर ही इसे पहनने का अभ्यास करना होगा।
अभ्यास चाहे जितना हो जाए, लेकिन इतना वह भी जानता था कि इसे पहनकर बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होगी। कम-से-कम इस शहर में वह कभी भी ऐसा नहीं कर पाएगा। उसने जैसे-तैसे करके अपना तबादला और भी बड़े शहर में करा लिया।
बड़े शहर में वह पहले ही दिन भीतर ढोल और उसके ऊपर ढीला-ढाला चोंगा पहनकर निकला, तो बेहद घबराया हुआ और चौकन्ना था। हमेशा लगता रहा, जैसे सब लोग उसे ही घूर रहे हैं। शायद सब ताड़ गए हैं कि वह उसके शरीर का स्वाभाविक रूप नहीं है और उसने कपड़ों के भीतर एक ढोल पहन रखा है। इसका मतलब है कि सभी उसके मन की कमजोरी भी जान गए हैं। यह बात उसे परेशान और दुखी करती थी। वैसे लोग, पता नहीं, उसकी तरफ ध्यान देते या नहीं, लेकिन अपनी इस हरकत से उसने अपनी इस कुंठा को और भी उजागर कर दिया है-कहीं उसने गलती तो नहीं कर डाली? पहले उसे सिर्फ अपनी चिंता थी। अब शरीर, ढोल और मन, तीनों की चिंता सताने लगी।
जगह नई थी, इसलिए उसकी तरफ बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया था। चलो, यह भी अच्छा है। पुराने शहर में होता, तो सब-के-सब खाल खींचकर रख देते।
फिर भी कुछ अजीब तो लगा ही, कई लोग उसका यह हुलिया देखकर हंसे, कुछ ने संजीदा होकर पूछा कि खैरियत तो है, नई जगह की आबोहवा माफिक आ रही है या नहीं? उसके मुंह से अनायास निकला कि रीढ़ की हड्डी में तकलीफ है, इसलिए डॉक्टर ने पहनने को कुछ दे दिया है, तभी उसे एहसास हुआ कि पिछले शहर में झुके-झुके काम करने से उसकी रीढ़ में दर्द रहा करता था। कम-से-कम इस समय उसे निश्चय ही लगा कि दर्द रहता था। सामने वाले चेहरों पर हमदर्दी और विश्वास देखकर उसे अपने भीतर एक बड़ी ही दुष्ट प्रसन्नता हुई, अरे, वह इतनी आसानी से लोगों को बेवकूफ बना सकता है! बात को ढंग और तर्क से, व्यक्तिगत विश्वास के साथ कहा जाए, तो कैसी सहजता से सबके गले उतर जाती है, यह बहाना उसे कुछ दिन चल सकने वाला और अच्छा लगा। हो सकता है, थोड़े दिनों में सबको उसे इस रूप में देखने की आदत पड़ जाए। ढोल को पहनने का उसने कैसा सटीक कारण दिया है, इससे उसे अपनी बुद्धि पर विश्वास जागा।
एकाध बार भीड़ में उसे किसी ने धक्का दिया, तो देखा कि खुद ही अपनी चोट सहलाता हुआ पीछे हट गया, इसीलिए तो मैंने यह तरकीब की है, बच्चू! उसने मन में खुश होकर सोचा। आठ-दस बार लोग ऐसा करेंगे फिर खुद ही बचने लगेंगे।
लेकिन अभी आदत नहीं पड़ी थी और उसे लगता रहता था कि जल्दी-से-जल्दी घर पहुंचे, दरवाजे बंद करके ढोल उतारे और शरीर को ढीला छोड़कर चैन की सांस ले। सारा शरीर एक ही हालत में रहने से बुरी तरह अकड़ जाता है। उतरे हुए ढोल को वह बड़ी मुग्ध आंखों से देखता, कल्पना करता कि वह अभी भी उसमें है और अलग खड़ा होकर अपने-आपको देख भी रहा है कि कैसा लगता है। इस तरह हर दिन को वह पूरे विस्तार के साथ आंखों के आगे लाकर फिर से पीता, खुद बड़ा गहरा संतोष होता, हंसी आती और अपना ही नाम लेकर ढोल को बुलाता-‘कहो मिस्टर, कैसे हो? आज तो बड़े अच्छे कपड़े पहनकर घूमे! तुम्हें देखकर एक बार तो बॉस भी सकपका जाता है!’ और फिर खुद ही लोट-पोट हो जाता...ढीला-ढीला चोंगा उसके भीतर भारी-भरकम ‘शरीर’-वह एक किसी रोमन राजनीतिज्ञ की तरह लगता है! कुछ कहो, अब उसका एक भारी-सा व्यक्तित्व बन गया है।
डॉक्टर वाले बहाने का असर कम हो गया है, उसे धीरे-धीरे इस बात का अहसास होने लगा, क्योंकि लोगों के चहरे की हमदर्दी की जगह एक विचित्र-सा व्यंग्य लेने लगा था। कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि मैं बहुत आत्म-संतुष्ट दिखाई देता हूं? इस आत्म-संतोष की भी वजह है। जहां आसपास वाले हमदर्दी दिखाते हैं, पीठ पीछे हंसते हैं या उसे दिलासा देते हैं कि जल्दी ही उसकी तकलीफ दूर हो जाएगी, वहीं भीड़भाड़ में या दूसरी जगहों पर लोग उसे गौर से देखते हैं, उनकी आंखों में आश्चर्य और भय होता है। उनसे उसका कोई वास्ता नहीं होता, लेकिन सहमकर उसके लिए जगह छोड़ देते हैं। या तो इज्जत के कारण, या अपने चोट न लग जाए, इसलिए बचते हैं। उसने पाया कि उसमें एक अद्भुत शक्ति पैदा हो गई है। यह शक्ति उसमें निरंतर विकसित भी हो रही है, इस अनुभूति से बड़ा सुखद मजा आने लगा था। कौन देख रहा है और उसकी निगाहों में कौन-सा भाव है, इस बात को वह बिना हिले-डुले कैसे सटीक ढंग से पढ़ लेता है।
दफ्तर के कुछ लोग बेतकल्लुफ होने के जोश में उसके कंधे पर हाथ मारकर कोई मजाक की बात कहने की कोशिश में खुद अपने को चोट लगा बैठे थे। ऐसे समय हमदर्दी का भाव खुद उसके चेहरे पर होता, पर मन-ही-मन कहता, ‘साले बड़े बेतकल्लुफ होने चले थे, आया मजा! आगे हिम्मत नहीं होगी।’ ऐसे मौके पर उसके भीतर हंसी का सैलाब उमड़ने लगता कि किसी दोस्त का हाथ कुछ सोचकर ऊपर उठा-का-उठा ही रह गया है। ऊपर से वह बहुत संजीदा और गंभीर बना रहता। इतना ही नहीं, उसके चेहरे-मोहरे और इस ढब ने उसे सबकी निगाहों का केंद्र बना दिया है, यह भी वह जानता था, लोग उसकी तरफ आपस में इशारे करते हैं, यही बात उसे बेइंतहा संतोष देती थी कि कैसा भी जमाव हो, उनके मन में कैसी भी भावना हो, ध्यान सबका उधर जाए बिना नहीं रहता। सबसे अलग और कुछ विशिष्ट होना, सबके मन में भय, आश्चर्य और कुतूहल पैदा करना, खुद ढोल के भीतर सुरक्षित रहना, अपने इस रहस्य से संतोष और गर्व पाते रहना, इस एक ही तरकीब से कितने सारे काम एक साथ हो गए हैं। अपनी सफलता पर वह खुद ही अपनी पीठ ठोकता। देखने में भद्दा कुछ जरूर लगता है, भीतर शरीर भी दुखने लगता है, चलने-फिरने में अपने-आपको और ढोल को एक साथ संभाले रखना कोई आसान नहीं है। पर इसने सोचा, इसकी भी आदत पड़ जाएगी, और उसने फैसला कर लिया कि ढोल जिंदगी-भर उसके साथ रहेगा। इसलिए ढोल चाहे उसे अपने हिसाब से ढाले या नहीं, वह खुद चलने-फिरने, उठने-बैठने, सबमें अपने को ढोल के हिसाब से ढालेगा।
ऊपर से सब कुछ बड़ा गंभीर, गमगीन और स्थिर-सा था, लेकिन हर क्षण भीतर लगता कि जिंदगी बेहद दिलचस्प, सनसनाहट-भरी नाटकीयता से गुजर रही है। उसे अपने और अपनी जिंदगी को लेकर कभी भी इतना मजा नहीं आया। वह अब एक बड़ा-सा आदमकद शीशा ले आया था और रोज नियम से उसके सामने खड़ा होकर हंसने-मुस्कराने, उठने-बैठने का अभ्यास करने लगा था। जानता था कि अभी उसकी चाल-ढाल, हाव-भाव बहुत सहज नहीं है। पहली बार शीशे के सामने यह देखकर उसके मन में धक्का लगा कि मुस्कराने, उठने-बैठने या चलने में उसके चेहरे और आंखों का भाव अजीब दर्दीला-सा हो उठता है। किसी दूसरे के ऐसे भाव को देखकर यह जरूर सोचता कि दर्द की ऐंठन की वजह से इस आदमी के चहरे पर ऐसी तकलीफ उभर आती है। लोग भी क्या उसके हाव-भाव में ऐसी ही कुछ यातना देखते हैं? यानी जिसे वह सम्मान और भय समझता रहा है, वह केवल दया और हमदर्दी से आगे नहीं है। यह बात पिछले कुछ दिनों से उसे लगातार कोंचने लगी थी कि उसके हाव-भाव स्वाभाविक नहीं हैं। कभी-कभी झुंझलाहट भी होती कि क्यों नहीं इस झंझट को उतार फेंकता और पहले की तरह ही मुक्त और खुला हो जाता है। हो सकता है उसका भ्रम ही हो और लोग पहले उसे दया और उपेक्षा से न देखते रहे हों। और मान भी लो कि ऐसा था, फिर इस और उस स्थिति में फर्क ही क्या रहा? उनसे मुक्त होने के लिए ही तो उसने यह बाना धारण किया है। अब तो जैसे भी हो, इसी स्थिति में से कोई हल निकालना होगा। इसे छोड़कर पुरानी हालत में लौट जाना आसान कतई नहीं है। बिना ढोल के अपने को देखने की कल्पना ही बड़ी अजीब-सी लगती है। ढोल उतार देने पर लोग भी शायद अब न पहचान पाएं। तो क्या अब जिंदगी-भर यों ही इस बोझ से दबे गंभीर और गमगीन रहना होगा? उसने फौरन ही अपने को सुधारा, यह फैसला तो उसने खुद ही लिया था कि जिंदगी-भर इसे अपने साथ रखेगा। और झमेला लगे या झंझट, जैसे भी हो, इसे निभाने के सिवा अब कोई रास्ता नहीं है। अब क्या कभी भी उसे सीधा और आत्मीय स्पर्श नहीं मिलेगा? हमेशा ही, अपने हर निकटतम से ढोल की दूरी से, ढोल के भीतर रहकर ही मिलना होगा? अपने-आपको उसने यह कैसा देश निकाला दे दिया है? क्या अब यों ही अकेले, अनजाने और अनदेखे ही मरना होगा?
उसे यह विश्वास हो गया कि लोग या तो उसे दया से देखते हैं या भय से। उनके व्यवहार से लगता है, जैसे उसे छूत की कोई बीमारी है-वे सावधानी और दूरी बरतते हैं। यह दया, भय पहले तो उसे अच्छे लगते थे, अपने बचाव और अहं को संतोष मिलता था, लेकिन अब उसे धीरे-धीरे यही लगने लगा, जैसे यह उसे अछूत बनाए रखने की चालाक साजिश है। वह आता है, तो लोग बातें करते-करते चुप हो जाते हैं, जहां वह होता है, लोग खुलकर व्यवहार नहीं कर पाते। कुछ ऐसा तनाव बना रहता है, जैसे एक घनिष्ठ परिवार के बीच कोई घुसपैठिया आ गया हो। और सभी राह देख रहे हों कि कब वह जाए और वे आराम-इतमीनान से बातें करें। जरूर ये सब उसके पीछे, उसी की बातें करते होंगे। उसके चेहरे-मोहरे और हाव-भाव का मजाक उड़ाते होंगे। उसने कई बार एक-एक को विश्वास में लेकर अससिलयत जानने की कोशिश की, उन्हें दावतें दीं और अपना दुख रोया कि लोग किसी की तकलीफ के बारे में कैसे क्रूर हैं। लेकिन इसके सिवा कुछ भी पता नहीं चला कि औरों के मन में उसके लिए या तो सिर्फ उदासीनता है, या दया और भय।
जो चीज उसे भीतर तक तिलमिला गई, वह यह नई स्थिति कि लोग उदासीन हैं। वे दया करें, भय करें, घृणा करें, कुछ करें, लेकिन उदासीन होने से कैसे बर्दाश्त होगा? नहीं, नहीं, उदासीन कैसे रहेंगे? उनके बीच में ऐसा अजूबा घमूता रहे और उनका ध्यान न जाए, ऐसा कैसा हो सकता है? अब वह अपने और दूसरों से बहस करके यह साबित करने में लग गया कि यह न दया है, न भय, इतनी खूबसूरती से बचाव की यह तरकीब निकालने, विशिष्ट बन जाने की अक्लमंदी और कौशल की इज्जत है। जिसे वह दूरी समझता है, वह उसका लिहाज और खास खयाल है। लोग उसकी बुद्धिमानी और पराक्रम के कारण उसे विशेष और ऊंचा मानते हैं। अपनी रक्षा और दूसरों पर असर डालने के लिए जो काम वे लाख सिर पटकने पर नहीं कर पाए, उसे उसने कैसी खूबसूरती से किया है। यही देखकर लोग दंग हैं और मन-ही-मन उसे ‘हीरो’ मानते हैं।
औरों और अपने को तरह-तरह से यह सब समझाते हुए वह भीतर अपनी तारीफ भी करता था-कैसी अच्छी तरह वह अपनी बात समझाने लगा है, कैसी लाजवाब दलीलें उसने सोच निकाली हैं। उसे यह विश्वास भी होने लगा कि उसका दिमाग खुल जाने का कारण यह ढोल ही है। अगर वह इसे उतार दे, तो पहले की तरह साधारण और सामान्य आदमी बन जाएगा। उसने और भी गहरा विश्लेषण करके पाया कि पहले वह अपने भीतर से सारी दुनिया को देखता था और बाकी सब उसे अजनबी और अपरिचित लगते थे-वह खुद अपने लिए ‘बेचारा’ था। आज वह अपने भीतर से उठकर उनमें घुस गया है और उनकी निगाहों से अपने को देखने लगा है। इसलिए उन्हें वह अजनबी और दूसरे नक्षत्र का प्राणी लगता है। यह हरेक के भीतर उतरकर अपने-आपको देखने की क्षमता आखिर उसे ढोल ने ही तो दी है। पहले तो वह जान ही नहीं पाता था कि लोग उसे देखकर क्या सोच रहे हैं। अब वह लगातार उनके भावों के उतार-चढ़ाव को पढ़ता चला जाता है। मन-ही-मन उनकी बातों और तर्कों को दुहराकर हंसता है। अब उसकी चाल-ढाल न केवल स्वाभाविक और सहज हो गई है, बल्कि चेहरे पर अजीब-सी मुस्कराहट भी रहने लगी है कि दूसरे के भीतर क्या चल रहा है, ऐसी पारदर्शी निगाह प्राप्त कर लेना कोई आसान काम है? इस सबके विश्लेषण से उसके मन में बहुत बड़ा आत्मविश्वास जागा। ये बेचारे कुछ भी नहीं कर पाएंगे...
मगर जिसका उसे डर था, वही हुआ। शीघ्र ही उसे पता चल गया कि वे सामने पड़ने पर भले ही बहस से बचने या बेकार झमेला मोल न लेने के कारण हां में हां मिलाने लगते हों, पीठ पीछे वही सब कहते हैं, जो उनके मन में कहीं दबा पड़ा है-‘साला ढोंगी है! दिखावा करता है! पता नहीं, कहां से फटा-टूटा ढोल उठा लाया है और उसे पहनकर समझता है, जैसे खुदा हो गया। सोचता है कि हीरो है और नया फैशन चला रहा है!’ लीजिए साहब, लोग उदासीन न हो जाएं, इसलिए उसने अपनी तरफ से खुलना और बहस करना शुरू किया, तो वे यह सब बकवास करने लगे। उसे उनसे बातें करने में चिढ़ होने लगी-झूठे, मक्कार, चोर! तुम लोग बाद में जो कहोगे, मुझे सब पता है। एक-एक वाक्य को ज्यों का त्यों दुहरा सकता हूं। हालत यहां तक हो गई कि वह कोई ठीक बात भी कहता और कोई सामने वाला सहमत हो जाता तो भी वह चौंक उठता। जरूर कोई गलत या झूठी बात है, तभी तो यह साला सहमत हो गया है! जान-बूझकर गलत और झूठी बात कहकर सामने वाले को सहमत कर लेने में जहां लोगों को आसानी से बेवकूफ बनाने का संतोष और अपने भीतर एक दुष्ट आत्मविश्वास जगाता, वहीं सही बात कहकर लोगों की सहमति और समर्थन देखकर उसे अपनी बात खुद झूठी और गलत लगने लगती। उसे सही और गलत का भेद समझ में आना बंद हो गया। एक साथ उसे सारी बातें सही लगतीं और एक साथ ही गलत। एक क्षण में वह दुनिया का सबसे दुखी, दयनीय और धोखा खाया प्राणी होता और दूसरे ही क्षण सबसे बुद्धिमान, अद्भुत और विशेष। सही और गलत के घपले की कुछ ऐसी धमाचौकड़ी मचती कि उसका सिर चकरा जाता। अब तो उसे यह भी शक होने लगा कि वह अपने ऊपर विश्वास करता है या नहीं...अपनी किस बात को ठीक समझे, किसको नहीं...वह औरों को बेवकूफ बना रहा है या खुद बन रहा है...
लेकिन यह हालत अधिक समय तक नहीं रही और उसे पक्का विश्वास हो गया कि यह सबकी मिलीभगत है, एक भयंकर साजिश है और उसे काटकर अलग कर दिया गया है। सालों ने उसके दिमाग की यह हालत कर दी है कि कोई दूसरा होता, तो अब तक पागल हो गया होता। सब लोग उसके खिलाफ साजिश करते हैं, सब टुच्चे, कमीने और घटिया हैं। सामने हैं-हैं करते हैं और पीठ-पीछे छुरी मारते हैं। इस नतीजे पर पहुंचकर उसने कुछ हलकापन महसूस किया। वह सीधा, सरल और कुछ अधिक अक्लमंद आदमी है और इन कमीनों से ऊंचा है, बस, यही उसका अपराध है। और इसलिए ये लोग किसी दिन या तो उसे फाड़कर खा जाएंगे या उसका ढोल और चोगा छीन लेंगे या पकड़कर जेल में बंद करा देंगे, जैसा कि हर जीनियस के साथ होता है। हां, अब समझ में आया कि वह ‘जीनियस’ है और बाकी लोग कीड़े-मकोड़ों जैसे तुच्छ हैं, वरना ढोल की बात किसी और के दिमाग में क्यों नहीं आ गई? वह कभी भी इन लोगों के बीच का आदमी नहीं बन पाएगा। इन दुष्टों की साजिश यही है। या तो वे उसे भी अपने जैसा ही मामूली और साधारण बना डालेंगे या फिर छुतहा चूहे की तरह अकेला करके मार देंगे। ऐसी साधारण-सी बात कुछ देर से समझ में आई कि न तो वह इतना नीचे उतर सकता है और न ये कमबख्त इतना ऊंचे उठ सकते हैं। इसलिए दोनों एक-दूसरे के साथ इतना अनकुस (अनकंफर्टेबुल) महसूस करते हैं। अरे, इनसे तो कोई संवाद ही नहीं है। सब साले उससे और उसके ढोल से जलते हैं।
मजबूरी यह थी कि अब वह पुराने शहर भी नहीं लौट सकता था। यही नहीं, वहां का कोई आदमी कभी दूर से दीख भी जाता तो वह कतरा जाता। हालांकि यह भी जानता था कि वह खुद शायद इस ‘धज’ में न पहचान पाए। जब सामने से कोई यों बिना उसे पहचाने निकल जाता, तो कचोट उठती और मन ललक उठता कि वह दौड़कर उससे लिपट जाए, उसे अपना नाम बताए, अपने हाल-चाल सुनाए, उसके सुने, लेकिन अब ढोल के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता था। यह भी शक होता था कि हो सकता है, यहां वालों ने उसके खिलाफ उन्हें भड़का दिया हो और वे उसकी उपेक्षा कर रहे हों। वह दांत पीसकर कहता, ‘सबको समझूंगा।’ अब तो बिल्कुल साफ था कि उनके और उसके बीच एक लड़ाई की शुरुआत हो चुकी है और कहीं भाग भी नहीं सकता। लेकिन वह भागे क्यों? वह भी इन्हें दिखा देगा कि किससे पाला पड़ा है। यह सोचकर वह मुस्कराने लगा कि जिस योद्धा की तसवीर देखकर ढोल की बात उसके दिमाग में आई थी, आखिर उसे वही योद्धा बन जाना पड़ा। कोई बात नहीं, लड़ाई की सही! बात तो साफ हुई!
लेकिन बात साफ नहीं हुई थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि लड़ाई कहां से और किससे शुरू करें...ऊपर से तो सब मीठे-मीठे और बगुला भगन बने रहते हैं, पीठ पीछे जो कहते-करते हैं, वह एक-एक बात समझता है। हुंह, यह उनकी लड़ाई की एक चाल है। उसे उनके इस भुलावे में बिल्कुल भी नहीं आना।
अब उसकी चाल-ढाल में एक शहीद योद्धा जैसी कड़क आ गई। उसने अपने युद्ध का पूरा नक्शा तैयार कर लिया। उसने धीरे-धीरे लोगों से मिलना-जुलना, बातचीत करना बंद कर दिया। उसका चेहरा-मुहरा सख्त हो गया। ‘अरे, मुझे तुम कमीनों की क्या चिंता!’ अब वह अपनी हर बात में एक खास निश्चिंतता और उद्दंड लापरवाही लाने की कोशिश करने लगा। इसके लिए भी उसने रोज शीशे के सामने अभ्यास किया। कभी किसी मतलब, जरूरत या जानकारी के लिए किसी से बातें भी करता, तो भीतर एक ग्लानि बनी रहती-किन लोगों के धरातल पर उतरना पड़ रहा है। अपनी हर मुद्रा से वह ऐसा जताने की कोशिश करता, जैसे वह उन पर अहसान कर रहा हो, वरना वे इस लायक कतई नहीं हैं, उन्हें उसका आभार मानना चाहिए। लेकिन बदले में जब वे ऐसा कोई भाव न दिखाते, तो उनका टुच्चापन उसके लिए और भी पक्का हो जाता। अपनी समझ में उन्हें इस तरह जलाकर वह और भी मजा लेता और खुद अपनी निगाहों में ऊंचा उठ जाता।
एकाध बार उसे भ्रम हुआ, जैसे कुछ और लोग भी कपड़ों के नीचे ढोल पहने घूम रहे हैं। यानी लड़ाई अब घोषित होती जा रही है और वे लोग भी अपनी तरफ से तैयारी कर रहे हैं। सालों ने छिपाने की तो भरसक कोशिश की है, लेकिन क्या अब कोई उसकी निगाहों को धोखा दे सकता है? वह सबकी नस-नस पहचानता है। ‘नकलची बंदर! ओछे और बेअक्ल!’ इससे एक चीज तो पक्की होती ही है कि उनमें से हर आदमी उसकी तरह का ढोल पहनकर ‘विशेष’ और ‘महान’ बनना चाहता है। और इसीलिए उसकी सफलता पर कुढ़ता है। ‘उल्लू के पट्ठो, मैं तुम सबकी एक-एक की असलियत जानता हूं। अपना तो कुछ नहीं है, नकल ही कर सकते हो तुम। लेकिन मैं भी देखूंगा, कैसे मेरी तरह बनते हो!’ मन होता, उसके पास एक बुलडोजर हो और सबको कमर तक गड़वाकर बुलडोजर चलवा दे...
उसके योद्धा और ‘हीरो’ होने का इससे अधिक प्रमाण और क्या होगा कि लोग उसकी नकल करते हैं। बातचीत, चाल-ढाल सबको उतारने के लिए पागल हैं। यह तो इस ढोल का ही प्रताप है कि वह ईर्ष्या जगा सकता है, फैशन चलाने की ताकत रखता है। अपनी महानता के इस सबूत से जहां उसे बहुत शक्ति मिली, वहीं यह डर भी सताने लगा कि अगर कहीं इन सब सालों ने ढोल पहनने शुरू कर दिए, तो वह कहीं का नहीं रहेगा! लेकिन फौरन ही उसने अपने-आपको समझाया-‘अरे, यह कहीं सबके बस की बात है! इसके लिए बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं और अपने-आपको तपाना पड़ता है। उसने रात-दिन कैसी-कैसी तकलीफें भोगकर, घृणा, उपेक्षा और दया पीकर, हीरो होने का सम्मान पाया है।’ इस हीरो होने वाली बात से उसे अपने प्रति काफी श्रद्धा हुई। मुझ जैसा कमजोर, साधारण, सूखा आदमी भी इस ऊंचाई को प्राप्त कर सकता है, इस पर अचानक ही विश्वास नहीं होता। जरूर इस ढोल में कोई दैवी शक्ति है और इसे सिद्ध करने के लिए कैसे उसने अपने शरीर को तोड़-मरोड़ डाला है। कैसी शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएं सही हैं! और अब क्या कुछ कम हैं! यह तो बाकायदा युद्ध और षड्यंत्र है! इस दृष्टि से विचार करने पर उसे लगा कि वह केवल योद्धा ही नहीं, जीता-जागता ‘शहीद’ है। पैगंबर भी तो इतनी ही तकलीफ भोगते होंगे। उसने हठ-योग साधना जैसा ही काम तो किया है।
योद्धा, निर्वासित, विजेता, शहीद, अब यही सारे शब्द उसके दिमाग में घूमते रहते थे। शीशे के सामने अपने को देखकर खुद ही उसका तन-मन भय से सिहर उठता...उस जैसा साधारण और तुच्छ आदमी कितने महान और ऊंचे आदमी के सामने खड़ा है। इस तरह आमने-सामने खड़ा होना और आंखें मिलाना हरेक के बस की बात है! एक ‘वह’ शीशे के सामने खड़ा होता और एक ‘वह’ औरों के बीच श्रद्धा-भक्ति और भय से गद्गद होकर झुक-झुक जाता। जालसाजी, झूठ, क्रोध और टुच्चेपन से घिरा, लोगों की ईर्ष्या, जलन और उपेक्षा के बीच घुटता, वह ‘महान जीनियस’ बेचारा कितना अकेला और दुखी है! यह सोचकर ही आतंक होता था कि अगर उसमें बुद्धि और शक्ति नहीं होती, तो पता नहीं ये लोग उसका क्या कर डालते?
उसका मिलना-जुलना, बाहर निकलना, सभी कुछ बंद हो गया। उसने तय किया कि उसे खुद ही अपनी महानता की रक्षा करनी पड़ेगी। ऐसी नायाब और गैबी चीज को इन बेवकूफ और घटिया लोगों की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता। ये तो उसे पल-भर में तोड़-फोड़कर ठिकाने लगा देंगे। कभी कोई उससे मिलने आता, तो हमेशा ऐसा चौकन्ना रहता कि कहीं वह उसकी महानता का कोई फुंदना न तोड़ ले। वह उससे एक दूरी बरतता-ज्यादा मुंह लगाने से पास आने की कोशिश करेगा, इसलिए तोल-तोलकर और कम बोलता। हमेशा ढोल पहने रहने और कम चलने-फिरने से शरीर काफी अकड़ गया था, इसलिए कम-स-कम हरकत करता।
क्रमशः उसने पाया कि वह औरों की निगाह में ‘सिद्ध’ होता चला जा रहा है। उनसे निरंतर चलने वाली लड़ाई को महसूस करते हुए भी सह संतोष का विषय था कि वे उसके प्रति सम्मान का भाव रखते हैं। वह जानता था कि दूरी बनाए रखना शुरू में भले ही कष्टदायक हो, लेकिन इसके बाद जो उनके और उसके बीच ‘सेतु’ बनता है, वह श्रद्धा का ही है। कभी उसे अपने पर ही गर्व होता कि कैसा क्षुद्र व्यक्ति कहां पहुंच गया और कभी लोगों पर क्रोध आता कि ये किसी की कीमत नहीं आंक पाते, मर जाऊंगा तब समझ में आएगा कि कैसा ‘महान’ इन नीचों के बीच ही मौजूद था।
जब से उसने ढोल ग्रहण किया था, उसका ज्यादातर सोचना सिर्फ अपने बारे में ही होता था-यानी खुद अपने को लेकर, या उसे लेकर दूसरे जो सोचते हैं। सारे समय इसी उधेड़-बुन और बेनाम-बेचेहरे लोगों को सवाल-जवाब देते-देते उसकी समझ में सचमुच नहीं आता था कि सामने वाले साक्षात् व्यक्ति से क्या बातें करें? अगर सामने वाले चेहरे पर अपने ‘महान व्यक्तित्व’ के लिए श्रद्धा, आतंक या आश्चर्य देखता तो जरूर बोलने में आसानी हो जाती। यह सिद्धि प्राप्त करने कि लिए वह कितनी-कितनी रातें नहीं सोया है। लोगों ने उसके मुंह पर पागल और ढोंगी कहा है। बोलते-बोलते अपने प्रति दया और श्रद्धा से उसका गला भर आता। उस समय वह इस तरह के भाव दिखाता, जैसे किसी और के बारे में बता रहा है। जब तक सामने वाली मुद्रा में श्रद्धा और विश्वास दिखते, वह बोलता रहता। जहां जरा भी अविश्वास दिखता, तो ऐसी चालाकी से चुप हो जाता, जैसे कुछ सोचते-सोचते कहीं खो गया है। मन-ही-मन दांत भींचकर कहता-‘तुम कमअक्ल, इन ऊंची बातों को नहीं समझोगे’-इधर जिस तरह, जिस भाव से लोग आने लगे थे, उससे एक बात तो पक्की हो गई थी कि वह चारों तरफ चर्चा का विषय हो गया है। एक जीता-जागता मिथक और लिजेंड बन गया है।
और इन्हीं सब चिंताओं, सवाल-जवाब और दिमागी उठा-पटक से गुजरने के बाद उसे नींद आना बंद हो गया था। वह पहले अपने ढोल को रात को उतारकर अलग रख दिया करता था, लेकिन जब सोता था, तो उसकी रग-रग दुखती थी। यह सही है कि ढोल उतारने का काम वह एकदम अकेले में, चारों तरफ से खिड़की-दरवाजे बंद करके ही करता था-लेटता, तो सारे समय ढोल की रखवाली करता। इस बात को एक क्षण नहीं भुला पाता था कि उसके और लोगों के बीच एक भयानक लड़ाई चालू है। वे हर समय उसका यह दैवी ढोल चुराने या उसे मार डालने की साजिश करते रहते हैं। वे अब समझ गए हैं कि इस शक्ति का राज क्या है। और रात-बिरात कोई भी घुस आ सकता है। उसे सारी रात चोरों और दुश्मनों की आहटें और खटके सुनाई देते रहते। अगर खुदा-न-खास्ता कोई घुस भी आया, तो अब उसमें इतनी ताकत नहीं थी कि ढोल का बचाव करता, इसलिए गुसलखाने-रसोई तक में उसे साथ ही ले जाता और उसे निहारकर खुश होता रहता। एक और बात पर भी उसका ध्यान गया कि ढोल जब शरीर पर नहीं होता, तब भी उसकी चाल-ढाल ऐसी होती, जैसे वह अभी भी उसे पहने हो...वह सजीव चीज की तरह उस पर प्यार से हाथ फेरता और बातें करता...इधर वह उसे पहनकर ही सोने लगा था। अब बिना उसके अपनी कल्पना भी असंभव लगने लगी थी। वह सोचता था कि बिना ढोल के जब वह खुद अपने को नहीं पहचान पाता, तो मान लो, कभी वह बाहर निकले, तो लोग उसे क्या खाकर पहचानेंगे...लगेगा, जैसे चेहरा बदलकर घूमने निकला है। वह पुराने राजाओं की तरह वेश बदलकर लोगों के बीच घूमने, उनके भीतर की बात जानने के सपने देखा करता। दुनिया में उसके लिए केवल दो ही चीजें सच या सही थीं-वह और ढोल...
‘वह और ढोल...या वह या ढोल...’ एक दिन अचानक ही यह सवाल उसके भीतर उठ खड़ा हुआ। नींद, थकान, द्वंद्व और घुटन के कारण बहुत सोचना तो इस पर असंभव था, लेकिन उसने पाया कि वह औरों की तरह से सोचता है। काल में, स्थानों में घूमता है, लेकिन उसका सारा कुछ इसी ढोल के आसपास सिमट गया है। वह क्या औरों की तरह ‘बाहरी आदमी’ हो गया है, जिसके मन में कहीं ढोल के प्रति दुर्भावनाएं भरी हैं? नहीं, नहीं, ऐसा कृतध्न वह कभी नहीं होगा। मगर तब उसके और ढोल के बीच आपस में संबंध क्या है? उसने अपनी सुरक्षा, सम्मान और शक्ति के लिए एक सिद्धि पाई थी...अब क्या असली ‘वह’ नहीं है?-इस तरह के धुंधले-धुंधले सवाल उसके मन में इधर अक्सर ही उठने लगे थे।
एक बार वह कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकला और उसके घर से अजीब-सी गंध आने लगी। खिड़की, दरवाजे, रोशनदान-सभी बंद थे, तो लोगों ने दरवाजा तोड़ा...बिस्तर पर ढोल सहित वह लेटा था। लोग उससे डरने लगे थे, इसलिए बड़े बहस-मुबाहिसे, हिचक और हिम्मत के बाद नाकों पर रूमाल रखकर पास गए, तो पाया कि कहीं कोई हरकत नहीं है, वह मर गया है! सारी खाना-पूरी तहकीकात के बाद जब अरथी बाहर निकाली गई, तो किसी को पता भी नहीं चल सका कि छछूंदर-जैसा सूखा ‘वह’ कब और कहां सरककर खो गया...बादाम की सड़ी और सूखी मिंगी-जैसी रही होगी।
और तभी एक चमत्कार हुआ-अरथी के फूल और मालाएं फेंक तोड़कर ढोल अचानक उठकर बैठ गया और इस तरह हाथ जोड़कर मुस्कराने लगा, जैसे लोगों के अभिवादन और अभिनंदन स्वीकार कर रहा हो। लोगों में खलबली मच गई...‘राम-नाम सत्य है’ और ‘हरि बोल’ की आवाजें गले में घुट गईं...उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अरथी को फेंक-फांककर चीखें मारते हुए इधर-उधर भागें, या...