तकनीक और डिजिटल आभूषण से चमकती हिन्दी / सुरेश कुमार मिश्रा
हिंदी केवल बोलने, पढ़ने, लिखने या सुनने मात्र की भाषा नहीं है। यह भाषा है हमारी भावनाओं की। यह भाषा है हमारी संस्कृति की। यह भाषा है हमारी गरिमा की। हम इसी में जीते हैं और इसी में मरते हैं। भाषा को कौशलों की सीमा में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। यह तो वह सैलाब है जो दिल से जुबां तक की यात्रा तय कर मुर्दे में भी जान फूँक देता है। हिन्दी को भीड़-भाड़ और अंग्रेज़ी को क्लास की भाषा मानना यह सब हमारी सोच मात्र है। आज हिन्दी तकनीकी और डिजिटल रूप से आगे बढ़ती जा रही है। गूगल आज हिन्दी की महत्ता को भली भांति समझ चुका है। अब वह हर चीज़ हिन्दी में बनाने के प्रति कटिबद्ध है। डिजिटल तकनीक अपने आप में एक ऐसी क्रांति है, जिसने समाज के स्वरूप को ही बदल दिया है। आज आम आदमी भी देश-विदेश एवं समाज में होने वाली घटनाओं से अनभिज्ञ नहीं है और इसका पूरा श्रेय डिजिटल एवं ऑनलाइन संचार को जाता है। डिजिटल एवं ऑनलाइन संचार ऐसी क्रांति है, जो नि: संदेह देश को प्रगति के पथ पर त्वरित गति से ले जा सकती है। इसी का लाभ आज हिन्दी साहित्य उठा रहा है। आज इतनी सारी वेबसाइटें, ब्लॉग हैं कि वे हिन्दी की कथा, कहानी, कविताएँ, निबंध, जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज, संस्मरण, एकांकी, नाटक तथा अन्य विधाओं को सुंदर मंच प्रदान कर रहे हैं।
डिजिटल एवं ऑनलाइन संचार में भाषा का संयम, शब्दों का चयन उपयुक्त होना चाहिए। भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ-साथ दूसरों की भावनाओं का सम्मान भी अवश्य होना चाहिए। ऐसा करने पर ही हिन्दी साहित्य का विकास तकनीकी तथा डिजिटल रूप में हो सकता है। आज रचनाकार, हिन्दी कुंज, कविताकोश, गद्यकोश, प्रतिलिपि जैसे कई साइट इन बातों का ध्यान रखते हिन्दी साहित्य की सेवा में निरंतर लगे हुए हैं। पढ़ने को तो कई किताबें हैं, लेकिन गुलजार के शब्दों में कहना हो तो सारी किताबें अलमारी में पड़े-पड़े अपनी बेबसी पर रो रही हैं। हम यह सोच रहे हैं कि किताबें अलमारी में बंद हैं, जबकि सच्चाई यह है कि हम कहीं न कहीं अपनी मजबूरियों में बंद हैं।
अत: यह प्रत्येक रचनाकार का नैतिक दायित्व है कि उसके संवाद एवं विचार किसी पर व्यक्तिगत आघात न करे। किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत न करें और विशेषकर किसी की शारीरिक कमजोरी को इंगित न करें। ऑनलाइन संचार तकनीक और डिजिटल दुनिया कि एक संवेदनशील प्रक्रिया है।
आज सबको तकनीक और डिजिटल प्लैटफार्म पर स्थान चाहिए। इसके लिए जो चाहा लिख दिया और फेंक दिया दुनिया के मुँह पर। यह कोई कचरने का डिब्बा नहीं है जो चाहा उसमें फेंक दिया। हमें डिजिटल शिष्टाचार की सीमाओं का पालन करना आवश्यक है। आज से साढ़े चार दशक पहले संचार का सबसे सशक्त माध्यम रेडियो था लेकिन अब तो इंटरनेट का जमाना है आज डिजिटल संपन्नता किसी भी देश राज्य संस्था या घर की हैसियत मानी जाती है।
वैसे तो तकनीकी और डिजिटाइज्ड साहित्य में अशिष्टता के कई कारण है, लेकिन कुछ ख़ास कारणों की ओर ध्यान देना आवश्यक है। ऐसा देखा गया है कि आज के रचनाकार अपने सभी तर्को को बेफिजूल की कसौटी पर कसकर देखना चाहते हैं। इस कारण वे कई विकारों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। वे थोड़ी बहुत हिन्दी और कंप्यूटर ज्ञान के बल पर लाइक, शेयर, हिट्स हासिल करन पर आमदा हैं। इससे वास्तविक साहित्यकार की पहचान नहीं हो पाती। यह तकनीक और डिजिटाइज्ड साहित्य के नैतिक पतन का सूचक है। आज रचनाकार साहित्य को ज्ञानार्जन का साधन नहीं धनार्जन का साधन मानते हैं। फलस्वरूप धनार्जन के लिए वे नैतिक मूल्यों को ताक पर रख देते हैं, इससे वास्तविक साहित्यकार की संख्या घटती है और वे सोशल साइट्स पर ईष्र्या द्वेष का बीज बोते हैं। आज डिजिटल और ऑनलाइन मंच पर गुणवत्तापूर्ण साहित्य लाने के लिए आवश्यक है कि मज़बूत क़दम उठाए जाएँ। छुटपन से ही आत्म अनुशासन विकसित करने की कोशिश की जाए। जीवन कौशलों का विकास किया जाए। इससे तकनीकी और डिजिटल संप्रेषण की दुनिया में हिन्दी साहित्य के बढ़ते क़दम की आहट सुनी जा सकती है।