तकनीक और सरलीकरण / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर ने तकनीक को अपने फिल्मकार पर कभी हावी नहीं होने दिया। बात को सीधे और सरल ढंग से बगैर मिर्च-मसाले के उन्होंने कुछ इस तरह फिल्मों में कहा है कि वे दर्शक के सीधे दिल में उतर गई हैं। उन्होंने अपने दर्शक की आवश्यकता तथा सीमा को पहचाना और सदैव सरलीकरण पर जोर दिया। शायद यही वजह है कि उनकी फिल्मों के दृश्य तथा घटनाओं को दर्शक बरसों तक किस्सों की तरह दोहराते हैं।
फिल्म 'श्री 420' में एक गीत है- दिल का हाल सुने दिल वाला सीधी-सी बात, न मिर्ची मसाला कहकर रहेगा कहने वाला...।
राजकपूर की फिल्म की तकनीक इन पंक्तियों की तरह है। बात सीधे दिल से निकले और दिल में पहुँचे। राजकपूर ने तकनीकी जगलरी से हमेशा परहेज बरता-किसी तरह के तकनीकी मिर्च-मसाले का प्रयोग नहीं किया। अपनी अन्तिम चार फिल्मों में केवल एक हाई-स्पीड शॉट-वह भी सत्यम् में बच्ची पर उबलते हुए तेल के गिरने के समय लिया है।
कथा के ताने-बाने बुनते समय राजकपूर ने कभी कैमरा स्थिति या अन्य तकनीकी बातों के बारे में विचार नहीं किया। यह काम वे लोकेशन या सैट पर जाकर ही करते थे। अपने प्रारम्भिक वर्षों में राजकपूर ने सिनेमा के हर विभाग में छोटे से छोटा काम किया था। सम्पादन कक्ष में घंटों मेहनत की और कई वर्ष तक यह सिलसिला चलता रहा। बहुत कम उम्र में ही राजकपूर ने यह जान लिया था कि फिल्म लेखन और सम्पादन की टेबल पर बनती है।
राजकपूर विषय के चयन के मामले में एक रोमांटिक फिल्म मेकर थे, परन्तु तकनीक और प्रस्तुतीकरण के मामले में राजकपूर शुद्ध 'क्लासिस्ट' निर्देशक थे। चौथे दशक के अमेरिकन फिल्म निर्देशकों का उन पर असर था। चार्ली चैपलिन को वे सिनेमा का महानतम जीनियस मानते थे और उनसे बहुत प्रभावित थे। आवारा और श्री 420 में राजकपूर ने चैपलिन का विशुद्ध भारतीयकरण किया। श्री 420 में उन्होंने सड़क के अद्भुत सेट लगाए थे और पृष्ठभूमि में ट्रेन और ट्राम आदि के चलने का प्रभाव खिलौनों से पैदा किया है। इन दृश्यों की गुणवत्ता की प्रशंसा स्वयं चार्ली चैपलिन ने भी की है।
राजकपूर तकनीक के नाम पर कलाबाजी नहीं करते थे। उनके लिए तकनीक मात्र साधन थी, कथा कहने का माध्यम मात्र। उदाहरण के लिए आवारा में पृथ्वीराज के चरित्र के अनुरूप के हर दृश्य में कैमरा इस ढंग से रखा है कि पृथ्वीराज अपने कद से भी बड़े लगते हैं। पृथ्वीजी का विश्वास है कि अच्छे लोगों के लड़के अच्छे और चोर-डाकुओं के बच्चे चोर-डाकू ही होते हैं। फिल्म के जिस दृश्य में उन्हें मालूम पड़ता है कि उनका अपना बेटा आवारा है, उस दृश्य में कैमरा ऐसी जगह रखा गया है कि वे अपने कद से छोटे लगते हैं। राजकपूर के लिए तकनीक का अर्थ था वह साधन जो भाव को तीव्रता और गहराई प्रदान करने में मदद करे। राजकपूर ने कभी कोई शॉट इस उद्देश्य से नहीं लिया कि वह दर्शक को अचम्भित कर दे। उसे चौंधिया दे।
राजकपूर ने तकनीक का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया था। जवानी में ही विदेशों के दौरे किए और अन्तर्राष्ट्रीय सिनेमा का गहरा अध्ययन किया। तकनीक के भरपूर ज्ञान के कारण ही उन्होंने यह भी महसूस किया कि तकनीक को कथा पर कभी । हावी नहीं होने देना चाहिए। साधन और साध्य के फर्क को उन्होंने हमेशा अपने दिमाग में स्पष्ट रखा। उन्होंने कभी 'झूम लैंस' का प्रयोग वहाँ नहीं किया, जहाँ ट्राली का प्रयोग करना चाहिए। भारत के अनेक निर्देशकों ने 'झूम लैंस' का प्रयोग इतना अधिक किया है कि लगता है जैसे किसी नादान बच्चे के हाथ महँगा खिलौना लग गया है और वह उसे तोड़कर ही दम लेगा।
राजकपूर का तकनीक सम्बन्धी दृष्टिकोण समझने में आसानी होगी अगर हम राजकपूर के सरलीकरण को ध्यान में रखें। उन्हें हर चीज को खूब सरल कर प्रस्तुत करने का जुनून था। उन्होंने अपने दर्शक की आवश्यकता और सीमा को ठीक से पहचाना और सरलीकरण पर जोर दिया। एक बार रिकॉर्डिंग रूप में उन्होंने अपने संगीतकार को इलेक्ट्रॉनिक वाद्य यन्त्र के प्रयोग से रोका, क्योंकि जो ध्वनि से पैदा की जा रही थी, उसे शादी का बैंड मास्टर नहीं बजा पाता। जब तक शादियों के बैंड मास्टर किसी फिल्म के गीत को बार-बार नहीं बजाते, तब तक वह गीत अधिक प्रसिद्ध नहीं होता। यह आग्रह केवल बॉक्स-ऑफिस के लिए नहीं था। राजकपूर का विश्वास था सरलता में। कथा के चुनाव को लेकर प्रथम कॉपी तक राजकपूर सरलता, सहजता और रस पर जोर देते थे। इस मामले में राजकपूर उस शुद्ध क्लॉसिक गायक की तरह थे, जो एक भी झूठा आलाप नहीं लेता। उल्टी-सीधी मुरकियों के करतब नहीं दिखाता। श्रोता की 'वाह' की खातिर कोई समझौता नहीं करता। मनोज कुमार भी अत्यन्त सफल निर्देशक रहे हैं, परन्तु एक सीमा तक जाकर वे कलाबाजी में खो गए। तकनीकी जगलरी में वह निर्देशक खोता है, जिसके पास कथा नहीं है या कुछ कहने को नहीं है।
राजकपूर की बॉबी में प्राण, प्रेमनाथ का अपमान करते हैं और उन पर उल्टे-सीधे आरोप लगाते हैं। दूसरे दिन प्राण को लगता है कि उन्होंने होशियारी से काम नहीं लिया और प्रेमनाथ से सम्पर्क तोड़ना ठीक नहीं था। प्राण दूसरे दिन प्रेमनाथ के घर जाते हैं और बड़ी अदा से कहते हैं कि कल उनका बात करने का अन्दाज गलत था। प्रेमनाथ टोककर बोलते हैं- 'नहीं, बात गलत थी'। यही हाल निर्देशक राजकपूर का था-उन्हें बात करने के अन्दाज से मतलब नहीं था उन्हें चिन्ता थी कि बात गलत नहीं होनी चाहिए।
राजकपूर को कॉमिक्स पढ़ने का बहुत शौक था। 'आर्ची' उनकी मनपसन्द कॉमिक्स स्ट्रिप थी। सरलीकरण के प्रति आग्रह यहीं से आया है। इसके अतिरिक्त राजकपूर को लोक-कथाएँ पढ़ने और सुनने का बहुत शौक था। कहावतों और लोक-कथाओं का प्रयोग करने का उनका अपना ढंग था। राम तेरी गंगा मैली के बनते समय राज साहब ने एक लोक-कथा सुनी, जिसमें नकली लंगड़ा बनकर एक ठग राजकुमार से घोड़ा ठग लेता है। तब राजकुमार ठग से कहते हैं कि तुम किसी को यह मत बताना कि तुमने अपाहिज बनकर मुझे ठगा है, वरना लोग अपाहिज पर दया करना बन्द कर देंगे। देखिए इस लोक-कथा को राजकपूर ने राम तेरी गंगा मैली में कैसे प्रयोग किया है। किशन धवन लड़कियों को बहकाकर बनारस के कोठे पर ले जाता है। वह नकली अन्धा बनकर मंदाकिनी को वागेश्वरी के कोठे पर ले जाता है। दृश्य के अन्त में मंदाकिनी किशन धवन से कहती है कि अन्धा बनकर लड़कियों को गुमराह मत करो, वरना समाज में अन्धों को दया नहीं मिलेगी। इस तरह की सरल और शाश्वत सत्य बातों के कारण ही राजकपूर भारतीय जन-मानस के मनभावन कलाकार बने। आजकल के चर्चित निर्देशक तो रोज रात अमेरिकन फिल्मों के कैसेट देखते हैं और इसी चिन्ता में दुबले हुए जाते हैं दर्शक को कैसे चौंधिया दें। भारत के अधिकांश नेता, सम्पादक (अखबारों के), लेखक और निर्देशक यह मानकर चलते हैं कि आम भारतीय कुछ नहीं समझता, वह जाहिल है। सच तो यह है कि आम भारतीय के पास उच्च शिक्षा भले न हो, परन्तु उसके पास जन्मजात समझ है। अच्छे और बुरे की पहचान है। हर आम चुनाव में वह दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। हमारे पढ़े-लिखे लोग ही नहीं जानते कि आम भारतीय हजारों वर्षों से जिंदगी की रणभूमि में बगैर शिक्षा और बाहरी सहायता के हथियारों के भी निरन्तर डटा रहने वाला सैनिक है। राजकपूर इस अपराजेय सैनिक को भली-भाँति जानते थे, क्योंकि वे इस सैनिक के अदृश्य साथी हैं-हर जंग उनकी अपनी लड़ाई है। राजकपूर की यह ठेठ भारतीयता ही उसे अपने समकालीन कलाकारों से ऊपर उठाती है और उसे उसकी सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता देती है।
जिस देश में गंगा बहती है-में एक डाकू का लड़का एक कबूतर को जख्मी करता है। वह कहता है कि वह शिकार करता है, क्योंकि उसे भूख लगती है। राजकपूर ने इस दृश्य में भी एक लोक-कथा का प्रयोग किया है-जान बचानेवाला, जान लेने वाले से बड़ा होता है। कहावतों और पहेलियों का भी भरपूर प्रयोग किया है। ईचक दाना बीचक दाना, (श्री 420) तीतर के आगे दो तीतर (जोकर) दिल का कँवल सबसे सुन्दर (जिस देश...) इत्यादि में चिरन्तन भारतीय पहेलियों और मुहावरों का प्रयोग हुआ है।
राजकपूर सीधी सरल अदायगी के कायल थे, परन्तु उन्होंने तकनीक के महत्व को कभी कम नहीं आँका। आर. के. स्टूडियो की स्थापना के बाद हर फिल्म के बनते समय नए यन्त्र नियमित रूप से खरीदे जाते रहे हैं और यह परम्परा आज भी जारी है। 1954 में ही उन्होंने अपने कैमरामैन राधू करमारकर को लंदन भेजा था-कलर फोटोग्राफी की विधा को समझने के लिए। उस समय राजकपूर 'अजन्ता' कलर में बनाना चाहते थे। अजन्ता नायिका प्रधान ऐतिहासिक विषय था, जिसे बाद में लेख टंडन ने अपने अन्दाज से 'आम्रपाली' के नाम से बनाया। राजकपूर 'अजन्ता' की पटकथा से खुश नहीं थे और निरन्तर सुधार का प्रयास करते रहे।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में सूर्योदय के दृश्यों के लिए लोनी के राजबाग में सैकड़ों दरख्तों को रंग दिया गया था। तकनीक के मामले में राजकपूर 'सीधी-सी बात न मिर्च-मसाला, कहकर रहेगा कहने वाला' के कायल थे अर्थात् बिना तकनीकी जगलरी के सीधे बात के साथ ही 'कहकर रहेगा कहने वाला' अर्थात् जो शॉट लेने का निर्णय कर लिया, तो हर सूरत में उसे लेना है। सत्यम् के बाढ़-दृश्य इतने प्रामाणिक इसलिए लगते हैं कि वे असली बाढ़ के दृश्य हैं और कमर तक पानी में खड़े रहकर लिए गए हैं। दरअसल वे दृश्य बहुत खतरा उठाकर लिए गए हैं, क्योंकि बाढ़ का तेज बहाव यूनिट के सदस्यों को मुसीबत में डाल सकता था। स्वयं राजकपूर कमर तक पानी में खड़े रहकर काम कर रहे थे। जब बाढ़ का पानी उतर गया, तब देखा कि 'सत्यम्' के लिए लगाया पूरा गाँव बह गया-मन्दिर का विशाल सेट लगभग नष्ट हो गया है। राजकपूर ने उस समय भी शूटिंग की जब बाढ़ का पानी उतार पर था, क्योंकि फिल्म में उन दृश्यों की भी आवश्यकता थी।
राजकपूर बड़े खुले दिमाग से फिल्म बनाते थे और निर्माण के साथ ही पटकथा में परिवर्तन भी करते जाते थे। वे 'हार्ड बाउंड और वाटरटाइट पटकथा' जैसी शब्दावली से सर्वथा अपरिचित थे। फिल्म उनके लिए पनडुब्बी नहीं वरन् एक जीवित पारिवारिक सदस्य की तरह थी, जिसका निरन्तर विकास करना उनका कर्तव्य था। शायद इसी कारण वे फिल्म बड़े प्यार से बनाते थे।
संगम का ऊटकमंड का आउटडोर कर वे लौटे थे। उसके पहले भी काफी लम्बे दौर स्टूडियो में हो चुके थे। ऊटकमंड का रश प्रिंट भी आ चुका था और सब लोग बहुत प्रसन्न थे। राजेन्द्र कुमार को लगा कि ऊटकमंड इसके पहले इतना खूबसूरत कभी नहीं लगा-ऐसा लगता है मानो विदेश में शूटिंग की हो। राजकपूर के दिमाग में घंटी बज गई। दूसरे दिन उन्होंने राजेन्द्र कुमार से कहा कि कुछ दिन के लिए यूरोप चलते हैं-छुट्टियाँ भी मनाएँगे और काम भी करेंगे। पटकथा में परिवर्तन करते हैं और सुन्दर की पोस्टिंग लंदन में करते हैं, जहाँ से वह मधुरात्रि के लिए यूरोप जा सकता है। राजकपूर ने कुछ ही दिनों में आवश्यक आज्ञा-पत्र प्राप्त कर लिए और पूरी शूटिंग की व्यवस्था भी हो गई। संगम के पहले के. आसिफ के मित्र ओझा की एक फिल्म की शूटिंग अफगानिस्तान में हुई थी, परन्तु यूरोप जानेवाला संगम का यूनिट पहला भारतीय यूनिट था। तीन माह तक पूरे यूरोप में शूटिंग की। यूरोप से कुछ फिल्मी लोग सहायता के लिए, लिए गए। जब उन्होंने भारतीय कैमरा देखा, तो उन्हें आश्चर्य लगा कि इतने पुराने मॉडल से क्या शूटिंग होगी? राजकपूर ने उन्हें विश्वास दिलाया कि पुराने यन्त्रों से भी वे अच्छा परिणाम देंगे। भारत के तकनीशियन बहुत परिश्रमी और इनोवेटिव हैं। वे अपनी कल्पना शक्ति से यन्त्रों के पुरानेपन की कमी पूरी कर लेते हैं। एफिल टॉवर की शूटिंग के रश प्रिंट देखकर यूरोपियन लोग दंग रह गए। राजकपूर और उनकी यूनिट का दावा सही था।
उन दिनों को स्मरण करते हुए साउंड रिकॉर्डिस्ट अलाउद्दीन खान ने बताया कि स्विट्जरलैंड में उन्हें इश्क हो गया, तो राजकपूर ने उनका काम भी सम्भाल लिया और उन्हें इश्क के लिए यथेष्ठ छुट्टियाँ भी दीं। आर. के. के यूनिट में सभी लोग बड़े प्रेमी जीव थे और जो साथी प्यार में पड़ा हो, उसकी मदद करना अपना धर्म समझते थे। राजेन्द्र कुमार फिल्म में हीरो थे, परन्तु यूरोप में उन्होंने प्रॉडक्शन कंट्रोलर का काम भी किया था।
हिना की शूटिंग भी यूरोप में की गई। विदेशी मुद्रा की बचत के लिए छोटा यूनिट गया था और सभी लोग समानता के भाव से बोझा बाँटते थे। 'बोझा ही बाँटा जा सकता है, हल्कापन नहीं'। (सत्यम् का संवाद) एक दिन यूरोप के एक तकनीशियन ने रणधीर से अगले दिन का प्रोग्राम पूछा। रणधीर कपूर ने उसे बताया कि हीरो के साथ एक सीन करना है। उस विदेशी ने पूछा कि आपका हीरो तो आया नहीं! रणधीर ने बताया कि ऋषि कपूर ही नायक है, जो पिछले दिनों यूनिट का मैनेजर बना हुआ था। विदेशी को बहुत आश्चर्य हुआ और उसने कहा कि कल तुम (रणधीर) कहोगे कि तुम भी हीरो रह चुके हो। रणधीर ने उसे बताया कि पचास फिल्मों में वह हीरो रह चुका है। विदेशी ने यूनिट के लिए चाय बनानेवाली नीतू सिंह की तरफ इशारा करके कहा कि यह मत कहना कि यह लड़की भी नायिका रह चुकी है। जब रणधीर ने उसे बताया कि नीतू चिन्टू की पत्नी है और कई फिल्मों में नायिका रह चुकी है, तब उस विदेशी के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। यह सादगी और भाईचारा उसने कहीं और नहीं देखा था।
राजकपूर ने अपनी कहानियों को दुरूहता से बचाया और तकनीक के मामले में अदायगी पर किसी चीज को हावी नहीं होने दिया। फिल्म निर्माण के सभी विभागों के काम को उन्होंने सीखा था। वे अपने सभी सेट्स को हर कोण से फोटोग्राफ करते थे और उन्हें फिजूलखर्ची सख्त नापसन्द थी। फिल्म निर्माण पर वाजिब खर्च में उन्होंने कभी कमी नहीं की। उनका विश्वास था कि हर रुपया, जो फिल्म में लगाया जाता है, वह परिणामस्वरूप पर्दे पर नजर आना चाहिए। वे उन निर्देशकों में नहीं थे, जो अपने अहं की तुष्टि के लिए सेट लगाएँ और बगैर शूटिंग किए तोड़ दें। उन्होंने गुणवत्ता के साथ कभी समझौता नहीं किया। व्हिस्की में सोडा नहीं और काम में सौदा नहीं...।