तकाजा / गोवर्धन यादव
"तुम कुछ करते क्यों नहीं? कब से कह रही हूँ कि एकाध बार गाँव हो आओ, पर तुम हो कि जगह से हिलने का नाम ही नहीं लेते,"
"क्यों पीछे पडी रहती हो हर हमेशा, कह तो दिया न, कभी चला जाऊँगा,"
"ऐसा कहते-कहते तो बरसों हो गए, पता नहीं कब जाओगे? गाँव में अपना एक खानदानी मकान है, थोडी बहुत ज़मीन भी है, क्या कुछ नहीं होता होगा उसमें, बरसों हो गए, एक दाना भी तुम्हारे भाई ने नहीं भेजा, मैं तो कहती हूँ कि जाकर हिस्सा बंटवारा करवा लो, अगर इसी तरह देर की तो तुम्हारा भाई उस जायजाद पर कुण्डली मार कर बैठ जाएगा और तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगेगा, हिस्सा-बंटवारा हो जाएगा तो हम अपनी ज़मीन बेच कर एक अच्छा-सा मकान तो बना सकेगें, कब तक किराए के मकान में सडते रहेगें,"
रोज-रोज की टिकटिक से बचने के लिए वह एक दिन गाँव जा पहुँचा, जाने से पहले उसने भतीजे-भतीजियों के लिए एक किलो मिठाई का डिब्बा अपने सूटकेस में भर लिया था, मुख्य सडक से चार-पांच किलोमीटर दूर है उसका गाँव, बस से उतरकर वह एक पेड के नीचे यह सोचकर खडा हो गया था कि कोई न कोई आटॊ-रिक्शा मिल जाएगा, उसने एक व्यक्ति से जानकारी लेनी चाही तो उसने पलटकर जवाब दिया कि इस गाँव के लिए कोई आटॊ-वाटॊ नहीं चलते, बात करते समय उसे ऐसा लगा कि यह आदमी तो अपनी जान पहचान का-सा लगता है, उसने अपना परिचय देते हुए कहा कि वह भी इसी गाँव का रहने वाला है, बरसों से शहर में रह रहा हूँ, काम की अधिकता कि वज़ह से गाँव कुछ आना-जाना कम ही हो पाता है, वह जिससे बात कर रहा था, वह संयोग से उसका सहपाठी निकला, वह भी गाँव ही जा रहा था, रास्ता चलते हुए उसने उसके घर के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए बतलाया कि उसकी माँ कई दिनों से बीमार पडी है, वह जब-तब तुम्हारा नाम लेकर कहती है, कि कई बरस हो गए अपने राम को देख हुए, पता नहीं कब आएगा, बस तेरा ही नाम रटते रहती है, तुम्हें कभी अपनी माँ की याद तक नहीं आयी? पता नहीं काम भी काफ़ी पिछड गया है, बडी मुश्किल से तुम्हारा भाई अपनी घर-गिरस्ती चला पा रहा है, उसकी दो बेटियाँ भी जवान हो चुकी है, बेटियों के हाथ किसी तरह पीले हो जाए, इसी सोच में तुम्हारा भाई सूख कर कांटा हो गया है, पहले कितना हट्टा-कट्टा था वह,
, यह सब सुनकर उसे ऐसा लगने लगा था कि वह अभी गश्त खा कर गिर पडॆगा, उसकी आँखॊं के सामने अंधेरा-सा छाने लगा था, हलक सूख आया था, किसी तरह वह गाँव जा पहुँचा लेकिन उसकी हिम्मत घर के अंदर घुसने की नहीं हो रही थी,
संयोग से उसी समय एक लडकी बाहर निकली, देखने में लगता है जैसे बरसों से उसने कंघी-चोटी नहीं की हो, कपडॆ भी उसमे तार-तार हो आए थे, एक नज़र में तो वह उसे पहचान नहीं पाया था, लेकिन उसे देखते ही लडकी ने अपनी माँ को आवाज़ लगाते हुए" माँ, देखो-देखो तो, चाचा आए हैं, कहते हुए वह भाव-विभोर हो गई थी, बस एक आवाज़ में पूरा घर बाहर निकल आया था, सभी के चेहरे पर छाई उदासी देखकर उसकी आँखे भर आयी थीं, बडी मुश्किल से उसने अपने आपको संभाला और उस ओर बढ चला था जिस कमरे में उसकी माँ के कराहने की आवाज़ आ रही थी।