तत्व के तत्व में अँगरेजीबाजों की भूल है / प्रताप नारायण मिश्र
तत्व शब्द का एक अर्थ यह भी है कि 'जिसमें किसी दूसरे का मेल न हो'। पर इसका ठीक-ठीक भेद समझना रेखागणित के बिंदु से भी सूक्ष्म है। यहाँ तक कि परमतत्व परमेश्वर का नाम है 'जोगिन परमतत्वमय भासा'। तत्व का वर्णन मोटी बुद्धि वालों की समझ में आना बहुत ही कठिन है, क्योंकि बहुत काम केवल अनुभव से संबंध रखते हैं। हम कह सकते हैं कि यद्यपि सज्जनों ने दानी, कवि, भारतभक्त इत्यादि और दुष्टों ने सर्कार का द्वेषी एवं इंद्रियाराम इत्यादि शब्द उनके लिए प्रयुक्त किए, पर हमारे प्यारे भारतेंदु का ठीक तत्व किसी ने न जाना।
उनकी साधारण बातों के भीतर वह बातें भरी हैं जो कहने-सुनने में नहीं आ सकतीं। उदाहरण के लिए इसी दोहे को देखिए - भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुयस अथोर। जयति अलौकिक घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर।। इसका अर्थ कदाचित् एक बालक भी कह सकता है। पर उदार बुद्धि के लोग समझ सकते हैं (यद्यपि वर्णन न कर सकें) कि इस दोहे में स्वादु कितना है कि यदि हम इसे परमानंदमय परमात्मा का फोटोग्राफ कहें तो अनुचित न होगा। तिस में भी - घन कोऊ - यह शब्द तो ऐसा है कि बस बोलने का काम नहीं। जितना डूबते जाइए थाह नहीं!
अब हमारे पाठक बिचारें तो, जब कि एक व्यक्ति के एक वचन के भी केवल एक शब्द का तत्व ऐसे वैसों की समझ में आना दुरगम है तो ईश्वर की रचना का एक मुख्य कारण तत्व और तत्व का तत्व समझना बिचारे गौरंड शिष्यों का काम है? नहीं, यह उन्हीं जगन्मन्य हमारे रिषियों का काम था जो जगत् को तृणवत् गिनके मनसा वाचा कर्मणा से ब्रह्ममय हो रहे थे। यह अँगरेजीबाजी की भूल नहीं बरंच पागलपन है जो कह देते हैं कि 'हिंदुओं ने केवल 5 ही माने हैं। उसमें भी जल तत्व नहीं है। उसमें तो दो चीजें मिली हैं। हाँ, अँगरेज बड़े बुद्धिमान हैं। उन्होंने 64 तत्व निकाले हैं।'
हम यह कदापि नहीं कहते कि अंगरेज बुद्धिमान नहीं हैं। यदि बुद्धिमान न होते तो इतनी दूर हम पर राज्य करने कैसे आते? पर हाँ, जो खास आत्मा से समझने के विषय हैं उनको कोई बिचारा हमारे पूज्यपाद रिषियों के मुकाबिले पर कितना समझेगा? कैसी हँसी का विषय है कि तत्व शब्द तो बड़े-बड़े अँगरेजों के मुख से निकलता ही नहीं। लिख के किसी प्रोफेसर से पढ़ा दीजिए। कोई टट्टु कहेगा, कोई टटवा कहेगा, कोई बहुत विचित्र से मुँह बनाके तत्व कह देगा। भला तत्व का तत्व समझना इनका काम है? अब समझने की बात है कि जिस बात को गुरू स्वयं नहीं समझते उसे चेले बिचारे क्या समझेंगे?
हमारे यहाँ पाँच तत्व माने गए हैं। पृथिवी - इससे यह न समझना चाहिए, जिस पर हम लोग रहते हैं, क्योंकि इसमें तो पाँचों का सम्मेलन हैं। पर पृथिवी तत्व उस सूक्ष्म शक्ति का नाम है जिसमें गंध गुण रहता है। गंध भी सुगंध दुर्गंध को नहीं कहते। वह वह शक्ति है जिसमें न्यून से न्यून वा अधिक से अधिक नासिका के द्वारा अनुभव किया जाने वाला गुण स्थित रहता है। दूसरा तत्व, आप जिसे स्थूल भाषा में जल तत्व करते हैं, वह घट्ट-घट्ट पिया जाने वाला पानी नहीं, बरंच रस अर्थात् द्रव गुण, जिसे महा मोटी भाषा में लचक व नजाकत का आधार समझना चाहिए। तेज अर्थात् अग्नि तत्व - यह भी रूप अर्थात् नेत्र से जाना जाने वाले गुण की बोधक शक्ति, वायु - अर्थात् स्पर्श (छूने) के विषय का उद्बोधक गुण, आकाश - अर्थात् यावत् दृश्य और अदृश्य वस्तु के हिलने चलने आदि की अवकाश दायक शक्ति, जिसे शब्द गुण कहते हैं।
जितने पदार्थ हम देखते वा ज्ञानेंद्रियों द्वारा अनुभव करते हैं, सबमें प्रकाश व प्रछन्न रूप से यह पाँचों गुण (कोई न्यून कोई अधिक) विद्यमान रहते हैं। ऐसी कोई दृश्य वस्तु नहीं है जिसमें पृथिवी, तेज, वायु और आकाश तत्व अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध नामक गुण विशिष्ट शक्ति न हो। एक लोहे का ठोस डंडा लीजिए। उसमें छुआ जा सकने का गुण और लंबाई मोटाई देखी जा सकने का गुण, यह दोनों।
वायु और अग्नि तत्व का तो प्रत्यक्ष ही है। पृथिवी का धर्म आपको बहुत ही सूक्ष्म अनुभव से मालूम हो जाएगा, क्योंकि वह उसमें महा प्रछन्न रूप से। यदि उसे किसी महा सुगंधित व दुर्गंधित वस्तु में कुछ दिनों पड़ा रख के निकाल लीजिए और बिल्कुल धो के पोंछ डालिए तौ भी आपको कुछ अनुभव होगा। अब आप समझ सकते हैं कि उस डंडे में यदि सुगंध दुरगंध के धारण की शक्ति अर्थात् पृथिवी तत्व का धर्म न होता तो वह उनको न ग्रहण कर सकता।
यदि हमारे इस कहने पर हँसी आवै तो पृथिवी शब्द का एक अर्थ फैलाव है। सो लंबाई चौड़ाई, मुटाई को भी हम पृथिवी तत्व का बोधक कह सकते हैं। अब जल तत्व न होता तो उस्को गल के पानी सा हो जाने व झुकने आदि की सामर्थ्य कहाँ से आती? और आकाश तत्व की परीक्षा उस पर एक ढेला मार के कर लीजिए। ठन से बोलेगा। नहीं तो ऊपर नीचे और चारों ओर तो आकाश हई है। भीतर का हाल तब खुल जाएगा जब उसमें एक का भी अणु उससे पृथक् करोगे। क्यों, पाँचों तत्व हैं न?