तन मछरी-मन नीर / विवेक मिश्र
हवेली को फूलों से सजते हुए देखकर उसने चश्मा उतारा और उसे रूमाल से ऐसे पोंछने लगी मानो समय पर जमी धूल छुटा रही हो। आज वह फूलों से एक पुरानी हवेली सजवा रही थी। समय कितना बदल गया था, पर लगता था जैसे कल ही की बात है। इन पहाड़ों से सैकड़ों मील दूर, देश के मध्य में, उत्तर मैदानी क्षेत्र और विंध्य पर्वतीय शृंखला के बीच की धरती उसकी अपनी धरती थी, वहाँ की मिट्टी की अपनी ही सुगंध थी, जिसका ज्यादातर हिस्सा पठार और मैदान था, उसी धरती पर, उसका अपना घर था, जहाँ एक हवेली आज से चालीस साल पहले ऐसे ही लकदक सजाई गई थी। अब उसकी नजर धुँधला गई थी, पर वे दिन जस के तस उसकी समृति में रहे आए थे। उसे आज भी याद था...
नेग दस्तूर फेरने को या कहें कि शानो-शौकत दिखाने के लिए विदाई के समय बाकायदा डोली और चार कहार बुलाए गए थे। दुल्हन के बैठते ही डोली हवेली के अहाते से बाहर निकल आई थी। दुलहन की हिचकियाँ डोली के बाहर तक सुनाई दे रही थीं। बाहर खड़ी औरतें विलाप करती चावल और पैसों से वारफेर और न्योछावर कर रही थीं। हवेली के बड़े फाटक तक पहुँचते-पहुँचते डोली की चाल कुछ तिरछी हो चली थी। एक कहार के पाँव में एक पुराना घाव था, जो अब नासूर बन गया था। वह लंगड़ा के चल रहा था, जिसकी वजह से दुलकी चाल से बढ़ती डोली हिचकोले खाती, एक ओर इक्कर हुई जा रही थी। मुंशी रामदीन ने इसे फट्टदीना ताड़ लिया था और लंगड़ा के चल रहे कहार को लगभग दुत्कारते हुए डोली उठाने से मना कर दिया था। उन्होंने उसके सिर से वह स्वाफा भी उतरवा लिया था, जो खास तौर से डोली उठाने आए कहारों के सिर पर बाँधा गया था। कहार लंगड़ाता, बिसूरता भीड़ में पीछे छूट गया था। उस कहार की जगह दूसरे के लगते समय डोली थोड़ी धीमी हुई थी। डोली के भीतर बैठी दुल्हन को भी यह एहसास हुआ था कि अब जिसने डोली को कंधा लगाया है वह मजबूत और लंबा है। अब डोली आगे की ओर झुककर नहीं चल रही थी।
हवेली का फाटक पीछे छूट गया था। साथ ही रोती-बिलखती औरतें, मखाने, बताशे और एक-एक, दो-दो रूपए के कलदार लुटाते आदमी, गेंदे की मालाएँ तोड़कर पत्तियाँ फेंकते बच्चे, फाटक पर बजते ढोलों की आवाज और दरवाजे पर खड़े दुल्हन के पिता फतेह सिंह सहित सब कुछ पीछे छूट गया था।
डोली लगभग एक फर्लांग की दूरी तय करके, ईटों-खड़ंजों वाली ऊबड़-खाबड़ गली से निकलकर, चौड़ी सड़क पर आ गई थी, जहाँ सुर्ख गुलाब के फूलों से सजी सफेद मोटर गाड़ी खड़ी थी। डोली गाड़ी से दस कदम की दूरी पर ही रख दी गई थी। गाड़ी के बाहर खड़ी महिलाओं ने आगे बढ़कर दुल्हन को घेर लिया था।
दुल्हन ने डोली से निकलकर गाड़ी की ओर बढ़ते हुए घूँघट की ओट से देखा था कि चारों कहार पंक्तिबद्ध, डोली और कार के बीच सिर झुकाए शायद बख्शीश की उम्मीद में खड़े थे। गाड़ी में बैठते हुए फिर दुल्हन की नजर उन कहारों पर पड़ी थी। डोली को लंगड़े कहार की जगह कंधा लगाने वाला आदमी अपने सख्त चेहरे के साथ तन कर खड़ा था। उसे देखकर, दुल्हन को कार में बैठते हुए एक जोर की हिचकी आई थी। उसके बाद गाड़ी का दरवाजा बंद हो गया था।
यह तो नाहर था, उसका दूल्हा! ये यहाँ कैसे? और डोली उठाता, ...कहारों के साथ? अचानक ही उसका सिर घूमने लगा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसके साथ यह क्या हो रहा है, अगर यह नाहर सिंह है, तो इसे कोई पहचान क्यूँ नहीं रहा, यह यहाँ कहारों की कतार में है, तो फिर वह कौन है, जो सेहरा बाँधे, स्वाफा पहने, घोड़ी पे चढ़के आया था। घूँघट की ओट में मुँह छुपाए हुए किसके साथ उसकी भाँवर पड़ गई, फेरे हो गए, किसने अपनी कटार की नोक पर सिंदूर रख कर उसकी माँग भर दी, किसके नाम की हल्दी की चुटकी भर कर विदा के समय उसकी भाभी ने उसके गले, छाती और नाभि पर मल दी, किसके नाम पर वह रात भर मंडप के नीचे सिर झुकाए बैठी कलश, धरती, आसमान के तारे, अनंत में फैली दिशाएँ पूजती रही।
यह सब सोचते हुए उसका मुँह सूखने लगा था।
तभी गाड़ी का दूसरी तरफ का गेट खुला और वही परछाईं जो पिछले बीस घंटे से उसके साथ उसका दूल्हा बनकर सारी रस्में पूरी कर रही थी, उसके बगल में आकर बैठ गई। शेरवानी और स्वाफा बदला हुआ था। कपड़ों से ताजे लगे इत्र की खुशबू आ रही थी। अब उसके चेहरे पर सेहरा नहीं था। वही कदकाठी, पर चेहरा बिलकुल अलग, गोरा-लंबोतरा चेहरा, उठी हुई गाल की हड्डियाँ, लंबी नाक, पतली मूँछें।
दुल्हन कुछ कह पाती, उससे पहले ही बगल में आकर बैठे सजे-धजे युवक ने मुस्कराते हुए कहा, 'सुवासिनी जी, हम कई घंटों से साथ-साथ हैं, हमारी शादी हो चुकी है, पर एक मिनट आपसे बात करने का समय नहीं मिला, ...उफ ये रीति-रिवाज, पूजा-पाठ, शादी है या मजाक, ...क्या-क्या नहीं होता? अब भी समझिए कि मेरे मना करने से ही हम बच गए, बच्चों के खेलों की तरह ये नेग खत्म ही नहीं हो रहे थे, ...खैर आपको पता है, फिर भी मैं अपने मुँह से बता दूँ, मैं हूँ कुँ. नाहर सिंह मकड़ोरी स्टेट से, राजपाठ तो नहीं रहा, पर राजा और राजकुमार रह गए और अब आप हुईं हमारी बेगम, ...रानी सहिबा।' ऐसा कहके वह जोर से हँसा।
सुवासिनी को एक जोर का झटका लगा। गाड़ी अपनी जगह से आगे बढ़ गई। किसी ने उसके ऊपर नोटों की गड्डियाँ उड़ा दीं। किसी ने हवा में फायर कर दिए। बच्चे उड़ते हुए नोटों को पकड़ने के लिए पीछे-पीछे भागने लगे। गाड़ी से उड़ती हुई धूल पीछे छूटती चली गई।
रास्ते भर नाहर सिंह अपनी रियासत के बारे में सुवासिनी को कुछ बताते रहे। वह ऊँघती, झपकती, ढुलकती हुई कुछ सुन पाई, कुछ नहीं, पर नाहर ने अपनी तरफ से सब कह दिया था और अब वह विजयी भाव से आगे देख रहे थे।
गाड़ी तीन घंटे के सफर के बाद, जब मकड़ोरी स्टेट की बड़ी हवेली के गेट पर रुकी, तो नाहर सिंह के परिवार की महिलाओं का एक झुंड सिर पर कलश रखे, हाथों में मसहरी, नाज फटकने वाला सूपा, हाथ से हवा करने वाला खजूर का बिजना और सोने के कटोरे में सोन मछरी लिए उनके स्वागत के लिए खड़ा था। दरवाजे के बाईं ओर शहनाई, नगड़िया और रंतूला भी बज रहे थे। दाईं ओर दो आदमी पिंजरे में नीलकंठ लिए खड़े थे, पर सुवासिनी के लिए तो जैसे यह सब एक बिना आवाज की फिल्म थी, जिसके किसी भी दृश्य से वह स्वयं को जोड़ नहीं पा रही थी। उसके भीतर तो कोई और ही रील चल रही थी।
उसने तो अपने मन में जिस नाहर की तसवीर बैठा रखी थी, वह इन नाहर से बिल्कुल अलग थी। साँवले चेहरे पर बिना पलकें झपकाए, सब कुछ बड़े ध्यान से देखती चमकीली आँखें लगातार उसका पीछा कर रही थीं।
वे गर्मियों की शुरुआत के दिन थे, वह टीकमगढ़ अपनी बुआ के यहाँ आई थी, जहाँ बुआ कि बेटी प्रवीणा, जो उसकी बचपन की सहेली भी थी, ने उसे बताया था कि टीकमगढ़ घूमने की बात तो बस एक बहाना भर है। उसे यहाँ इसलिए बुलाया गया है कि मकड़ोरी स्टेट के प्रिंस नाहर सिंह शिकार खेलने के लिए पन्ना के पास के जंगलों में आए हैं और प्रतिबंधित क्षेत्र में हिरन और नीलगाय के शिकार की व्यवस्था खुद उसके पिता, यानी सुवासिनी के फूफा जी ने कराई है और यह सब इसलिए किया गया है कि नाहर सिंह को उसे दिखाया जाना है और यदि सुवासिनी नाहर सिंह को भा गई तो वह बनेगी उनकी पत्नी और मकड़ोरी स्टेट की रानी। तब सुवासिनी ने प्रवीणा की बातों को मजाक समझ के हवा में उड़ा दिया था, पर शाम को ही फूफा जी ने फरमान जारी कर दिया था कि कल सुवासिनी, प्रवीणा के साथ उनके पृथ्वीपुर वाले बाग पर जाएगी। साथ में बुआ जी और उनकी सबसे भरोसेमंद नौकरानी अजिया भी होगी। उन्होंने यह भी बताया था कि वहाँ उनके कुछ खास मेहमान भी आ रहे हैं, जिनका विशेष ख्याल रखा जाना चाहिए।
वे मुँह अँधेरे ही पृथ्वीपुर के लिए रवाना हो गए थे। सूर्योदय होते-होते वे बाग में पहुँच गए। आम, जामुन, अमरूद के पेड़ों से भरा और कनैर, गुड़हल तथा रातरानी की फूलों से लदी झाड़ियों से घिरा बाग किसी कल्पनालोक-सा लग रहा था। हवा में आम, जामुन, महुआ, रातरानी और केवड़े की मिली जुली सुगंध तैर रही थी। कनैर की बालिस्त भर लंबी पत्तियों को जोड़कर बच्चे चटक बाजा बजा रहे थे। बाग से दूर खेतों में कोई बुंदेली में फागुन की लहक में गीत छेड़े हुए था...
आम धर लो, जामुन धर लो, धरलो बाग बगीचा रे। महुआ दाना रस है मोरा, हमऊँ प्रान दै सींचा रे।
सब जीप से उतरकर बाग के बीचों बीच बनी खपरैल से छबी मड़ैयों की ओर बढ़ रहे थे कि सुवासिनी ने बुआ से पूछा, 'ये क्या गा रहा है?' बुआ कुछ कह पाती उससे पहले ही उनके साथ आई नौकरानी अजिया बोल पड़ी, 'बिन्नू जौ कै रओ है कै, जे आम तुमाय हैं, जामुन तुमाय हैं, जे बाग बगीचा तुमाय हैं, सो इन सबन खौ तुम धर लो, लेकिन महुआ के पेड़ सैं गिरे दाने और उनकौ रस हमाऔ है, कायकै जा बाग खों हमने प्रान दै कैं सींचौ है।' अजिया की आवाज में श्रम का गौरव चमक रहा था। सुवासिनी ने पहली बार अजिया की तरफ ध्यान से देखा था। तभी बुआ बीच में बोल पड़ीं, 'और क्या, तभी तो इनका नाम अजिया है, आजी माने दादी, बड़ी-बूढ़ी, जो सब जानती हैं, क्षेत्र के बारे में।'
चारों तरफ बनी मड़ैयों के बीच एक बड़ा-सा अहाता छूटा हुआ था, जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर केले के पेड़ लगे थे, जमीन पर दो मुखी दूबा फैली थी। बीच-बीच में मिर्जापुरी पत्थर के पटियों की बैन्चें पड़ी हुई थीं। अभी सब जने बैन्चों पर बैठे सुस्ता ही रहे थे कि एक भारी-भरकम गाड़ी, बाग के फाटक पर आकर रुकी। बाग का माली, ड्राईवर और बाग में ही रहने वाले परिवारों के दो-एक बच्चे आगंतुकों के स्वागत के लिए बाहर की ओर भागे।
गाड़ी का बाईं ओर का दरवाजा खुला और साँवले रंग का एक लंबा और मजबूत नौजवान, गाड़ी से उतरा। वह अपना परिचय दे पाता कि उससे पहले ही, ड्राईविंग सीट से एक गोल चेहरे वाला अपेक्षाकृत मोटा युवक उतरा और तपाक से बोला, 'ये नाहर हैं, नाहर सिंह, मकड़ोरी स्टेट से। अपना परिचय सुनकर युवक ने थोड़ी झेंप के साथ सिर झुका लिया। उनका सामान तुरत-फुरत, उन खपरैल से छबी मड़ैयों में जमा दिया गया, जो भीतर से किसी होटल के कमरे की तरह सजी थीं।
जब बुआ जी ने उन मड़ैयों में जाकर मेहमानों से भेंट की तो सुवासिनी और प्रवीणा ने केलों के पेड़ों की ओट से उन्हें देखा था। प्रवीणा ने मुस्कराते हुए कहा, 'इतना शर्मीला राजकुमार तो मैंने पहली बार देखा है' इस पर सुवासिनी ने कुछ नहीं कहा पर उसे कहीं ऐसा लगा, जैसे वह उस आगंतुक की सहजता से बँध रही है। यहाँ आने से पहले उसने क्या नहीं सोचा था, उसने तो वे बहाने तक सोच लिए थे, जिनके सहारे उसे इस रिश्ते के लिए मना करना था, पर अब उसे उनमें से कोई बहाना याद नहीं आ रहा था। मेहमानों को दोपहर का खाना खिलाकर बुआ जी निश्चिंत होकर सो गई थीं। प्रवीणा बाग में मटरगश्ती कर रही थी। अजिया चाकरों के साथ शाम की चाय और रात के खाने के बन्दोबस्त में लग गई थीं, पर इस बीच सुवासिनी अनमनस्क हो उठी थी। उसके मन की मेढ़ पर एक चिरैया आन बैठी थी, जो लाख जतन करने पर भी उड़ नहीं रही थी। दूर से उड़के आई एक पड़कुलिया आराम कर रहे मेहमानों की मड़ैया के छप्पर पर आ बैठी थी, सुवासिनी को बिना वजह ही उससे ईर्ष्या हो रही थी, तभी मड़ैया के दरवाजे खट्ट से खुल गए थे और उनके खुलने से अनायास प्रकट हुई आँखों ने सुवासिनी को दरवाजे की ओर देखते हुए देख लिया था। वह जिसका परिचय नाहर सिंह कह कर कराया गया था, ने सुवासिनी को देख कर कुछ कहने की कोशिश की थी, पर सुवासिनी ने उसे जान-बूझकर अनसुना कर दिया था। अब वह निकल कर अहाते में आ गया था। सुवासिनी के कानों में पेड़ों से गुजरती हवा किसी लोक गीत-सी गूँज रही थी। तभी किसी ने पास आकर पूछा था, 'आप पहले यहाँ आ चुकी हैं?' सुवासिनी ने देखा यह वही था, जो अब अहाते को पार करके, केले के पत्तों के बीच से होता हुआ, सुवासिनी के पास आकर खड़ा हो गया था। सुवासिनी ने उत्तर में केवल न में सिर हिला दिया था। उसने फिर अपनी गहरी आवाज में कहा, 'बहुत अच्छी जगह है।' सुवासिनी को अचानक जैसे अपने आस-पास एक थरथराहट महसूस हो रही थी, जिसने उसके चारों ओर बनी किसी अदृश्य दीवार को गिरा दिया। अपने को रोकने की कोशिश करते हुए भी वह कुछ बोल पड़ी थी। उसे लगा था जैसे वह बोल नहीं रही है, पर्त दर पर्त खुल रही है। गा रही है। चहक रही है और दो बड़ी, साफ और निश्छल आँखें उसे इस तरह खुलते हुए, खिलते हुए देख रही हैं, सुन रही हैं।
सुवासिनी खुद नहीं जानती थी कि इतनी सारी बातों का सोता उसके भीतर कहाँ से फूट पड़ा। उसके आस-पास कितने ही जड़ पदार्थ चेतन हो गए थे। धीरे-धीरे धरती पर उतरती संजा के रंग ने बाग को सिंदूरी कर दिया था। उस रंग की हल्की-सी पुट सुवासिनी के गालों पर भी थी। वह कुछ कहते-कहते हँस दी थी, जिस बात पर वह हँसी थी वह अब कहीं नहीं थी, पर वह हँसे जा रही थी। वह इस बात से भी बिलकुल बेखबर थी कि प्रवीणा उसके पास आकर खड़ी हो गई थी, वह हँसे जा रही थी। उसे याद नहीं था कि वह पिछली बार कब इतनी देर तक, इतना खुलके हँसी थी।
तभी अजिया ने उन्हें वहाँ से आवाज दी थी, जहाँ से मठरी-ठेठरों, खुरमों और मालपुओं की सुगंध के साथ धुआँ उठ रहा था। शाम की चाय की तैयारियाँ पूरी हो गई थीं। उसके बाद तो जैसे पड़कुलिया तेजी से समय के दाने चुगने लगी। साँझ भी अपनी सिंदूरी आभा समेटकर चली गई और चाय पीते-पिलाते, बाग में धीरे-धीरे चाँदनी उतरने लगी। अब तक सब आपस में घुल मिल गए थे। सुवासिनी नाहर की पेड़-पौधों की जानकारी देखकर आश्चर्य कर रही थी। वह वहाँ लगे हर पेड़ को उनके स्थानीय नाम से जानता था। हर पेड़ के गुण-दोष भी उसे मुँह-जवानी याद थे। सुवासिनी उसे देखकर सोच रही थी इतना अच्छा भी कोई होता है, क्या?
उस रात कोई लगातार सुवासिनी की नींद पर पहरा देता रहा था। सुबह प्रवीणा ने आकर ठिनकते हुए कहा था, 'ये क्या बात हुई, पाहुने तो बिना मिले ही चले गए।' उसकी बात सुनकर सुवासिनी बिना कुछ कहे ही अपने कपड़े तहाने लगी थी। उसने अपना सारा सामान समेट लिया था, पर फिर भी उसे लग रहा था कि उसकी कोई बहुत जरूरी चीज खो गई है, जिसे वह पूरे बाग में प्रवीणा के आने से पहले ही ढूँढ़ आई थी, पर वह उसे कहीं नहीं मिली थी।
उसकी खोई आस उसे यहाँ ऐसे आकर मिलेगी वह नहीं जानती थी। द्वारचार, अभिनंदन, आरती हो चुकने और दूल्हा-दुल्हन की अलाय-बलाय झाड़ने और काँय उतारने के बाद दुल्हन को गाड़ी से उतार लिया गया था। सुवासिनी का सिर घूम रहा था, वह जिस हवेली के द्वार पर खड़ी थी, उसके चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें थी, जहाँ से बाहर का कोई दृश्य नहीं दिख रहा था। उन दीवारों ने गाँव और हवेली की हवा को अलग कर दिया था। दोनो तरफ की हवा में फर्क था। हवेली के भीतर की हवा में इतर-फुलेल की गंध फैली थी, जो बाहर की ढोर-बछेरू के माटी-गोबर की गंध से बिलकुल अलग थी।
सुवासिनी बहुत कमजोरी महसूस कर रही थी, जो दो औरतें उसे सहारा देकर हवेली के भीतर ले जा रही थीं वे आपस में बतिया रही थीं, 'बड़ी सुकुमारी हैं, कुँअर जी की बहू, कैसे चढ़ेंगी उनकी अटारी।' सुवासिनी नजरें झुकाए आगे बढ़ती जा रही थी। वह सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद जिस जगह पहुँची थी, वह एक आलीशान कमरा था, जिसके बीचों-बीच एक विशालकाय शीशम का पलंग पड़ा था, जिसपर हल्के पीले रंग की रेशमी चादर बिछी थी। सुवासिनी के साथ आई औरतों ने नहा-धोकर तैयार होने में उसकी मदद की थी, ऐसा करते हुए, वे उसकी सुंदरता को आँखों ही आँखों में तोलती रही थीं। वे उसे गुलाबी जोड़े में सजाकर पलंग पर बैठा गई थीं। सुवासिनी उस कमरे की एक-एक चीज बहुत ध्यान से देख रही थी। उसने जिस नाहर को देखा था, उसका यहाँ भी कोई निशान न था। वहाँ जो भी था, सब अपरिचित। वह एक लंबी साँस लेकर कमरे की छत को ताकने लगी थी। छत पर एक विशालकाय, गोलाकार, सोने की फ्रेम में जड़ा हुआ उत्तल दर्पण लगा था। वह उसे किसी सोने के कटोरे-सा लग रहा था, जिसमें कमरे की सभी वस्तुओं के प्रतिबिंब तिर रहे थे, जिनमें एक वह भी थी, निस्पंद, निस्प्राण। उसने अपना सिर घुटनों पर ऐसे रख दिया था मानो किसी ने कत्ल होने के लिए खुद अपनी गर्दन कसाई के काठ पर रख दी हो। थक के चूर हो चुका उसका तन-मन कब नींद के अँधेरे में खो गया उसे पता ही नहीं चला।
जब उसकी आँख खुली तो अँधेरा हो चुका था। उसे लगा कि बाहर कोई करुण स्वर में कवि इसुर का कवित्व गा रहा है - 'एक दिन होत सबइ कौ गोनो, होनो और अनहोनो। जाने परत सासरें साँसउ, बुराऔ लगे चाय नौनो।' यह पँक्तियाँ उसने पहले भी कई बार सुनी थीं, पर आज इन्हें सुनकर उसके जहन में रुलाई भरी आ रही थी। खिड़कियों के बाहर से आती हंडों की रोशनी से पता चलता था कि रात हो चुकी थी। वह सोच रही थी, इस समय यहाँ कौन गा रहा है, इसे? तभी उसे याद आया कि उसके कमरे से जाते हुए उसकी मदद करने आई औरतों ने बताया था कि आज रात हवेली में लोकसंगीत का कार्यक्रम होगा। उसके बाद देर रात मुँह दिखाई होगी, पर दूल्हा उसका मुँह कल सुबह कुल देवी के मंदिर में हाथों की छाप लगने और मौर पूजने के बाद ही देख सकेंगे, क्योंकि हवेली में ब्याह-काज के सारे रीति रिवाजों का बड़ी कड़ाई से पालन किया जाता है, शुभ-अशुभ का, शगुन-अपशगुन का, दिशा-काल तथा मुहुर्त आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है और कुँ. नाहर का समय पंडित के अनुसार अभी सही नहीं चल रहा था, जिसके लिए कल सुबह विशेष पूजा भी रखी गई थी।
बाहर झांझर, करताल और ढोलक जोर-जोर से बज रही थी। अब गायक के साथ कई स्वर लहक-लहक कर इसुर की चौकड़ियाँ गा रहे थे। तभी उसे लगा कि दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है, वह पलंग से उठकर दरवाजा खोल पाती, जिसमें की भीतर से साँकल नहीं लगाई गई थी, वह अपने आप ही आधा खुल गया था।
सामने नीली पतलून और सफेद रंग का कुर्ता पहने वही खड़ा था, जिसकी आँखें रास्ते भर उसका पीछा करती आई थीं, जिससे वह पृथ्वीपुर के बाग में मिली थी, जिसके साथ वह एक बार हँसी थी तो हँसती ही चली गई थी, जिसने विदा के समय एक कहार के हट जाने पर अपना कंधा डोली में लगा दिया था, जिसे वह नाहर समझ कर अपने मन से लगा बैठी थी। उसे देखकर सुवासिनी पलंग से छिटककर खड़ी हो गई। उसने सुवासिनी के सामने हाथ जोड़ लिए। उसके होंठ काँप रहे थे। वह बुदबुदा रहा था, 'मुझे माफ कर दीजिए, आपसे एक बार मेरा मिलना बहुत जरूरी था, सो मैं यहाँ तक चला आया, मैं नाहर नहीं, बिसन हूँ। इस हवेली के बागों को, पेड़ों को, फूलों-फलों को सहेजने वाला, जो बचपन से इसी हवेली में रहता है, पर यहाँ की किसी चीज पर उसका कोई हक नहीं, लेकिन मैं पूरा का पूरा इस हवेली का हूँ, पर मन पर एक बोझ है कि मैं आपका गुनहगार हूँ।'
सुवासिनी सन्न रह गई, उसके भीतर कुछ हरहरा कर टूट गया था, वह उसके गले लग कर फूट पड़ना चाहती थी, पर पलंग के पाए को पकड़कर बैठती चली गई। वह अभी भी हाथ जोड़े खड़ा था। सुवासिनी की आँखों में कई सवालों का बवंडर उठ रहा था। बिसन यह सोच के आया था कि सुवासिनी को सच बता कर वहाँ से चला जाएगा, फिर कभी उसके आगे नहीं पड़ेगा। कुछ भी करेगा, पर हवेली के भीतर का कोई काम नहीं लेगा, पर सुवासिनी की आँखों में उठते तूफान ने उसे सब कुछ भुला दिया था। उसने उठकर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। बाहर ढोल, करताल और झांझर सम पर आ गए थे। वह भी जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया था।
सुवासिनी ने हिलकते हुए पलंग के पाए से सिर टिका दिया, बिना कहे ही उसका प्रश्न हवा में तिर गया था, 'मैंने तो तुम्हें ही नाहर समझा था और...?' बिसन ने दोनों हाथों से सुवासिनी को थामकर उसे जमीन पर ढुलकने से रोकते हुए कहा, 'मेरे पिता इस हवेली के पुराने कारिंदे थे, उनकी जमीन गाँव में कुँवर के रिश्तेदारों के पास गिरवीं थी, जिसे छुड़ाकर उस पर खेती करना, हल चलाना उनका सबसे बड़ा सपना था, उसे छुड़ाने के लिए मेरे पिता ने हवेली से कर्जा लिया था, पर जमीन नहीं छूटी, पैसा कोर्ट-कचहरी में खर्च हो गया और कर्ज पर ब्याज बढ़ता गया, पिताजी उसे चुकाने के लिए हवेली के कामों के साथ, सुबह-शाम खेत में भी काम करने लगे। हमारी जिंदगी जैसे हवेली की धरन हो गई, जिसे छुड़ाने के लिए बिना कुछ कहे-सुने हम गुलामों में तब्दील हो गए।'
सुवासिनी खुद को सँभालती हुई सीधी बैठ गई। बिसन की बात सुनकर उसका दर्द सूखने लगा। बिसन की निश्छल आँखों में हिलोरें लेती भावुकता धीरे-धीरे जमने लगी। उसने जैसे वर्षों बाद अपने मन की अँधेरी कोठरी खोली थी। उसमें से एक साथ चिचियाते हुए कई चमगादड़ उड़ निकले। वह छत को ताकते हुए कहने लगा, 'एक दिन खेत में काम करते हुए मेरे पिता का पाँव बैल के खुर से कुचल गया, घाव गहरा था, पर वह उसकी परवाह किए बगैर काम करते रहे, उनका घाव धीरे-धीरे नासूर बन गया। इलाज के लिए बाहर जाना जरूरी था, पर बिना पैसे चुकाए हम हवेली से बाहर ना तो काम ही कर सकते थे और न ही कहीँ और जा सकते थे।'
बोलते हुए बिसन की साँसें तेज हो गईं। उसकी बातें किसी कराह की तरह उसके भीतर से निकल रहीं थीं। वह सुवासिनी के सामने बैठा अपने मन से निकली चमगादड़ों के पीछे भाग रहा था। वह बोलता जा रहा था, 'मैंने अपनी पढ़ाई हवेली में काम करते हुए ही, सबकी नजरों से बचते हुए की। पिता की सेहत और खराब होती चली गई, उन्होंने काम बंद कर दिया और उनका सारा काम मैंने अपने कंधो पर ले लिया, मैं अपने बाप के कर्जे की पाई-पाई चुका देना चाहता था, सो पढ़ाई बीच मैं ही छूट गई। पिता सिर्फ कभी-कभी कहारों के साथ, डोली उठाने जाते रहे। कुछ दिनों पहले यह भी बंद हो गया, पर कुँअर की दुल्हन की डोली उठाने से जरूरी उनके लिए दुनिया में और कोई काम न था। डोली उठाते वक्त उनके पैर में बहुत दर्द था, डोली के साथ चार कदम चलते ही घाव से खून रिसने लगा, सो अंत में उनकी जगह मुझे ही आपकी डोली उठानी पड़ी।'
सुवासिनी उसे ध्यान से देख रही थी। बिसन अभी और भी बहुत कुछ कहना चाहता था पर अचानक सीढ़ियों पर हुई आहट से बिसन और सुवासिनी चौंककर एक झटके से खड़े हो गए थे। वह दोनों ही ऐसे समय में, एक कमरे में होने के जोखिम को जानते थे। बिसन दरवाजे की ओर बढ़ने को ही था कि सुवासिनी ने उसका हाथ थाम लिया था। उसके मुँह से निकला था 'मुझे यहाँ बहुत डर लग रहा है।' बिसन ने उस समय इतना ही कहा था, 'हम जमीन की धूरा-माटी हैं, कौनउँ जोग्य नईं हैं, हम।' ऐसा कहते समय उसकी आवाज काँप उठी थी और वह तेजी से कमरे से बाहर चला गया था।
सुवासिनी अभी अपने आपको सँभाल भी नहीं पाई थी कि कुँ. नाहर की माँ चार-छ औरतों के साथ कमरे में आ गई थीं। मुहुर्त के अनुसार उसकी मुँह दिखाई का समय हो गया था। अभी तक खिड़कियों के बाहर से छनकर आते प्रकाश की मद्धिम रोशनी में उदास कमरा अचानक, कई बल्बों की रोशनी से जगमगा गया था। उसे पलंग पर बिठाकर सभी ने घेर लिया था। वे सब अपने अज्ञान में प्रसन्न, लोक-लाज, रीति-रिवाज की बेड़ियों में बँधी, कीमती कपड़ों-गहनों के नीचे अपने-अपने दुख-दर्द छुपाए, काँच के टूटकर बिखरने जैसी खनकती आवाज में हँसती हुई औरतें थीं। वे मन ही मन सुवासिनी को बहुत भाग्यशाली समझ रही थीं और उससे ईर्ष्या भी कर रही थीं, जो रह रहकर उनकी तंज भरी बातों में छलक रही थी।
सुवासिनी को सबसे पहले उस सोने के कटोरे में भरे पानी में अपना मुँह देखना था, जिसमें सोनमछरी सुबह से पड़ी छटपटा रही थी। दुल्हन का अपने चेहरे की छाया में सोनमछरी को देखना एक अच्छा शगुन माना जाता था, या शायद उसे इस बहाने से उस कटोरे में उसके भविष्य की छाया दिखाकर कहा जाता था कि अब वह सोने की दीवारों में कैद है, पर यह सब बातें वहाँ उपस्थित औरतों के लिए कोई मायने नहीं रखती थीं। वे यह सब कुछ पूरे मनोयोग से करती थीं क्योंकि ये सदियों से होता आया था। सुवासिनी ने काँपते हाथों से कटोरा थाम लिया था। उसमें पड़ी मछली निढाल थी। वह हिलडुल नहीं रही थी। अभी सुवासिनी अपना चेहरा कटोरे में देखने को झुकी ही थी कि खटाक से कमरे का दरवाजा खुल गया था। नशे मे धुत्त कुँ. नाहर सिंह अचानक कमरे में आ गए थे, सुवासिनी के हाथ से कटोरा छूट गया था, सोनमछरी छिटककर कर फर्श पर गिर गई थी। पहले से अधमरी मछली दो-एक बार तड़प कर शांत हो गई थी। नाहर सुवासिनी को घूर रहे थे। नाहर की माँ आँखें फाड़े मछली को देख रही थी, घोर अनर्थ हो गया था। वह नाहर को कुछ बताना, कुछ समझाना चाहती थीं, पर जिस मुद्रा में वह वहाँ उपस्थित हुए थे, उसमें हवेली की औरतें मर्दों का रास्ता नहीं काट सकती थीं, जैसे हवेली का कोई अलिखित नियम था। ऐसे में वे उनसे कोई सवाल नहीं पूछ सकती थीं। इसलिए माँ के साथ बाकी औरतें भी धीरे-धीरे सरकतीं कमरे से बाहर निकल गई थीं। जाते हुए उन्होंने दरवाजा भेड़ दिया था।
कुँ. नाहर की लंबी नाक के नीचे, पतली मूँछें टेढ़ी होकर उनके चेहरे को विकृत कर रही थीं। इस समय सुवासिनी भी उनके लिए कमरे में उपस्थित उनके एशोआराम के अन्य समान की तरह ही थी, जिसे वह जैसे चाहे बर्त सकते थे। कमरे की छत पर लगे सोने की फ्रेम वाले उत्तल दर्पण में पलंग का प्रतिबिंब काँपने लगा था। हवेली के अहाते में अभी भी कोई गीत की तान छेड़े हुए था। सुवासिनी का शरीर अचानक हुए हमले से काठ की तरह अकड़ गया था। नाहर ने उसके रूप को रौंदना शुरू कर दिया था। यह समय उसकी देह से परे कहीं एक ऐसा छेद किए दे रहा था, जिसका शायद इस जीवन में भर पाना मुश्किल था। पीड़ा से निकलती चीखें भी गीत की तान और ढोल की थापों से सुर मिला रही थीं। उस पर होती चोटें उसकी देह को छेद कर पार निकल रही थीं। देह एक शिकंजे में कसी हुई लहुलुहान हो रही थी। पलंग पर बिछी पीली चादर खून से सन गई थी। न जाने उसे ऐसा क्यूँ लग रहा था कि गीत गाने वाली जो आवाज उसके कानों से टकरा रही है वह बिसन की है, जो उसकी देह पर होते आघातों से लगातार टकराती, उसके दर्द से, उसकी हूक से जुड़ के गा रही थी... वह राजसी ठाठबाट से चौंधियाता कमरा किसी अँधेरी सुरंग में तब्दील हो गया था। गीत अँधेरे से लड़ता हुआ उस सुरंग तक पहुँच रहा था...
सौनो नाहिं खै हैं, चाँदी नाहिं खै हैं,पानी की मछरी, पानी में रै हैं। सोनमछरी हो चाहे जौन मछरी, सोने के कटोरा में मर-मर जै हैं।
धीरे-धीरे कमरे के बाहर से आता स्वर दूर होता हुआ, अँधेरे में डूब गया था। दर्पण में काँपता बिंब थिर हो गया था। कमरे के फर्श पर पड़ी मछली अब तक सूखकर सख्त हो गई थी।
सुबह होते-होते सुवासिनी की देह बुखार से तपने लगी थी। उसी समय नाहर की माँ ने टीकमगढ़ सुवासिनी की बुआ के घर यह खबर भेज दी थी। सुबह होने वाले पूजापाठ में नाहर ने शामिल होने से मना कर दिया था, पर सुवासिनी को ऐसी हालत में भी नाहर की माँ और बिरादरी की तमाम औरतों के साथ कुआँ, बावड़ी, नहर, तालाब, मंदिर सब जगह माथा टेकते हुए घूमना पड़ा था। सबसे आखिर में उन्होंने जिस बावड़ी पर माथा टेका था, उसके बारे में औरतें आपस में बातें कर रही थीं कि इस हरे पानी की बावड़ी, जो कि पाँच हाथी डुब्बाँ गहरी है, में कछुए, घड़ियाल और बड़ी-बड़ी मछलियाँ रहती हैं। इसमें ज्यादा गहरे जाने पर, कछुए टाँग पकड़कर खींच लेते हैं। इसी बावड़ी के दूसरे छोर पर बैठा कोई गा रहा था। सुवासिनी ने उस आवाज को पहचान लिया था। यह वही आवाज थी जो कल रात उसके दर्द की थाप पर तड़प कर गा रही थी। सुवासिनी ने नजर उठा कर देखा तो यह सचमुच बिसन ही था। वह एक गीत की तान लिए, आसमान में उड़ते किसी अदृश्य परिंदे से लेकर जमीन तक एक लकीर खीचने की कोशिश कर रहा था। उसे देखते ही सुवासिनी का सब्र जवाब दे गया था। उसकी छाती से पीर का फव्वारा फूट पड़ा था। वह वहीं उल्टियाँ करती हुई गश खाकर गिर पड़ी थी।
जब उसे होश आया तो वह वापस हवेली के उसी कमरे में थी, जिसकी छत पर गोल दर्पण लगा था। सोने-सा चमकता सुवासिनी का चेहरा, हल्दी-सा पीला पड़ गया था। उसके सामने उसकी बुआ के घर, टीकमगढ़ से आई उनकी सबसे भरोसे की नौकरानी अजिया खड़ी थी। वह उठकर, अजिया के गले लगकर जी भरके रोना चाहती थी, पर वह हिल भी नहीं सकी। उसकी देह दर्द से पक गई थी। अजिया ने सहारा देकर उसे पलंग पर बैठा दिया। उसकी आँखों से पानी बह रहा था। तभी अजिया ने उसे एक कागज थमा दिया था और अपनी अनुभवी आँखों के इशारे से आश्वस्त करते हुए कहा, 'मैं जान गई, तुमाओ दुख, ...जो बिसन ने दई।'
'सुवासिनी जी कल रात की सारी बात मुझे हवेली की नौकरानी से पता चल गई है। उसके बाद लगातार कुछ है जो मेरे मन में उबल रहा है, भीतर एक आग-सी जल रही है। कल रात मुझे अपनी बात अधूरी छोड़कर ही आना पड़ा। मैं आपको बताना चाहता था कि उस दिन पृथ्वीपुर में जब कुँअर के दोस्त ने मेरा परिचय नाहर सिंह कहके कराया, तभी मुझे समझ आया कि मुझे यहाँ किसलिए भेजा गया है। कुँअर अपने विदेशी दोस्तों के साथ हिरन के शिकार पर थे, उन्होंने बस इतना ही कहा था कि तुम ये कपड़े पहनो और इनके साथ पृथ्वीपुर चले जाओ। ऐसी कितनी ही बातें हैं जिन्हें हवेली कहके भूल जाती है, पर बातें कहीं न कहीं रही आती हैं। उन बातों का हिसाब हम सबको चुकाना पड़ता है। मैं एक मजदूर का, एक किसान का बेटा हूँ। मैंने कभी आसमान के सपने नहीं पाले, पर मैं भी सुनता, सोचता, समझता हूँ। मैं आपका गुनहगार हूँ। उस रोज ही, पृथ्वीपुर के बाग में मैं आपको सब कुछ बता देना चाहता था, पर कुँअर के मित्र ने इसे भाँप लिया था और सुबह बिना किसी से मिले दरबान को बता कर हमें वहाँ से उसके साथ निकल जाना पड़ा। मैंने अभी तक का अपना पूरा जीवन एक ऐसे कर्ज को उतारने में लगाया है, जो मैंने नहीं लिया था, पर मैं आपका कर्जदार हूँ। आप जो कहें सो मैं करने को हाजिर हूँ।'
सुवासिनी फफक पड़ी थी, 'अब क्या हो सकता है?' अजिया ने ढाँढ़स बँधाते हुए कहा, 'बेहोशी के हाल में बौई बिसन अए तुमें हवेली तक छोड़कैं गओ, मैं तो बाय देखतै जान गई ती कि मोई बिन्नू के संग अन्याय भओ है, जा बात हमै पैलऊँ अई पतौ चल जाती जो तुमाइ गुंइयाँ, प्रबीना बहनी तुमाय ब्याव में आँईँ होतीं, कैसो समओ है कै बाप-मताई जिन मौड़ियन खों फूलन सौ पालत, उनईँ के लाने ब्याव के बाद, उनके द्वारे बंद हो जात, पर लुगाइयन के लाने जा दुनिया में बस जेई दो द्वारे नईं बने। तुम तनक हिम्मत रखौ।'
अजिया की बात ने सुवासिनी के मन की अँधेरी कोठरी में एक दीया जला दिया था। अजिया ने सु्वासिनी को कोई देशी दवाई दी और उसे आराम करने के लिए कहकर वहाँ से चली गई। बाहर निकलते ही उसने घोषणा कर दी थी कि दुल्हन को माता निकली हैं, इसी कारण उन्हें इतना तेज बुखार है, उससे बिना पूछे कोई उनसे नहीं मिलेगा, नहीं तो उसे भी माता के कोप का भाजन बनना पड़ेगा। ब्याहशादी के रस्मरिवाज के ठीक से पालन न होने के कारण देवी रुष्ट हुई हैं। अब माता के सिराने तक, बिन्नू के बुखार उतरने तक सुवासिनी का सारा काम वही करेगी। उसे रोज सूर्योदय से पहले उसके लिए कुछ जड़ियाँ बाग से ताजा तोड़कर लानी होंगी।
दो-तीन दिन के आराम के बाद सुवासिनी के शरीर में थोड़ी शक्ति का संचार हुआ था, पर उसकी आँखों में नींद अभी भी जम नहीं पा रही थी, अक्सर रात को तीसरे पहर उसकी नींद उचट जाती और वह कमरे की खिड़की पर जा खड़ी होती। वह उसी ओर देखती रहती जहाँ बागों के बीच एक मड़ैया के बाहर रात भर एक दीया टिमटिमाता रहता।
सुवासिनी की तबियत थोड़ी-सी सुधरने लगी थी, जिससे हवेली का माहौल भी बदलने लगा था। एक-दो खास नौकर-चाकर उसके कमरे में जाने लगे थे। अजिया लगातार भोर में उठके बाग में जाती, बिसन की मदद से जड़ी चुनती और सुवासिनी के जागने से पहले हवेली वापस आ जाती, जिस कागज में अजिया जड़ी लाती, उसी में बिसन सुवासिनी के लिए कुछ अक्षर रख देता। बाग से हवेली तक अजिया ने अक्षरों का एक सेतु बना दिया था, जिस पर तमाम संवाद तिरने लगे थे। प्रेम आग है तो दुख उस आग को भड़काने वाला घी। दुखों ने प्रेम की ज्वाला को प्रचंड कर दिया था। इस आग में तपती सुवासिनी तमाम दुखों के बाद भी एक अनजानी आस में मुस्कराने लगी थी। जड़ी से ज्यादा बिसन के अक्षरों ने उसपर असर किया था, पर उन अक्षरों से बने संवाद ने एक तड़प भी पैदा कर दी थी। वह तड़प शाश्वत होते हुए भी अनंत थी। उसका ओर-छोर ढूँढ़े नहीं मिल रहा था और वही तड़प एक रात तीसरे पहर सुवासिनी को बागों की ओर खींच ले गई थी। उस रात रातरानी खूब फूली थी, पूरा बाग उसकी खुशबू से बौराया नाच रहा था। उस रात प्रेम दुखों से जीत गया था। उस दिन सुबह पहली बार सुवासिनी को किसी ने गुनगुनाते हुए सुना था। उसके होठों पे वही गीत था, 'पानी की मछरी, पानी में रै हैं...'
पर हवेली और बाग के बीच की हवा बहुत दिनों तक रातरानी से महकती हुई नहीं रह सकी थी। किसी कारिंदे ने नाहर की माँ के कान में कहा था कि उसने नाहर की बहु जैसी किसी छाया को रात के तीसरे पहर बाग में एक लंबे आदमी की छाया के साथ देखा है। उसके बाद हवेली के आँख-कान सतर्क हो गए थे। अजिया की गतिविधियों पर भी खुफिया नजर रखी जाने लगी थी। एक दिन नाहर भी कमरे में आकर सुवासिनी की सेहत का जायजा ले गए थे और अब तो एक पंद्रहिया बीत जाने पर सुवासिनी के चारों ओर माता के प्रकोप के भय से बना वह कवच भी हट गया था, जिसने नाहर को सुवासिनी से दूर रहने के लिए मजबूर कर दिया था।
तभी एक दिन सूर्योदय से पहले हवेली के दरबानों, कारिंदों के एक झुंड का हाँका-सा उठा। उन्होंने किसी साये को बाग की ओर भागते हुए देखा था। उन्होंने बाग के दूसरे छोर पर बनी हरे पानी की बावड़ी से सौ गज पहले तक उसका पीछा किया था, पर इससे आगे बढ़ने से पहले वे ठिठक कर रह गए थे। उन्होंने जो देखा था उस पर उन्हें यकीन नहीं हो रहा था। उस साए ने पाँच हाथी डुब्बाँ, कछुओं और घड़ियालों वाली हरे पानी की बावड़ी में छलाँग लगा दी थी। हाँका करता, साए को दौड़ाने वाला कारिंदों का झुंड वहाँ से धीरे-धीरे बावड़ी की ओर बढ़ा था। बड़ी टॉर्चों और लालटेनों की रोशनी में उन्होंने देखा था कि बावड़ी के पानी की सतह पर सुवासिनी की चुन्नी तैर रही थी। हवेली में हाहाकार मच गया था। नाहर की बहू ने बावड़ी में कूद कर जान दे दी थी।
बावड़ी के दूसरे छोर से सूरज की किरनें पानी में उतर रही थीं। सौ गुणा सौ मीटर पाट के फैलाववाली बावड़ी में कई जगह बाँस-बल्ली, जाल-रस्सी डाले गए थे, पर कहीं कुछ नहीं मिला था। कोई कह रहा था कि एक अंदरूनी नाला बावड़ी में खुलता है और इस मौसम में नाले में पानी कम होने के कारण पानी उल्टा बावड़ी से नाले की ओर बहने लगता है। उस नाले में फँस जाने पर कुछ भी नहीं मिलेगा। कई तैराक डूबा साध कर बहुत नीचे तक हो आए थे। बाहर आकर उन्होंने बताया था कि बावड़ी जितनी वे समझते थे, उससे कहीं ज्यादा गहरी थी। वे कह रहे थे कि पाँच हाथी, पाँच ऊँट भी तराऊपर खड़े होकर बावड़ी की थाह नहीं पा सकते थे।
तभी किसी ने याद दिलाया कि बिसन कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। तब बिसन के बाप ने बताया था कि वह आजकल रोज भोर में उठके बावड़ी के दूसरे छोर पर जड़ी लेने जाता था। कारिंदे कह रहे थे कि तब तो जरूर उसने दुल्हन को बावड़ी में डूबते हुए देखा होगा, पर वह है कहाँ? कहीं वह दुल्हन को बचाने के लिए दूसरे छोर से बावड़ी में तो नहीं कूद पड़ा। यह सुनते ही बिसन का बाप अपना पाँव पकड़कर बैठ गया था। अचानक उसके पैर के नासूर में जोर की टीस उठी थी और वह जोर-जोर से कराहने लगा था।
पहाड़-सा दिन तिल तिल करके बीता था। रात में भी चार आदमी बावड़ी का पहरा देते रहे थे। हवेली के प्रभाव में पुलिस भी अपनी खानापूरी करके चली गई थी। दूसरे दिन फिर सुबह की पहली किरन के साथ, जोरों का हल्ला शुरू हो गया था। सभी लोग भागकर बावड़ी के आस पास इकट्ठे हो गए थे। बावड़ी के दूसरे छोर पर दक्खिनी कोने में, जिस ओर देवी का एक छोटा मंदिर भी था, एक गुलाबी कपड़ों में लिपटा शव तैर रहा था। उसके कपड़े से फटे हुए थे। उसे मछलियों ने जगह-जगह से खा लिया था। यह सुवासिनी का वही जोड़ा था जो उसने अपनी मुँह दिखाई के समय सोनमछरी देखते समय पहना था। हालाँकि छत-विछत, आधे-पौने हो चुके शव को पहचानना मुश्किल था, पर कपड़ों से अंदाजा लगाया गया था कि यह शव सुवासिनी का ही है। दो दिन तक बिसन के न मिलने पर, इस बात पर भी सभी को यकीन हो चला था कि जरूर बिसन सुवासिनी को बचाने के लिए बावड़ी में कूदा होगा जिसे इस छोर के झुटपुटे के कारण लोग देख नहीं सके होंगे। कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि उसने सुवासिनी को बचाते हुए अपनी जान देकर, हवेली का कर्ज उतार दिया था। पर एक बात, जो किसी के समझ नहीं आ रही थी, वह यह थी कि रात दिन सुवासिनी के साथ रहने वाली अजिया के रहते यह कैसे हो गया और उसके बाद अचानक वह कहाँ गायब हो गई। वह न मकड़ोरी स्टेट की हवेली में थी और न ही टीकमगढ़ के अपने पुराने ठिकाने पर।
चालीस साल बीत जाने के बाद भी कोई नहीं जानता था कि अजिया कहाँ गई, सिवाय उन दोनों के जिन्हें हवेली ने मरा हुआ मान लिया था, जो उस रात मकड़ोरी स्टेट के बागों को, बुंदेली पठारों की छाती पर बहती बेतवा, केन, बागहिन, टोंस, चेलना, उर्मिल जैसी नदियों को, उनको छूकर बहती हवाओं को, उनपर सवार गीतों को बहुत पीछे छोड़कर, अपने प्यार को परवान चढ़ाने के लिए, अजिया की कुर्बानी की टीस सीने में लिए अनजानी दुनिया के सफर पर निकल गए थे।
उस दिन सुवासिनी नहीं, अजिया बावड़ी में डूब मरी थी।
सुवासिनी और बिसन अब सुवासिनी और बिसन नहीं रह गए थे। वे दो ऐसे चेहरे थे, जिनके चेहरे में कोई भी प्यार करने वाला अपना चेहरा देख सकता था। उनके मन में अजिया हमेशा बैठी रहती, जो हर समय उन्हें ठेठ बुंदेली में जीवन के नए पाठ पढ़ाती रहती थी।